जयपुर की स्थापना किसने करवाई थी जयपुर शहर की स्थापना कब हुई थी who is the founder of jaipur in hindi
who is the founder of jaipur in hindi जयपुर की स्थापना किसने करवाई थी जयपुर शहर की स्थापना कब हुई थी ?
जयपुर
जयपुर का ऐतिहासिक शहर अम्बेर की पुरानी राजपूत राजधानी तथा 18 नवंबर 1727 में महाराजा सवाई जयसिंह II द्वारा स्थापित शहर का एक मिश्रण है। इसे भारत के ‘गुलाबी शहर‘ के रूप में जाना जाता है, तथा वर्तमान में यह राजस्थान राज्य की राजधानी है। सवाई जयसिंह II के द्वारा बसाया गया आधुनिक शहर एक अत्यंत सुनियोजित शहर है जिसे छह सेक्टरों में विभाजित किया गया है, तथा बजरी वाली गलियाँ आवासीय क्षेत्रों को अलग करती हैं।
राजपूत काल में पर्यटकों को लुभाने वाले कई शानदार स्मारकों का निर्माण किया गया। सवाई जयसिंह प्प् के द्वारा निर्मित जंतर-मंतर प्रांगण एक विशाल आश्चर्य माना जाता है। इसे 2010 में युनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है। जयसिंह II शानदार नाहरगढ़ दुर्ग में रहते थे जो पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। वास्तुशिल्प का एक अन्य उत्कृष्ट नमूना हवामहल प्रासाद परिसर है।
शहर की संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में विख्यात और अधिक प्राचीन स्मारकों में कछवाहा राजपूतों का आधार स्थल आमेर महल है। इसके सहायक स्मारकों में से एक जयगढ़ किला तथा सिटी पैलेस है। एक झील के मध्य स्थित जल महल को संसार के आश्चर्यों में से एक गिना जाता है। यह अपनी धार्मिक विरासत के लिए भी प्रसिद्ध है। बहुत से मंदिरों, यथा गोविन्द देवजी मंदिर, कनक वृन्दावन, इत्यादि में भगवान कृष्ण की उपासना की जाती है।
जयपुर, इस क्षेत्र में आजमाए जाने वाली कला-शिल्प के लिए भी जाना जाता है। उनके पास बंधिनी (सूती वस्त्र को रंगने की एक विधा), ब्लॉक प्रिंटिंग, पत्थर की कढ़ाई, ताराकाशी जरी, गोटा, इत्यादि के सिद्ध-हस्त कलाकार हैं। आभूषणों के डिजाइन में, जयपुर लाख की चूड़ियों, हाथी दांत के बने आभूषणों के निर्माण का मुख्य केंद्र है। वर्तमान में, जयपुर साहित्य समारोह के माध्यम से जयपुर विश्व में अपनी पहचान बना रहा है जिसमे बड़ी संख्या में साहित्य-प्रेमी तथा ख्याति प्राप्त कलाकार भाग लेने आते हैं।
खजुराहो
खजुराहो के स्मारकों के समूह मध्य प्रदेश में स्थित हैं। यह कामोत्तेजक मंदिर संरचनाओं के लिए प्रसिद्ध है। वर्ष 1986 में, इसे युनेस्को के द्वारा इसे विश्व विरासत घोषित कर दिया गया। अधिकाँश मंदिर नागर शैली में निर्मित हैं तथा इनका निर्माण बुन्देलखंड पर राज करने वाले चंदेल वंश ने करायाथा। ये मंदिर, अनुमानतः, 950 ईस्वी से 1050 ईस्वी के बीच बनाए गए हैं। इस स्थल में कई नए अतिरिक्त जुड़ाव भी पाए गए हैं।
इतिहासकारों का तर्क है कि 12वीं शताब्दी तक खजुराहो में 85 मंदिरों का समूह तैयार हो चुका था। आज इन में से केवल 20 मंदिर ही अस्तित्व में हैं। इनमें से मुख्य मंदिर हैं:
मंदिर का नाम संरक्षक राजा
लक्ष्मण मंदिर राजा यशोवर्मन
विश्वनाथ मंदिर राजा ढांगा
कंदरिया महादेव मंदिर राजा गांडा
