द्वितीय विश्व युद्ध क्या है | द्वितीय विश्व युद्ध के कारण , परिणाम , कब हुआ , प्रभाव समाप्त second world war in hindi
second world war in hindi द्वितीय विश्व युद्ध क्या है | द्वितीय विश्व युद्ध के कारण , परिणाम , कब हुआ , प्रभाव समाप्त द्वितीय विश्व युद्ध के कारणों का वर्णन करें परिणामों की व्याख्या की तत्कालीन प्रभाव | कब प्रारंभ और समाप्त हुआ हुआ तारीख क्या थी ?
द्वितीय विश्वयुद्ध: कारण और परिणाम
(महाशक्तियों का उदय)
प्रस्तावना
पोलैण्ड पर 1 सितम्बर को जर्मन आक्रमण के साथ 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारंभ हुआ। इससे पूर्व दो भूतपूर्व शत्रुओं जर्मनी तथा सोवियत संघ ने गैर आक्रमण समझौते पर हस्ताक्षर कर दोनों ने अपने बीच पोलैण्ड के विभाजन के मार्ग को प्रशस्त किया। एक ओर सोवियत संघ और दूसरी ओर ब्रिटेन एवं फ्रांस के बीच समझौता करने के सभी प्रयास व्यर्थ साबित हुए। किंतु ठीक उसी समय सोवियत संघ एवं जर्मनी के बीच और जर्मनी एवं ब्रिटेन के बीच गुप्त बातचीत जारी रही। ब्रिटेन एवं फ्रांस ने सोवियत संघ को स्वतः अपना मित्र मान लिया था और उसके साथ एक सैनिक गठबंधन करने की कोशिश नहीं की। इसी ने सोवियत जर्मन गैर आक्रामक समझौते के मार्ग को प्रशस्त किया और जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने के कुछ माह पूर्व ब्रिटेन तथा फ्रांस दोनों ने पोलैण्ड को आश्वस्त करते हुए यह गारन्टी दी थी कि यदि पोलैण्ड पर आक्रमण होता है, तब ब्रिटेन एवं फ्रांस उसकी सभी संभावित सहायता करेंगे। जब युद्ध टालने तथा पोलैण्ड की रक्षा करने के सभी प्रयास असफल हो गये और जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया, तो ब्रिटेन एवं फ्रांस ने 3 सितम्बर, 1939 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इसके बाद शीघ्र ही अन्य देशों ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जापान ने चीन के विरुद्ध आक्रमण छेड़ दिया, किन्तु उसने कुछ समय तक न तो सोवियत संघ और न ही संयुक्त राज्य अमरीका के विरुद्ध युद्ध घोषित किया। कुछ समय तक इटली भी युद्ध में तटस्थ बना रहा, और अंततः वह जून, 1940 में जर्मन की ओर से युद्ध में सम्मिलित हो गया। जर्मनी ने यूरोप में बहुत से देशों के विरुद्ध निर्णायक विजयों को हासिल करने के पश्चात् 22 जून, 1941 को सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया। इस घटना ने सोवियत संघ को मित्र राष्ट्रों के खेमों में ला खड़ा किया। 7 दिसम्बर, 1941 को पर्ल हार्बर पर जापान द्वारा बम वर्षा करने के साथ अंततः संयुक्त राज्य अमरीका भी युद्ध में शामिल हो गया। यह युद्ध एक ओर मित्र राष्ट्रों, (ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ, संयुक्त राष्ट्र, अमरीका तथा उनके अन्य मित्र देशों) और दूसरी ओर धुरी शक्तियों (जर्मनी, इटली एवं जापान) के बीच लड़ा गया।
इटली, जर्मनी तथा जापान के द्वारा बगैर किसी शर्त के आत्म समर्पण करने के साथ यह युद्ध समाप्त हो गया।
