एकरूपतावाद सिद्धांत का प्रतिपादन 1785 में किसके द्वारा किया गया The principle of Uniformitarianism was propounded in 1785 by
The principle of Uniformitarianism was propounded in 1785 by in hindi एकरूपतावाद सिद्धांत का प्रतिपादन 1785 में किसके द्वारा किया गया ?
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. एकरूपातावाद सिद्धांत का प्रतिपादन 1785 में किसके द्वारा किया गया –
(अ) जेम्स हटन (ब) प्लेफेयर (स) चार्ल्सल्येल (द) ज्योलजी
2. चट्टानों के प्रकार
(अ) आग्नेय (ब) परतदार (स) रूपाान्तरित (द) उपरोक्त सभी
3. संयुक्त राज्य अमेरिका में ज्वालामुखी बुटी का उदाहरण
(अ) शिपरा (ब) शिपराक (स) चार्ल्सलेयर (द) ज्याली
उत्तरः 1. (अ), 2. (द), 3. (ब)
(6) भूआकृतिक मापक की संकल्पना :
भूआकृतिक तंत्र की स्थलाकृतिक विशेषताओं तथा स्थलरूपाों के विकास की व्याख्या में भूआकृतिक समय एवं स्थानिक मापक महत्वपूर्ण विचर (प्राचल) होते हैं। स्थलाकृति समय एवं स्थान का प्रतिफल होती है। किसी भी भूआकृतिक क्षेत्र में वर्तमान समय में विगत काल में समकालीन प्रक्रम- रूपा के मध्य अन्तर्सम्बन्धों की पुनर्रचना तथा स्थलरूपाों के भावी विकास के पूर्वकथन लिए उस क्षेत्र के किसी निश्चित समय अवधि के अन्तर्गत विभिन्न भूआकृतिक प्रक्रमों की क्रियाविधि तथा कार्य दर एवं उनसे उत्पन्न स्थलरूपाों के विकास का अध्ययन आवश्यक होता है। भूआकृतिक प्रक्रमों तथा स्थलरूपाों का अध्ययन विभिन्न स्तरीय स्थानिक एवं कालिक मापकों पर किया जाता है। लघु क्षेत्रों में लधु समय की अवधि के दौरान प्रक्रम की क्रियाविधि। एवं कार्य दरों के उपकरणों द्वारा मापन एवं अध्ययन से विभिन्न समय अन्तरालों में उनके कार्य करने का। प्रकृति एवं दर तथा उनके स्थलाकृतिक विशेषताओं पर प्रभाव के विषय में महत्वपूर्ण परिणाम निकले है।
ज्ञातव्य है कि अब समय एवं स्थान निष्क्रिय कारक न रहकर सक्रिय स्वतंत्र विचार हैं जो प्रक्रमा एवं स्थलरूपाों को सूक्ष्म मध्य एवं वृहदस्तरीय मापकों पर प्रभावित करते हैं। विभिन्न स्तरीय मापकों पर भूआकृतिक समस्यायें अलग-अलग होती है, उनके लिए विभिन्न प्रकार की व्याख्या सार्थक होती है, विभिन्न स्तरीय संगठन उचित होते हैं, विभिन्न विचार प्रभावी होते हैं, तथा कारण एवं प्रभाव के लिए विभिन्न प्रकार की भूमिकायें निश्चित की जाती हैं।
(7) भू आकृतिक समीकरण
ग्रेगरी ने लिखा है कि स्थलरूपाों की व्याख्या के लिए एक सरल भूआकृतिक समीकरण का निम्नवत प्रतिपादन किया जा सकता है,
F = (PM) dt
इस भूआकृतिक समीकरण के अनुसार रूपा यानी स्थलरूपा (F), प्रक्रम (P),पदार्थ (M,भूपदार्थ अर्थात् शैल) का प्रतिफल (F) है तथा समय से होकर परिवर्तित होता है (dt)। ग्रेगरी का कथन है कि आकारिकी morphology (F) पदार्थों पर (on materials) प्रक्रमों (P) के निश्चित समय (dt) के दौरान कार्यों का प्रतिफल होती है। ग्रेगरी के अनुसार आकारिकी का अर्थ होता है पृथ्वी की सतह का रूपा अर्थात् स्थलरुप, प्रक्रम के अन्तर्गत अपक्षय, हवा, जल, हिम तथा पदार्थों के सामूहिक संचलन से सम्बन्धित प्रक्रमों को सम्मिलित किया जाता है तथा पदार्थों (M) का अर्थ शैल, मृदा तथा सतह पर स्थित ढीले जमाव से होता है जिनके ऊपर प्रक्रम कार्य करते हैं। इन्होंने बताया है कि इस समीकरण के चार पहलुओं (रूपा, प्रक्रम, पदार्थ तथा समय) का चार स्तरों पर अध्ययन किया जा सकता है
