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आसवन (Distillation in hindi) आसवन विधि की परिभाषा क्या है ? किसे कहते है , किसका शोधन करते है ?

(Distillation in hindi) आसवन विधि की परिभाषा क्या है ? किसे कहते है , किसका शोधन करते है ? किस धातु को शुद्ध किया जाता है ? distillation process in hindi or method used in ?

आसवन (Distillation) : जब किसी द्रव में घुलनशील ठोस अशुद्धियाँ घुली हुई होती है तब यह प्रक्रिया काम में ली जाती है , पदार्थो के शुद्धिकरण में काम आने वाली यह विधि काफी प्रचलित है।

इस प्रक्रिया में वाष्पन और संघनन दोनों ही प्रक्रिया काम में ली जाती है। याद रखिये कि यह पदार्थो के शुद्धिकरण के लिए काम में ली जाने वाली भौतिक विधि है अर्थात इस प्रक्रिया में किसी प्रकार की कोई रासायनिक अभिक्रिया भाग नहीं लेती है।
आसवन विधि : जब किसी द्रव में घुलनशील ठोस अशुद्धि उपस्थित होती है तो मिश्रण को गर्म किया जाता है जिससे द्रव वाष्पित हो जाता है और द्रव की इस वाष्प को आगे अन्य किसी पात्र में एकत्रित करके ठंडा (संघनन) किया जाता है जिससे यह द्रव शुद्ध अवस्था में प्राप्त हो जाता है और चूँकि ठोस पदार्थ वाष्पित नहीं हो सकता है इसलिए यह उसी पात्र में रह जाता है , इस प्रकार द्रव और ठोस अलग हो जाते है , इस प्रक्रिया को आसवन कहते है।
उदाहरण : जब जल में घुलनशील ठोस अशुद्धियाँ उपस्थित रहती है तो उसका शुद्धिकरण आसवन विधि द्वारा ही किया जाता है , अत: जल का आसवन एक उदाहरण है।
आसवन विधि की सम्पूर्ण प्रक्रिया को इस चित्र में दर्शाया गया है –
चित्रानुसार आसवन विधि में निम्न सेट उप होता है , एक पात्र में द्रव भरा हुआ है जिसे हमें शुद्ध करना है अर्थात इसमें द्रव और उसमें कुछ ठोस घुलनशील अशुद्धियाँ है , अब इस पात्र को गर्म करते है जिससे ताप पाकर द्रव उबलने लगता है और वाष्पित होने लगता है अर्थात द्रव की वाष्प बनने लगती है , यह वाष्प नली द्वारा आगे अन्य पात्र से जुडी हुई है , इस नलिका को ठंडा रखा जाता है जिससे जब इसमें वाष्प आती है तो यह नलिका उस वाष्प को ठण्डा कर देती है जिससे वाष्प पुन: द्रव में बदल जाता है और यह द्रव हमें दूसरी तरफ उपस्थित पात्र में प्राप्त हो जाता है , इस प्रकार शुद्ध द्रव और ठोस अशुद्धियाँ अलग अलग पृथक हो जाती है , इस प्रक्रिया को आसवन कहते है।
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धातुओं का शोधन अथवा शुद्धिकरण (refining or purification of metals)

विभिन्न विधियों से धातुओं को निष्कर्षित करके फिर उनका शुद्धिकरण अथवा शोधन करवाया जाता है। क्योंकि अपचयन द्वारा प्राप्त इन धातुओं में अब भी कई अशुद्धियाँ रहती है। कई बार तो ये अशुद्धियाँ ही काफी कीमती होती है एवं धातु के साथ उपयोगी सहउत्पाद के रूप में ये कीमती धातुएं प्राप्त होती है। धातुओं के शोधन की प्रमुख रूप से दो प्रकार की विधियाँ होती है –

भौतिक और रासायनिक , जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार है –

  1. भौतिक विधियाँ:

(i) द्रवीकरण (liquation) : टिन , लेड और बिस्मथ जैसी शीघ्र द्रवित होने वाली धातुओं का शुद्धिकरण इस विधि द्वारा संपन्न कराया जाता है। अशुद्ध धातु का चार्ज के रूप में एक ढलवा सतह वाली भट्टी पर डालते जाते है। भट्टी के उच्च ताप पर धातु पिघलकर ढलवां तल पर बहती जाती है एवं निचे रखे पात्र में एकत्रित होती जाती है जबकि अशुद्धियाँ वही तल पर ही रह जाती है।

