विजयनगर वास्तुकला शैली क्या है , विजयनगर साम्राज्य के मंदिर की विशेषता Vijayanagara architecture in hindi
Vijayanagara architecture in hindi विजयनगर वास्तुकला शैली क्या है , विजयनगर साम्राज्य के मंदिर की विशेषता किसे कहते हैं ?
विजयनगर वास्तु शैली
विजयनगर की राजधानी हम्फी थी और इसके सबसे लोकप्रिय राजा कृष्णदेवराय थे। इन्हें कई मंदिरों, स्तंभ मंडपों और गोपुरम (इन्हें विशेष रूप से ‘रायगोपुरम’ कहा जाता था) के निर्माण का श्रेय दिया जाता है।
चैदहवीं शताब्दी में उत्तर से आए मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों पाण्डयों का पतन हो गया। अब दक्षिण-पूर्वी तटीय भारत में विजयनगर ही मात्र ऐसा राज्य बचा था, जिसने आगामी लगभग दो शताब्दियों तक हिंदू स्थापत्य परम्पराओं को अक्षुण्ण बना, रखने का प्रयास किया तथा इस्लामी आक्रमणकारियों को कृष्णा नदी पार कर दक्षिण में बढ़ने से रोके रखा। इसकी राजधानी विजयनगर अरबी, पुर्तगली और इतालवी यात्रियों के वृत्तांतों के अनुसार, प्रचुर रूप से धनी एवं शान-शौकतपूर्ण तथा एशिया के प्रमुख नगरों से एक थी।
चैदहवीं शताब्दी के मध्य से दक्षिण भारतीय स्थापत्य के विभिन्न तत्वों में एक विशेष परिवर्तन दिखाई देने लगता है। यह बात विजयनगर के वर्तमान खण्डहरों को देखकर स्पष्ट समझी जा सकती है। इस शैली के भवन चोल भवनों के विपरीत अकेला विशाल भवन न होकर, औसत अनुपातों के छोटे-छोटे भवन समूहों के रूप में बना, गए हैं। ये अपनी विशिष्ट वास्तु शैली तथा समृद्ध मूर्ति सज्जा के लिए अपनी पृथक् पहचान बना सके। इस शैली के वर्चस्व में आने से पूर्व, मंदिरों के चारों ओर एक के बाद एक रक्षा भित्तियों तथा गोपुरों के घेरे बनाकर उन्हें बड़ा आकार दिया जाता था। परंतु इस काल में देवमूर्ति को मानव गुणों के अधिक निकट लाते हुए कई अन्य भवन बनाने की प्रथा चल पड़ी। इसके अंतग्रत कई पूरक भवनों का भी निर्माण होने लगा, जिनके स्थान निर्धारित थे। इसमें से एक ‘अम्मा मंदिर’ मुख्य मंदिर के उत्तर पश्चिम में बनाया जाता था। यह मंदिर प्रतिष्ठित देवता की सहधर्मिणी का देवालय था। एक और निर्माण ‘कल्याण मण्डप’ इन देवी.देवता के वार्षिक विवाहोत्सव के लिए बनाया जाता था।
विजयनगर शैली की विशेष चरित्रगत पहचान उसके स्तंभों में निहित है। कठोर पत्थर में निर्मित इन स्तंभों में संयोजित आकृतियों ने इन्हें वास्तु योजना का प्रमुख अंग बना दिया है। इनके आधार पर ‘पूर्ण-घट’ आकार कुछ धंसा कर बना, गए हैं, परंतु इनमें सबसे सुंदर वे हैं जिनकी नाल में लगभग राउण्ड मूर्तियां जुड़ी हुई हैं। अन्य विषयों के अतिरिक्त इनमें सबसे प्रमुख आकृति घुड़सवारों की है जिनके उद्धृत अश्व पिछले पैरों पर खड़े हैं, तथा अगले आक्रमण की मुद्रा में उठे हुए हैं। अन्य स्तंभों में पंखों वाले काल्पनिक पशु बना, गए हैं। स्तंभ के ब्रैकेट भी अत्यंत अलंकृत हैं।