खजुराहो अपने समय में इतना प्रसिद्ध था कि इसे बहुत-से विदेशी वृत्तांतों – जैसेदृअल बरुनी, जिसने इसे जाजाहुती की राजधानी बताया है -में स्थान मिला है। 13वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर मुसलमान आक्रमणकारी समूहों का नियंत्रण तथा शासन स्थापित होने के पश्चात् बहुत-सी प्रतिमाओं को तोडा, अपवित्र किया गया तथा नजर अंदाज कर दिया।
बाकी बचे हुए मंदिरों में से, 6 भगवान् शिव को समर्पित हैं, एक सूर्य को, 8 भगवान विष्णु तथा उनके अवतारों को, एक भगवान गणेश को तथा 3 जैन तीर्थंकरों को समर्पित हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर धर्म तथा देवी और देवताओं के जीवन की बहुत-सी घटनाओं से संबंधित गैर-कामोत्तेजक चित्र भी बने हैं।
केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
केवलादेल घना राष्ट्रीय उद्यान को पहले भरतपुर पक्षी विहार के नाम से जाना जाता था। यह राजस्थान के भरतपुर ग्राम में स्थित है तथा विशेषतः, सर्दी के मौसम में पक्षियों की विशाल संख्या की मेजबानी करने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध पक्षी अभयारण्यों में से एक है। माना जाता है कि पक्षियों की 230 प्रजातियाँ यहीं की स्थानिक प्रजातियाँ हैं तथा कई अन्य प्रजातियाँ शीत ऋतु में अन्य देशों से प्रवास कर इसे अपना घर बनाने चली आती हैं।
भारत सरकार द्वारा इसे वर्ष 1971 में संरक्षित अभ्यारण्य घोषित किए जाने के बाद भी यह अपनी लोकप्रियता के चरम पर तब पहुंचा जब 1985 में युनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल घोषित कर दिया. सर्दी के शिशिर ऋतु में बहुत-से पर्यटक तथा पक्षी-विशेषज्ञ भरतपुर आते हैं। यहाँ पाए जाने वाले कुछ दुर्लभ पक्षियों में से एक है यूरेशियाई स्पूनबिल। नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार, इस उद्यान में पक्षियों की लगभग 366 प्रजातियाँ, मछलियों की 50 प्रजातियाँ, साँपों की 13 तथा फूलों की 379 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
यह उद्यान, पहले, दुर्लभ साइबेरियाई सारसों की क्रीड़ा-स्थली के रूप में विख्यात था, जो सर्दी में यहाँ आते थे, परन्तु उनकी संख्या अब लुप्तप्रायः हो चुकी है। यहाँ के स्थानिक पक्षियों तथा प्रवासी पक्षियों, यथा जलीय पक्षी, को रक्षा करने का प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार ने पक्षियों को प्रायः आने वाली बाढ़ों तथा शिकार से बचाने के लिए एक संरक्षित क्षेत्र का विकास किया है। विशेषतः, प्रवासीय जलीय पक्षियों के लिए इसे अंतर्राष्ट्रीय महत्व का आर्द्र भूमि क्षेत्र घोषित कर दिया गया है।
कोणार्क
प्रसिद्ध कोणार्क सर्य मंदिर उड़ीसा के ओडिशा शहर में स्थित है। यह भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा गिने-चुने सूर्य मंदिरों में से एक है। काला ग्रेनाईट का बना होने के कारण यह ‘काला पैगोडा‘ के रूप में भी जाना जाता है। इसे राजा नरसिम्हदेव प् के आदेश पर निर्मित किया गया था। यू.ए.इ.एस.सी.ओ. द्वारा वर्ष 1984 में इसे विश्व विरासत स्थल घोषित किए जाने के बाद यह अपनी प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचा।