(ii) आसवन (distillation) : जिंक , मरकरी और आर्सेनिक जैसी कम क्वथनांक वाली धातुओं का शुद्धिकरण आसवन द्वारा करवाया जाता है। ये धातुएं शीघ्र ही वाष्पीकृत हो जाती है जिन्हें संघनित करके शुद्ध अवस्था में प्राप्त कर लिया जाता है जबकि अशुद्धियाँ आसवन पात्र में ही रह जाती है।

(ii) वितरण (distribution) : इस विधि के द्वारा सिल्वर और गोल्ड को लेड से पृथक किया जाता है। यह विषमांगी साम्य या प्रावस्था नियम पर आधारित है। 1-2% जिंक को पिघले हुए लेड मिश्रित सिल्वर या गोल्ड में मिलाकर उसे भलीभांति हिलाया जाता है। Zn-Ag या Zn-Au मिश्रातु सतह के ऊपर आ जाता है एवं लेड की तुलना में वह पहले जम जाता है। इस ठोस में से जिंक को वाष्पीकृत करके निकाल दिया जाता है एवं इस प्रकार शुद्ध सिल्वर या गोल्ड प्राप्त हो जाता है। वितरण की यह विधि पार्के विधि (parkes process) भी कहलाती है।

(iv) प्रभाजी क्रिस्टलन या खंड परिष्करण (fractional crystallization process or zone refining method) : इस विधि द्वारा धातुओं को अतिशुद्ध अवस्था में प्राप्त किया जा सकता है। सिलिकन , जर्मेनियम , गैलियम आदि धातुओं को इसी विधि द्वारा शुद्ध अवस्था में प्राप्त करके चालकों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस विधि में अशुद्ध धातु की एक छड बना ली जाती है एवं इस छड के एक सिरे को एक गोल हीटर द्वारा गर्म करते है जिससे छड़ गोलाई में सब तरफ समान रूप में गरम हो जाती है। पिघलने के बाद हम छड़ पर हीटर की स्थिति को थोडा खिसका देते है। ऐसा करने से छड के आगे वाला भाग पिघलने लगता है एवं पीछे वाला भाग ठण्डा होकर जमने लगता है परन्तु इस प्रक्रम में उसकी कुछ अशुद्धि पिछले हुए धातु के साथ आगे की तरफ खिसक जाती है। इस प्रकार धीरे धीरे करते हुए हम हीटर को छड के दुसरे सिरे तक खिसकाते जाते है एवं द्रव के साथ खिसकते हुए सारी अशुद्धियाँ भी इस दुसरे सिरे तक पहुँचती जाती है। प्रक्रिया को दो से तीन बार दोहराने पर छड़ का वह दूसरा सिरा लगभग पूर्ण रूप से अशुद्ध धातु का हो जाता है जबकि शेष सम्पूर्ण छड शुद्ध धातु की हो जाती है। इस हिस्से को काटकर अलग कर दिया जाता है एवं शुद्ध धातु को प्राप्त कर लिया जाता है।

इस प्रक्रम में अशुद्धियाँ खिसककर धातु के एक खंड में एकत्रित हो जाती है अत: इसे खंड परिष्करण भी कहा जाता है।

(v) निर्वात आर्क भट्टी द्वारा शोधन (refining by vacuum arc furnace) : टाइटेनियम , जिर्कोनियम और मोलिब्डेनज जैसे उच्चतापसह अर्थात उच्च गलनांक वाले धातुओं का शुद्धिकरण इस विधि द्वारा संपन्न कराया जाता है। अशुद्ध धातु का इलेक्ट्रोड बनाकर निर्वात में उसे एक आर्क भट्टी में डालकर पिघलाया जाता है। इलेक्ट्रोड के पिघलने पर उसमें विद्यमान अशुद्धियाँ वाष्पीकृत हो जाती है। इस पिघले हुए धातु को फिर ठंडा किये हुए क्रुसिबल में डालकर शीतित करते है। शुद्ध धातु ठोस रूप में आ जाती है।

इस विधि में नवीनतम विकास यह किया जा रहा है कि अब अशुद्ध धातुओं को पिघलाने के लिए उच्च निर्वात की परिस्थितियों में गरम टंगस्टन एलिमेंट में इलेक्ट्रॉनों की बौछार उस अशुद्ध धातु की सतह पर करवाई जाती है।

II.  रासायनिक विधियाँ (chemical methods)

(i) तापधातुकर्मीय ऑक्सीजन : इस विधि में धातु में विद्यमान अशुद्धियों को उच्च ताप पर ऑक्सीकृत करके धातु से पृथक किया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित विधियाँ है –

