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थोर्टीन वेब्लेन कौन है ? thorstein veblen in hindi  प्रौद्योगिकी विकास का सिद्धांत  संपन्न वर्ग और प्रदर्शन उपभोग

thorstein veblen in hindi थोर्टीन वेब्लेन कौन है ? प्रौद्योगिकी विकास का सिद्धांत  संपन्न वर्ग और प्रदर्शन उपभोग ?

थोर्टीन वेब्लेन (1857-1929)
वेब्लेन (1857-1929) का जन्म अमरीका के विसकांसिन राज्य में हुआ था। उसने अमरीका में जॉन हॉप्किन्स, येल और कार्नेल विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया। उसके माता-पिता नॉर्वे के आप्रवासी थे। वे उसके जन्म से दस साल पहले मध्य-पूर्व अमरीका में आकर बसे गए थे। थोर्टीन वेब्लेन के समाजशास्त्रीय अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि उस समय अमरीका में किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे थे, साथ ही उससे वेब्लेन के व्यक्तिगत अनुभवों और उसके व्यक्तित्व की विशेषताओं के बारे में भी जानकारी मिलती है।

वेब्लेन के समाजशास्त्रीय सिद्धांत में प्रौद्योगिकीय विकासवाद के बारे में विचार किया गया है। वह स्पेंसर के विकासवादी सिद्धांत से प्रभावित हुआ था जिसमें स्पेंसर ने समाजों के विकास में विश्वास व्यक्त किया है (इस विषय में आपने पिछली इकाई में अवश्य पढ़ा होगा।) स्पेंसर की तरह वेब्लेन भी पर्यावरण के चयनात्मक अनुकूलन की प्रक्रिया (चतवबमेे व िेमसमबजपअम ंकंचजंजपवद) में विश्वास रखता था। लेकिन हीगल और मार्क्स के विपरीत उसका यह विश्वास नहीं था कि ऐतिहासिक विकास की इस प्रक्रिया का कोई अंत है। प्रौद्योगिकीय विकास के अलावा वेब्लेन ने काम से बहुधा अवकाश पाने वाले संपन्न वर्ग (समपेनतम बसंेे) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसकी वजह से उसे बहुत प्रसिद्धि मिली। उसने इस सिद्धांत का प्रतिपादन अपनी पुस्तक, द थ्योरी ऑफ द लैजर क्लास (1899) में किया। यह उसकी पहली और सबसे अधिक जानी-मानी पुस्तक है। इस पुस्तक में उसने समाजशास्त्र में अपने आधारभूत सैद्धांतिक विचार प्रस्तुत किए। इससे पहले कि हम इन विचारों पर चर्चा आरंभ करें, आइए, पहले हम वेब्लेन के जीवन संबंधी विवरण के बारे में जान लें और फिर हम उसकी सामाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझें जिसने उसके विचारों को असली रूप प्रदान किया।

 जीवन परिचय
थोस्र्टीन वेब्लेन का जन्म अमरीका के विसकांसिन राज्य में 30 जुलाई 1857 में हुआ था। उसके माता-पिता नॉर्वे के आप्रवासी थे। उसके पिता का नाम थॉमस एंडरसन वेब्लेन और माता का नाम कार्ल बुंडे वेब्लेन था। अपने माता-पिता की बारह संतानों में यह छठी संतान था। वेब्लेन के माता-पिता उसके जन्म से दस वर्ष पूर्व नॉर्वे से अमरीका आ गए थे। वे नॉर्वे के कृषक वर्ग के थे। पहले वे विसकांसिन में बसे और बाद में मिनीसोटा चले गए। उन्हें अपने पुराने देश नॉर्वे और नए देश अमरीका में भी बहुत कष्टपूर्ण जीवन बिताना पड़ा। उनको जमीन और उसके स्वामित्व संबंधी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा।

वेब्लेन के माता-पिता को जमीन से मुनाफा कमाने वालों, धोखेबाजों, कपटी वकीलों आदि से बहुत घृणा हो गई थी क्योंकि इन्होंने बार-बार उन्हें ठगा था। उस समय मुनाफाखोरों और श्धोखेबाजों की संख्या काफी थी, इसलिए उनके प्रति वेब्लेन के मन में तीव्र घृणा घर कर गई। थी जिसकी अभिव्यक्ति उसकी बाद की रचनाओं में दिखाई देती है। उसके माता-पिता बहुत परिश्रमी थे। इसी मेहनत के बल पर वे मिनीसोटा का बड़ा फार्म हासिल करने में सफल हुए। वे जिस समुदाय में रहते थे वह पूर्ण रूप से नार्वे के लोगों का था। अतः अपने जीवन के लगभग प्रारंभिक सत्रह वर्षों में वह जिस संस्कृति संपर्क में आया वह मुख्य रूप से नॉर्वे की थी। इससे अलग बात सिर्फ यह थी कि उसने एक अंग्रेजी विद्यालय में शिक्षा पाई।