(1) समीकरण के तत्वों का अध्ययनः समीकरण के तीन तत्वों अर्थात् रूपा भूपदार्थों तथा प्रक्रमों के विभिन्न पहलुओं का अलग-अलग स्वतंत्र रूपा से विशद अध्ययन करते हैं ताकि एक निश्चित स्थानिक मापक वाली भूआकृतिक इकाई के स्थलरूपाों का विधिवत अध्ययन किया जा सके ज्ञातव्य है कि प्रारम्भिक काल से लेकर स्थलरूपा भूगोल रूपाी शाखा के विकास तथा स्थलरूपाों के विभिन्न पक्षों का विशद अध्ययन किया जाता रहा है। वास्तव में प्रारम्भ से ही मात्र स्थलरूपा के अध्ययन पर ही अधिक ध्यान दिया गया है। भूआकृतिक विज्ञान में आकारमितिक विधि के आगमन से विभिन्न अनाच्छादन के प्रक्रमों द्वारा उत्पन्न विभिन्न प्रकार के स्थलरूपाों के आकारमितिक अध्ययन में पर्याप्त सहायता मिली है।
(2) समीकरण को संतुलित करना – रूपा भूपदार्थों एवं प्रक्रमों के एकाकी एवं स्वतंत्र रूपा से विशद अध्ययन के बाद रूपा-प्रक्रम-भूपदार्थ सम्बन्धों के सामान्य मॉडल तैयार करने के लिए प्रयास किया जाता है। अर्थात् स्थलरूपा एवं भूपदार्थ स्थलरूपा एवं प्रक्रम तथा भूपदार्थ एवं प्रक्रम के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयत्न किये जाते हैं ताकि स्थलरूपाों के विकास के कार्यकार्यात्मक सिद्धान्त का निर्माण किया जा सके। इस तरह के सम्बन्धों के अध्ययन में तंत्र उपागम अधिक उपयुक्त साबित हुआ है। भूआकृतिक तंत्र में अध्ययन हेतु संतुलन संकल्पना के उपयोग से भूआकृति विज्ञानियों को प्रक्रम तथा पदार्थों के बीच सम्बन्धों के आधार पर स्थलरूपाों के विकास से सम्बन्धित संतुलन मॉडल के प्रतिपादन में सहायता मिली है। इस मॉडल के अनुसार भूआकृतिक तंत्र उस समय समस्थिति की दशा में आता है जब चालन बल एवं प्रतिरोधी बल में सन्तुलन हो जाता है।
(3) समीकरण का विभेदीकरण (ffDierentiating the equation) – समीकरण के तत्वों के अलगाव या विभेदीकरण के लिए यह जानकारी आवश्यक होती है कि समय के साथ भूआकृतिक तंत्र किस तरह परिवर्तित होते हैं या अपने को बदली दशाओं के साथ समायोजित करते हैं। वास्तव में भूआकृतिक अनुसंधान के अन्तर्गत किसी स्थानिक इकाई के विभिन्न भूआकृतिक प्रक्रमों तथा सम्बन्धित स्थलरूपाों के निश्चित समय अवधि के अन्तर्गत अध्ययन की आवश्यकता होती है ताकि उनका पश्चानयन एवं पूर्वकथन किया जा सके। स्थलरूपाों में परिवर्तनों का अध्ययन कई कालिक मापकों के माध्यम से किया जा सकता है, यथावृहद् कालिक मापक, मध्यमकालिक मापक तथा सूक्ष्मकालिक मापक दूसरे रूपा में स्थलरूपाों में परिवर्तनों का अध्ययन चक्रीय समय, प्रवणित समय या स्थिर के सन्दर्भ में किया जा सकता है।
