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धर्मनिरपेक्ष किसे कहते हैं | धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब राज्य की विशेषताएं secularism in hindi meaning

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धर्मनिरपेक्षीकरण तथा धर्मनिरपेक्षता (Secularisation and Secularism)
आपके सामने धर्मनिरपेक्षता तथा धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द अनेक बार आए होंगे। निश्चित ही आप में इनका अर्थ जानने की इच्छा जागृत हुई होगी।

धर्मनिरपेक्षीकरण तथा धर्मनिरपेक्षता शब्दों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हैं। विभिन्न परिस्थितियों तथा परिदृश्यों के आधार पर इनके अर्थ भी भिन्न हो जाते हैं। हम इनमें से कुछ अर्थों को जानने का प्रयास करेंगे।

सर्वप्रथम हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि धर्मनिरपेक्षीकरण वास्तव में क्या है तत्पश्चात् हम धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ेंगे जो धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का परिणाम है।

 धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द (The Term Secularisation)
धर्मनिरपेक्ष शब्द की उत्पत्ति लेटिन के शब्द ‘सेक्यूलर‘ से हुई है, जिसका अर्थ है- ‘वर्तमान युग अथवा पीढ़ी‘ । धर्मनिरपेक्ष शब्द धर्म निरपेक्षीकरण की सामाजिक प्रक्रिया से जुड़ा है।

धर्मनिरपेक्षता को यूरोप में व्यवहार में लाया गया, वहां इसका उपयोग कुछ क्षेत्रों को चर्च के अधिकार से निकाल कर राज्य अथवा धर्मनिरपेक्ष संस्था के प्रभाव के अधीन हस्तांतरित करने के लिए किया गया।

ईसाई विचारधारा के अंतर्गत पहले से ही ‘धार्मिक‘ तथा ‘धर्मान्तर‘ का अंतर मौजूद था। (धार्मिक अर्थात यह सब जो पारलौकिक तथा ‘धर्मान्तर‘ अर्थात जो सांसारिक है) इस विचार को धर्म की उच्चता को स्थापित करने के लिए आगे बढ़ाया गया।

तथापि इस शब्द का प्रयोग ‘धर्मनिरपेक्षीकरण के विचार द्वारा अधिक व्यावहारिक व सामाजिक रूख अपनाने पर, अलग प्रकार से किया गया।

 धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द का समाजशास्त्रीय अर्थ
(The Sociological Connotation of Secularisation)
सामाजिक विचारकों ने धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द का प्रयोग उस प्रक्रिया के लिए किया है जहाँ धार्मिक संस्थान तथा धार्मिक विचारधाराओं तथा समझ का नियंत्रण सांसारिक मामलों और आर्थिक, राजनीति, विधि-न्याय, स्वास्थ्य, परिवार, इत्यादि पर से समाप्त हो गया। इसके स्थान पर सामान्य रूप से संसार के बारे में अनुभव सिद्ध व तर्कसंगत क्रियाविधियों तथा सिद्धांतों का पनपना आरंभ हुआ।

धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए ब्रायन आर.विलसन लिखते हैं धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत ‘‘विभिन्न सामाजिक संस्थाएं धीरे-धीरे एक दूसरे से अलग हो जाती हैं तथा वे उन धार्मिक अवधारणाओं की पकड़ से बहुत हद तक मुक्त हो जाती हैं जिन्होंने इनके संचालन को प्रेरित तथा नियंत्रित किया था। इस बदलाव से पूर्व, अधिकतर मानवीय क्रियाओं व संगठन के विशाल क्षेत्र से संबंधित सामाजिक प्रक्रिया को पहले से तय धार्मिक सिद्धांतों के आधार पर संचालित किया जाता रहा है। इसमें जीविका व अन्य कार्य, सामाजिक व व्यक्तिगत पारस्परिक संबंध न्याय कार्य-प्रणाली, सामाजिक व्यवस्था, चिकित्सा पद्धति आदि शामिल हैं। यह विशिष्ट तंत्रगत विभाजन की प्रक्रिया है जिसमें सामाजिक संस्थाओं (अर्थ, राजनीति, अचार, विधिन्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य व परिवार) को ऐसे भिन्न प्रतिष्ठानों के रूप में मान्यता मिली, जिन्हें संचालन की खासी स्वतंत्रता प्राप्त हो। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत पारलौकिक सिद्धांतों का मानवीय मामलों पर से नियंत्रण हट जाता है। ऐसे स्वरूप को मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्षता के रूप में पहचाना जाता हैं। पारलौकिक सिद्धांत धीरे-धीरे सभी सामाजिक संस्थाओं से हट कर केवल पारलौकिक के प्रति समर्पित संस्थाओं या पूरे समाज को अपनी परिधि में लेने वाली धार्मिक संस्थाओं तक ही सीमित रह जाते हैं । (विलसन 1987: 159)