अपने समुदाय में वेब्लेन के पिता का बहुत सम्मान था। उसके पिता न्यायप्रिय और बुद्धिमान व्यक्ति थे और उन्हें अपने काम से मतलब रहता था। अपने पिता की यह विशेषता वेब्लेन को विरासत में मिली थी। वह समय से पहले ही बड़ा हो गया और वह पिता के समान ही प्रतिभाशाली भी था। जब वह छोटा था तो अपने से बड़ों को परेशान करता, दूसरे लड़कों को मारता-पीटता था और उन्हें तंग करता था। बड़ा होने पर वह व्यंग्य प्रिय बन गया और उसका बचपन का आक्रामक रवैया तीखे व्यंग्यपूर्ण चुटकलेबाजी और अविश्वास में बदल गया इसलिए वह अपने परंपरागत समुदाय में बेमेल बन गया और वहां के व्यापक अमरीकी समाज के लिए अजनबी-सा बना रहा।

अध्ययन के लिए उसे कार्लटन कालेज में भेजा गया जहां वह पहली बार अमरीकी-इंग्लिश संस्कृति के संपर्क में आया। यहां उसने शास्त्रीय साहित्य, नैतिक दर्शन और धर्म के अध्ययन पर बल दिया।

वेब्लेन को कार्लटन कालेज का लोकाचार बहुत पंसद नहीं आया। उसके मन में अविश्वास की धारणा बनी रही। हालांकि वह इसी कॉलेज से 1880 में स्नातक हुआ और इसका सर्वाधिक प्रसिद्ध छात्र रहा। लेकिन उसे किसी प्रकार का सम्मान नहीं दिया गया अर्थात् यहां विद्यालय में उसकी स्मृति में कोई कीर्ति फलक नहीं लगाया गया। जब वह कार्लटन से स्नातक बना तो उसने जो अधिकांश ज्ञान संचित किया था वह उसके निरंतर अध्ययनशील स्वभाव के कारण ही था। जब वह कॉलेज में पढ़ रहा था तो उसका अपनी सहपाठी छात्रा एलेन रोल्फ से चिरस्थायी प्रणय संबंध स्थापित हो गया। यह छात्रा कॉलेज प्रेसिडेंट की नजदीकी संबंधी थी बाद में 1888 में उसने एलेन रोल्फ से विवाह कर लिया।

वेब्लेन ने कार्लटन छोड़ दिया और विसकांसिन मैडिसन नगर के स्कूल में अध्यापक हो गया। यहां का वातावरण भी उसके मन को अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह स्कूल की नौकरी छोड़कर अपने भाई के साथ जॉन हॉप्किन्स में दर्शन का अध्ययन करने के लिए चला गया। इस प्रकार वह मध्य पश्चिम से दक्षिण की ओर चला आया। यहां प्राप्त अवसरों के बावजूद बाल्टीमोर की आराम पसंद दक्षिण की संस्कृति में उसने स्वयं को अजनबी-सा अनुभव किया। वह बुनियादी तौर पर समतावादी और मूल सुधारवादी था जबकि वहां का दक्षिणी समाज पारंपरिक वर्ग पदक्रम पर आधारित था जो कि हमारी जाति व्यवस्था से बहुत भिन्न नहीं था।

वेब्लेन को यहां कांट, मिल, ह्यूम, रूसों, स्पेंसर आदि की कृतियों को पढ़ने का अवसर मिला। परन्तु वह अपने शिक्षकों से प्रभावित नहीं हुआ और बहुत ही जल्दी वह स्वयं को अकेला महसूस करने लगा और उसे घर की याद सताने लगी। यहां उसे छात्रवृत्ति नहीं मिल सकी, इसलिए वह पढ़ने के लिए येल चला गया। उसे ईश्वर में विश्वास नहीं था और वह विवादप्रिय था। यहां वह धर्म विज्ञान के विद्यार्थियों से घिरा था। यहां आकर उसकी व्यंग्यात्मक, कटुतापूर्ण प्रवृत्ति और आत्मरक्षा के लिए लोगों से दूरी बनाए रखने का तरीके और अधिक बढ़ गये। वह डब्ल्यू. जी. सम्नर जैसे विद्वान अध्यापक के संपर्क में आया। सम्नर समाजशास्त्र का प्रमुख विद्वान था जिसने उसे बहुत प्रभावित किया। उसके समकालीन विद्वानों में से डॉर्फमैन ने यह बताया कि वेब्लेन ने सम्नर की भी आलोचना की थी लेकिन सम्नर ही एक ऐसा आदमी था जिसके प्रति उसने प्रगाढ़ और पूर्ण श्रद्धा प्रदर्शित की (कोजर 1971ः 279)।