(a) भट्टी शोधन या पोलिंग : इस विधि द्वारा कॉपर , टिन आदि का शोधन किया जाता है। एक भट्टी में धातु को पिघलाकर और उचित गालक मिलाकर वायु प्रवाहित करते है। अशुद्धियाँ ऑक्सीकृत होकर गैस रूप में निकल जाती है या गालक के साथ मिलकर धातुमल बना लेती है। इस प्रक्रिया में कुछ मात्रा में मुख्य धातु भी ऑक्सीकृत होकर ऑक्साइड बना लेता है। अत: प्रक्रम के अंतिम पद में इस ऑक्साइड को पुनः अपचयित करके धातु में परिवर्तित कर देते है। इसके लिए इस पिघले हुए धातु की सतह को सल्फर कोक से ढककर उसमे हरी लकड़ी के लट्ठे डाल दिए जाते है , ऐसा करने से ऑक्सीकृत हुई धातु हाइड्रोकार्बन से अपचयित होकर धातु मुक्त कर देती है एवं इस प्रकार शुद्ध धातु प्राप्त हो जाती है।

(b) खर्परीकरण या क्यूपेलीकरण (cupellation process) : इस विधि द्वारा सिल्वर का पूर्ण शुद्धिकरण किया जाता है। पार्के विधि से प्राप्त सिल्वर में अभी भी कुछ लेड अशुद्धि के रूप में विद्यमान रहता है। इस विधि द्वारा सिल्वर से लेड पूर्ण रूप से निकल जाता है। सीमेंट या अस्थिराख से बना हुआ एक नाव के आकार का पात्र होता है जिसे खर्पर या क्यूपेल कहा जाता है। इस खर्पर में अशुद्ध धातु को रखकर उसे एक प्रत्यावर्ती भट्टी में गर्म करते है एवं पिघले हुए धातु पर वायु प्रवाहित करते है। लेड ऑक्सीकृत होकर लिथार्ज में परिवर्तित हो जाता है एवं वायु की धारा के साथ निकल जाता है एवं शुद्ध सिल्वर रह जाता है।

(c) बेसेमरीकरण (bassemerisation) : लोहे में विद्यमान अशुद्धियो को ऑक्सीकृत करने के लिए बेसेमर परिवर्तक में पिघला हुआ लोहा लेकर उसमे वायु की तेज धारा को प्रवाहित किया जाता है। जिससे अशुद्धियाँ ऑक्सीकृत हो जाती है।

(d) ऑक्सीकारकों द्वारा : सोने जैसी धातुओं को सिलिका कृसिबल में लेकर बोरेक्स या पोटेशियम नाइट्रेट जैसे ऑक्सीकारकों के साथ पिघलाते है। अशुद्धियाँ ऑक्सीकृत होकर निकल जाती है एवं शुद्ध धातु प्राप्त हो जाती है।

(ii) वाष्प प्रावस्था शोधन : इस विधि में धातु को किसी वाष्पशील यौगिक में बदलकर अशुद्धियो से दूर कर देते है एवं वाष्पशील यौगिक को विघटित करके शुद्ध धातु को प्राप्त कर लिया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है –

(a) ऐमलगमन : कई धातुएं (सोना चाँदी आदि ) पारे के साथ ऐमलगम बनाती है। इस ऐमलगम को गर्म करने पर पारा वाष्पीकृत होकर निकल जाता है एवं शुद्ध धातु वही रह जाती है। पारे की वाष्प संघनित होकर द्रव पारे के रूप में आ जाती है जिसे पुनः प्रयुक्त किया जा सकता है।

IM + Hg → I + M.Hg

M.Hg → M + Hg

(b) मांड विधि : निकल जैसी धातुओं का शोधन इस विधि द्वारा संपन्न किया जाता है। ये धातुएं शून्य ऑक्सीकरण अवस्था में वाष्पशील कार्बोनिल यौगिक बनाती है। ये कार्बोनिल यौगिक उच्च ताप पर विघटित होकर कार्बन मोनो ऑक्साइड मुक्त कर देते है एवं शुद्ध धातु प्राप्त हो जाती है।

