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मृदा प्रदूषण (soil pollution in hindi) भूमि प्रदूषण क्या है , मृदा प्रदूषण के कारण और उपाय , स्रोत

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भूमि और मृदा प्रदूषण (soil pollution) : मिट्टी ही वह साधन है जिससे हमें सभी प्रकार का भोजन प्राप्त होता है। मिट्टी की ऊपरी सतह ही उर्वरता की खान है जिससे फसलें उत्पन्न होती है। मिट्टी की यह उर्वरता उसमें पाए जाने वाले कोटि कोटि अदृश्य (सूक्ष्म) जीवों के कारण है जो मिट्टी के बनने , उसकी संरचना और उसकी उर्वरता में सक्रीय हाथ बंटाते है। यदि ये सूक्ष्मजीव न होते तो भूमि सर्वेथा बंजर होती तथा फसल के नाम पर कुछ भी न हुआ होता।

लेकिन अलग अलग प्रकार के सूक्ष्मजीव समान रूप से लाभदायक नहीं है। यदि कुछ जीवाणु हमारे लिए उपकारी है तो अनेक कीट , निमैटोड , कवक अथवा कुछ जीवाणु फसलों के लिए घातक भी है। अपपादक अथवा अपतृण भी कम हानिकारक नहीं है , परिणामस्वरूप आधुनिक कृषि के अंतर्गत इन्हें समाप्त करने के लिए यत्न किये जाते है।  इन पर नियंत्रण का एक मात्र साधन है कीटनाशियों का उपयोग। इनसे हानिकारक जीवों और अपतृणों का विनाश तो हो जाता है लेकिन अन्य जीवों और परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ता है – यही एक प्रश्न है। वस्तुतः यह जागरूकता भूमि प्रदूषण समझने की दिशा में पहला कदम है।

जैसा कि हम जानते है कि वायु प्रदूषण , जल प्रदूषण , रासायनिक प्रदुषण और रेडियोधर्मी प्रदूषण सभी प्राणी जगत के लिए एक विकट समस्या बनते जा रहे है। इन सब का प्रभाव भूमि और मिट्टी पर भी अवश्य ही पड़ता है क्योंकि किसी न किसी रूप में ये प्रदूषक मिट्टी से भी सम्बन्धित है और स्थल प्रदूषण अथवा भूमि प्रदूषण या मृदा प्रदूषण उत्पन्न करते है।

सामान्य रूप में मृदा प्रदूषण की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है :-

“मृदा के भौतिक , रासायनिक अथवा जैविक गुणों में ऐसा कोई भी परिवर्तन , जिसका प्रभाव मानव और अन्य जीवों पर पड़े या जिससे मृदा की प्राकृतिक दशाओं , गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आये , भूमि प्रदूषण कहलाता है। “

मृदा प्रदूषक के कारक (factors of soil pollution)

विश्व भर में मिट्टी के प्रदूषित होने के मूलतः दो कारक है –

  1. अकृषीय कारक: मृदा प्रदूषण के अकृषीय स्रोतों के अंतर्गत शहरीकरण औद्योगिकीकरण , बढती हुई जनसंख्या , प्रति व्यर्थ पदार्थ का अधिक व्यय , आधुनिकीकरण , रहन सहन के तरीकों में बदलाव आदि प्रमुख है। इन सबके फलस्वरूप मृदा में प्रदूषण बढ़ा है , अकृषिय कारकों में निम्नलिखित महत्वपूर्ण है –

(i) वाहित मल जल : वाहित मल-जल , मृदा प्रदूषण का एक मुख्य कारक है। शहरों में गंदे नालों में बहने वाले जल को वाहित मल-जल कहते है। यह वैसा जल होता है जिसमे मुख्यतः मल-मूत्र , घरेलू और औद्योगिक व्यर्थ पदार्थ मिले होते है। वाहित मल-जल का मुख्य अवयव जल (99%) होता है और शेष ठोस पदार्थ होते है। इस जल में डिटर्जेंट , बोरेट , फास्फेट और अन्य लवणों की भारी मात्रा घुली रहती है , जो मृदा और पौधे दोनों के लिए अत्यंत हानिकारक होते है।