वेब्लेन ने कांट और कांट के बाद के चिन्तकों के विचारों पर अपने शोध कार्यों में विशेषज्ञता हासिल की। उसके शिक्षकों और साथियों ने उसकी बहुत प्रशंसा की। हालांकि उसने अपनी डॉक्टरेट यानी पी. एच.डी. पूरी कर ली लेकिन उसे उन्होंने कोई शैक्षिक पद नहीं दिया। कोई भी शैक्षिक संस्था एक नॉर्वेजियन, और वह भी नास्तिक व्यक्ति को अपने यहां नही रखना चाहती थी। वेब्लेन ने अर्थशास्त्र का अध्ययन आरंभ किया और 1888 के आसपास भूमि संबंधी क्रांतिकारी आंदोलनों में उसकी रुचि पैदा हो गई। उसने यह महसूस किया कि शायद इस भूमि संबंधी संकट का समाधान अर्थशास्त्र द्वारा संभव हो। इसलिए, उसने कॉर्नेल जाकर वहां अपना ‘‘रजिस्ट्रेशन‘‘ करा लिया। यहां ‘‘समाजवाद के सिद्धांत में कुछ उपेक्षित मुद्दे‘‘ विषयक शोधपत्र तथा कुछ अन्य लेखों के द्वारा वह अपने शिक्षकों को प्रभावित करने में सफल हुआ। कॉर्नेल से वह शिकागो विश्वविद्यालय गया, जहां वह 1892 से 1906 तक रहा। यहां उसने जॉन डेवी, विलियम आई, थॉमस आदि जाने माने विद्वानों और विचारकों के साथ काम किया। कई पत्र-पत्रिकाओं में उसके बहत से लेख भी प्रकाशित हए। उसकी अधिकांश रचनाएं व्यंग्य और हाजिर जवाबी से भरी होती थीं। 38 साल की आयु में वह शिकागो विश्वविद्यालयों में अनुदेशक (पदेजतनबजवत) के रूप में काम करने लगा। पांच साल बाद वह असिस्टेंट प्रोफेसर बन गया।

3 अगस्त 1929 को वेब्लेन का देहांत हृदय रोग से हुआ। अंतिम समय तक वह उदास और एकाकी बना रहा। जीवन में जो भी कठिनाइयां आतीं उनका सामना वह आलोचना और व्यंग द्वारा करता या खामोश बना रहता। वह नार्वेजियन समाज और अमरीकी संस्कृति दोनों ही के लिए अजनबी बना रहा। अपनी रचनाओं में उसने इन दोनों ही की समालोचना की। वह जीवन भर पूरी तरह से तटस्थ सा रहा।

उसके जीवन और कृतियों पर उसके गैर रूढ़िवादी और अजीब तरीकों का प्रभाव पड़ा। यह यद्यपि बड़े दुरूख की बात है, किन्तु सच है कि वेब्लेन की अवधारणाएँ जैसे ‘‘प्रदर्शन उपयोग‘‘ तथा ‘‘प्रशिक्षित असमर्थता‘‘ (यानी कोई व्यक्ति एक क्षेत्र में ऐसा विशेषज्ञ बन जाता है कि उसके विषय संबंधी व्यापक ज्ञान में कमी आ जाती है) का लोग आज भी बहुत प्रयोग करते हैं। लेकिन बहुत कम लोग उसकी रचनाओं को पढ़ते हैं। द थ्योरी ऑफ द लैजर क्लास (1899) उसकी प्रमुख रचना है। वेब्लेन अच्छा अध्यापक तो नहीं था लेकिन समालोचना के क्षेत्र में अच्छा लेखक अवश्य था।

 सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वेब्लेन के जीवन काल के समय अमरीका में बहुत तेजी से औद्योगिक विकास हुआ। इस विकास से पूर्व अमरीका बुनियादी तौर पर कृषिजीवी समाज था। इसलिए अमरीका का यह काल स्वर्ण युग कहलाता था। यह युग विरोध-युग (ंहम व िचतवजमेज) के रूप में भी जाना जाता है।