इस इकाई में आप पढ़ेंगे कि किन परिस्थितियों में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और युद्ध के लिए कौन से कारक उत्तरदायी थे। इस इकाई में सैनिक गतिविधियों तथा बहुत सी लड़ाइयों के विस्तृत विवरण से हमारा सरोकार नहीं है। इस इकाई के अंत में हम उन प्रयासों को उद्धत करेंगे, जिनको युद्ध के बाद पराजित शक्तियों के साथ शांति संधियाँ संपन्न करने के लिए किया गया। हम यह भी विवेचना करेंगे कि किस प्रकार से भूतपूर्व बड़ी शक्तियों ने अपनी ताकत को खोया और सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमरीका कैसे दो महाशक्तियों के रूप में उभरे।
द्वितीय विश्व युद्ध का प्रारंभ और कारण
आप द्वितीय विश्वयुद्ध के विषय में पढ़ चुके हैं कि उसका प्रारंभ जर्मनी द्वारा पोलैण्ड पर आक्रमण करने और ब्रिटेन एवं फ्रांस द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के परिणामस्वरूप सितम्बर, 1939 में हुआ। इससे प्रतीत होता है कि युद्ध का कारण पोलैण्ड का झगड़ा था। यह कुछ सीमा तक सत्य है। पोलैण्ड की समस्या युद्ध का तात्कालिक कारण थी, किन्तु ऐसे बहुत से दूसरे कारण थे जिन्होंने ऐसी स्थिति को उत्पन्न किया जिसमें युद्ध को टालना असंभव हो गया था। अब हम तथा युद्ध के दूरवर्ती एवं तात्कालिक कारणों की विवेचना करेंगे।
वर्साय की संधि
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1919 में होने वाले पेरिस शांति सम्मेलन में न्याय, शांति तथा निरस्त्रीकरण पर आधारित एक आदर्श विश्व व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया गया। लेकिन वारसा संधि के रूप में अंततः जो उभर कर आया वह जर्मनी पर थोपी गयी शांति संधि थी। विजयी राष्ट्रों में उददेश्य की गंभीरता का अभाव था, जर्मनी के हाथों 1871 की अपनी पराजय एवं अपमान का बदला लेकर फ्रांस अपनी पुरानी शत्रुता को चुकाने का इच्छुक था।
एक सार्वभौमिक देश के प्रतिनिधियों द्वारा सामान्य मानदण्डों की आशा को जर्मनी तक विस्तारित नहीं किया गया था। शांति सम्मेलन का प्रारंभ जनवरी, 1919 में हआ। पराजित जर्मनी के साथ किसी भी प्रकार की बातचीत किये बगैर मित्र राष्ट्रों द्वारा शांति संधि के प्रारूप को तैयार किया गया। 7 मई, 1919 को संधि के प्रारूप को जर्मनी के पास उसके सुझावों के लिए भेजा गया जिसमें तीन सप्ताह का समय दिया गया था। संधि की शर्तों की घोषणा के प्रति जर्मनी में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। जर्मनी ने इससे इंकार कर दिया कि केवल वह अकेला ही युद्ध के लिए उत्तरदायी था। जर्मनी ने बहुत से प्रश्नों को उठाया और उनमें संशोधन का सुझाव दिया, लेकिन मात्र उसके एक संशोधन के अलावा उसके द्वारा उठाये गये सभी प्रश्नों को दबा दिया गया और 28 जून, 1919 को अंततः जर्मनी से वारसा संधि पर हस्ताक्षर करा लिये गये। जर्मनी के लोगों ने इसे (क्पाजंजम) कहा और इस अनादर एवं अपमान को सहन किया ।
जर्मनी को न केवल समुद्रपार उपनिवेशों से बेदखल कर दिया गया अपितु यूरोप में भी उसके आकार में पर्याप्त कटौती भी की। उसकी कीमत पर पोलैण्ड, फ्रांस तथा बेल्जियम ने भूभागों को प्राप्त किया। उसकी सेना तथा नौसेना में भारी कटौती की गयी। उसको किसी भी प्रकार की हवाई सेना न रखने को कहा गया । जर्मनी को युद्ध अपराधों को करने का दोषी घोषित किया गया और उससे विजयी राष्ट्रों को विशाल युद्ध हर्जाना अदा करने को कहा गया। वारसा संधि ने जर्मनी को विक्लांग और अपमानित किया। बीस वर्षों के बाद जर्मनी को बदला लेने का अवसर प्राप्त हुआ। हिटलर का एक ताकत के रूप में उद्भव हुआ और उसने अपनी अभिमानी जनता को उनके अपमान का बदला लेने के लिये नेतृत्व किया और इस प्रकार. द्वितीय विश्व युद्ध के लिए मार्ग को प्रशस्त किया।