अवमल : वाहित मल जल का ठोस अंश है , इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस की पर्याप्त मात्रा रहती है। सामान्य अवमल में 3.5% नाइट्रोजन , 2.5% फास्फोरस और 0.5% पोटाश होता है। हमारे यहाँ किसानों द्वारा इसका इस्तेमाल खाद के रूप में किया जाता है , लेकिन इसमें मौजूद रोगजनक जीवाणु की उपस्थिति के कारण इसके उपयोग से मृदा प्रदूषित हो जाती है।

  1. किसी भी तरह का ठोस पदार्थ , लम्बे समय तक आर्थिक दृष्टि से उपयोग न होने के कारण छोड़ दिया गया हो , साथ ही जैविक या अजैविक रूप में हो , कूड़ा करकट कहलाता है। कूड़े करकट का निस्तारण आज एक समस्या बन चूका है। हालाँकि कूड़े करकट में से अधिकांश का सूक्ष्म जीवों द्वारा विच्छेदन कर दिया जाता है , फिर भी प्लास्टिक के थैले , काँच के टुकड़े आदि कुछ प्रमुख घटक अविच्छेदित ही रह जाते है। भारत में कूड़ा करकट उत्पादन कुछ वर्षों पहले प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 0.5 किलोग्राम था , जो अब बढ़कर 1.5 किलोग्राम के आसपास पहुच गया है।
  2. धातुएँ: धातुएं विश्व में सर्वत्र पाई जाती है। वर्तमान सभ्यता धातुओं के उपयोग में इतनी आगे बढ़ गई है कि प्रदूषण जैसी समस्या भी इससे अछूती नहीं रही है। तत्वों की संख्या 10 प्रतिशत से भी अधिक है जिनमे से 65 तत्व गुणों के आधार पर धातु की श्रेणी में रखे गये है। धातुओं में से जिनका घनत्व 5 से अधिक होता है , वे भारी धातुएं कहलाती है। कल कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थो से युक्त जल से सिंचाई करने और सघन कृषि के लिए अधिक मात्रा में प्रयुक्त रासायनिक उर्वरकों और जिवनाशियों के फलस्वरूप मृदा , में भारी धातुओं की मात्रा बढ़ रही है। मुख्य भारी धातुओं में कैडमियम , क्रोमियम , कोबाल्ट , कॉपर , आयरन , मर्करी , मोलिब्डेनम , निकल , लैड , टिन और जिंक है।

मृदा प्रदूषण की दृष्टि से धातुओं को तीन वर्गों में बाँटा गया है –

(i) विषहीन : सोडियम , कैल्शियम , मैग्नीशियम ;

(ii) विषैली , लेकिन अघुलनशील : बेरियम , टाइटेनियम आदि और

(iii) विषैली और सहज उपलब्ध : कोबाल्ट , निकल , तांबा , जिंक , टिन कैडमियम , पारा , सीसा , बिस्मिथ , एंटीमनी आदि।

  1. रेडियो सक्रीय अपशिष्ट पदार्थ: रेडियो सक्रीय अपशिष्ट पदार्थ भी मृदा प्रदूषण का एक कारण है। ये पदार्थ परमाणु विद्युत केन्द्रों , ईंधन पुनर्शोधन इकाइयों , परमाणु अनुसन्धान केन्द्रों , आयुध उद्योगों आदि में पाए जाते है , रेडियोसक्रीय अपशिष्टों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

(अ) निम्न सक्रियता वाले अपशिष्ट : काँच और प्लास्टिक आदि।

(ब) मध्यम सक्रियता वाले अपशिष्ट : स्ट्रोंशियम-90 , कार्बन-14 , निकेल-59 , सीजियम-137 आदि।

(स) उच्च सक्रियता वाले अपशिष्ट : युरेनियम।

  1. अन्य कारण:
  • विभिन्न उद्योगों में कोयले के उपयोग से प्रचुर मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड गैस निकलती है। जो वर्षा जल के साथ अम्ल वर्षा के रूप में मिट्टी तक पहुँचती है। इससे मृदा के अम्लीय होने के खतरा पैदा होता है।
  • यातायात में वृद्धि के फलस्वरूप वाहनों से निकलने वाले धुंए में सीसा (लैड) , नामक धातु प्रचुर मात्रा में पाई जाती है , यह मृदा कणों द्वारा अवेशोषित कर ली जाती है तथा विषाक्तता का कारण बनती है।

