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वेद समाज के संस्थापक कौन थे , वेद समाज की स्थापना कब और किसने की कहाँ की veda samaj was established by in hindi

veda samaj was established by in hindi वेद समाज के संस्थापक कौन थे , वेद समाज की स्थापना कब और किसने की कहाँ की ?

प्रश्न: वेद समाज
उत्तर: 1871 में श्री धरलू नायडू ने मद्रास में वेद समाज को पुनः संगठित कर ब्रह्म समाज ऑफ साऊथ इंडिया नाम से ब्रह्मसमाज की एक शाखा स्थापित की। जिसके अन्य प्रमुख नेता थे – एम.बी. पंतुलू, आर. वेंकट रतनम।

विदेशियों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
प्रश्न: विलियम जोंस
उत्तर: प्रसिद्ध अंग्रेज विद्धान, जिन्होंने 1784 में ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगालश् की स्थापना की, जिसने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के अध्ययन हेतु महत्वपूर्ण प्रयास किये।
प्रश्न: ए.ओ. ह्यूम
उत्तर: ए.ओ. हम इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जिन्होंने अवकाश ग्रहण करने के बाद 1885 में कांग्रेस का गठन किया। कुछ वर्षों तक वे कांग्रेस के सचिव के रूप में भी कार्यरत रहे।
प्रश्न: मार्गरेट नोबल/ डॉ. निवेदिता भसीन
उत्तर: आयरलैंड की शिक्षित महिला, जो स्वामी विवेकानंद की शिष्या बनने के बाद ‘सिस्टर निवेदिता‘ के नाम से जानी जाती गयी। ये पश्चिमी देश की प्रथम महिला थीं, जिन्हें भारतीय मठवासीय जीवन क्रम में प्रवेश मिला। इन्होंने धर्म की राष्ट्रीय दर्शन के रूप में व्याख्या की।
प्रश्न: मीरा बेन
उत्तर: मीरा बेन (1892-1986 ई.) का जन्म इंग्लैण्ड में हुआ था एवं इनका वास्तविक नाम मैडलिन स्लेड था। ये गांधी जी की शिष्या और सहयोगी थीं और गांधीजी ने ही इनका नाम मीराबेन रखा था। इन्हें 1982 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।