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की असफलता
सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था एक महत्वपूर्ण आदर्श था और प्रथम विश्वयुद्ध के अंत में विश्व नेताओं ने इसकी शपथ ली थी। आक्रमण से पीड़ित देश को सामूहिक साधनों द्वारा सुरक्षा उपलब्ध कराना लीग ऑफ नेशन्स का उद्देश्य था। यदि किसी देश पर आक्रमण होता है तब लीग ऑफ नेशन्स के सदस्यगण अपनी सामूहिक कार्यवाही के द्वारा हमलावर देश को युद्ध से हटने के लिये दबाव डालेंगे। यह सामूहिक कार्यवाही हमलावर देश के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाकर या फिर आक्रमण के शिकार देश की सैनिक सहायता या दोनों कार्यवाहियों को करके की जा सकती थी।
अंतर्युद्ध के वर्षों के दौरान यदि किसी शक्तिशाली देश ने किसी छोटे देश के विरुद्ध युद्ध भागों पर अधिकार कर लिया, ऐसी स्थिति में लीग ऑफ नेशन्स एक प्रभावविहीन संगठन बना रहा। 1931 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया और 1932 तक उसने चीन के मंचूरिया प्रांत पर विजय प्राप्त कर ली। जापान बड़ी चालाकी से लीग को यह कहता रहा कि मंचूरिया में उसकी कार्यवाही आत्म-रक्षा के लिए है अर्थात् (मंचूरिया में वह जापानी जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा कर रहा है और यह मात्र पुलिस कार्यवाही है न कि आक्रमण)। लीग के स्थायी सदस्य जापान ने मंचूरिया के कठपुतली मंचुकुओ के शासन की स्थापना की। जब लीग ने सदस्य राष्ट्रों से मंचुकुओ सरकार को मान्यता न देने को कहा तब जापान ने लीग की सदस्यता का परित्याग कर दिया किन्तु विजित क्षेत्र पर अपना नियंत्रण बरकरार रखा।
1933 में इटली ने अबीसीनिया के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर उसे पराजित कर दिया और मई, 1936 में उसे औपचारिक तौर पर इटली साम्राज्य में मिला लिया। लीग सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को लागू करने की कोशिश की, इटली को एक हमलावर घोषित किया और उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये गये। लेकिन यह सब किसी उपयोग का न था क्योंकि इटली के विरुद्ध कोई सैनिक कार्यवाही नहीं की गयी और इटली अब एक बड़ी शक्ति तथा लीग काउंसिल का एक स्थायी सदस्य था। ठीक इसी प्रकार से कमजोर लीग ऑफ नेशन्स के द्वारा उस समय जर्मनी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गयी जब उसने 1933 में वारसा संधि की धाराओं का उल्लंघन किया था उसने लोकानों समझौते का उन्मुक्त तरीके से उल्लंघन किया था और चेकोस्लोवाकिया के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया (1938-39)। इस प्रकार सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की असफलता द्वितीय विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बन गयी।
निरस्त्रीकरण की असफलता