I Ni + 4CO → I + Ni(CO)4

Ni(CO)4 → Ni + 4CO

(c) बान आर्कल विधि (van arkel process) : कुछ धातुएं उदाहरण के लिए Zr , Hf , Si , Ti , Be आदि आयोडीन के साथ क्रिया करके वाष्पशील आयोडाइड बनाती है , इन्हें इस विधि द्वारा शुद्ध किया जाता है। इस विधि में एक निर्वातित ग्लास उपकरण में आयोडीन की सिमित मात्रा के साथ अशुद्ध धातु जैसे Zr को 875 K तक गर्म करते है। Zrl4 की वाष्प बनती है। जिसे उपकरण में 2070 K पर रखे हुए टंग्स्टन फिलामेंट पर विसरित होने देते है। गर्म फिलामेन्ट के सम्पर्क में आने पर Zrl4 विघटित हो जाता है। आयोडीन मुक्त हो जाती है एवं जिर्कोनियम टंगस्टन के फिलामेंट पर एकत्रित हो जाता है। मुक्त हुई आयोडीन पुनः अशुद्ध जिर्कोनियम के सम्पर्क में आती है जिससे Zrl4 बनता है एवं यह प्रक्रम चलता रहता है। यह विधि काफी महँगी है एवं केवल विशेष उपयोग के लिए धातुओं को अतिशुद्ध रूप में प्राप्त करने में प्रयुक्त होती है।

(iii)  क्रोमैटोग्राफी और आयन विनिमय विधियाँ : लैंथेनाइडो जैसी समान गुणों वाली धातुओं को एक दुसरे से पृथक करने में ये विधियाँ अत्यंत उपयोगी है। इन विधियों में एक कॉलम (ब्यूरेट) लेकर उसमें कोई अधिशोषक या आयन विनिमयक डालकर उस पर ऊपर से धातुओं का विलयन डालते है। विभिन्न धातु आयनों की अधिशोषित होने की या प्रतिस्थापित होने की भिन्न भिन्न क्षमता होने के कारण ये कॉलम में अलग अलग सतहें बना लेते है। इन सतहों को शुद्ध विलायक या एल्यूएंट डालकर पृथक पृथक निकाल लेते है एवं इस प्रकार समस्त धातुएं शुद्ध अवस्था में पृथक हो जाती है।

(iv) विद्युत अपघटन विधि : इस विधि द्वारा कॉपर , सिल्वर , जिंक लेड , टिन , क्रोमियम , निकल आदि धातुओं की शुद्धिकरण करवाया जाता है। अशुद्ध धातु की मोटी छड को एनोड के रूप में और उसी धातु के शुद्ध रूप की एक पतली छड को कैथोड के रूप में प्रयुक्त करते है एवं इन दोनों इलेक्ट्रोडो को एक ऐसी विद्युत अपघटनी सेल में डालते है जिसमे इसी धातु के उपयुक्त लवण का विलयन भरा हुआ हो। उदाहरण कॉपर के शुद्धिकरण के लिए सेल में CuSO4 विलयन डालकर उसमें अशुद्ध कॉपर की छड़ का एनोड और शुद्ध कॉपर की पत्ती का कैथोड डालते है। विद्युत अपघटन करने पर एनोड वाली अशुद्ध कॉपर की छड घुलती जाएगी तथा शुद्ध कॉपर के कैथोड पर कॉपर एकत्रित होता जायेगा। अशुद्धियाँ या तो विलयन में चली जाती है या एनोड के निचे एनोड मड के रूप में एकत्रित होती जाती है जिसमे से कीमती सहउत्पाद के रूप में अन्य धातुओं को प्राप्त कर लिया जाता है। इलेक्ट्रोडो पर निम्नलिखित प्रकार की अभिक्रियाएँ संपन्न होती है –

एनोड पर –

Cu → Cu2+ + 2e

 कॉपर की ऑक्सीकरण अभिक्रियाओं के लिए इलेक्ट्रोड विभव का मान कम होने के कारण ये आसानी से आयन बनते जायेंगे एवं विलयन में घुलते जायेंगे।

Mi → Min+ + ne

यहाँ Mi = Ag , Au , Se , Te आदि।

लेकिन अशुद्धियो के रूप में विद्यमान अन्य धातुओं जैसे सिल्वर , गोल्ड आदि के लिए इलेक्ट्रोड विभव का मान उच्च होने के कारण ये धातुएं घुल नहीं पाती एवं कॉपर के घुल जाने पर ये छड से मुक्त होकर उसके निचे एनोड मड के रूप में एकत्रित हो जाती है।

कैथोड पर –

Cu2+ + 2e → Cu

इस अपचयन अभिक्रिया के लिए इलेक्ट्रोड विभव का मान कम है अत: यह अभिक्रिया आसानी से संपन्न होगी एवं कैथोड पर कॉपर एकत्रित होता जायेगा।