धर्मनिरपेक्षीकरण की परिभाषा काफी हद तक धर्म की परिभाषा से बंधी हुई है। जहां तक धर्म को स्पष्ट रूप से तथा मुख्य रूप से पारलौकिक से संबंधित विश्वास सम्मान, क्रियाओं, संस्थाओं तथा तंत्र के रूप में परिभाषित किया जाता है वहाँ तक धार्मिक प्रभाव के हास की सीमा को मापना संभव हैं। पर यदि हम धर्म को प्रयोजनमूलक विषयों के आधार पर परिभाषित करते हैं जैसा कुछ समाजशास्त्रियों ने किया है- विश्वास, विचारों तथा क्रियाओं के ढांचे के रूप में, जो समाज के लिए अपरिहार्य कार्य करता है तो उस स्थिति में धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द का प्रयोग करना कठिन हो जाता है क्योंकि, जब हम धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द का प्रयोग करते हैं, तब हम उस प्रक्रिया की चर्चा करते हैं जिसके अंतर्गत पारलौकिक से संबंधित क्रियाओं तथा विश्वासों का जीवन के सभी पहलुओं में हास होता है। तथा समाज में विभिन्न संस्थाओं का विशिष्ट रूप से अलगाव होता है। हम पारलौकिक विश्वास का धर्मेत्तर क्रियाओं से विच्छेद जैसे बीमारी के प्रति दृष्टिकोण तथा समझ, के रूप में देख सकते हैं। हमें सदैव किसी रोग तथा बीमारी को समझने के लिए पारलौकिक कारण उपलब्ध नहीं होते। इसके स्थान पर हमारे पास वैज्ञानिक व प्रयोगसिद्ध कारण होते हैं। वास्तव में, इन परिवर्तनों ने स्वयं धर्म को भी प्रभावित किया है।

धर्म के भीतर धर्मनिरपेक्षीकरण (Secularisation within Religion)
धर्मनिरपेक्षीकरण का एक पहलू यह है कि सभी धर्म अपने सिद्धांतों व व्यावहारिक प्रक्रियाओं को अपने सदस्यों की बदलती आवश्यकताओं तथा समाज की बदलती स्थिति के अनुरूप ढाल लेते हैं।

उदाहरणतया, 1976 में अमेरिका के एपिसकोपल चर्च ने आधिकारिक रूप से महिलाओं को पादरी बनने की अनुमति प्रदान की। इंगलैंड में भी अभी हाल ही में महिलाओं को पादरी बनने की अनुमति प्रदान की गई है। जिसका विरोध भी हुआ है। हम देखते हैं कि किस प्रकार चर्च ने बदलती परिस्थिति व समाज में महिलाओं की बदली स्थिति को मानते हुए कार्य किया।

धर्म निरपेक्षीकरण धार्मिक विश्वास के विषय को भी प्रभावित करता है तथा इससे कई अवसरों पर यह एक नये पंथ के विकास को आरंभ करता है। हमने इकाई 10 व 14 में अपनी चर्चा के दौरान देखा कि किस प्रकार प्रोटेस्टैंटवाद का विकास रूढ़िवादी रोमन कैथोलिकवाद के विरोध में हुआ तथा धर्म को इस संसार से धरातल पर लाया गया। धर्म में धर्मनिरपेक्षीकरण प्रायः जनसामान्य से संबंधित मामलों के प्रति बढ़ती चिंता के साथ जुड़ा है। धर्मेत्तर व सांसारिक क्रियाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि धार्मिक। इसी कारण हम धार्मिक संस्थाओं को आधुनिक अस्पतालों, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा संस्थानों अथवा परोपकारी कार्यों के संचालन में संलग्न पाते हैं। औद्योगिक समाजों में धर्म बहुधा हमारे समय की तर्कसंगतता को दर्शाता है तथा ऐसा करने में पारलौकिक से अधिक दूर होता जा रहा है।