इसी समय अमरीका में साहसिक पूँजीपति लुटेरों के वर्ग का उद्भव हुआ। इन्हें ‘‘रॉबर बैरन्स‘‘ (तवइइमत इंतवदे) भी कहा जाता था। ये लोग उन गरीब औद्योगिक मजदूरों के बल पर अत्यधिक संपन्न हो गए थे जो कारखानों में जी-तोड़ मेहनत करते थे। ये औद्योगिक पूंजीपति बदमिजाज, अड़ियल, अघिष्ट और नए बने रईस थे यानी उन्होंने यह संपत्ति हाल ही में संचित की थी। इसी समय के एक अन्य अमरीकी विचारक वर्नन पैरिंगटन ने उनका वर्णन करते हुए लिखा है कि ये लोग असभ्य, निर्दयी, लूटपाट करने वाले, समर्थ और इरादे के पक्के थे (कोजर 1971ः 293)।

इस औद्योगिक वर्ग के प्रभुत्व के कारण मध्य-पश्चिमी क्षेत्र के कृषकों में विद्रोह भड़क उठा। इन कृषकों ने लुटेरे पूँजीपति वर्ग के विरूद्ध संघर्ष को सक्रिय रूप देने में पहल की।

उस समय समाज में चल रहे संघर्ष और विद्रोह की झलक वेब्लेन के विचारों में मिलती है। इस लुटेरे पूँजीपति वर्ग के कुकृत्यों से प्रेरणा पाकर उसने संपन्न वर्ग के सिद्धांत (जीमवतल व िजीम समपेनतम बसंेे) का विकास किया। जिन प्रौद्योगिक परिवर्तनों के कारण अमरीकी समाज के ढाँचे में इतने व्यापक परिवर्तन हुए तथा पूँजीपति वर्ग, औद्योगिक मजदूर वर्ग आदि का उद्भव हुआ संभवतः इन्हीं परिस्थितियों ने वेब्लेन के प्रौद्योगिक विकास के सिद्धांत को जन्म दिया। वेब्लेन के कार्यकाल की सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के वर्णन द्वारा हमने यह बताने का प्रयास किया है कि वेब्लेन के समय में अमरीकी समाज में क्या-क्या परिवर्तन हुए। यहाँ इन परिवर्तनों की केवल रूप-रेखा मात्र ही दी गई है। इसके द्वारा यह भी बताया गया है कि वेब्लेन ने किस संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत किए। आइए, अब हम वेब्लेन के मुख्य विचारों की चर्चा करें।

 मुख्य विचार
वेब्लेन की समाजशास्त्रीय रचनाओं में उपलब्ध उसके दो विचार मुख्य हैरू प्रौद्योगिक विकास का सिद्धांत और संपन्न वर्ग का सिद्धांत । उसके संपन्न वर्ग सिद्धांत से ही संबंधित है उसका सामाजिक दृष्टि से प्रेरित प्रतिस्पर्धा की अभिप्रेरणा का सिद्धांत । सामाजिक क्रियाकलापों के अप्रत्यक्ष प्रकार्यों की वेब्लेन की खोज उसके प्रकार्यात्मक विश्लेषण की रूपरेखा बताती है। उसने प्रौद्योगिक और संस्थासंबंधी विकास के बीच पश्चता (संह) के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया।

 प्रौद्योगिक विकास का सिद्धांत
जैसे कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि वेब्लेन पर स्पेंसर के सामाजिक विकास संबंधी विचारों का प्रभाव पड़ा था। वेब्लेन के अनुसार नई और पहले से कहीं अधिक प्रभावपूर्ण प्रौद्योगिकियों के आविष्कार और उपयोग के साथ ही मानव का विकास हुआ। उसने कहा कि किसी भी समाज में कार्य करने की पद्धति के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या की जा सकती है। अर्थात् जीवन के भौतिक साधनों के उपयोग के तरीके में परिवर्तन का अध्ययन करने से की जा सकती है। दूसरे शब्दों में ‘‘औद्योगिक कला‘‘ (पदकनेजतपंस ंतजे) या सामाजिक प्रौद्योगिकी निर्धारित करती है कि मनुष्य अपने प्राकृतिक पर्यावरण के अनुसार स्वंय को कैसे ढाल सकता है। यही औद्योगिक कला ही मनुष्य की सामाजिक पर्यावरण के साथ व्यवस्था को भी निर्धारित करती है (कोजर 1971ः 265)।

