वाशिंगटन सहमति क्या है ? what is washington consensus in hindi कब हुई किसने कि थी क्यों की
कब हुई किसने कि थी क्यों की वाशिंगटन सहमति क्या है ? what is washington consensus in hindi ?
वाशिंगटन सहमति
(Washington Consenus)
‘वाशिंगटन सहमति’ शब्दावली अमेरिकी अर्थशास्त्री जाॅन विलियमसन द्वारा 1989 में प्रयुक्त की गई। इसके अंतर्गत उन्होंगे तत्कालीन तिन अमेरिकी देशों के लिए नीतिगत सुधार सुझाए जिन पर वाशिंगटन स्थित अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक जैसी संस्थाआंे की भी सहमति थी और वे इन्हें इन देशों को संकट से उबारने के लिए जरूरी मानती थीं। इन नीतिगत सुधारों के निम्नलिखित दस आयाम थेः
;i) वित्तीय अनुशासन;
;ii) सार्वजगिक खर्च की प्राथमिकताओं को ऐसे क्षेत्रों की ओर फनर्निर्देशित करना जिनसे उच्च प्राप्ति की संभावना हो, जैसे-प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा तथा आधारभूत संरचना;
;iii) कर सुधार (सीमांत दरों में कमी तथा कराधर को बड़ा करना);
;iv) ब्याज दर उदारीकरण;
;v) प्रतिस्पर्धापूर्ण विनिमय दर;
;vi) व्यापार उदारीकरण;
;vii) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतःप्रवाह का उदारीकरण;
;viii) निजीकरण;
;ix) विनियमन (प्रवेश एवं विकास में बाधओं को दूर करने के अर्थ में), तथा;
;x) संपत्ति अधिकारों की रक्षा।
हालाँकि आगे वाले समय में, यह शब्दावली नव-उदारवाद (लातिन अमेरिका में), बाजारवादी रूढ़िवाद (जैसा कि 1998 में जाॅर्ज सोरोस ने कहा), यहाँ तक कि पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण की समानार्थक हो गई। यह ऐसे अति विश्वास और अंध प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए भी प्रयुक्त हुई कि बाजार कैसी भी स्थिति संभाल सकता है।
लेकिन वस्तुस्थिति भिन्न रही है-अस्सी और नब्बे के दशक के दौरान भी इन नीतियों की अनुशंसा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश तथा विश्व बैंक यू.,स. टेªजरी के साथ मिलकर करते आ रहे थे। ये नुस्खे उस समय तिन अमेरिका के देशों की वास्तविक समस्याओं के हल के लिए सुझाए गए थे और बाद में अन्यान्य परिस्थितियों मंें भी इगके उपयोग की कोशिशों का विरोध उनलोगों ने भी किया जो इगके प्रतिपादक थे। वाशिंगटन-सहमति का हवा देना विशेषकर जाॅन विलियमसन के लिए मानो दुर्भाग्यपूर्ण ही लगता रहा है, जो कि इसके जगक रहे। वे कहते हैं कि दुनिया भर में प्रेक्षक ऐसा मानते हैं कि वाशिंगटन सहमति का अभिप्राय ऐसी नव-उदारवादी नीतियों से है जो कि चार देशों के ऊपर वाशिंगटन स्थित वित्तीय संस्थाओं ने थोपी है और जो उगके यहाँ संकट और दुर्दशा का कारण बनी हैं। ऐसेलोग भी हैं जो इस शब्दावली को क्रोध और घृणा के साथ ही उच्चारते हैं। विलियमसन पुनः कहते हैं कि अनेकलोग यह समझते हैं कि जैसे इस सहमति दस्तावेज के बिन्दु उन नियमोंका प्रतिनिधिात्व करते हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका विकासशील देशों पर जबरन दना चाहता है। इसके बदले, विलियमसन हमेशा से यह मानते रहे हैं कि ये अनुशंसाए अथवा नुस्खे उन सहमतियाँ का प्रतिनिधिात्व इसलिए करते हैं कि वास्तव में वे सार्वभौमिक हैं। इस योजना के अनेक प्रतिपादकों का यह विचार है कि इगके पीछे कोई सख्त नव-उदारवादी ऐजेंडा नहीं है जैसा कि मुक्त व्यापार के विरोधाी समझते हैं या दावा करते है, बल्कि उन्हें इसे एक अनुदार मूल्यांकन के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए कि एक देश में आर्थिक स्थिरता किस प्रकार की नीतियों से संभव है।
लेकिन हुआ यह कि इन नीतियों से उन प्रक्रियाओं की शुरूआत हुई जिगहें उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण कहा जाता है। इगके चलते अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका सीमित कर दी गई.पूरी दुनिया में। उन देशों में कहीं अधिक, जो विश्व बैंक से विकास निधिाा प्राप्त कर रहे थे अथवा जो भुगतान संतुलगी संकट के समय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता मांगने जाते रहे थे (जैसा कि भारत में, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों पर 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई)। यह सब ऐसा था मानो एडम स्मिथ के ‘मुक्त व्यापार’ (उदारवाद) के नुस्खे का पुर्नजन्म (नवउदारवाद) हुआ हो।