पेरिस शांति सम्मेलन में यह सहमति हुई थी कि विश्व शांति को तभी सुनिश्चित किया जा सकेगा जब सभी राष्ट्र अपनी घरेलू सुरक्षा या रक्षा की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने हथियारों में कटौती करें। इसका अभिप्राय था कि आक्रामक प्रवृत्ति के सभी हथियारों को नष्ट किया जाए। हथियारों की कटौती की योजना को तैयार करने का कार्य लीग ऑफ नेशन्स को सौपा गया। लीग ने 1920 में उस मिश्रित आयोग की अस्थायी नियुक्ति की जो कोई पर्याप्त कार्य न कर सका क्योंकि फ्रांस ने निरस्त्रीकरण से पूर्व सुरक्षा पर जोर दिया था। 1925 में प्रांरभिक आयोग का गठन किया गया। राष्ट्रों के भिन्न-भिन्न विचारों के कारण आक्रामक हथियारों की पहचान न की जा सकी। अंततः बिना किसी विशेष प्रारंभिक कार्य के फरवरी, 1932 में जनेवा में निरस्त्रीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया। एक बार फिर आपसी अविश्वास तथा संदेह के कारण लम्बी वार्ताओं के बाद यह सम्मेलन भी असफल रहा।
जर्मनी को वारसा की संधि द्वारा हथियार विहीन कर दिया गया था। विजयी राष्ट्रों को बाद में हथियार विहीन किया जाना था। यद्यपि वे स्वयं को कभी हथियार विहीन नही करना चाहते थे। इसलिये जर्मनी ने 1933 में घोषित किया कि वह निरस्त्रीकरण सम्मेलन तथा लीग ऑफ नेशन्स दोनों को छोड़ रहा है। बाद में 1935 में उसने घोषणा की कि अब वह वारसा संधि की सैनिक या निरस्त्रीकरण संबंधी धाराओं को मानने के लिए बाध्य न होगा। दूसरे देशों के पास पहले से ही विशाल मात्रा में शस्त्र एवं बड़ी सशस्त्र सेनाएँ विद्यमान थी। जर्मनी के निर्णय ने एक व्यापक हथियारों की होड़ का प्रारंभ कर दिया जिसके कारण सशस्त्र संघर्ष हुए। निरस्त्रीकरण की असफलता द्वितीय विश्वयुद्ध का एक दूसरा बड़ा कारण थी।
विश्व आर्थिक संकट
अमरीकी वित्तीय घरानों द्वारा यूरोपीय देशों को अचानक कों को देना रोक देने के साथ ही 1929 में विश्व आर्थिक संकट प्रांरभ हो गया। उनमें से कई देश विशेषकर जर्मनी अधिकतर उधार लिये गये अमरीकी धन की सहायता से तेजी के साथ औद्योगिक प्रगति कर रहा था। इस संकट का भयंकर प्रभाव 1930-32 के दौरान हुआ। इस संकट ने अधिकतर देशों की अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। जर्मनी सबसे बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में से था और वहाँ पर 7,00,000 लोग बेरोजगार हो गये। उसको यह घोषणा करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि वह अब और युद्ध हर्जाने की अदायगी नहीं करेगा। जर्मनी के आर्थिक संकट से एडोल्फ हिटलर की नाजी तानाशाही का उद्गम हुआ। 1933 में वह जर्मनी का चांसलर बन गया, लेकिन उसने शीघ्र ही लोकतंत्र को नष्ट कर दिया और अपनी तानाशाही की स्थापना कर दी। इसी बीच ब्रिटेन को भी स्वर्णमान का परित्याग करना अर्थात् कुछ कठोर कदमों को उठाना पड़ा। जर्मनी, जापान तथा इटली ने इस आर्थिक संकट का लाभ उठाया और आक्रामक नीतियों को शुरू कर दिया। उन्होंने अपने फासीवादी गठबंधन की स्थापना की और यह द्वितीय विश्वयुद्ध का एक और महत्वपूर्ण कारण बन गया।
रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी
प्रथम विश्वयुद्ध की पूर्व संध्या के अवसर पर भी यूरोप दो शत्रुतापूर्ण खेमों में विभाजित था। 1936-37 के दौरान कोमिन्टन विरोधी समझौते के माध्यम से जर्मनी, जापान एवं इटली के द्वारा एक गठबंधन का निर्माण करने के साथ एक बार फिर उस प्रक्रिया को दोहराया गया। फासीवादी ताकतों के इस साम्यवाद विरोधी गठजोड़ को सामान्यतः रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी कहा जाता है और इस गठबंधन का लक्ष्य साम्राज्यवादी प्रसार था। उन्होंने युद्ध का गुणगान किया और खुले तौर पर झगड़ों के शांतिपूर्ण निबटारे का तिरस्कार किया। उन्होंने पश्चिमी देशों को धमकाया और चीन, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, अलबेनिया एवं पोलैण्ड जैसे छोटे देशों को उत्पीडित किया। उनके द्वारा किये गये युद्ध जैसे कामों और आक्रमणों की ओर ध्यान तो दिया गया लेकिन उनको दंडित नहीं किया गया। धुरी शक्तियों के व्यवहार से चिन्तित होकर इंग्लैण्ड तथा फ्रांस एक दूसरे के और समीप आये तथा ऐंग्लो-फ्रेंच-सोवियत मोर्चे को बनवाने का असफल प्रयास किया। यद्यपि फ्रांस तथा सोवियत संघ का गठबंधन था, लेकिन फ्रांस और इंग्लैण्ड को हिटलर के प्रति तुष्टीकरण की नीति के कारण उन्होंने सोवियत संघ की अवहेलना की और जब स्टालिन-गैर-फासीवादी ताकतों के बीच सैनिक समझौता किया तब उन्होंने इसको गम्भीरता से नहीं लिया। सोवियत संघ को संदेह होने लगा और उसने जर्मनी के साथ आक्रमण विहीन समझौता कर दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया। इसने प्रत्यक्ष रूप में पोलैण्ड पर जर्मन आक्रमण का मार्ग प्रशस्त कर दिया और यह द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बन गया। जिस समय सोवियत संघ ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया, इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की समस्या
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद होने वाली शांति संधि का परिणाम यूरोप में कई नये राष्ट्र राज्यों के निर्माण के रूप में हुआ, लेकिन इनके साथ बड़ी संख्या में राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की स्थिति की कोई परवाह किये बगैर उन्हें छोड़ दिया गया था। संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति विल्सन ने आत्मनिर्णय के सिद्धांत की वकालत की थी। लेकिन बहुत से सामरिक सोच-विचारों के कारण इस सिद्धांत को उचित प्रकार से लागू नहीं किया गया। दृष्टांत के तौर पर, विशाल जर्मन अल्पसंख्यकों ने स्वयं को पोलैण्ड तथा चैकोस्लोवाकिया में गैर जर्मनों की संगत में पाया।
पोलैण्ड और रूमानिया में रूसी अल्पसंख्यक थे। पेरिस सम्मेलन के बाद होने वाली अल्पसंख्यक संधियों के बावजूद भी 7,50,000 जर्मन विदेशी शासन के अधीन थे। हिटलर ने स्थिति का लाभ उठाया और चैकोस्लोवाकिया एवं पोलैण्ड में जर्मन अल्पसंख्यकों के अधिकारों के हनन के नाम पर आक्रमण की तैयारी की। उसने आस्ट्रिया को अधीन कर लिया, चेकोस्लोवाकिया को नष्ट और अस्तित्वविहीन कर दिया तथा अंततः पोलैण्ड को रौंद डाला। इस प्रकार अल्पसंख्यकों की समस्या एक महत्वपूर्ण सवाल एवं युद्ध के लिए एक बड़ा बहाना बन गया था।