(4) समीकरण का व्यवहारीकरण (Applying the equation) – भूआकृतिक समीकरण के तीन स्तरों पर अध्ययन से प्राप्त परिणामों एवं जानकारी का उपयोग उन स्थानों में भूआकृतिक तंत्रों के व्यवहार के अनुमान के लिए किया जाता है जहाँ पर पहले प्रक्रमों का मापन एवं अध्ययन नहीं किया जाता है जहाँ पर पहले प्रक्रमों का मापन एवं अध्ययन नहीं किया गया हो। इसे स्थानिक पूर्वकथन कहते हैं या इनका उपयोग स्थान विशेष के भूआकृतिक तंत्र के भावी व्यवहार की भविष्यणवाणी के लिये किया जाता है। इसे कालिक पूर्वकथन कहते हैं। उल्लेखनीय है कि भूआकृतिक अध्ययन की उपयोगिता तभी हो सकती है जबकि ज्ञान का उपयोग मनुष्य के क्रियाकलापों द्वारा जनित विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए किया जा सके। वास्तव में 1950 के पूर्व मनुष्य द्वारा प्र्यावरणीय एवं भूआकृतिक प्रक्रमों में किए जाने वाले परिवर्तनों के अध्ययन पर कम ध्यान दिया गया था क्योंकि उस समय तक समकालीन भूआकृतिक प्रक्रमों के मापन का प्रचलन नहीं था। 1950 के बाद से प्रक्रम भूआकारिकी के अभ्युदय के साथ ही समकालीन भूआकृतिक एवं पर्यावरण प्रक्रमों के क्षेत्र में मापन पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है क्योंकि अब विज्ञानियों न प्रक्रमों के ऊपर मानव क्रिया-कलापों के बढ़ते प्रभाव को समझ लिया है।
(6) स्थलाकृतिक इतिहास की संकल्पना : थार्नरी के अनुसार धरातल की बहुत कम स्थलाकृति टर्शियरी युग से प्राचीन है तथा अधिकांश स्थलाकृति प्लीस्टोसीन युग से प्राचीन नहीं है अधिकाश भूआकतिक विज्ञानियों का मत है कि वर्तमान यग में पायी जाने वाली स्थलाकृतियां उन प्रक्रमों का प्रतिफल है जो टर्शियरी एव क्वाटरनरी युगों में कार्यरत थे क्योंकि टर्शियरी युग से प्राचीन स्थलरूपा या तो अनाच्छादनात्मक प्रक्रमों द्वारा विनष्ट हो गया है, या उनमें इतना परिवर्तन हो गया है कि जिनके मौलिक रूपा का निर्धारण करना असम्भव है दूसरी तरफ कतिपय भूआकृति विज्ञानी यह भी दलील देते हैं कि वर्तमान में पायी जाने वाली स्थलाकृति पालिम्पसेस्ट स्थलाकृति है तथा ये पुराप्रक्रमों के कार्यों का परिणाम हैं। इस संकल्पना के समर्थकों का यह तर्क है कि टर्शियरी युग में घटित भूमण्डलीय विवतर्निक घटनाओं अर्थात, पर्वत निर्माण की घटनाओं तथा उनसे जनित नवोन्मेष नये अपरदन चक्रों की शुरूआत ने टर्शियरी युग से पहले के स्थलरूपाों को अत्यधिक परिवर्तित किया है।
यद्यपि हिमालय पवर्ततीकरण अन्तिम क्रीटैसियस युग या इयोसीन युग में प्रारम्भ हुआ परन्तु इसकी माप्ति प्लीस्टोसीन युग से पहले नहीं हो पायी थी। अधिकांश स्थलाकृतियों का निर्माण जलीय प्रक्रमों द्वारा टरनरी युग में ही हो पाया था। हिमालय में युवावस्था एवं नवोन्मेष वाले स्थलरूपा पाये जाते हैं, हिमालय पर्वतीकरण का प्रभाव छोटा नागपुर के पठारी एवं उच्च भागों में भी परिलक्षित होता है। टर्शियरी युग में हिमालय में उत्थान की तीन अवस्थायें घटित हुई थीं अनके कारण छोटा नागपुर में अपरदन चक्र में कई बार व्यवधान हुआ तथा नवोन्मेष की कई क्रियायें सम्पन्न हुई। राँची पठार के पूर्वी सीमान्त भाग में एक रेखा के सहारे उ.पू.से द.प. दिशा में कई जलप्रपात पाये जाते हैं। केन्द्रीय राँची पठार से निकलने वाली सरितायें इस रेखा के सहारे जलप्रपात बनाती हुई नीचे उतरती हैं। इसी तरह पाट प्रदेश के किनारों पर भी प्रपात पाये जाते हैं। नदियों की अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका में जलप्रपात, नवोन्मेष जनित ढाल भंग एवं निक प्वाइण्ट नदियों के तरूण स्वभाव को दर्शाते हैं तथा टर्शियरी पर्वतीकरण के प्रभाव की कहानी सुनाते हैं। हिमालय पर्वतीकरण के फलस्वरूपा गंगा द्रोणी के निर्माण के कारण प्रायद्वीपीय भारत के अग्रदेश की नदियों में नवोन्मेष हो गया। इस कारण पठार के अग्रभाग से निकलने वाली नदियाँ जब पठार को छोड़कर उत्तरी विशाल मैदान में प्रवेश करती हैं तथा गंगा या यमुना नदियों से मिलती हैं तो पठार के उत्तरी सिरे पर जलप्रपात बनाती हुई नीचे उतरती हैं। रीवा पठार के पश्चिमी छोर से बिहार में रोहतास पठार के पूर्वी छोर तक विभिन्न ऊँचाई वाले अनेक जलप्रपात पाये जाते हैं।