2. कृषीय कारक

हालाँकि कृषि का आधार मिट्टी ही है , लेकिन यह अजीब विडंबना है कि कृषीय अपशिष्ट मृदा प्रदूषण के कारण भी बन जाते है। खलिहानों के व्यर्थ पदार्थ , फसलों के डंठल , पुआल , आदि अंततः प्रदूषणकारी होते है। इसी तरह भूमि में डाले जाने वाले अथवा फसलों पर छिडके जाने वाले कृषि रसायन की अतिरिक्त मात्रा से मृदा प्रदूषित हो जाती है। कृषि से सम्बन्धित कुछ अनुचित क्रियाएं भी मृदा प्रदूषण के कारण है जैसे खेत की अत्यधिक जुताई करना , झुमिंग खेती और अन्य वे क्रियाएं जिनसे भू क्षरण की सम्भावना बढ़ जाती है।

हमारे देश में मृदा प्रदूषण का एक बड़ा कारण रासायनिक उर्वरकों का अधिक मात्रा में और लगातार प्रयोग करना भी है .कृषि विशेषज्ञों के अनुसार कृषि में विभिन्न किस्मों के उर्वकों (नाइट्रोजनी , फास्फेट और पोटाश-NPK) का उपयोग एक संतुलित अनुपात में ही किया जाना चाहिए।

भारत के लिए यह मानक अनुपात 4:2:1 है लेकिन 1996-1997 में यह 10.0 : 2.9 : 1 रहा था।

मृदा प्रदूषण के स्रोत : ठोस अवशिष्ट के समुचित निक्षेपण अथवा निराकरण की समस्या दरअसल मृदा प्रदूषण के नाम से जानी जाती है , इसके निम्नलिखित स्रोत होते है –

(i) औद्योगिक कचरा

(ii) नगरपालिका कचरा

(iii) कृषिजन्य कचरा

(iv) प्लास्टिक से प्रदूषण

(v) घरेलू कचरा

(i) औद्योगिक कचरा : उद्योग प्रधान नगरों में इस प्रकार के कचरे की ही मात्रा सर्वाधिक होती है। इस कचरे में कुछ जैव अपघट्य , कुछ ज्वलनशील , कुछ विषैले , कुछ अजैविक और कुछ अक्रियाशील और स्थायी किस्म के पदार्थ होते है।

इसका निपटान बड़े ही सामान्य ढंग से होता है। उद्योग प्रबंधक के लिए कचरे का उपचार करके उसे ठिकाने लगाने की व्यवस्था करना बड़ा जटिल और खर्चीला होता है , अत: खुले मैदानों अथवा गड्डों में कचरे को डालकर भर दिया जाता है।

(ii) नगरपालिका कचरा : इस प्रकार के कचरे में घरेलू और मानव मल , बाजार (सब्जी और माँस बाजार) के सड़े गले पदार्थ , औद्योगिक केन्द्रों का कूड़ा , उद्योगों की सड़ी और सुखी पत्तियों , पशुओं का चारा , मिश्रित उत्सर्जित पदार्थ , नालों गटरों से निकली कीचड़ , गाद आदि को शामिल किया जाता है। इन्ही में मरे हुए जानवरों को भी सम्मिलित किया जाता है।

(iii) कृषिजन्य कचरा : यह दो प्रकार का होता है – जैव अपघटनीय और जैव अनपघटनीय। कृषि उपज के पश्चात् पत्ते , डंठल , घास-फूस , बीज आदि फसल द्वारा पैदा किया गया जैव अपघटनीय कचरे में आता है क्योंकि इनका जैविक अपघटन हो जाता है। इनसे अस्थायी प्रदूषण होता है , यह मृदा हेतु उर्वरक का कार्य करने लगते है। इनसे प्रदूषण तो तब होता है जब इसके ढेर से मिले गोबर अथवा मल मूत्र आदि से यह सड़ना शुरू हो जाए।