कोणार्क के सूर्य मंदिर का एक प्रमुख आकर्षण वार्षिक कोणार्क नृत्य उत्सव है जिसे प्रत्येक वर्ष दिसंबर में मनाया जाता है तथा ओडिशा के शास्त्रीय नृत्य ‘ओडिसी‘ को समर्पित है। यह मंदिर इन सभी समारोहों का केंद्र होता है। सूर्य (सूरज देवता) का विशाल रथ सभी उत्सवी कार्यक्रमों की पृष्ठभूमि में अवश्य होता है। इस रथ में अलंकृत पहियों के 12 जोड़े हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि उन्हें 7 घोड़े खींचते हैं।
यह भव्य मंदिर मंदिर वास्तुकला की कलिंग शैली से संबंधित है तथा सूरज के पूर्व-पश्चिम संरेखन का अनुपालन करती है। यद्यपि ब्रितानियों ने 19वीं शताब्दी में मुख्य मंदिर के शिखर या शीर्ष को ध्वस्त कर दिया, जगमोहन या दर्शक कक्ष अब भी सुरक्षित है।
काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
यह राष्ट्रीय उद्यान असम के गोलाघाट तथा नागांव जिले में स्थित है, तथा यह गैंडों का घर है। यह विश्व में एक सींग वाले गैंडों की कुल आबादी के दो-तिहाई का वास स्थान है, जिनकी संख्या, 2015 की नवीनतम गणना के अनुसार, 2401 है। वनाच्छादन की मात्रा तथा वन्यजीवन के प्रकारों के कारण इसे 1985 में विश्व विरासत स्थल घोषित कर दिया गया।
गैंडों के अतिरिक्त, काजीरंगा बाघों के लिए भी प्रसिद्ध है तथा वर्ष 2006 में इसे बाघ आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इस उद्यान में बड़ी संख्या में हाथी, जंगली जलीय भैंसा तथा दलदली हिरण पाए जाते हैं। पशुओं के अलावा, यहाँ पक्षियों की व्यापक प्रजातियाँ पायी जाती हैं, तथा ‘बर्डलाइफ इंटरनेश्नल कंपनी‘ ने इस उद्यान की एक महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र के रूप में पहचान की है। अगर इस स्थान के भूदृश्य की बात करें तो, काजीरंगा में बहुत-से जलीय निकाय, दल-दल, ऊंची हाथी घास, तथा सघन वनाच्छादन उपस्थित हैं।
इस पार्क की स्थापना 1905 में एक संरक्षित वन के रूप में की गयी थी, तथा 2005 में इसने काजीरंगा के जीवन (जीव-जन्तुओं) पर आधारित बहुत-सी पुस्तकों, गीतों तथा वृत्तचित्रों के साथ अपना शताब्दी वर्ष मनाया। इसी नाम से बनी एक वृत्तचित्र पर पूरी दुनिया का ध्यान गया जिसे रोबिन बनर्जी के द्वारा निर्देशित किया गया था। बी.बी.सी. के संरक्षणकर्ता मार्क अँड द्वारा काजीरंगा की महिला महावतों पर रचित एक अन्य साहित्यिक उत्कृष्ट कृति को टॉमस कुक यात्रा पुस्तक पुरस्कार प्राप्त हुआ।
लेह
वर्तमान में, लेह जम्मू और कश्मीर राज्य में स्थित है, किन्तु, मूलतः, यह लद्दाख के हिमालयी राज्य का अंग था। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा जिला है किन्तु यहाँ जनसंख्या का घनत्व विरल है। लेह के सबसे लोकप्रिय स्थानों में एक है ‘आल्ची चोस्कोर‘, जो एक बौद्ध मठ है। इसे वर्ष 1998 में युनेस्को के विश्व विरासत स्थल की अस्थायी सूची में डाला गया था।
एक और प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारक है ध्वस्त लेह महल, जो पूर्व में लद्दाख के राज-परिवार का आवास तथा महल था। पिछले कुछ दसकों में, लद्दाख और धर्मशाला, 1959 में तिब्बती विद्रोह के बाद भारत में शरण लेने के पश्चात से, दलाई लामा के प्रमुख आवासीय केंद्र रहे हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख धर्मों में से एक है बौद्ध धर्म। नामग्याल (विजय) मठ लेह का पर्मुख बौद्ध केंद्र है। इसे ‘सेमो गोम्पा‘ या लाल गोम्पा भी कहा जाता है।
