self pollination in hindi meaning definition स्वपरागण किसे कहते हैं | स्वपरागण की परिभाषा क्या है उदाहरण चित्र लाभ ?
परागण (pollination) : बीजधारी पौधों में किसी पुष्प के परागण के परागकोष से मुक्त होने के पश्चात् जायांग के वर्तिकाग्र तक पहुँचने की प्रक्रिया को परागण कहते है।
विभिन्न पौधों में परागण क्रिया के बारे में मनुष्य को अति प्राचीन काल से ही जानकारी प्राप्त है। प्राचीन काल में अरब और एसीरियंस में एक प्रथा प्रचलित थी कि वर्ष में एक निश्चित समय पर विशेष प्रकार का त्यौहार मनाया जाता था। इसमें एक व्यक्ति , खजूर के नर वृक्ष से पुष्पक्रम तोड़कर महन्त अथवा पुजारी को देता था। यह पुजारी इस पुष्पक्रम को खजूर के मादा पुष्पों के पास ले जाकर हिला देता था अथवा इन पुष्पों से छू देता था। इसी क्रिया के कारण खजूर के वृक्ष में फल बनते थे। वहाँ के निवासियों का यह दृढ विश्वास था कि इस प्रकार खजूरों की अच्छी फसल , प्रधान पुजारी द्वारा किये गए पवित्र अनुष्ठान के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है परन्तु आज हम इस तथ्य से भली भाँती परिचित है कि उपर्युक्त प्रकरण में सम्पादित पवित्र अनुष्ठान परागण क्रिया ही होती थी। उपर्युक्त तथ्य के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि बीजधारी पौधों के लैंगिक जनन के अंतर्गत संचालित होने वाले अनेक प्रक्रमों में , परागण क्रिया एक महत्वपूर्ण चरण है। विभिन्न पौधों में होने वाली परागण क्रिया को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है –
I. स्वपरागण (self pollination)
II. परपरागण (cross pollination)
I. स्वपरागण (self pollination) : सामान्यतया स्वपरागण की प्रक्रिया प्रकृति में कम पाई जाती है। इसके अन्तर्गत किसी एक पुष्प के पराग कणों का स्थानान्तरण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर होता है। यहाँ परागण उभयलिंगी पुष्पों अथवा एक ही पौधे पर उपस्थित दो एकलिंगी पुष्पों में भी होता है। इस प्रकार के परागण में किसी प्रकार की बाह्य माध्यम अथवा सहायता की आवश्यकता नहीं होती है। यह दो प्रकार का होता है –
1. स्वयुग्मन (autogamy pollination) : विशेष प्रकार की इस स्वपरागण प्रक्रिया में एक पुष्प के परागकणों का अभिगमन उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर होता है। अत: स्वयुग्मन के लिए केवल एक ही पुष्प की आवश्यकता होती है।
2. सजातपुष्पी परागण (geitonogamy pollination) : जीटोनोगेमी अथवा सजातपुष्पी परागण का शाब्दिक अर्थ है , दो पड़ोसियों के मध्य विवाह। यह भी स्वपरागण की ही एक प्रक्रिया है , जिसमें किसी पुष्प के परागण , उसी पौधे के दुसरे पुष्प की वर्तिकाग्र पर अर्थात आनुवांशिक रूप से समान अन्य पुष्प की वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते है।
स्वपरागण के लिए अनुकूलन (adaptation for self pollination)
स्वपरागण के लिए पुष्पों में निम्न अनुकूलन पाए जाते है।
(A) समकालपक्वता (homogamy) : जब उभयलिंगी पुष्प की नर और मादा जनन संरचनाएँ अर्थात पुमंग और जायांग एक साथ ही परिपक्व होती है तो उसे समकालपक्वता कहते है। स्वपरागण की अत्यधिक सम्भावना सामान्यतया इसी स्थिति में बनती है। इसके अतिरिक्त कभी कभी पुष्प के पुमंग और जायांग विशेष प्रकार से विन्यासित होकर , कुछ अनूठी आकृतियों का गठन करते है जिसके कारण इनको स्वपरागण में सुविधा रहती है। ऐसे ही कुछ उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से है –
(अ) कुछ पुष्पों के पुंकेसरों , की लम्बाई इनके अंडपो से अधिक होती है , और ये अंडपों से ठीक ऊपर व्यवस्थित रहते है। अत: इस स्थिति में परिपक्व हो जाने पर परागण वर्तिकाग्र पर गिर जाते है उदाहरण ब्रेसीकेसी कुल के सदस्य।
(ब) कुछ उदाहरणों जैसे गार्डिनिया और इक्जोरा में पुष्प का अंडप स्वयं ही वृद्धि करके पुंकेसर के पास पहुँच जाता है। इस स्थिति में वर्तिकाग्र , पर अपने आप ही परागण स्थानांतरित हो जाते है।
(स) कुछ पौधों जैसे मिराबिलिस के पुष्प में पुंकेसर लम्बे होते है और परिपक्व अवस्था में ये सर्पिल रूप से कुंडलित होकर वर्तिकाग्र पर झुक जाते है। ऐसी अवस्था में परागण परागकोष से मुक्त होकर वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते है और स्वपरागण की प्रक्रिया संपन्न करते है।
(द) कम्पोजिटी अथवा ऐस्टरेसी (compositae or asteraceae) : कुल के अधिकांश सदस्यों में मुंडक के बिम्ब पुष्पक , उभयलिंगी और पुंपूर्वी होते है और इनकी मादा संरचना अथवा वर्तिकाग्र पुन्केसरों के भी ऊपर पहुँच जाती है , इस प्रकार इन पर अपने आप परागण पहुँच जाते है। हालाँकि एस्टेरेसी कुल के अधिकांश सदस्यों में पुष्प के समान दिखने वाले मुंडक पुष्पक्रम इतने आकर्षक होते है कि इनमें परपरागण ही होता है परन्तु जब इनमें परपरागण किसी कारणवश संभव नहीं हो पाता है तो इसके वर्तिकाग्र के दोनों हिस्से निचे की तरफ मुड़कर परागकोष के सम्पर्क में आ जाते है और इस प्रकार परागकण वर्तिकाग्र पर चिपक जाते है।
(य) कुछ पौधों जैसे आलू में जायांग की वर्तिका मुड़कर , परिपक्व परागकणों को स्वयं ग्रहण कर लेती है।
(B) अनुन्मील्य परागण (cleistogamy) : कुछ पौधों के पुष्प बंद ही रहते है , अर्थात खुलते नहीं है। (बंद पुष्पी) अत: इनमें आवश्यक रूप से स्वपरागण की प्रक्रिया होती है। ऐसे पुष्पों के परागकोष बंद पुष्पी अवस्था में ही परिपक्व होकर फट जाते है , और इनसे परागकोष मुक्त होकर इसी पुष्प की वर्तिका पर पहुँच जाते है। कुछ पौधों जैसे बोकना में पुष्प भूमिगत स्थिति में पाए जाते है अत: इनके फूलों के खुलने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी प्रक्रिया के अन्य उदाहरणों में , वायोला , इम्पेशेन्स , मूंगफली , खट्टीबूटी जनकस , सुब्युलेरिया आदि के नाम उल्लेखनीय है।
कुछ पौधों जैसे मटर , गेहूँ और चावल आदि में पुष्प की जनन संरचनायें अर्थात परागकोष और अंडप कलिकावस्था में ही परिपक्व हो जाते है। यहाँ भी पुष्प पर्ण अथवा द्विलिंगी होते है। अत: इस अवस्था में पुष्प का स्वपरागण ही संभव होता है।