कीटनाशी और खरपतवार नाशी रसायनों और खादों से भी मृदा प्रदूषण होता ही है। विभिन्न देशों में विभिन्न कीटों को नष्ट करने के लिए नवीन कीटनाशियों का प्रयोग होता था , लेकिन कालांतर में कार्बनिक यौगिकों का प्रयोग होने लगा। डी.डी.टी. अद्वितीय कीटनाशी तो है लेकिन अन्य प्रकार से यह हानिकारक भी है। यह मृदा में दीर्घकाल तक बना रहता है तथा खाद्य फसलों द्वारा प्रचुर मात्रा में ग्रहित होने के कारण पशुओं के लिए भी विष का काम करता है। चारा चरने वाले दुधारू पशुओं में दुग्ध में भी डी.डी.टी. चला जाता है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों द्वारा बहुजनहिताय डी.डी.टी. पर अन्तराष्ट्रीय प्रतिबन्ध की मांग की गई। डी.डी.टी. एक कार्बनिक क्लोरिन कीटनाशी है। बी.एच.सी. , एल्ड्रिन , हेप्टाक्लोर , डाइएल्ड्रिन और अन्य एल्ड्रिन अन्य कीटनाशी इसी के समान है। प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि ये मृदा से फलों और सब्जियों की फसलों द्वारा सर्वाधिक मात्रा अवशोषित करती है।

मिट्टी में अधिक काल तक बने रहने के कारण उपर्युक्त क्लोरिन यौगिकों के स्थान पर अल्प स्थायी कार्बनिक फास्फोरस कीटनाशियों का प्रयोग प्रारंभ किया गया है। पैराथियान , मैलाथिन , डायजियान आदि ऐसे ही यौगिक है लेकिन ये अत्यंत घातक है। यदि कोई यह भूल कर बैठे कि ये अत्यल्प स्थायी है , अत: इनकी कोई भी मात्रा प्रयुक्त की जा सकती है तो बहुत बड़ा संकट उपस्थित हो सकता है। अत: परिवर्तन के लिए परिवर्तन के उद्देश्य से इन यौगिकों के साथ खिलवाड़ प्रदूषण की समस्या को उग्र बना सकता है।

(iv) प्लास्टिक से प्रदूषण : प्लास्टिक का प्रयोग अब सामान्य हो चला है। प्लास्टिक उपयोग की प्रवृति में अचानक बढ़ोतरी का प्रमुख कारण जहाँ सामान्य उपभोग की वस्तुओं का प्लास्टिक निर्मित होना है , वही इनका टिकाऊपन और सफाई की दृष्टि से अधिक उपयोगी होना है।

प्लास्टिक चूँकि काफी लम्बे समय तक अपघटित अथवा नष्ट नहीं होता है , इसलिए इसके उपयोग के बाद इसका क्या किया जाए , यह एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है। नगरीय क्षेत्रों में आज भी ठोस कचरे के निष्पादन का आसान उपाय उनको कही दूर फेंक देना ही होता है। इस कचरे में जो जैविक पदार्थ होते है वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते है लेकिन प्लास्टिक में एक अजैविक पदार्थ होने के कारण इसका कचरा नष्ट होने में भी काफी समय लगता है।

प्लास्टिक के अवशिष्ट से मुक्ति पाने का कोई ठोस उपाय किसी भी देश के पास नहीं है। वैसे सभी देश प्लास्टिक से मुक्ति पाने के लिए सामान्यतया निम्नलिखित उपाय अपनाते है –

(अ) यूँ ही फेंक देना : यह सामान्य रूप से विकासशील और गरीब देश करते है।

(ब) पुनः उपयोग करना : कतिपय देशो में ऐसा होता है। यह प्लास्टिक को इक्कठा करके सीधे गलाकर पुननिर्माण द्वारा किया जाता है।

ऐसे प्लास्टिक का निर्माण , जो कि अपघटित हो जाए , का बड़े पैमाने पर किये जाने की माँग प्लास्टिक प्रदूषण के बढ़ते जाने के कारण हुआ। इस दिशा में यह कदम उठाया गया कि प्लास्टिक में स्टार्च मिलाया जाने लगा है , हालाँकि इस स्टार्चयुक्त प्लास्टिक का उपभोक्ता और वैज्ञानिकों द्वारा विरोध किया गया है।

