जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कौन थे नाम बताइए ? who was the 24th tirthankara of jainism in hindi
who was the 24th tirthankara of jainism in hindi जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कौन थे नाम बताइए ?
जैन धर्म
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर का जन्म वैशाली के पास कुंडग्राम में वृज्जिगण के जातृक कुल में राजा सिद्धार्थ के यहां ई.पू. 540 में हुआ था। कुछ समय गृहस्थ जीवन बिताने के बाद तीस वर्ष की आयु में इन्होंने घर छोड़ दिया। बारह वर्ष के तप और भ्रमण के बाद इन्होंने ‘कैवल्य’ (ज्ञान) प्राप्त किया और संसार की प्रवृत्तियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ये कर्म के बंधनों से मुक्त हो गए। तब से ये अर्हत (पूज्य), जिन (विजेता) और निग्र्रंथ कहलाने लगे। ये ‘महावीर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए और इनका धर्म जैन धर्म कहलाया। 72 वर्ष की अवस्था में पावा में इनका देहांत हो गया।
जैन-अनुश्रुतियों के अनुसार ये अंतिम तीर्थंकर थे। इनके प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने इस धर्म की नींव डाली थी। इनके पूर्वज 22 तीर्थंकर थे ऋषभदेव, अजितनाथ, सांबनाथ, अभिनंदन, सुमितनाथ, पद्मप्रभु, सुपाश्र्वनाथ, चंद्र, प्रभु, पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांशनाथ, वसुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, कंुथुनाथ, अरसनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ और नेमिनाथ। जैनियों के तेइसवें तीर्थंकर का नाम पाश्र्वनाथ था। ये काशीराज अश्वसेन के पुत्र थे। इनकी मुख्य शिक्षाएं थीं सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह। इसीलिए इनका नाम चातुर्थी पड़ा।
महावीर ने पाश्र्वनाथ के चार सिद्धांतों में सच्चरित्रता को सम्मिलित किया। मोक्ष पाने का साधन सांसारिक बंधनों से मुक्त होना है और इसके लिए इन पांच सिद्धांतों का पालन करना चाहिए सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और सच्चरित्रता। मोक्ष प्राप्ति के इन्होंने तीन साधन प्रतिपादित किए जो ‘त्रिरत्न’ कहलाए सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र।
जैन धर्म विश्वचेतना के वैदिक धर्म को नहीं मानता है। ब्रह्मचर्य पर इसमें भी विशेष बल दिया गया है। इन सिद्धांतों से धीरे-धीरे वैराग्य और तप की स्थिति, फिर अंत में कर्मक्षय की स्थिति प्राप्त होती है। संसार में आवागमन के दुःख से मुक्ति पाना ही जीवन का धर्म है। शरीर को कष्ट देने और उपवास करने को मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के लिए महावीर ने आवश्यक समझा। यज्ञ और वेद के महत्व को उन्होंने नहीं माना। अहिंसा और तपस्या पर बल दिया। देवताओं के अस्तित्व को यह धर्म नकारता नहीं है, किंतु उन्हें जीवन से नीचे रखता है। इस धर्म में पूर्वजन्मवाद और कर्मवाद की मान्यता है। जैनों ने आत्मवादियों और नास्तिकों के एकांतवादी मतों का खण्डन किया और मध्य माग्र का अनुसरण किया। महावीर आत्मा में विश्वास करते थे और जीव को उसका भाग मानते थे। आत्मा साधना और तपस्या के बल पर मुक्त हो सकती है, ऐसा महावीर का विश्वास था।
जैन धर्म का मानना है कि सृष्टि अनादिकाल से अपने ही आदितत्वों के आधार पर चल रही है। आदि तत्व छह हैं जीव (आत्मा), पुद्गल (भूतपदार्थ), धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जीव चेतन द्रव्य है। जीव का मूल गुण है अनंत ज्ञान, अनंत तीर्थ, अनंत दर्शन और अनंत सुख। कर्म का आवरण हटाकर अपने शुद्ध गुण को प्राप्त करने के बाद ही शांति संभव है। कर्म का क्षय होने पर ही जीव मोक्ष प्राप्त करता है। अतः जीवन का ध्येय हुआ मोक्ष प्राप्ति और उसका माग्र है कर्मक्षय तथा कर्मक्षय के साधन हैं त्रिरत्न।
महावीर के दो वर्ष बाद जब मगध में भीषण अकाल पड़ा, तब भद्रबाहु के नेतृत्व में कुछ जैन दक्षिण चले गए और बाकी स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में रहे। पाटलिपुत्र में मगध के जैनों ने एक ‘संगीति’ बुलाई, जिसमें दक्षिण वाले शामिल नहीं हुए। तब से दक्षिण वाले दिगंबर और मगधवाले श्वेताम्बर कहलाए। जैन धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘कल्प सूत्र’ संस्कृत में है। प्रथम शताब्दी के आचार्य कुंद के चार ग्रंथ नियमसार, पंचास्तिकायसार, समयसार, प्रवचनसार जैन धर्म साहित्य के सर्वस्व माने जाते हैं।
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