पाण्डव शैली की भांति विजयनगर शासकों ने भी कुछ भवनों का निर्माण तो स्वयं कराया तथा अन्य कुछ निर्मित भवनों या मंदिरों के कुछ भाग इनके काल में जोड़े गए। उदाहरणतया, पंद्रहवीं शताब्दी के मण्डपों में जम्बुकेश्वर मंदिर का बाहरी घेरा, हम्फी के विट्ठल मंदिर की महान शृंखला, कांची का एकम्बरेशवर मंदिर, सत्रहवीं शताब्दी के त्रीरंगम का ‘अश्व मण्डप’ अथवा ‘सहस्र स्तंभ कक्ष’ एवं मदुरई में तिरुमलाई नायक की चैल्त्री इत्यादि। विजयनगर शैली के निर्माताओं ने कभी-कभी वर्णसंकर रचनाएं भी की, जिनमें सबसे प्रमुख शृंगरी का विद्याशंकर मंदिर है।
विट्ठलस्वामी मंदिर (जिसका निर्माण 1513 ई. में शुरू हुआ और जो कभी पूरा न हो सका) को विजयनगर वास्तुशैली का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इसमें मुख्य मंदिर के स्तंभ वाले कक्ष,गौण देवालय और अलंकृत स्तंभ, आकृतियों का निरूपण और पशुओं का चित्रण है। मंदिर निर्माण योजना में दीवारों से घिरा एक वृहदाकार स्थान होता है, जिसमें कम से कम पांच पृथक् भवन बने होते हैं। तीन गोपुरम से होकर प्रांगण में जाते हैं, जबकि मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। यह नीची जगह पर ग्रेनाइट का और ऊंची जगह पर ईंटों से बना है। विशिष्ट दक्षिणात्य शैली में ऊपर उठती हुई मंजिलें क्रमशः छोटी होती जाती हैं।
विजयनगर शैली के खास मंदिरों में अम्मान मठ और कल्याण मंडप आते हैं। ये मुख्य मंदिर से मिलते जुलते हैं, पर आकार में छोटे हैं। अम्मान मठ देवी को समर्पित है। विशिष्ट अवसरों पर मुख्य मंदिर और अम्मान मठ की कांस्य प्रतिमाएं अपने स्थानों से उठाकर कल्याण मंडप तक प्रदर्शन और पूजा के लिए लाई जाती थीं। वग्रकार बना और अलंकृत स्तंभों की पंक्ति से घिरा व मध्य भाग में ऊंचा उठा प्लेटफार्म वाला यह खुला किंतु भव्य मंडप विजयनगर शैली का उत्कृष्ट नमूना है।
एक अन्य उल्लेखनीय भवन लेपाक्षी की नृत्यशाला है। इसमें शिव के चारों तरफ स्तंभों पर बनी संगीतमय आकृतियां हैं। वेलोर का उत्सव कक्ष भी विलक्षण है, जिसमें स्तंभों पर अश्वारोहियों तथा अन्यों की आकृतियां बनी हुई हैं।
विजयनगर के इन स्मारकों में वास्तुकला की भव्यता शिल्पीय अलंकरण की तुलना में कहीं अधिक मुखर है। संपूर्ण आयोजन में मूर्तियों का एक विशेष महत्व था। मंडपों में बने स्तंभों पर अनेक प्रकार की आकृतियां बनी हैं, जिनमें से कुछ तो अत्यंत दर्शनीय और मनोरंजक हैं। उदाहरण के लिए एक ऐसी शिल्प प्रविधि थी, जिससे बनाई गई आकृति का एक हिस्सा दूसरी में भी शामिल हो जाता था। लेपाक्षी में वीरभद्र मंदिर में एक अलंकृत स्तंभ पर तीन आकृतियां बनाई गई हैं, जिनके चार पैर हैं लेकिन फिर भी हर आकृति अपने आप में संपूर्ण लगती है। ये सभी आकृतियां कम उभार वाली हैं, और उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो वे सर्वांग संपूर्ण त्रिआयामी तक्षण न होकर रेखांकन हों।
इस युग की प्रतिमाएं विशालकाय एकाश्मीय उत्कीर्णन हैं। लेपाक्षी मंदिर के पास बैठे हुए नंदी की मूर्ति को इस देश का सबसे बड़ा एकाश्म नंदी माना जाता है। इससे भी कहीं अधिक प्रभावशाली विजयनगर में ‘उग्र नरसिंह’ की बैठी हुई मुद्रा में बनी मूर्ति है।
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