अभी तक हमने धर्मनिरपेक्षीकरण शब्द के अर्थ, की विभिन्न परिस्थितियों तथा पहलुओं के संदर्भ में चर्चा की। हमने अभी तक धर्मनिरपेक्षता के बारे में चर्चा नहीं की है।

 मूल्य के रूप में धर्मनिरपेक्षता (Secularism as a Value)
फ्रांसीसी क्रांति के बाद धर्मनिरपेक्षता नए राजनीतिक दर्शन का आदर्शवादी उद्देश्य बन गई थी। कुछ समय पश्चात 1851 में जॉर्ज जेकब होलिओक ने ‘धर्मनिरपेक्षता‘ शब्द का प्रतिपादन किया। उसने इसे एकमात्र राजनीतिक व सामाजिक संगठन का तर्कसंगत आधार बताया। होलिओक ने सामाजिक समूह के धार्मिक आधार के बारे में प्रश्न उठाते हुए धर्मनिरपेक्षता को राज्य की आदर्श विचारधारा के रूप में आगे बढ़ाया। जो भौतिक साधनों द्वारा मानवीय कल्याण को प्रोत्साहित करती है तथा दूसरों की सेवा को अपना कर्तव्य समझती है।

धर्मनिरपेक्षता एक प्रकृतिवादी विचारधारा के रूप में फ्रांसीसी क्रांति के बाद के उदारवादी व प्रजातांत्रिक राज्य की आवश्यक योग्यता थी। यह मानदंड आधुनिक प्रजातांत्रिक राज्य पर भी लागू किया जाता है।

अपनी परिभाषा तथा उदारवादी व प्रजातांत्रिक नीति के कारण आधुनिक राज्य समूह, जातियों, वर्गों आदि में भिन्न धार्मिक रूझान के आधार पर भेद नहीं करता। राज्य के राजनीतिक दर्शन के अनुसार यह निर्धारित किया गया कि राज्य अपनी ओर से लोगों पर किसी धर्म विशेष को नहीं लादेगा तथा न ही किसी समूह विशेष पर अपने धर्म के अनुसार क्रिया-कलाप करने पर प्रतिबंध लगाएगा।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता को विचारगत उद्देश्य के रूप में लेते हुए, इस विचारधारा के प्रस्तावक विशेषरूप से सामाजिक संगठनों के आधार के रूप में धार्मिक रूढ़िवादिता की भर्त्सना करते हैं तथा सामाजिक मूल्यों की वकालत करते हैं। आदर्श विचारधारा के रूप में धर्मनिरपेक्षता आंशिक रूप में यूरोप में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का प्रतिफल है तथा कई आधुनिक राज्यों में इसे किसी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया में संलग्न हुए बिना, (जैसा यूरोप में इस बाद के उभरने के समय हुआ था) राज्य की नीति के रूप में अपना लिया गया।

आइये, हम इतिहास में झांक कर देखें कि धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया किस प्रकार विकसित हुई।

 धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया (The Secularisation Process)
इस अनुभाग में हम धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया की चर्चा करेंगे जो निश्चित रूप से चर्च व राज्य के बीच संघर्ष के फल के रूप में उभरी । इस संघर्ष की सामाजिक पृष्ठभूमि ने एक प्रकार से इस धर्मनिरपेक्षीकरण प्रक्रिया को दिशा भी प्रदान की।