आज अनेक विद्वान यह मानते हैं कि हाल के अमेरिका और यूरोप के आर्थिक संकटों का कारण कहीं-न-कहीं ‘सहमति’ (Consensus) में निहित है। पश्चिमी अर्थव्यवस्था में आई महामंदी (अमेरिका के सब-प्राइम संकट के पश्चात्) के जो परिणाम हुए उसमें ऐसा विश्वास किया जाता है कि वृद्धि तथा विकास को सही करने अथवा पटरी पर ने के लिए बाजार पर निर्भरता अब और नहीं चल सकती और दुनिया अब एक ‘विकास राज्य’ (Development State) के पक्ष में कुछसहमत हो सकती है जैसा कि पूर्वी ,शिया के देश अपनी मजबूत वृद्धि के लिए कभी भी ‘सहमति’ (Consensus) के पीछे नहीं गए। कीन्स के ‘हस्तक्षेपकारी राज्य’ (Interventionist State) का विचार आज की परिस्थितियों में एकमात्र विकल्प प्रतीत होता है – जैसा कि अमेरिका के नोबल अर्थशास्त्री पाॅल क्रुगमैन मानते हैं और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे भी इसी रास्ते का अनुसरण कर रहे हंै (The Three Arrows of Abenomics)।
अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका
(Role of The State in an Economy)
अर्थव्यवस्था को संगठित करने का विवाद वास्तव में इस बात के चारों ओर घूमता रहा कि अर्थव्यवस्था में राज्य/सरकार की क्या भूमिका होनी चाहिए। अर्थव्यवस्था में राज्य की तीन भूमिकाएं स्पष्ट होती हैंः
;पद्ध अर्थव्यवस्था के नियामक (regulator) की भूमिका, जिसके अंतर्गत राज्य प्रमुख आर्थिक नीतियां बनाता है और उगका कार्यान्वयन करता है। आर्थिक नियामक की भूमिका पूँजीवादी, राज्य अर्थव्यवस्था और मिश्रित अर्थव्यवस्था तीनों ही में राज्य के पास रहा है।
;पपद्ध ‘निजी वस्तुओं और सेवाओं’ के उत्पादकर्ता और आपूर्तिकर्ता की भूमिका जिसके अंतर्गत राज्य अपनी भूमिका का दो रूप में निर्वाह कर सकता है-प्रथम रूप, जिसके अंतर्गत इन उत्पादों को नागरिकों तक बिना किसी मूल्य के आपूर्ति की जाती है जैसा कि राज अर्थव्यवस्थाओं (समाजवादी और साम्यवादी) में होता था। दूसरे रूप में राज्य इन उत्पादों को उपभोक्ता तक बाजार व्यवस्था के अनुसार पहंुचाता है जैसा कि मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में वर्तमान में दिखता है जहां सरकारी कंपनियां निजी कंपनियों की तरह यह कार्य भ या फिरकुछसब्सिडी देकर कर रही हैं।
;पपपद्ध लोक वस्तुओं’ या ‘सामाजिक वस्तुओं’ (socialgoods) के आपूर्तिकर्ता की भूमिका, जिसके अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, सामाजिक सुरक्षा, इत्यादि सुविधाओं का जनता को सरकार द्वारा बिना किसी भुगतान का पहंुचाया जाता है। इगका भुगतान पूरी अर्थव्यवस्था (सरकार) करती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य यह भूमिका नहीं निभाता था।
विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं अपनी सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराओं के मुताबिक अपने राज्य के लिए विभिन्न भूमिकाएं तय करती हैं। अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए दुनिया में अलग-अलग सिद्धांत अपना, जाते हैं, इस वजह से अतीत में विभिन्न आर्थिक व्यवस्थाओं की शुरुआत हुई।
अर्थव्यवस्था के नियमन पर कोई विवाद नहीं है, क्योंकि सभी तरह की अर्थव्यवस्थाओं में सरकार ही उसे नियमित करती हैं। लेकिन राज्यों की ओर से दो अन्य गतिविधियों के चयन की वजह से वास्तिवक अंतर पैदा होता है। जिस अर्थव्यवस्था में दोनों भूमिकाएं (ii और iii) सरकार के अधीन होती हैं उन्हें सरकारी अर्थव्यवस्थाएं कहते हैं। इसमें दो तरह की अर्थव्यवस्थाएं होती है-समाजवादी और दूसरी साम्यवादी। समाजवादी अर्थव्यवस्था में श्रम सरकार के अधीन नहीं होता, लेकिन उगका शोषण सरकार नहीं कर सकती है। जबकि साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) अर्थव्यवस्था में श्रम सरकार के अधीन होता है। इन दोनों अर्थव्यवस्था का कोई बाजार नहीं है।