वेब्लेन के अनुसार ‘‘मनुष्य वही होता है जो वह करता है‘‘ या अगर हम इसकी और आगे व्याख्या करें तो कहा जा सकता है कि मानव जाति और उसका सामाजिक गठन उसके प्रौद्योगिक क्षेत्रों पर आधारित है। वेब्लेन के विचार में मानव विचार मानव समुदाय के गठन के तरीकों को प्रतिबिंबित करते हैं। सामाजिक संस्थाओं में लोगों की आदतें और रीति-रिवाज तथा उनके प्राकृतिक वातावरण में अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष के प्रयास सम्मिलित हैं।

वेब्लेन के मत में सामाजिक विकास की प्रक्रिया अनिवार्य रूप में सांस्थानिक परिवर्तनों के विन्यास को प्रतिबिंबित करती है। ये सांस्थानिक परिवर्तन भी स्वयं सामाजिक प्रौद्योगिक में परिवर्तन के कारण होते हैं। वेब्लेन ने नृशास्त्रीय लेखों में विकास की चार प्रमुख अवस्थाओं का वर्णन किया है। वस्तुतः उसका महत्वपूर्ण योगदान समकालीन या समकालीन-प्राय समाजों के अध्ययन में निहित है।

 संपन्न वर्ग का सिद्धांत
वेब्लेन ने दो परस्पर विरोधी वर्गों जैसे सामान बनाने वालों और पैसा कमाने वालों के बीच, कारीगरी और बिक्री की कला के बीच अंतर किया। उसका कहना था कि पूँजीवाद विश्व में व्यापार और उद्योग के बीच, स्वामित्व और प्रौद्योगिकी के बीच, आर्थिक रोजगार जैसे व्यापार और वित्तीय कार्यों में लगे लोगों और उद्योग में रोजगार करने वाले मजदूर वर्ग के बीच कभी न सुलझने वाला परस्पर विरोध है। इस अंतर से वेब्लेन को अमरीकी समाज में तात्कालिक हालात की व्याख्या करने में मदद मिली। इससे उसे विकास की धारणा को नये तरीके से देखने में भी सहायता मिली।

वेब्लेन की रचनाओं पर उसके शिक्षक सम्नर के विचारों का गहन प्रभाव था। सम्नर के विचारों के विपरीत, वेब्लेन का यह विश्वास नहीं था कि अमरीका की उत्पादन व्यवस्था में वहां के प्रमुख उद्योगपतियों और वित्तीय सहायता प्रदान करने वाले लोगों का विशेष योगदान है। सम्नर का विश्वास था वे ‘‘आधुनिक सभ्यता के सुमन‘‘ हैं पंरतु वेब्लेन के अनुसार ये उद्योगपति और वित्तीय सहायता प्रदान करने वाले लोग ‘‘परजीवी हैं, जो प्रौद्योगिकी के नेतृत्व और दूसरे लोगों के नवीन परिवर्तनों के सहारे फल-फूल रहे हैं‘‘ (कोजर 1971ः 276)। वेब्लेन ने आगे लिखा है कि जिस संपन्न वर्ग में उद्योगपति और आर्थिक क्रियाकलापों में संलग्न लोग हैं, वे गरीब औद्योगिक मजदूरों की मेहनत पर जीवित हैं। वे स्वयं कुछ भी औद्योगिक योगदान नहीं करते। इस तरह विकास प्रक्रिया में उनका किसी प्रकार की प्रगतिशील भूमिका नहीं है।

उसका कहना था कि जो लोग आर्थिक क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं, वे अपने सोचने के ढंग से ‘‘जीववादी‘‘ या ‘‘मायावी‘‘ हैं। विकासात्मक दृष्टि से वे अपने से पूर्ववर्ती काल के अवशेष हैं। इसके विपरीत औद्योगिक रोजगार में लगे लोगों की सोच विवेकपूर्ण होती है और वे यथार्थवादी होते हैं। वेब्लेन के अनुसार जिन मशीनों का वे उपयोग करते हैं उनके कारण उनमें बुद्धि संगत तर्क का होना अनिवार्य हो जाता है। जो लोग मशीनों का उपयोग करते हैं उनके लिए मशीनी प्रौद्योगिकी उन्हें अनुशासित करने का काम करती है। वेब्लेन के मत में पैसा कमाने के धंधे में संलग्न लोगों की लूटपाट की जीवन-पद्धति के विपरीत मानव जाति का भावी विकास उन लोगों पर निर्भर है जो अनुशासित और तर्कसंगत हैं।
 संपन्न वर्ग और प्रदर्शन उपभोग (Leisure Class and Conspicuous Consumption)
वेब्लेन के आधुनिक पँूजीवादी समाज में प्रतियोगिता संबंधी व्यवहार का विश्लेषण बहुत महत्वपूर्ण है। उसने आधुनिक औद्योगिक समाजों में सामाजिक व्यक्तियों के विचार की आदतों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के व्यवहार की पद्धतियों का विश्लेषण किया। उसने मानव के प्रतियोगिता संबंधी व्यवहार के पीछे नीहित सामाजिक स्रोतों का बहुत ही परिष्कृत सिद्धांत प्रस्तुत किया।