अब लगभग हर नगर में अनेक छोटी बड़ी प्लास्टिक की सामग्री बनाने वाली इकाइयां कार्यरत है जो कि कूड़े से बीने गए प्लास्टिक का उपयोग वस्तु का निर्माण करने में नही हिचकिचाती है। लेकिन इस गंदे प्लास्टिक को सामान्य भट्टियों में गलाने से जहाँ दुर्गन्ध पैदा होती है , वही वायु में अनेक प्रकार की विषैली गैसें भी बगैर उपचार के छोड़ी जाती है।

नगरों और महानगरों के कई सौ टन प्रतिदिन कचरे में प्लास्टिक का भी एक बड़ा अंश होता है जो कि वहां की मृदा को ख़राब करता है। यहाँ तक कि विभिन्न जल स्रोतों जैसे नदियों और तालाबों में प्लास्टिक की टूटी फूटी अथवा अनुपयोगी वस्तुएं पायी जाती है जो कि घिस कर गलकर अपने कैंसरजन्य पदार्थों को पानी में घोल देती है। इन पदार्थों की मात्रा हालाँकि अत्यंत अल्प है लेकिन यह एक चिंता का विषय तो है ही।

(v) घरेलू कचरा : इसमें मुख्यतः सुखा कचरा और रसोईघरों का गीला कचरा शामिल है। निम्नलिखित में विभिन्न उद्योगों से निष्कासित कचरा और उनके लक्षण प्रदर्शित है –

सुखा कचरा मुख्यतः धुल , सुखी टहनियों , पत्तियों , राख , काँच , प्लास्टिक , चीनी मिट्टी , रद्दी कागज और गत्ता , टिन या लोहे के अनुपयोगी कलपुर्जो , टायर ट्यूबों , केबिल्स आदि के साथ ही टूटे फर्नीचर , बिगड़े हुए उपकरण अथवा उनके कलपुर्जो आदि को भी शामिल कर सकते है।

उद्योग अवशिष्ट लक्षण
1.       रबड़ और प्लास्टिक रबड़ और प्लास्टिक उच्च बी.ओ.डी. गंध , उच्च निलंबित पदार्थ – अपरिवर्तनशील pH मान , उच्च क्लोराइडस और रसायन , रबड़ एवं प्लास्टिक का चूरा
2.       औषधि सूक्ष्मजीवी और कार्बनिक रसायन विटामिन्स , रसायन , निलंबित और घुलित कार्बनिक पदार्थ
3.       वस्त्र उद्योग कपड़ा अर्थात सूती , ऊनी , रेशमी आदि वस्त्र और उनके धागे अत्यधिक क्षारीय , रंगीन की , ओल्डी , ताप और निलम्बित पदार्थो का उच्चमान , रंजक आदि
4.       रासायनिक कच्चा माल , माध्यम और अंतिम उत्पाद विषैले , अम्लीय , क्षारीय , संक्षारक विस्फोट , तीव्र बदबूदार
5.       उर्वरक रासायनिक ठोस अवशिष्ट कैल्शियम सल्फेट और कैल्शियम फ्लोराइड आदि
6.       लौह लौह छीलक राख , कार्बन कण , अन्य ठोस मध्यक स्थायी पदार्थ , विषैले और जले अधजले , कार्बन कण और खनिज पदार्थ और रासायनिक ठोस कण

 

रसोईघर में पैदा होने वाले पदार्थो में सब्जियों , फलों के छिलके डंठल पत्ते गुठलियाँ , चाय पत्ती , बची हुई जूठन , अन्डो के छिलके , मछली पशु पक्षियों के अनुपयोगी अवयव आदि को रसोईघर के गिले कचरे में शामिल कर सकते है .यह मात्रा नगरीय स्थितियों और नागरिकों के जीवन स्तर पर निर्भर करती है।

मृदा प्रदूषण के प्रभाव (effect of soil pollution)

भद्दे और बेतरतीब ठोस कूड़े के ढेर और दुर्गन्ध निश्चित ही मनुष्य की मानसिकता को ठेस पहुँचाते है।

अपरोक्ष प्रभाव :