जिस व्यवस्था में दोनों भूमिका (पप और पपप) की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को मिलती है उसे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कहते हैं। इसमें राज्य की कोई भूमिका नहीं होती है लेकिन वह नियामक के तौर पर अपनी भूमिका जरूर निभाता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था में एक भूमिका (पअ भूमिका) तय होती है, इसमें जरूरतमंद लोगों को जरूरत का सामान मुहैया कराने की जिम्मेदारी होती है। कुछमिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में सरकारें ये जिम्मेदारी उठाती हैं या फिर बहुत ज्यादा भार अनुदान देकर वहन करती हैं।
विश्व बैंक की रिपोर्ट 1999 एक तरह से अर्थव्यवस्था में सरकार की उपयुक्त भूमिका को दर्शाती है। इसके मुताबिक समाजिक और राजनीतिक जरूरत के मुताबिक सरकार की भूमिका में भी बदलाव संभव है। राजनीतिक समस्याएं तीन चीजों के मिलगे से बनती हैंः
;i) आर्थिक निफणता,
;ii) सामाजिक न्याय, और ;
;iii) व्यक्तिगत स्वतंत्रत।
इन तीन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए, किसी भी अर्थव्यवस्था में ये इजाजत नहीं दी जा सकती है कि जिसमें केवल राज्य की भूमिका हो या फिर केवल बाजार की भूमिका हो। इन चुनौतियों का सामना तभी हो सकता है जब सरकार और बाजार दोनों को संतुलित भूमिका दी जाए। संतुलगी की परिभाषा मौजूदा स्थिति और भविष्य के लक्ष्य के आधार पर तय होती है। मौजूदा भूमंडलीकरण की दुनिया में सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सटीक संतुलगी को ही आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया कहते हैं।
अगर हम किसी अर्थव्यवस्था की जरूरत का आकलगी करेंगे तो इसमें राज्य की कुछ अनिवार्य भूमिका नजर आएगीः
;i) अगर किसी अर्थव्यवस्था में निजी व्यक्ति या फिर समूह पर नियमन और नियंत्रण की जिम्मेदारी सौंपी जाए, तो वह दूसरों की कीमत पर खुद मुनाफा कमाने पर जोर देंगे। ऐसे में ये भूमिका सरकार के अधीन ही होनी चाहिए। यह लालालोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त भी है क्योंकि इससे बड़ी आबादी के हितों का ख्याल रखना संभव है।
;ii) सामान का उत्पादन और वितरण की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को सौंपी जा सकती है क्योंकि यह क्षेत्र मुनाफा कमाने वा क्षेत्र है। सरकार अगर इस क्षेत्र की जिम्मेदारी उठाती है तो उस पर काफी बोझ पड़ेग। हांकि दुनिया के कई देशों में उपयुक्त निजी क्षेत्र की मौजूदगी नहीं होने से यह जिम्मेदारी सरकारों के अधीन भी है। भारत भी उन देशों में एक है। हांकि कुछ देशों में निजी क्षेत्र को सक्षम बनाने के लिए सरकारों ने यह जिम्मेदारी पूरी तरह से निजी क्षेत्रों के लिए छोड़ा हुआ है। भारत में यह प्रक्रिया विलंबित है जबकि इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया में सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ दिया है ताकि निजी क्षेत्र आ सकें।
;iii) हांकि जरूरतमंदलोगों के लिए रोजमर्रा के जीवन में जरूरी उत्पादों की आपूर्ति निजी क्षेत्र पर नहीं छोड़ी जा सकती है क्योंकि यह नुकसान देने वा है। इसका मतलब यह है कि सरकार को यह जिम्मेदारी खुद लेनी होगी या फिर अपनी जिम्मेदारी को इस क्षेत्र में बढ़ाना होग। भारत में आर्थिक सुधारों के बाद यही स्थिति है।
निजी क्षेत्र सामानों के उत्पादन और वितरण में सक्षम है, लिहाजा सरकार इस क्षेत्र विशेष में लगे अपने मानव और आर्थिक संसाधनों की बचत कर सकती है।
विश्व बैंक के अध्ययन के मुताबिक, पूर्वी एशियाई चमत्कार (1993) में यह देखा गया कि ऊपर के उदाहरण से एक तरह की मिश्रित अर्थव्यवस्था दूसरी तरह की मिश्रित अर्थव्यवस्था में तब्दील हो गई। यह बदलाव मलेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरियाई अर्थव्यवस्था में नजर आया, यहां यह बदलाव 1960 के दशक से हुआ था। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में यह बदलाव उपयुक्त समय पर शुरू नहीं हुआ। 1991-92 में यह काफी देरी से शुरू हुआ और इसे अनिवार्य किया गया। पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था में भी इसी तरह के सुधार हुए, लेकिन वे अपनी मर्जी से किए गए थे।