उसके अनुसार लोगों का आत्मसम्मान इस बात पर निर्भर करता है कि समाज में दूसरे लोग उसे कितना सम्मान देते हैं। अमरीका जैसी प्रतियोगितात्मक, भौतिकवादी संस्कृति में किसी व्यक्ति का महत्व उस व्यवस्था के अंतर्गत दूसरों के महत्व के संदर्भ में आंका जाता है । इस प्रकार समाज में प्रतिस्पर्धा का एक ऐसा दुश्चक्र बन जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पड़ोसियों या मित्रों से अधिक अच्छा दिखने का प्रयास करता है।

वेब्लेन ने अपनी पुस्तक, द थ्योरी ऑफ द लैजर क्लास (पृष्ठ 30-31) में लिखा है कि कोई जितनी तेजी से नई संपत्ति उपार्जित करता है और इस नई संपत्ति के स्तर का अभ्यस्त हो जाता है, उसे तब पहले स्तर की अपेक्षा नए स्तर से भी विशेष संतोष नहीं होता। उसका संपत्ति-संग्रह का प्रयोजन यह होता है कि वह आर्थिक दृष्टि से बाकी समाज की तुलना में बढ़-चढ़कर प्रतीत हो।

वेब्लेन ने संपत्ति के संयोजन और दूसरों के साथ प्रतियोगिता के इस दुश्चक्र के संदर्भ में प्रदर्शन उपभोग की अवधारणा की चर्चा की है। संपन्नता के प्रदर्शन और समाज में उच्च प्रतिष्ठा के प्रदर्शन संबंधी विचार प्रदर्शन उपभोग से ही संबंधित हैं। इन सबका उद्देश्य अपने वर्ग में उच्च प्रतिष्ठा तथा अधिक सम्मान अर्जित करना है।

प्रदर्शनकारी उपभोग समाज के सदस्यों का वह व्यवहार जिसके अंतर्गत वे विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग केवल आवश्यकता के अनुसार नहीं करते अपितु वे उनका उपयोग दूसरों को दिखाने के लिए और अपने तथा पड़ोसियों के बीच दूरी बनाए रखने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए अपने ही समाज में यह देखने में आता है कि अमीर लोगों के पास कई कारें, नौकर-चाकर, पालतू कुत्ते आदि होते हैं। ये लोग अपनी धन-संपत्ति का प्रदर्शन अपने और अपने परिवार के सदस्यों के बढ़िया कीमती कपड़ों के द्वारा करते हैं। जिस व्यक्ति के पास जितनी अधिक धन-संपत्ति होती है उसकी पत्नी उतने ही अधिक सोने और हीरे के गहने पहने दिखाई देती है। इन आभूषणों के पहनने के दो उद्देश्य होते हैं एक तो उन्हें पहनने वाला व्यक्ति दूसरों का ध्यान आकर्षित करता है। दूसरे, वह इन्हें पहनकर दूसरों को अपनी धन-संपत्ति का और जीवन में अपनी सफलता का प्रदर्शन करता है।

कभी-कभी प्रदर्शन के व्यवहार की सिर्फ यह उपयोगिता होती है कि वह व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अपनी हैसियत ऊँची दिखाना चाहता है। उदाहरण के तौर पर चीनी समाज में मंडारिन लोग अपनी उंगलियों के नाखून बढ़ाकर रखते थे, यह उस समाज में एक रिवाज था। परंतु कोई समाज-विश्लेषक इसकी आसानी से व्याख्या कर सकता है कि जिस व्यक्ति के लम्बे नाखून होंगे, वह अपने हाथों से काम नहीं करता होगा। इसलिए निश्चय ही ऐसे व्यक्तियों की समाज में अधिक प्रतिष्ठा होगी।

अमरीकी समाज में धनी लोग छुट्टियों में बाहर घूमने जाते हैं, यह परंपरा हमारे समाज में भी है। समुद्र तटों और पहाड़ी स्थानों पर घूमने का आनंद केवल अमीर लोग ही उठा सकते हैं। ये संपन्नता के प्रदर्शन के कुछ उदाहरण हैं।