जी.एच. आस्ले का मत है कि भूमण्डलीय स्तर पर अधिकांश स्थलरूपा तरुण विशेषता वाले हैं। इनके अनुसार विश्व की अधिकांश श्यावली, पर्वत, घाटियाँ, सागरीय किनारे, झीलें, नदियाँ, जलप्रपात, क्लिफ, कैनियन आदि उत्तर मायोसीन युग के हैं। स्थलाकृतियों की अधिकांश सूक्ष्म आकृतियों का निर्माण मानव के अभ्युदय के साथ हुआ तथा बहुत कम ऐसे स्थलरूपा है जिनका सम्बन्ध मायोसीन से पहले की घटनाओं से है सी.डी. ओलियर का मानना है कि चूँकि उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी यूरोप का अधिकांश भाग प्लीस्टोसीन हिमानीकरण द्वारा प्रभावित हुआ था तथा स्थलाकृतियों पर हिमानीकरण का प्रभाव इतना अधिक एवं स्पष्ट रूपा से दृश्य था कि भूआकृतिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों के अधिकांश लेखक प्लीस्टोसीन हिमानीकरण के पूर्वाग्रह से इतना अधिक ग्रसित थे कि उन्होंने प्लीस्टोसीन हिमानी के स्थलाकृतियों पर पड़े प्रभाव को आवश्यकता से अधिक महत्व दे डाला।
सी.डी. ओलियर (1969) का मत है कि भूतल पर विगत प्रक्रमों के परिणाम अर्थात् स्थलरूपा आज भी अवशिष्ट रूपा में सुरक्षित हैं। अतः हमें स्थलरूपाों की न केवल निर्माण प्रक्रिया पर ध्यान देना है वरन् उनके परिरक्षण पर भी ध्यान देना होगा। अन्ततः निष्कर्ष रूपा में यह व्यक्त किया जा सकता है कि निसन्देह टर्शियरी युग के बाद में, विशेषकर क्वाटरनरी युग में, जलवायु में उतार-चढ़ाव एवं विवर्तनिक घटनाओं ने पर्वनिर्मित स्थलाकृतियों के स्वरूपा को इतना अधिक परिवर्तित कर दिया है कि कम से कम उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी यूरोप में उनका मौलिक स्वरूपा सर्वथा समाप्त हो गया है परन्तु दीर्घकालिक भूगर्भिक इतिहास वाले अनेक ऐसे अवशिष्ट स्थलरुप हैं, जो अपने पुराजनन को इंगित करते हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न
दीर्घउत्तरीय प्रश्न
1. भू-आकृति विज्ञान की विभिन्न संकल्पनाएँ स्पष्ट कीजिए।
2. भू-आकृति विज्ञान की प्रमुख अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
3. भू-आकृति विज्ञान की प्रमुख सीमाएँ लिखिए।
लघुउत्तरी प्रश्न
1. एकरूपातावाद की संकल्पना से तुम क्या समझते हो?
2. हटन महोदय की भू-आकृति विज्ञान की संकल्पना स्पष्ट कीजिए
3. शैल से तुम क्या समझते हो?
4. भौमिकीय संरचना से क्या तात्पर्य है?
5. शैल की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।
6. शैल की विशेषताएँ बताईए।
7. प्रौढ़ावस्था से क्या तात्पर्य है?
8. तरूणावस्था से क्या तात्पर्य है?
9. जीर्णावस्था से क्या तात्पर्य है?
10. समय मापक पर टिप्पणी लिखिए।
11. चक्रीय समय पर टिप्पणी लिखिए।
12. प्रवणित समय पर टिप्पणी लिखिए।
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