 धर्म व धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के बीच का संघर्ष
(The Struggle between the Sacred and the Secular)
हम इतिहास को देखें.तो धर्मनिरपेक्षीकरण लगातार उभरता रहा है। कभी कम अथवा कभी अधिक। यह प्रारंभिक काल से ही दृष्टिगोचर होता रहा है। आदिकालीन समाजों में बहुधा यह देखा गया कि पारलौकिक के बारे में भ्रम व तर्कसंगत पद्धतियों का भी सम्मिश्रण था। चमत्कारी साधनों को तर्कसंगत पद्धतियों के साथ मिलाया गया था। धीरे-धीरे मानवजाति अधिक वास्तविकता के संबंधित, प्रयोगसिद्ध तथा तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाती चली गई। तथा वह प्रक्रिया जिसे मैक्स वेबर ने ‘संसार की जादू-टोने के प्रभाव से मुक्त‘ का नाम दिया, सामान्य प्राकृतिक घटनाओं को उनके चामत्कारिक धार्मिक प्रभाव से मुक्ति करती चली गई।

वास्तव में, कुछ समाजशास्त्री धर्म निरपेक्षीकरण का उद्गम एक ईश्वरवादी धर्मों के विकास में देखते हैं, जिसने पारलौकिक शक्ति को तर्कसंगत व प्रणालीबद्ध रूप प्रदान किया। इन एक ईश्वरवादी धर्मों यथा यहूदी धर्म तथा ईसाई धर्म ने लगातार छिट-पुट चामत्कारी धार्मिक विश्वास को नष्ट किया तथा बढ़ते हुए सर्वोच्च तथा विश्वव्यापी ईश्वर के सार्वभौमिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस प्रक्रिया में इन एक ईश्वरवादी धर्मों ने प्रणालीबद्धता अथवा तर्कसंगतता की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जो धर्मनिरपेक्षीकरण का एक तत्व है।

चर्च तथा राज्य (The Church and the State)
यूरोप में बहुत पहले समय से रोमन कैथोलिक चर्च का जीवन के सभी पहलुओं पर अत्यधिक अधिकार रहा है।

सम्राट कांस्टैंटाइन (306-37 ई.) के धर्म परिवर्तन तथा सामाजिक रूप से प्रभावशाली वर्ग ने चर्च को धर्मेत्तर संसार में प्रवेश के लिए अत्यधिक मान्यता व अवसर प्रदान किए। सम्राट कांस्टैंटाइन ने ईसाई धर्म को रोमन साम्राज्य के राज्य धर्म के रूप में स्थापित किया ।

बॉक्स 1
‘कांस्टैंटाइन ने अपनी सफलताओं का श्रेय ईसाई धर्म के ईश्वर को दिया। कहा जाता है कि उसने एक स्वप्न देखा जिसमें ईश्वर ने उसे आदेश दिया कि क्राइस्ट के प्रथम दो अक्षर ग्रीक में अपने सैनिकों की ढालों पर लिखें। कांस्टैंटाइन ने ऐसा ही किया और उसे विजय प्राप्त हुई। कहा जाता है कि इसके बाद उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तथा इसे अपना राज्य धर्म घोषित किया। इसके बाद से उसे सैनिक अपनी ढालों पर ईसाई धर्म के चिहनों का प्रयोग करने लगे।

इस प्रकार का भी विचार था कि चर्च केवल मानवीय आत्माओं के उद्धार हेतु ही नहीं था वरन इसका इस संसार के लिए भी एक उद्देश्य था, धरती पर ईश्वर के साम्राज्य की स्थापना । पादरी वर्ग केवल जीवन के पारलौकिक पहलुओं में ही नहीं वरन धर्मेत्तर जीवन में भी दखल रखता था। बाद में सेंट अगस्टाइन के आध्यात्मिक ज्ञान तथा बेनेडिक्टाईन व्यवस्था-जिसने श्उपयोगी कार्यश् की प्रस्तावना की-ने चर्च और धर्मेत्तर संसार के बीच संबंध स्थापित करने का प्रयास किया । जैसा कि वेबर ने पाया, श्रम ईसाई जीवन का एक आवश्यक तत्व बन गया।