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र
(Sectors of An Economy)
प्रत्येक अर्थव्यवस्था अपनी आर्थिक गतिविधियों को आय अर्जन के मामले में महत्तमीकृत करना चाहता है ताकि आर्थिक गतिविधियाँ भकारी से और अधिक भकारी हो सकें। चाहे आर्थिक संगइन की व्यवस्था कुछ भी हो अर्थव्यवस्था की आर्थिक गतिविधियों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बांटा गया है, जिगहें अर्थव्यवस्था का क्षेत्रक (ैमबजवत) कहा जाता हैः
1- प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)
अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जहाँ प्राकृतिक संसाधनों को कच्चे तौर पर प्राप्त किया जाता है यथा-उत्खनन, कृषि कार्य, पशुपालगी, मछली पालगी, इत्यादि। इसी क्षेत्रक को कृषि एवं संबद्ध गतिविधियां (agriculture and allied activities) भी कहा जाता है।
2- द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)
अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जो प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों को अपनी गतिविधियों में कच्चे माल (तंूउंजमतपंस) की तरह उपयोग करता है द्वितीयक क्षेत्र कहता है। उदाहरण के लिए Sg एवं इस्पात उद्योग, वस्त्र उद्योग, वाहनए बिस्किट, केक इत्यादि उद्योग। वास्तव में इस क्षेत्रक में विनिर्माण (manufacturing) कार्य होता है यही कारण है कि इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
3- तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector)
इस क्षेत्रक में विभिन्न प्रकार की सेवाओं का उत्पादन किया जाता है यथा-बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यटन इत्यादि। इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र के रूप में भी जाग जाता है।
अर्थव्यवस्था के प्रकार
(Types of Economy)
किसी अर्थव्यवस्था में उगके क्षेत्रकों का सकल आय में क्या योगदान है और कितनेलोग उन पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं, इन बातों के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण भी होता हैः
1- कृषक अर्थव्यवस्था (Agrarian Economy)
अगर किसी अर्थव्यवस्था के सकल उत्पादन (सकल घरेलू उत्पाद) में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान 50 प्रतिशत या इसके अधिक हो तो वह कृषक अर्थव्यवस्था कही जाती है। स्वतंत्रत-प्राप्ति के समय भारत एक ऐसी ही अर्थव्यवस्था था; लेकिन आज इसकी सकल आय में हिस्सा घटकर 18 प्रतिशत के आस-पास रह गया है। इस दृष्टिकोण से भारत एक कृषक अर्थव्यवस्था नहीं लगता, लेकिन आज भी इस क्षेत्र पर भारत के लगभग 49 प्रतिशतलोग अपनी आजीविका (Livelihood) के लिए निर्भर हैं। यह एक विशेष परिस्थिति है, जहां सकल आय में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान जिस अनुपात में घटा है। आजीविका के लिए इस परलोगों की निर्भरता उस अनुपात में नहीं घटी है- जनसंख्या का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की ओर स्थानांतरण नहीं हुआ है।
2. औद्योगिक अर्थव्यवस्था
(Industrial Economy)
ऐसी अर्थव्यवस्था में उसकी सकल आय में द्वितीयक क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत या इससे अधिक रहता है तथा इसी अनुपात में इस क्षेत्रक परलोगों की निर्भरता भी रहती है। पूरा-का-पूरा यूरोप-अमेरिका इस स्थिति में रहा था, जब उन्हें औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया था। यह स्थिति भारत में अभी तक नहीं आयी-न तो द्वितीयक क्षेत्र ा योगदान इस स्तर तक बढ़ा न ही इस पर जनसंख्या की निर्भरता ही बढ़ी।
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