  1. घरेलू वाहित जल से कीचड़ बनकर मृदा प्रदूषक रोग प्रसारक कीटों की समष्टि में वृद्धि को कारक बनते है।
  2. मल-जल का कृषि में उपयोग होने से मृदा छिद्रों की संख्या में कमी आना। इससे मृदा ठोस भी हो जाती है।
  3. चूहे जो ठोस कूड़े से बच्चे पैदा करते है , मानव सम्पतियों तथा अनाज को अधिक नुकसान पहुंचा सकते है।
  4. तिलचट्टे जो ठोस कूड़े के ढेरों में छिपे रहते है तथा रात को आसपास के रसोईघरों पर आक्रमण करते है तथा बदले में वहां संक्रामक सामग्री छोड़ देते है।
  5. घरेलू मक्खी बहुत सी मलविष्टा , मुख सम्बन्धी बीमारियों जैसे प्रवाहिका , आमातिसार आँव , हैजा , मियादी बुखार अथवा मोतीझरा आदि पैदा करती है।

प्रत्यक्ष प्रभाव :

  1. यह सर्वविदित है कि ग्रहणी घर की साज सज्जा और सफाई का ध्यान रखती है। इसके लिए उसे घर में झाड़ू देने , दरी झाड़ने , बिस्तरों की चादर झाड़ने और पुस्तकें और दरवाजे आदि को साफ़ करना होता है। इस प्रकार ग्रहिणी विभिन्न रूप में धूलि अन्त:ग्रहण करती है , धूल के अन्त:ग्रहण से एलर्जी उत्पन्न हो जाती है। एलर्जी में साधारणतया नासाशोथ , दमा , पित्ती , त्वचा उद्भेदन , संधिशोथ और आंत्रशोथ आदि रोग उत्पन्न हो जाते है। बहुत से उत्तेजक पदार्थ एंटीजन रूप में कार्य करते है। जब एंटीजन मानव शरीर में शोषित होती है तो ये रक्त में रोग प्रतिकारक बनाने में उत्तेजित करते है तथा यह प्रारंभिक कदम सुग्राहीकरण की रचना करते है। इनके परिणामस्वरूप हिस्टेमीन जैसे अन्य यौगिक निकल कर अशुद्ध एलर्जी को उत्पन्न करते है।
  2. घरेलू धुल में रुई , रुआ , पंख और अनेक वस्तुएं ऐसी होती है जो व्यक्ति को संवेदी बना देती है। घरेलु धुल में कंकरी अधिक मात्रा में पायी जाती है जिसको क्लोरोफोर्म से अलग किया जा सकता है , क्योंकि क्लोरोफोर्म में कंकरी नीचे बैठ जाती है जबकि दुसरे अवयव आपेक्षित घनत्व कम होने के कारण तैरते रहते है। इन अवयवों में मुख्यतः कपड़ो के रेशें , परागकण , फंफूदी के बीजाणु , कवक और बैक्टीरिया , वनस्पति कूड़े के कण , राख के कण , कार्बन , अग्नि के कारण वायुमंडलीय प्रदूषण से निकले डामर पदार्थ और उद्योगों में मशीनों से उत्पन्न धुल कण भी शामिल है। दूर स्थानों से वायु द्वारा लाये गए फंगस बीजाणु भी अंत: ग्रहण करने पर एलर्जी के लक्षण दिखाते है। खेतों में कार्य करने वाले किसानों को भी इस एलर्जी का मुकाबला करना पड़ता है। अत: जो व्यक्ति इनसे प्रभावित होते है , वर्षा ऋतु में आराम अनुभव करते है।
  3. घरेलु धुल से क्षयरोग होने का भय रहता है। जब एक व्यक्ति छींकता या थूकता है तो जो पदार्थ भूमि पर पड़ता है उससे पानी तो वाष्प बनाकर उड़ जाता है तथा शेष कीटाणु झाड़ू देने के कारण श्वास में आ जाते है। इस प्रकार से रोग फैल जाते है। अत: रोगियों के थूक म लार और नाक गंध से अन्य व्यक्तियों को बचाना श्रेयस्कर होगा। इस तरह के बैक्टीरिया स्त्रियों के प्रजनन के समय या घाव पर अधिक प्रभावशाली पाए जाते है। अत: घरेलु धुल भिगो लेनी चाहिए। यदि किसी इमारत को गिराना हो तो उसकी दीवारों को पहले पानी से भिगो लेना चाहिए जिससे कि धूलि प्रदूषण न हो। जहाँ तक हो सके , आंधी और तूफ़ान से उत्पन्न धुल से अपने आपको सुरक्षित करना चाहिए।