वेब्लेन ने संकेत किया है कुलीनतंत्र युग में समाज के बहुत छोटे भाग के लोग फिजूलखर्ची का जीवन बिताते थे, लेकिन आज के पूँजीवादी देशों में प्रतिस्पर्धा के रूप में प्रदर्शन की प्रवत्ति पूरे समाज पर छा गई है। प्रत्येक वर्ग अपने से उच्च वर्ग के रहन-सहन के तरीकों की यथासंभव नकल करने की कोशिश करता है। वेब्लेन के मन में आधुनिक समाज में संग्रहवृत्ति के कारण गरीब लोग प्रायरू यह अनुभव करते हैं कि उन्हें निरंतर अभाव की स्थिति में जीना पड़ता है। उसके विचार में यदि वास्तविक रूप से देखा जाए तो औद्योगिक व्यवस्था में गरीब और अधिक गरीब नहीं हो जाते लेकिन वे अपनी ही दष्टि में अपने आपको अपेक्षतया अधिक गरीब महसस करने लगते हैं। यह तथ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। वेब्लेन का यह विश्लेषण कुछ समय बाद आर.के. मर्टन द्वारा विकसित सापेक्ष वचन (तमसंजपअम कमचतपअंजपवद) की अवधारणा के बहुत नजदीक है (कोजर 1971ः 269)। अगले अनुभाग को पढ़ने से पहले सोचिए और करिए 2 को पूरा कर लें।

चित्र 3.1ः आधुनिक समाजों में प्रतिस्पर्धा का व्यवहार
सोचिये और करिए 2
इस इकाई में थोर्टीन वेब्लेन द्वारा वर्णित आधुनिक पूँजीवादी समाजों में प्रतियोगी-व्यवहार वाला भाग पढ़िए। अपने पड़ोस के पाँच परिवारों को चुनिए इन परिवारों के सदस्यों से मालूम कीजिए।
प) अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन, कार या टी.वी. आदि कौन-सा सामान उन्होंने खरीदा है?
पप) यह सामान उन्होंने क्यों खरीदा है?
पपप) इनमें से कितने परिवारों के पास उपयुक्त सामान है?
अब आप एक पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए। आप अपना निष्कर्ष दीजिए और बताइए कि इन पाँच परिवारों में प्रौद्योगिकी की सामग्री को खरीदने में किसी प्रकार की प्रतियोगिता की भावना थी या नहीं। निष्कर्ष निकालते समय वेब्लेन के विवरण को ध्यान में रखिए। यदि हो सके तो अपनी टिप्पणी की तुलना अपने अध्ययन केंद्र के दूसरे विद्यार्थियों की टिप्पणी से कीजिए।

 प्रकार्यात्मक विश्लेषण
मर्टन को अपने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रकार्यों की अवधारणा को प्रतिपादित करने में अन्य समाजशास्त्रियों के अलावा वेब्लेन के विचारों से भी मदद मिली। वेब्लेन ने देखा कि प्रदर्शन उपभोग के पीछे अप्रत्यक्ष प्रकार्य का हाथ होता है जिसे सामाजिक विश्लेषक समझ सकता है । लोग क्यों आलीघान रॉल्स रॉयस कार खरीदना पसंद करते हैं जबकि उनके पास पहले ही एंबेसेडर कार है, क्यों पैसे वाले लोग विदेशी सामान खरीदते हैं जबकि वैसा ही सामान उनके अपने देश में भी बनता है। इन कार्यकलापों का सही कारण या प्रकार्य यह है कि इन वस्तुओं के पास होने से उन्हें सम्मान प्राप्त होता है। यहाँ तक कि शिष्टाचार, किसी विदेघी या अपनी ही भाषा का उच्चारण कुलीनता का व्यवहार आदि ऐसी बातें हैं जो उनके उच्च रहन-सहन के तरीकों का आभास देती हैं और इनसे उन लोगों की समाज में उच्च स्थिति का पता चलता है। जैसा कि इससे पूर्व बताया जा चुका है इस विचार का और अधिक विकास राबर्ट के मर्टन ने अपने प्रकार्यवादी सिद्धांत में किया है।

 सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा
वेब्लेन की सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा प्रौद्योगिकी विकास से जुड़ी हुई है। यह अवधारणा उस अंतर से भी जुड़ी हुई है जो अंतर उसने आर्थिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों ‘‘लुटेरे वर्ग‘‘ (चतमकंजवतल बसंेेमे) और औद्योगिक मजदूरों के बीच दिखाया है।