धर्म प्रदान विधि-व्यवस्था व प्रशासनिक संस्थाओं के जरिए चर्च का संगठन अधिक औपचारिक तथा पद्धतिबद्ध हो गया । उभरते सामंतशाही समाज की केंद्रित तथा वर्गविभाजित प्रकृति की पृष्ठभूमि में यह विकास विशेष रूप से निर्णायक बना। इन प्रवृत्तियों के चलते चर्च मूलभूत एकता को बनाए रख सका।
जीवन के धर्मेत्तर पहलुओं में इसके दखल के साथ संगठनात्मक एकता ने चर्च को सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में अत्यधिक प्रभाव प्रयोग करने के योग्य बनाया। अत्यधिक संकुचित विचारधारा वाले मध्ययुगीन यूरोप के समाज में, जहां समाज संपन्न उच्च वर्ग तथा गरीबों में विभाजित था, चर्च की भूमिका इस संकुचित व्यवस्था की भर्त्सना करने में नगण्य थी। वास्तव में चर्च सामतशाही व्यवस्था के साथ इतना घुला-मिला था कि यह संपत्ति-धारक बन गया। पादरी वर्ग भूमि का स्वामी बन बैठा, जिसके पास राजनीतिक अधिकार क्षेत्र थे।

इस तरह की परिस्थितियों ने इस प्रश्न को जन्म दिया कि कहां और किसके पास अधिकार होना है? चर्च के पास अथवा धर्मनिरपेक्ष राज्य के पास?

राज-परिवार तथा आम आदमी दोनों ही चर्च की इस दमनकारी प्रवृति से समान रूप से तंग आ चुके थे तथा दोनों ने राजनीतिक तथा दैनिक जीवन के मामलों पर से चर्च तथा धर्म के नियंत्रण को हटाने के लिए संघर्ष किया।

वे शक्तियाँ जिन्होंने स्वयं को चर्च के विरोध में खड़ा किया उनकी ताकत धर्मनिरपेक्षता के रूप में जानी गई। इस संघर्ष तथा इसकी प्रक्रिया, जिसने अंततः धार्मिक अधिकारवाद के हास का नेतृत्व किया तथा इसके स्थान पर तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण की स्थापना को धर्मनिरपेक्षीकरण का नाम दिया।

समाज का धर्मनिरपेक्षीकरण केवल चर्च तथा राज्य के बीच संघर्ष का ही परिणाम नहीं है वरन सामाजिक बदलाव के अन्य पहलुओं से भी जुड़ा है।

अगले अनुभाग में हम उस सामाजिक संदर्भ पर दृष्टि डालेंगे जिसके अंतर्गत धर्मनिरपेक्षीकरण हुआ।

बोध प्रश्न 1
प) धर्मनिरपेक्ष का शब्दिक अर्थ क्या है ? अपना उत्तर चार पंक्तियों में दीजिए।
पप) फ्रांसीसी क्रांति के बाद के राजनीतिक दर्शन पर पाँच पंक्तियाँ लिखिए।
पपप) ईसाई धर्म अपनाने वाला पहला रोमन सम्राट कौन था ? अपना उत्तर चार पंक्तियों में दीजिए।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
प) धर्मनिरपेक्ष शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘सेक्युलर‘ से हुई है जिसका अर्थ है वर्तमान युग अथवा पीढ़ी। धर्मनिरपेक्ष शब्द बाद में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया से जुड़ गया।
पप) फ्रांसीसी क्रांति के बाद उभरे नये राजनीतिक दर्शन से राजनीतिक व सामाजिक संगठनों के धार्मिक आधार पर प्रश्न उठाये गये। इसने धार्मिक व सामाजिक संगठनों के लिए तर्कसंगत आधार की सिफारिश की । धर्मनिरपेक्षता को राजनीतिक उद्देश्य के रूप में अपनाया गया । होलीओक ने आशा तथा विश्वास जताया कि राज्य की आदर्श विचारधारा के रूप में धर्मनिरपेक्षता भौतिक साधनों के जरिए मानव कल्याण को प्रोत्साहित करती है तथा दूसरों की सेवा को अपना कर्त्तव्य बनाती है।
पपप) सम्राट कांस्टेटाइन (307-37 ई.) ईसाई धर्म अपनाने वाला पहला रोमन सम्राट था। उसने ईसाई धर्म को राज्य धर्म के रूप में घोषित किया।