विश्व स्मारक निधि ने लेह के पुराने नगर को 100 सर्वाधिक संकटापन्न स्थलों की सूची में सम्मिलित किया है, चूँकि यह भाग वर्षा की बढ़ती हुई मात्रा तथा पर्वतों में होने वाले जलवायु परिवर्तनों से इतना प्रभावित हो चुका है कि इसकी स्थिति में सुधार संभव नहीं दीख पड़ता। सांस्कृतिक रूप से सर्वाधिक समृद्ध करने वाले अनुभवों में बौद्धों के द्वारा मनाया जाने वाला ‘कालचक्र‘ या पवित्र अवधि को देखना है। दलाई लामा तथा अन्य संन्यासी कुछ अनुष्ठानों में भाग लेते हैं, तथा मन्त्र पाठ करते हैं। त्योहारों के दौरान एक दिन, नामग्याल मठ के संन्यासी कालचक्र आनुष्ठानिक नृत्य प्रस्तुत करते हैं। हाल के पर्यटन केन्द्रों में से एक है लेह का शांति स्तुप, जिसे 1983 में जापानियों के द्वारा निर्मित किया गया था।
मांडू
मांडू को ‘मांडवगढ़‘ के रूप में भी जाना जाता है और यह मध्य प्रदेश के मांडवा जिला में स्थित एक विशिष्ट शहर है। यह स्थान सुंदर दुर्गों के लिए प्रसिद्ध है जिसे तरंगा साम्राज्य के परमार श्शासकों के द्वारा 11वीं शताब्दी में बनवाया गया था। दुर्गों को अति सुंदर माना जाता है क्योंकि यह विंध्य पर्वत शृखंला के शीर्ष पर स्थित है और इसके एक ओर नर्मदा नदी की घाटियाँ और दूसरी ओर मालवा के पठार दिखायी देते हैं।
अलाउद्दीन खिलजी के आने के बाद शहर का भाग्य बदल गया जिसने 13वीं सदी में दुर्ग पर अधिकार करने के बाद मांड का नाम बदल कर शादीबाद या ‘खुशियों का शहर‘ कर दिया। अपनी प्राकृतिक सुरक्षा और सामरिक स्थिति के कारण दुर्ग हमेशा से एक दृढ़ गढ़ रहा है। मांडू दुर्ग की अनेक विषेषताओं में से एक उसकी 12 प्रमुख दरवाजे या द्वार हैं जिसे दुर्ग में प्रवेश करने के पहले पार करने की आवश्यकता होती है।
जबकि दुर्ग का हिन्दू हिस्सा बरकरार है, सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक के द्वारा निर्मित जहाज महल दो कृत्रिम झीलों के बीच स्थित है और एक तैरते हुए नौकायान का भ्रम पैदा करता है। रानियों के लिए अन्य प्रमुख भवन हिंडोला महल या प्रदोलन महल था जिसे 1425 ईस्वी के दौरान बनवाया गया था और जिसमें वास्तुकला की दृष्टि से दृढ़ ढाल वाले बगल की दिवारें (साइड वॉल) थीं।
मांडू दुर्ग की सबसे मुख्य विशेषता होशंग शाह का मकबरा ही रहेगा। यह भारत की संगमरमर निर्मित प्रथम संरचना है और भारत में अफगानी वास्तुकला के सबसे विशिष्ट उदाहरणों में से एक है। इसमें शुक्रवार के नमाज के लिए एक जामा मस्जिद भी है। मांडू से जुड़े स्थायी कथाओं में से एक रूपमती और बाज बहादुर की दुरूखांत प्रेम गाथा है। वहाँ बलुआ पत्थर की एक बड़ी संरचना है जिसके बुर्ज होने का अनुमान लगाया जाता है, लेकिन वर्तमान में इसे रूपमती मंडप के रूप में जाना जाता है। यह मध्य प्रदेश के पर्यटन आधार के अहम हिस्से का निर्माण करता है।
मुंबई
पूर्व में बॉम्बे के रूप में जाना जाने वाला यह नगर भारत की वाणिज्यिक राजधानी है। बॉम्बे (बॉम- शुभ और बे- बंदरगाह) नाम पुर्तगालियों के द्वारा दिया गया है, क्योंकि यह यूरोप और एशिया को और वहाँ से माल और यात्रियों को ले जाने वाले यूरोपीय पोतों के लंगर डालने हेतु एक अच्छा बंदरगाह था। वर्तमान नगर पुर्तगालियों, अंग्रेजों और मराठा शासकों की वास्तुकलाओं की छाप का वाहक है। वर्तमान नगर सात द्वीपों से निर्मित है।