उसके मत में समाज को जो प्रौद्योगिकी उपलब्ध होती है उसी से उसकी संस्कृति निर्धारित होती है। समाज में विद्यमान सामाजिक संस्थाएं समाज की पिछली प्रौद्योगिकी के अनुरूप होती हैं इसलिए वे समाज की वर्तमान आवश्यकताओं से पूरी तरह मेल नहीं खातीं। उसका कहना है कि पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने से जिस वर्ग को लाभ होता है वह प्रौद्योगिकी में परिवर्तन का विरोध करता है। यह वर्ग इस बात में विश्वास करता है ‘‘जो कुछ है, वह ठीक है‘‘ जब कि विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक चयन का नियम (जीम संू व िदंजनतंस ेमसमबजपवद) इस विचार पर आधारित है कि ‘‘जो कुछ है, वह गलत है‘‘ (कोजर 1971ः 272)।

इस प्रकार वेब्लेन का मत है कि सामाजिक परिवर्तन दो वर्गों के बीच संघर्ष पर निर्भर है, इनमें से एक वर्ग के हित पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने में सुरक्षित होते हैं तो दूसरा वर्ग समाज में नए प्रौद्योगिक परिवर्तन लाना चाहता है। मार्क्स की धारणा से अलग वेब्लेन का यह विश्वास नहीं है कि सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। उसके विचार में सामाजिक परिवर्तन उन्नतशील प्रौद्योगिकी और परिवर्तन में बाधा पहुंचाने वाली मौजूदा सामाजिक संस्थाओं के बीच संघर्ष से होता है और इसलिए. सामाजिक संस्थाओं और प्रौद्योगिक विकास के बीच अंतर आ जाता है।

ऊपर हमने वेब्लेन द्वारा विकसित मुख्य विचारों का विवरण दिया है आइए, अब हम वेब्लेन के विचारों का समकालीन समाज पर प्रभाव देखें।
 समकालीन समाज शास्त्र पर वेब्लेन के विचारों का प्रभाव
समाजशास्त्रीय सिद्धांत में वेब्लेन के योगदान का महत्व उसकी समाजशास्त्र विषयक रचनाओं की अपेक्षा अन्य समाजविज्ञानियों पर उसके विचारों के विशिष्ट प्रभाव से अधिक स्पष्ट होता है। अपने समाज के बारे में उसकी तीखी और आलोचनापूर्ण टिप्पणियों और उसके कटुस्वभाव ने उसे सामाजिक वास्तविकता का अच्छा पारखी बना दिया। उसके अनुसार सामाजिक वास्तविकता वह नहीं है जो बाहर से दिखाई देती है बल्कि वह है जो वास्तव में होती है। उसके मुख्य विचार समाजशास्त्रियों की सोच को निरंतर प्रभावित करते रहे।

उसने अमरीका की जिस संस्कृति के विरुद्ध आवाज उठाई थी, वह उसके समय में विद्यमान थी। आज चाहे वह संस्कृति नहीं है लेकिन उसने समाज के अध्ययन के लिए जो परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया था वह आज भी उतना ही सार्थक है। उसने प्रतिस्पर्धात्मक जीवन पद्धति का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आधार पर जो अध्ययन प्रस्तुत किया था उससे आज की जीवन-पद्धति में पाए जाने वाले व्यवहार की व्याख्या भी हो सकती है। उदाहरण के लिए आज घिसी हुई बदरंग जीन्स को पहनने का फैशन है जिस पर उसके निर्माता (कमेपहदमत) का लेबल लगा होता है। इसे देखकर किसी आलोचक एवं विश्लेषणकर्ता को यह स्पष्ट मालूम हो जाएगा कि इन जीन्स को पहनने वाले गरीब तो नहीं है पर ये देखने में गरीब लग सकते हैं। निर्माता के लेबल वाली बदरंग जीन्स कोई सस्ती चीज नहीं है। कुछ वर्षों पहले ऐसी जीन्स तो केवल विदेशों में उपलब्ध होती थीं तथा ये किसी साधारण नागरिक को आसानी से नहीं मिल सकती थीं।

‘‘सापेक्ष वंचन‘‘ (तमसंजपअम कमचतपअंजपवद) और अप्रत्यक्ष प्रकार्यों (संजमदज निदबजपवद) के विश्लेषण के सिद्धांत में वेब्लेन का बहुत योगदान रहा है। बाद में इन्हें रॉबर्ट के. मर्टन ने भी विकसित किया। ये दोनों ही सिद्धांत समाजशास्त्र के क्षेत्र में वेब्लेन की महत्वपूर्ण देन हैं।