ब्रिटेन एवं फ्रांस द्वारा तुष्टीकरण नाजी-फासीवादी तानाशाहों की तुष्टीकरण पर आधारित विदेश नीति और द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ब्रिटेन तथा फ्रांस की नीतियों में टकराव प्रकट होने लगा। ब्रिटेन की विदेश नीति का आधारस्तंभ शक्ति संतुलन का सिद्धांत था। ब्रिटेन को भय था कि शक्तिशाली फ्रांस शक्ति संतुलन में बाधा डाल सकता था। इसलिए उसने युद्ध के बाद के वर्षों में फ्रांस के विरुद्ध जर्मनी की सहायता की। जैसे ही जर्मनी में हिटलर सत्ता में आया और इटली नाजी तानाशाह का सहयोगी हो गया वैसे ही ब्रिटेन की फ्रांस के साथ समीपता बढ़ने लगी क्योंकि शत्रुता से भरे जर्मनी के विरुद्ध फ्रांस को ब्रिटेन की सहायता की अति आवश्यकता थी। 1933 के बाद फ्रांस की विदेश नीति वास्तव में ब्रिटिश विदेश नीति का विस्तारित रूप बन गयी। ब्रिटेन साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित था। न केवल सोवियत संघ को प्रभावशाली ढंग से चुनौती देनी थी अपितु फ्रांस तथा स्पेन में तथाकथित लोकप्रिय मोर्चे को भी नष्ट करना था। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटेन ने हिटलर तथा मुसोलिनी के प्रति तुष्टीकरण की नीति को अपनाया। फ्रांस ने भी शीघ्र ही इसका अनुसरण किया। तुष्टीकरण का प्रारंभ बाल्डविन द्वारा किया गया था, लेकिन 1938 में नोविल चेम्बरलेन ने इसको गहनता से जारी रखा। अबीसीनिया युद्ध के दौरान ब्रिटेन और फ्रांस मुसोलिनी का समर्थन करना चाहते थे जबकि वे लीग के प्रयासों का भी समर्थन कर रहे थे, म्युनिख सम्मेलन में इन दोनों ने हिटलर के सम्मुख बिल्कुल ही समर्पण कर दिया था, आस्ट्रिया तथा अलबेनिया जैसे कमजोर राष्ट्रों की सुरक्षा करने के मामले में उनकी असमर्थता स्पष्ट तौर पर ब्रिटेन तथा फ्रांस की कमजोरी के साक्ष्य थे और इसने युद्ध के लिए एक और आधार तैयार किया।
पोलैण्ड पर जर्मनी का आक्रमण
पोलैण्ड पर 1 सितम्बर, 1939 को जर्मनी का आक्रमण युद्ध का प्रकट एवं तात्कालिक कारण था। इससे पूर्व जब सोवियत संघ के साथ गठबंधन करने के ब्रिटेन-फ्रांस के प्रयास असफल हो गये, फिर हिटलर ने स्टालिन के साथ गैर-आक्रामक समझौता किया। यह बिलकुल भी अपेक्षित न था क्योंकि नाजी जर्मनी तथा सोवियत संघ के बीच कई वर्षों तक केवल घृणा विद्यमान थी। अब जर्मनी तथा सोवियत संघ स्वयं अपने बीच पोलैण्ड का विभाजन करने के लिए उत्सुक थे और दोनों ने एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध न करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। लेकिन घटनाक्रम इस समझौते की सीमाओं के बाहर भी घटित होने लगा और इसके आलोचकों ने इसे “पोलैंड के विरुद्ध साधारण आक्रमण’’ कहा। एक गुप्त समझौते द्वारा जिसका खुलासा केवल 1945 में हुआ, दोनों देशों ने 1 सितम्बर, 1939 को पूर्वी यूरोप को अपने प्रभावी क्षेत्रों में विभाजित करने का प्रस्ताव किया था। जैसा कि आप जानते हैं कि ब्रिटेन और फ्रांस ने आक्रमण होने की स्थिति में पोलैंड को सहायता देने का आश्वासन दिया था। जहाँ जर्मनी ने पोलैंड पर पश्चिम की ओर से आक्रमण किया वहीं सोवियत सेनाएँ 17-18 सितम्बर, 1939 को पोलैंड में पूरब की ओर से प्रवेश कर गयी। सोवियत जर्मन सीमा तथा 28 सितम्बर, 1939 की मित्रता संधि द्वारा जर्मनी एवं सोवियत संघ ने पोलैण्ड का अपने बीच विभाजन कर लिया। इसी बीच अन्य कई देशों ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी यद्यपि ये घोषणाएँ प्रतीक मात्र थी क्योंकि ब्रिटेन एवं फ्रांस भी युद्ध की तैयारियों में व्यस्त थे जबकि पोलैंड को नष्ट किया जा रहा था।
