आधुनिक भारतीय साहित्य की विशेषताएं क्या है ? what are the characteristics of indian literature in hindi
what are the characteristics of indian literature in hindi आधुनिक भारतीय साहित्य की विशेषताएं क्या है ?
आधुनिक भारतीय साहित्य
(उन्नीसवीं शताब्दी भारतीय पुनरुज्जीवन)
लगभग सभी भारतीय भाषाओं में आधुनिक युग 1857 में भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रथम संघर्ष या इसके आसपास से प्रारम्भ होता है। उस समय जो कुछ भी लिखा गया था उसमें पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव, राजनैतिक चेतना का उदय और समाज में परिवर्तन को देखा जा सकता है। पश्चिमी दुनिया के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप जहां भारत को एक और पश्चिमी सोच को स्वीकारना पड़ा तो वहीं दूसरी ओर इसे अस्वीकार भी करना पड़ा, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत के प्राचीन वैभव और भारतीय चेतना को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयत्न करना संभव हुआ। बड़ी संख्या के लेखकों ने एक राष्ट्रीय विचारधारा की अपनी तलाश में भारतीयकरण और पश्चिमीकरण के बीच संश्लेषण के विकल्प को चुना। उन्नीसवा शताब्दी के भारत में पुनरुज्जीवन को लाने के लिए इन सभी दृष्टिकोणों को मिला दिया गया था। लेकिन यह पुनरुज्जीवन एक ऐसे देश में लाना था जो विदेशी शासकों के आधिपत्य में था। अतः यह वह पुनरुज्जीवन नहीं था जो चैदहवीं से पन्द्रहवा शताब्दी के बीच यूरोप में फैला था जहां वैज्ञानिक तर्क, वैयक्तिक स्वतंत्रता और मानवीयता प्रबल विशेषताएं थीं।
भारतीय पुनरुज्जीवन ने भारतीय जीवनयात्रा, महत्व और वातावरण के संदर्भ में एक अलग ही आकार ले लिया था जिसक परिणामस्वरूप राष्ट्रवादी, सुधारवादी और पुनरुद्धारवादी सोच ने साहित्य में अपना मार्ग तलाश लिया था और इसने स्वय को धीरे-धीरे एक अखिल-भारतीय आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया था, देश के अलग-अलग भागों में राजा राममोहन राय (1772-1837), बंकिम चन्द्र चटर्जी, विवेकानन्द, माधव गोविन्द रानाडे, यू वी स्वामीनाथ अय्यर, गोपाल कृष्ण गोखल के वी पंटुलु, नर्मदा शंकर लालशंकर दवे और कई अन्य नेताओं ने भी इसका नेतृत्व किया। वास्तव में, पुनरुज्जीवन नेता लोगों के मन में राष्ट्र भक्ति को बैठाने, उनमें सामाजिक सुधार की इच्छा को तथा उनके गौरवमय अतीत के प्रति ए. भावनात्मक लालसा को उत्पन्न करने में सफल रहे थे।
सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में साहित्यिक गद्य के आविर्भाव और सेरमपुर, बंगाल में एक अंग्रेज विलियम केरी (1761-1834) के संरक्षण में मुद्रणालय का आगमन एक ऐसी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना थी जो साहित्य में क्रान्ति ले आई थी। यह सच है कि संस्कृत और फारसी में गद्य में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है, लेकिन प्रशासन और उच्चतर शिक्षा में प्रयोग करने के लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं में गद्य की आवश्यकता के परिणामस्वर आधुनिक युग के प्रारम्भ में अलग-अलग भाषाओं में गद्य का आविर्भाव हुआ। 