द लास्ट सपर नामक प्रसिद्ध चित्र किस चित्रकार ने बनाया , the last supper in hindi अंतिम भोज किस चित्रकार का चित्र है
the last supper in hindi द लास्ट सपर नामक प्रसिद्ध चित्र किस चित्रकार ने बनाया अंतिम भोज किस चित्रकार का चित्र है ,
प्रश्न: निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(1) लास्ट सपर
उत्तर:
(1) लास्ट सपर (the last supper) : विश्व प्रसिद्ध इस चित्र को पुनर्जागरणकालीन चित्रकार लियोनार्डो दे विन्ची ने बनाया था। यह चित्र मिलान में एक चर्च के डाइनिंग हॉल की दीवार पर बनाया गया। इस पेंन्टिग को लिविंग ड्रामा (जीवन्त नाटक) कहते हैं। जीसस के 12 अनुयायी थे जिनमें 2 पीटर व पॉल थे। इस चित्र में जीसस अपने अनुयायियों के साथ भोज कर लेने के तुरंत बाद जो अभी-अभी घोषणा की गई कि ‘‘हममें से कोई एक धोखा देगा‘‘। यह सुनते ही जो भाव जीसस व अनुयायियों के चेहरे के पर आये उसी का चित्रण किया गया है। धोखा देने वाले अनुयायी का नाम जूडस था।
प्रश्न: माइकल एंजलो एक बहुमुखी प्रतिमा का धनी था। विवेचना कीजिए।
उत्तर: माइकल एंजलो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। यह एक चित्रकार, मूर्तिकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक, स्थापत्यकार इत्यादि था। “Jack of all trads & noster of all” इसके लिए कहावत है। इसने लगभग 145 चित्र बनाये। प्रमुख चित्र द लास्ट जजमेंट (The last Judgement), फॉल ऑफ मैन (Fall of Man) हैं। द लास्ट जजमेंट चित्र सिस्टाइन चैपल (Sistine Chapel) नामक वैटिकन चर्च की छत (Ceiling) पर बनाया गया। इस चित्र में 394 आकृतियां बनी हैं। इसे चित्रण करने में 20 वर्ष लगे। इस चित्र में मानव को भयभीत व आतंकित होते दर्शाया गया है। जहां ईश्वर से दया की कोई आशा नहीं बची है। फॉल ऑफ मैन में ईसा के जन्म से प्रलय तक की कहानी का चित्रण है। यह भी सिस्टाइन चैपल में बना है। इसे बनाते-बनाते माइकल एंजलो अंधा हो गया था।
कला जगत के शिलास्तम्भ
भारत कला जगत पर ज्वलंत नक्षत्रों के रूप में प्रकाशमान कलाकारों पर एक सरसरी गजर डालें तो एक सीमा तक यह कला के इतिहास की पुनरावृत्ति ही होगी।
सर्वप्रथम राजा रवि वर्मा का उल्लेख करना आवश्यक है। वस्तुतः कला के विकास के लए जिस उर्वरा भूमि की अपेक्षा होती है वह उस समय न थी जब कि राजा रवि वर्मा का उदय हुआ। राजा रवि वर्मा ही सबसे पहले कलाकार थे जिन्हेांने एक नई प्रेरणा दी,एक नई दिशा अपनाई और अभिव्यक्ति की नव्य पद्धतियों का सूत्रपात किया। इनका जन्म 1848 में मध्य केरल स्थित कोट्टायम नगर से बीस मील दूर किलीमनूर गांव में हुआ था। त्रावणकोर के राजघराने से उनका बहुत गजदीक का रिश्ता था। बचपन से ही इन्हें चित्र बनाने का बेहद शौक था। एक बार उनके मामा राजराज वर्मा भगवान विष्णु का चित्र बना कर उसमें रंग भर रहे थे। बीच में उठकर वे किसी काम से बाहर गए। इतने में बालक रवि वर्मा अकस्मात् वहां आ पहुंचे। अधूरा चित्र पड़ा देखा तो तुरंत बालोचित उत्सुकतावश उसे पूरा करने बैठ गये। साथ ही विष्णु के साथ गरुड़ का चित्र भी नीचे अंकित कर दिया। इनके मामा चुपचाप यह सब क्रिया दूर से देख रहे थे। बालक की इस तन्मयता से वे अभिभूत हो उठे। उनहेंने खुश होकर आशीर्वाद दिया ‘बेटा तुम आगे चलकर एक बड़े चित्रकार बनोगे।’ चैदह वर्ष की आयु में वे त्रिवेंद्रम के राजमहल चले आये जहां उन्हें दरबारी चित्रकार रामास्वामी नायडू से कला प्रशिक्षण में प्रोत्साहन मिला। गहरे लाल, नीले, हरे, सुगहरे, जामुनी मूल रंगों का प्रयोग करके इन्होंने परंपराग्त लालित्य को तेजोद्दीप्त रूपाकारों में ढाला और कृत्रिम औपचारिकताओं से परे यथार्थ छवियों की-सी मांसल सजीवता प्रदान की। राजा-महाराजा, अमीर-उमरावों और अभिजात वग्र में इनके चित्रों की धूम थी। ऊंची कीमत देकर वे उन्हें खरीदते और अपने भवनों एवं राजप्रसादों की शोभा बढ़ाते। बड़ोदरा, मैसूर, उदयपुर के राजप्रासादों, हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम और नई दिल्ली की नेशनल आर्ट गैलरी में भी उनके अनेक चित्र सुरक्षित हैं।
लगभग तीस वर्षों तक वे उस समय कला साधना में जुटे रहे जबकि भारतीय कला अंधकार के गर्त में समाई हुई थी। मुगल एवं राजपूत कला का केवल रूढ़ियों का ढांचा मात्र अवशेष था और पहाड़ी कला के अंतिम कलाकार मोलाराम की मृत्यु के पश्चात् लगभग दो दशकों तक भारतीय कला के समूचे सूत्र विछिन्न हो चुके थे और उसके ओर-छोर का कुछ पता न था। राजा रवि वर्मा के उदय और कला-साधना ने आनंद कुमारस्वामी और ई.बी. हैवेल जैसे मनीषियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। बंगाल के पुनरुत्थान आंदोलन की उषाबेला में राजा रवि वर्मा शुक्रतारे की भांति अवतीर्ण हुए और आने वाले प्रभात को दिशा-निर्देश कर गए। आधुनिक चित्रकला के द्वार पर एक अडिग प्रहरी की भांति उन्होंने एक ओर प्राचीन और अर्वाचीन का गठबंधन कियाए तो दूसरी ओर पाश्चात्य और भारतीय कला-आदर्शों का अपने ढंग से समन्वय स्थापित किया।
भारतीय चित्रकला की सर्वांगीण उन्नति के लिए महाशक्ति के रूप में आचार्य अवनींद्रनाथ ठाकुर का अभ्युदय उस समय हुआ था जबकि यहां चिर-सृजनाकांक्षा उन्मुक्त विचरण छोड़ कर विदेशी कंचन-काया में परिवर्तित हो चुकी थी। वर्तमान कला-धारा का कोई ऐसा प्रमुख पक्ष नहीं है जिसका श्रीगणेश इस कला-साधक के हाथों न हुआ हो। देशी झांकियां और वे मधुर स्वप्न, जो उनके भीतर बचपन से संचित होते गए थे, कालांतर में उनकी आत्मा के सच्चे प्रतीक बन कर रंग और रेखाओं में बिखर गए। उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘जोड़ासांको भवन के अंतःपुर में प्रसाधन के समय जो सुंदर मुख दिखाई देते थे, मन ने उन सबका संग्रह कर लिया।’