मृदा प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय

मृदा प्रदुषण का एक कारण इसका कुप्रबंध भी है। एक अनुमान के अनुसार इसी कुप्रबन्ध के कारण हमारे देश की कुल धरती के लगभग 53% भाग पर खेती की जा रही। इस कृषि योग्य भूमि (14 करोड़ 29 लाख हैक्टेयर) के लगभग 60% भाग में भूमि संरक्षण की नितांत आवश्यकता है।

निवारण : ऊपर मृदा प्रदूषण के विभिन्न कारणों की चर्चा की गई , इससे यह बात स्पष्ट है कि आज मृदा प्रदूषण एक भयंकर समस्या बनकर हमारे सामने है। अत:आज आवश्यकता इस बात की है कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए।

मृदा प्रदूषण (प्रदूषित मृदा) के उपचार के प्रमुख उपाय निम्नलिखित है –

  1. वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण के फलस्वरूप मृदा प्रदुषण में वृद्धि होती है। अतएव इन दोनों प्रकार के प्रदूषण के कमी लाने से मृदा प्रदूषण में भी कमी आयगी।
  2. कचरे से बायोगैस भी बनाई जा सकती है। इस गैस से बिजली भी उत्पन्न की जा सकती है।
  3. कूड़ा करकट को जमीन में गाड़कर कम्पोस्ट तैयार करनी चाहिए।
  4. पशुओं के गोबर और कृषीय अपशिष्टों का उपयोग खाद बनाकर किया जाना चाहिए।
  5. उद्योगों में चिमनी से निकलने वाले धुल कणों को हटाने के लिए संचयित्र का उपयोग करना चाहिए।
  6. औद्योगिक मलवे को उपचार के बाद ही भूमि में प्रवेश की व्यवस्था करनी चाहिए।
  7. उर्वरकों और जीवनाशियों का सतर्कतापूर्वक तथा न्यूनतम उपयोग करना चाहिए।
  8. सिंचाई के लिए यदि मल जल का प्रयोग करना है जो पहले उसके बी.ओ.डी. और अन्य गुणों का परिक्षण करवा लेना चाहिए।
  9. प्रदूषण प्रतिरोधी वनस्पतियों , पेड़ और पौधे अधिक संख्या में उगाने चाहिए। ऐसे पौधे सूचक पौधे कहलाते है। 10. विभिन्न कोटि की मृदाओं और विभिन्न कोटि की भूमियो का उपयोग इनकी विशिष्टताओं के अनुसार किया जाए। व्यर्थ पड़ी भूमि का उपयोग कूड़ा करकट के निस्तारण के लिए करना चाहिए।
  10. भूमि क्षरण को रोकने के लिए सफल प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए अधिक से अधिक पेड़ पौधे लगाने चाहिए।

इसके अतिरिक्त निम्नलिखित समान्य नियंत्रणकारी उपाय भी महत्वपूर्ण है –

  • कचरे का समुचित निपटान किया जाना चाहिए।
  • औद्योगिक संस्थानों पर कचरा बिना उपचारित किये फेंकने पर कठोर प्रतिबन्ध।
  • कृषि हेतु उपयोगी रसायनों में स्थिर अथवा स्थायी प्रकृति के और अत्यधिक विषैले रसायनों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध।
  • बच्चो को प्राथमिक शिक्षा के दौरान नगरीय स्व्च्छता का पाठ पढाया जाए।
  • सडको पर कचरा फेंकने पर आर्थिक दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।
  • कूड़ा संग्रहण , निष्कासन , निस्तारण , प्रबंध कार्य हेतु नगर प्रबंध संस्था को चुस्त दुरुस्त बनाना चाहिए।
  • अनियंत्रित उत्खनन के प्रयास रोके जाए।
  • स्वच्छ शोचालयों (सुलभ काम्प्लेक्स) का विशाल पैमाने पर निर्माण और प्रयोग हेतु प्रोत्साहन देना।