1800 से 1850 के बीच भारतीय भाषाओं में समाचार-पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं का उदय गद्य का विकास करने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। सेरमपुर मिशनरियों ने बंगाल पत्रकारिता एक जीविका के रूप में प्रारम्भ कर दी थी। एक सशक्त माध्यम के रूप म ग आविर्भाव एक प्रकार का परिवर्तन लाया जो आधनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ घटित हुआ।
राष्ट्रीयता का आविर्भाव
यह सच है कि भारतीय समाज में एक आधनिक राष्ट की सोच ने भारत के पश्चिमी विचारों के साथ सम्पर्क के कारण अपनी जड़ जमायी थी लेकिन अतिशीघ्र बंकिम चन्द्र चटर्जी (बांग्ला लेखक 1838-1894) और अन्यों जैसे भारतीय लेखका ने उपनिवेशी शासन पर आक्रमण करने के लिए राष्टीयता की इस हाल में अपनाई गई संकल्पना का प्रयोग किया और इस किया में राष्ट्रीयता की अपनी एक छाप का सजन किया जिसकी जडें अपने देश की मिट्टी में था। बाकम चन्द्र नन्दिनी (1965) और आनन्द मठ (1882) जैसे कई ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की जिन्हें अखिल-भारतीय लोकप्रियता मिली और जिन्होंने राष्ट्रीयता और देश भक्ति को धर्म का एक भाग बना दिया। यह विकल्प सर्वमुक्तिवाद की एक सुस्पष्ट सभ्यतात्मक संकल्प था जिसे कइयों ने पश्चिमी उपनिवेशवाद को एक उत्तर के रूप में स्वीकार कर लिया था। पुनजागरणवाद और सुधारवाद राष्ट्रवाद की उभरती हुई एक नई सोच के स्वाभाविक उपसाध्य थे। आधुनिक भारतीय साहित्य का महानतम नाम रवीन्द्र नाथ टैगोर (बांग्ला 1861-1942) ने संघवाद को राष्ट्रीय विचारधारा की अपनी संकल्पना का एक महत्त्वपूर्ण अंग बनाया। इन्होंने कहा कि भारत की एकता विविधता में रही है और सदा रहेगी। भारत में इस परम्परा की नींव नानक, कबीर, चैतन्य और अन्यों जैसे सन्तों ने न केवल राजनीतिक स्तर पर बल्कि सामाजिक स्तर पर रखी थी, यही वह समाधान हैमतभेदों की अभिस्वीकृति के माध्यम से एकता-जिसे भारत विश्व के समक्ष प्रस्तत करता है। इसके परिणामस्वरूप, भारत की राष्ट्रीयता महात्मा गांधी द्वारा प्रचारित सच्चाई तथा सहिष्णुता और पण्डित जवाहर लाल नेहरू द्वारा समर्थित गुटनिरपेक्षता में जा कर मिल जाती है जो भारत के अनेकत्व के प्रति चिन्ता को दर्शाता है। आधुनिक भारतीयता अनेकता, बहुभाषिकता, बहुसांस्कृतिकता, पंथनिरपेक्षता एवं राष्ट्र-राज्य संकल्पना पर आधारित है।
भक्ति में कवयित्रियां
उस अवधि के दौरान अलग-अलग भाषाओं की (महिला) लेखिकाओं के योगदान की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। घोष, लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्री, अपाला, रोमाषा, ब्रह्मवादिनी आदि महिला रचनाकारों ने वेदों के समय से ही (6000 ईसा पूर्व से 4000 ईसा पूर्व) संस्कृत साहित्य की मुख्यधारा में महिलाओं की छवि पर ध्यान केन्द्रित किया मुट्टा और उब्बीरी जैसी बौद्ध मठवासिनियों (छठी शताब्दी ईसा पूर्व) के गीतों ने और मेत्तिका ने पालि में पीले जीवन के लिए मनोभावों की यातना को अभिव्यक्त किया है। अन्दाल और अन्यों जैसी अलवार कवयित्रियों ने (छठी शताब्दी ईसवी सन्) ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति को अभिव्यक्ति प्रदान की। (1320-1384 ईसवी में) कश्मीरी की मुस्लिम कवयित्रियों ललद्यद और हब्बा खातून ने भक्ति की सन्त परम्परा का निरूपण किया तथा वख (सूक्तियां) लिखि जो आत्मिक अनुभव के अद्वितीय रत्न हैं। गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी में मीराबाई (इन्होंने तीन भाषाओं में लिखा), तमिल में अवय्यर और कन्नड में अक्कामहादेवी अपनी गीतात्मक गहनता तथा एकाग्र भावात्मक अभ्यर्थना के लिए भली-भांति जाने जाते हैं। इनका लेखन हमें उस समाज की सामाजिक स्थितियों और गृह में तथा समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में बताता है। इन सभी ने भक्ति से ओतप्रोत, छोटे गीत या कविताएं लिखीं। तात्त्विक गहराई समर्पण तथा उच्च सद्भाव की भावना वाले छोटे गीत या कविताएं लिखी। इनके रहस्यवाद और तात्त्विकता के पीछे एक ईश्वरीय उदासी है। इन्होंने जीवन से मिले प्रत्येक घाव को कविता में परिवर्तित कर दिया।
मध्यकालीन साहित्य की अन्यप्रवृत्तियां
मध्यकालीन साहित्य का पहल एकमात्र भक्ति ही नहीं था। ‘किस्सा‘ और ‘वार‘ के नाम से प्रसिद्ध पंजाबी वीरोचित काव्य मध्यकाल में पंजाबी की प्रेम गाथाएं वीरोचित काव्य मध्यकाल में पंजाबी के लोकप्रिय रूप् थे। पंजाबी की सबसे अधिक प्रसिद्ध प्रेम गाथा हीर रांझा है जो मुस्लिम कवि वारिस शाह की एक अमर पुस्तक है। गांव के भाटों द्वारा मौखिक रूप से गायी गई पंजाबी की एक लोकप्रिय गाथा नादिरशाह का नजबत वार है। वार पंजाबी काव्य, संगीत और नाटक का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप है, इन सभी का एक में समावेश किया गया है और यह प्रारम्भिक युग से ही प्रचलन में है। 1700 और 1800 ईसवी के बीच, बिहारी लाल और केशव दास जैसे कई कवियों ने हिन्दी में श्रृंगार ( रचनात्मक भावना) के पंथनिरपेक्ष काव्य का सृजन किया और बडी संख्या में अन्य कवियों ने काव्य की सम्पूर्ण श्रृंखला का विद्वत्तापूर्ण लेखा-जोखा पद्य के रूप में लिखा है।
मध्यकालीन युग में एक भाषा के रूप में उर्दू अपने अस्तित्व में आई। भारत की मिश्रित संस्कृति के एक प्रारम्भिक वास्तुशिल्पकार और सूफी के एक महान कवि अमीर खुसरो (1253 ईसवी सन) ने सर्वप्रथम फारसी और हिन्दी (तब इसे हिन्दवी कहते थे) में ऐसी मिश्रित कविता पर प्रयोग किया जो कि एक नई भाषा का आरंभ था जिसकी बाद में उर्दू के रूप में पहचान हुई। उर्दू ने अधिकांशतः काव्य में फारसी रूपों तथा छन्दों का पालन किया लेकिन कुछ शुद्ध भारतीय रूपों को भी अपनाया है: गजल ( गीतात्मक दोहे), मरसिया (करुणागीत) और कसीदा (प्रशंसा में सम्बोधि-गीत ) इरानी मूल के हैं। सौदा (1706-1781) मध्यकालीन युग के अन्त के कवियों में से थे और इन्होंने उर्दू काव्य को वह ओजस्विता और बहुमुखी प्रतिभा दी जिसे प्राप्त करने के लिए उनके पूर्ववर्ती कवि संघर्ष करते रहे थे। इनके पश्चात् दर्द (1720-1785) और मीर तकी मीर (1722-1810) आए जिन्होंने उर्दू को एक परिपक्वता और विशिष्टता प्रदान की और इसे आधुनिक युग में ले आए।
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