कला जगत के शिलास्तम्भ
नंद लाल बोस की गतिशील, सशक्त अंतप्र्रेरणा का उल्लेख करते हुए विश्वकवि टैगार ने एक स्थल पर लिखा था
‘‘अवनींद्रनाथ ठाकुर के पश्चात् जो सबसे विख्यात कलाशिल्पी भारत को विरासत के रूप में मिला उनमें नन्दलाल बोस से बढ़कर उस पीढ़ी में कोई और न था।’’ उन्हें अवनींद्रनाथ ठाकुर जैसे महान कलागुरु की प्रेरणा का बल मिला, किंतु कल्पना वैभव, पर्यवेक्षण शक्ति, उच्च कलाकारिता और अपने दृष्टिकोणों के उत्कर्ष पर पहुंचने में वह अपने गुरु से भी आगे बढ़ गए, नन्दलाल के चिंतन का अक्षय कोष और जीवन की विविधताएं ही नई.नई कला-शैलियों के रूप में प्रवर्तित हुईं जो भारतीय कला को निश्चित दिशा प्रदान करती गईं। अवनींद्रनाथ ठाकुर द्वारा जिस ‘बंगाल आर्ट’ की स्थापना हुई थी उसके स्वरूप का परिष्कार करने में उन्होंने कुछ उठा न रखा। उन्होंने सीधे अजंता और बाघ गुफाओं के चित्रांकन से प्रेरणा प्राप्त की थीं। 1922 में रवींद्रनाथ ठाकुर नन्दलाल को शांतिनिकेतन के ‘कला-भवन’ का अध्यक्ष बना कर ले आये। दो वर्ष बाद जब रवींद्रनाथ ठाकुर चीन गये तो इन्हें भी अपने साथ ले गये। चीनी-जापानी कला-परंपराओं को आत्मसात् कर और तैकबान, क्वागजाग, हिशिदा, आराई आदि कलाकारों की कला से उनकी कला-शैली, रूप-विधान और सृजन-चमत्कारों में संकीर्ण परिधियों से परे जीवन की विविध अनुभूतियों का समावेश हुआ। सूक्ष्म को पकड़ने-आंकने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। नन्दलाल सृजन में कलात्मक संपूर्णता के कायल थे। उनके सृजन में वे तत्व उभरे जो सशक्त, प्रभावशाली और मुखर होकर प्रत्येक घटना और विभिन्न प्रेरक-स्रोतों के छोरों को छू सके। उनकी भाव-प्रवणता कभी शांत न हुई, उनकी अंतर्निहित शक्ति कभी खंडित नहीं हुई। अपनी अद्भुत कला-सृष्टि से उन्होंने समूची कला को नाप डाला। उन्होंने स्वयं लिखा है ‘स्वकीयता क्या है? कोई रचना करते समय विषय के अंतर्निहित सत्य को अपने चित्र-सम्मत रस के भीतर से या अपने प्रकृतिगत कौशल के भीतर से विशिष्ट रूप देना ही स्वकीयता है।’ एक सर्जक कलाकार के पूर्णत्व को उन्होंने पा लिया था सीमार माझे असीम तुमि’ अर्थात् तुम सीमा के भीतर असीम हो। नंद बाबू ने एक सहस्र से भी अधिक चित्रों का निर्माण किया था। उनकी प्रारंभिक कृतियां अजंता और बाघ गुफाओं से प्रभावित तो थीं ही, हिंदू ‘देववाद’ के भी वे प्रबल समर्थक थे। पौराणिक और धार्मिक विषयों से प्रेरित
‘सती’, ‘शिव का विषपान’, ‘शिव-विलाप’, ‘शिव-ताण्डव’, ‘उमा की तपस्या’, ‘विरहिणी उमा’, ‘युधिष्ठिर की स्वग्र-यात्रा’, ‘दुग्र’, ‘यम-सावित्री’, ‘कैकेयी’, ‘अहिल्या’, ‘सुजाता’, ‘कर्ण’, आदि चित्र बड़े ही उत्कृष्ट बन पड़े हैं। ‘वीणावादिनी’, ‘नटीर पूजा’, ‘नटीर नृत्य’ और अन्य कितने ही रेखाचित्रों में रेखाएं सजीव होकर बोल उठी हैं। ‘गांधारी’, ‘कृष्ण और अर्जुन’ चित्रों में उनके अद्भुत सृजन-शिल्प का परिचय मिलता है। कहीं ऊषा की-सी जीवस्पर्शी रंगमयता उभर आई है और कहीं प्रकृति की मनोरम दृश्यावलियां मुखर हो उठी हैं। ‘बसंत’, ‘जगन्नाथ मंदिर के गरुड़-स्तम्भ के पास श्री चैतन्य’, ‘स्वर्णकुम्भ’, ‘स्वप्न’, ‘नये मेघ’, आदि में ज्योतिर्मय रंगों का सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठा है। नंद बाबू ने भित्तिचित्रों का भी अत्यंत सफलतापूर्वक चित्रांकन किया। लेडी हेरिंगहम नामक अंग्रेज महिला की प्रेरणा से ही जो उन्होंने अजंता के भित्तिचित्रों का चित्रांकन किया। 1921 में उन्होंने बाघ-गुफा के चित्रों की प्रतिकृतियां तैयार कीं। लखनऊ, फैजपुर और हरिपुरा के अखिल भारतीय कांग्रेस के तीन अधिवेशनों के पंडालों की कलात्मक सज्जा भी उन्होंने महात्मा गांधी के आग्रह से अपने हाथों से सम्पन्न की थी। हरिपुरा में ऐसे लोकचित्रों को आंका जो सर्वसाधारण की समझ में भी आ सकें। उन्होंने मिट्टी की मूर्तियां और लकड़ी पर भी खुदाई करके आकृतियां निर्मित कीं। चीनी-जापानी और फारसी पद्धति के अनेक चित्र बनाये। रामायण, हरिपुरा और सप्तम की चित्रावलियां तथा कालीघाट के पटचित्रों से प्रेरित बंगाली लोककला की बारीकियां भी उनकी कला में उभर आई थीं। नंदलाल ने कला को प्राणों में ढाल लिया था। वह जैसे उनके जीवन के साथ एकाकार-सी हो गई। उनके शब्दों में-‘सौंदर्य के अभाव से मनुष्य केवल रस के क्षेत्र में ही वंचित नहीं होता, अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वह क्षतिग्रस्त होता है।’ नंद बाबू कला की तकनीक और समस्त नियम-उपनियमों से ऊपर उठ कर सृजन करते रहे। कला उनके लिए जीवन के हर पक्ष में समा गई थी। 16 अप्रैल, 1966 को उनका देहावसान हो गया, किंतु युग की वाणी को शाश्वत मुखरता प्रदान करता हुआ उनकी गरिमामय कलासाधना का पथ आज भी प्रशस्त है।