बाल्यावस्था में इन्हें अपने भाई गगनेन्द्रनाथ ठाकुर और रवि काका अर्थात् रवींद्रनाथ ठाकुर से चित्रांकन की प्रेरणा मिली थी। रामायण, महाभारत, पुराण, दर्शन और अन्य महत्वपूर्ण धार्मिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों से उन्होंने कितने ही ऐसे विषय चुने जो रंग और तूलिका के योग से एकदम सजीव हो उठे हैं। अवनींद्र के चित्रों में उनकी आत्मा प्रतिबिम्बित हो उठी और अंतर के रस में डूब कर ‘भारत माता’, ‘राधा कृष्ण’ और ‘उमरखैयाम’ की चित्रावली, ‘तिष्यरक्षिता’, ‘शकुंतला’, ‘कजरी’, ‘देवदासी’, ‘अभिसारिका’, ‘भगवान् तथागत’, ‘हर पार्वती’, ‘सती’, ‘गणेशजननी’, ‘दुग्र’, ‘कमला’, ‘अर्जुन’, ‘विरही यक्ष’, ‘पनिहारिन’, ‘मां’, ‘संथाल युवती’, ‘बालक’, ‘मयूर’, ‘नर्तकियां’, ‘अंजना’, ‘मांझी’, ‘वियोगिनी’, ‘ध्यानमग्ना’, ‘प्रेयसी’, ‘पुजारिन’, ‘सुप्ता’, ‘युवती’, ‘एक युवती और दो सखियां’, ‘स्वतंत्रता का स्वप्न’, ‘पद्म पत्र में अश्रुबिंदु’, ‘वैतालिक’, ‘रेगिस्तान में संध्या’, ‘औरंगजेब का बुढ़ापा’, ‘रवींद्रनाथ का महाप्रयाण’, ‘दीनबंधु ए.ड्रूज’, ‘कृष्ण मंगल’, के तैंतीस चित्र इस प्रकार कितनी ही उत्कृष्ट कृतियां उनकी भावनाओं की सच्ची प्रतीक बनकर प्रकट हुईं, जो कलाकारों का सदैव पथ-प्रदर्शन करती रहेंगी। उनके चित्रों में प्रेम, आकर्षण, भक्ति, वात्सल्य और पार्थिव-अपार्थिव सम्मोहक भाव हल्के.गहरे रंगों में उभर आए हैं। उनकी मानवता और उदार समन्वयशील प्रवृत्तियां इतनी खुलकर व्यक्त हुईं कि जीवन के अनेकों स्तरों पर उनका अवतरण हुआ।
भारतीय कला में जब नये अंकुर फूट रहे थे तब गगनेन्द्रनाथ ठाकुर ऐसी मौलिक प्रतिभा लेकर अवतीर्ण हुए जिन्होंने अपनी संकल्पशील उद्दाम तेजस्विता से सर्वथा नई दिशा अपनाई। इनमें और अन्य कलाकारों में यह अंतर था कि अब तक के कला सिद्धांत, रूप, प्रयोग, तकनीक एवं प्रवृत्तियां का इन्होंने ढंग से पाश्चात्य पद्धति पर परीक्षण और संस्कार किया। ओ.सी. गांगुली के शब्दों में ‘अत्यंत सूक्ष्म समानांतर रेखाओं से इन्होंने बड़े ही आकर्षक ‘हिमालय में बरसाती मैदान’ का गजारा प्रस्तुत किया है। प्रकाश और छाया की असमाप्त त्रिकोण रेखाओं से एक बंदी राजकुमारी का अनूठा अफसाना व्यंजित किया है तथा एक ‘नृत्य करती बालिका’ के लहंगे की झिलझिलाती तहों से घनाकृति उभारी है जिसने मूल विषय को अपने आप में आवृत नहीं किया है।’ पौराणिक विषयों और कल्पित आख्यानों को लेकर यदा-कदा बना, गए उनके चित्र भी बड़े ही सुंदर बन पड़े हैं। ‘मां से विदा लेते समय चैतन्य का भक्तिविद्वल कीर्तन’ तथा अन्य कितने ही चित्रों में इस बंगाल के संत की विमोहक भाव-भंगिमाओं के दर्शन होते हैं। ये अवनींद्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे। इकहत्तर वर्ष तक की आयु भोग कर कला को एक अर्से तक अपना अमूल्य योगदान देते रहे। बर्लिन और हैम्बग्र में इनके चित्रों की प्रदर्शनियां हुईं और विदेशी कला मर्मज्ञों ने ‘एक्सप्रेशगिजम’ (अभिव्यक्तिवाद) के सफल चित्रण के लिए इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। 1914 में पेरिस में, 1927 में अमेरिका में और 1934 में लंदन में इनकी कला को समर्थन मिला और इस प्रकार उन्हें विश्वव्यापी ख्याति प्राप्त हुई।
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