इस नगर के सबसे प्रतिष्ठित इमारतों में से एक विक्टोरिया टर्मिनस है, जिसका छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के रूप में पुनः नामकरण किया गया है। वर्ष 2004 में युनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित किया है। फलस्वरूप उन्होंने पास की चर्चगेट की इमारत को भी 2009 में विश्व विरासत स्थल घोषित कर किया। यह नगर भारत की मनोरंजन की राजधानी भी है क्योंकि यह ‘बॉलीवुड‘ या प्रधान हिंदी चलचित्र उद्योग का गृह है जो कि विश्व के महत्तम चलचित्र निर्माण उद्योग में से एक यह नगर देश का वित्तीय केन्द्र भी है क्योंकि यह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज, भारत का राष्ट्रीय स्टॉक एक्सचेंज और रिजर्व बैंक आफ इंडिया का भी गृह है। मुम्बई अनेक समुदायों के लोगों और संस्कृतियों का भी गृह है जो अपने भाग्य को बनाने के लिए इस नगर में आते हैं। यह भोजन, संगीत और नगर के रंगशाला में प्रतिबिम्बित होता है। मुम्बई के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, फिल्मफेयर पुरस्कार जैसे अनेक समारोह देशभर के लोगों को आकर्षित करते हैं। इसके अलावा, छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय में, जो पूर्व में प्रिन्स ऑफ वेल्स म्युजियम के रूप में जाना जाता था, विशेषतया प्राचीन भारत के लिए भारत का सबसे विशाल कला संग्रह है।
नागार्जुनाकोंडा
यह नगर आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित है और पूर्व में ‘विजयपुरा‘ के रूप में जाना जाता था। प्राचीन काल में यह एक बहुत अच्छी तरह से जाना जाने वाला और महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ केन्द्र था। यह भौगोलिक रूप से भी कृष्णा नदी के निकट प्रधान भूमि पर स्थित है। वर्तमान नाम नागार्जुनाकोंडा ‘नागार्जुन‘ से लिया गया है जो एक बहुत प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु थे। इतिहासकारों के अनुसार, नागार्जुन इस नगर में दूसरी सदी में थे और उन्होंने उच्च प्रतिष्ठित माध्यमिक विद्यालय हेतु आधार निर्मित किया।
उस काल के स्रोत विद्यालय और उनके आश्रम के आसपास के स्थान को ‘नागार्जुन पर्वत‘ या नागार्जुना-कोंडा के रूप में संदर्भित करते हैं। मध्ययुगीन काल में स्थल उपेक्षित था, परन्तु 1926 में एक ब्रिटिश अधिकारी के निर्देश पर इसका उत्खनन किया गया। उन्होंने स्तूप, विहार, मिट्टी के बर्तन और कुछ बौद्ध मूर्तियों के अवशेष प्राप्त किये। सबसे दिलचस्प खोज इक्ष्वाकु काल का एक अखाड़े का प्राप्त होना है।
स्थल में निरंतर अभिरुचि के कारण, पुरातत्वविदों ने अनेक परतों का उत्खनन किया और यह प्राप्त किया कि यह स्थल पूर्व पाषाण युग का भी एक महत्वपूर्ण बस्ती क्षेत्र था। वे तर्क देते हैं कि इस स्थल का उस समय से लेकर वर्तमान समय तक निरंतर अधिकृत रहा है और ज्यादा दिलचस्प ऐतिहासिक खोज तब प्राप्त हुई जब नागार्जुनसागर बाँध के निर्माण को सरल बनाने के लिए घाटी का उत्खनन किया गया।
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