युद्ध का प्रारंभ
जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि पोलैंड युद्ध का तात्कालिक कारण बन गया था। 23 मार्च, 1939 को जर्मन सेनाओं ने आसानी से मैमल पर अधिकार कर लिया (यह जर्मन शहर था जिस पर लिथूनिया सरकार का अधिकार था) इसके बाद हिटलर ने लिथूनिया से कहा कि वह उसके समक्ष समर्पण कर दे। ठीक उसी दिन जर्मन विदेश मंत्री रीवनट्रोप ने पोलैंड के राजदूत को बुलाया और उसके सम्मुख शर्तों को रखते हुए कहा कि जर्मनी इनको पोलैंड पर लागू करना चाहेगा। उसने डाजिंग को (डाजिंग का पहले ही नाजीकरण किया जा चुका था) जर्मनी को लौटाने के लिए कहा और पूरब-पश्चिम मार्ग तथा पोलैंड के गलियारे से गुजरने वाले रेल मार्ग की माँग की जिससे पूर्वी प्रशिया को जर्मनी से सीधे जोड़ा जा सकता था जिसका अभिप्राय था कि एक गलियारे को पार करता हुआ एक ओर गलियारा। हिटलर ने आशा की थी कि ब्रिटेन म्युनिख जैसी एक और गलती करेगा लेकिन ऐसा न हो पाया। प्रधानमंत्री चेम्बरलैन ने बगैर किसी संदेह के पोलैंड को ब्रिटिश द्वार गारंटी देने की घोषणा की। बाद में जब इटली ने 7 अप्रैल, 1939 को अलबेनिया पर अधिकार कर लिया तो ब्रिटेन ने इसी प्रकार की गारंटियाँ यूनान तथा रूमानिया को भी दी। फ्रांस ने ब्रिटेन का अनुसरण करते हुए अनिवार्य सैनिक सेवा की घोषणा की। अगले दिन हिटलर ने बदले के लिए कार्यवाही की और 1934 के जर्मन-पोलैंड गैर-आक्रमण समझौते तथा 1933 की एंग्लो-जर्मनी नौसैनिक संधि को रद्द कर दिया।
नवम्बर, 1936 में जापान तथा जर्मनी ने कौमिन्टन विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किए तथा एक वर्ष बाद इटली भी इसमें शामिल हो गया। इस प्रकार रोम-बर्लिन-टोकिया धुरी विश्व साम्यवाद को समाप्त करने की तीन देशों की निश्चयता का प्रतिनिधित्व करती थी। वास्तव में यह सोवियत संघ के विरुद्ध एक गठबंधन था।
अगस्त, 1939 तक हिटलर अपनी स्वयं की शर्तों पर पोलैंड के प्रश्न को हल करने के लिए तैयार था। अब वह एक उचित बहाने की तलाश में था। उसका अवसर प्राप्त हो गया (या दूसरे शब्दों में उसने पक्का निश्चय कर लिया) और उसने ब्रिटेन को कूटनीतिक तौर पर उस समय मात दी जब हिटलर डाजिंग के मामले पर पोलैंड से प्रत्यक्ष बातचीत करने के लिए सहमत हुआ। हिटलर ने 29 अगस्त, 1939 को बर्लिन में ब्रिटिश राजदूत के माध्यम से ब्रिटेन से पोलैंड प्रतिनिधि मंडल की व्यवस्था करने को कहा। उसने कहा कि इस प्रतिनिधि मंडल को अगले दिन ही बर्लिन पहुंचना चाहिए और इसे बातचीत करने तथा जर्मनी के साथ समझौते करने के अधिकार प्राप्त हों। यह बिलकुल ही असामान्य मांग थी। सामान्यतः अन्तर्राष्ट्रीय वार्ता शुरू करने के लिए काफी समय लगता है। किसी भी मामले में विदेशी प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित करने से पूर्व औपचारिक प्रस्तावों को कूटनीतिक माध्यम से पहले भेजा जाता है। इससे स्पष्ट है कि शांतिपूर्ण ढंग से समस्या का समाधान करने की हिटलर की कोई इच्छा न थी। क्योंकि पोलैंड का प्रतिनिधिमंडल स्पष्ट तौर पर 30 अगस्त को नहीं पहुँच सकता था और जर्मनी ने वार्ता के सभी दरवाजों को बंद कर दिया था। इसने हिटलर को पोलैंड पर उस योजनाबद्ध आक्रमण का बहाना दिया जिसकी उसे बड़ी प्रतीक्षा थी। 1 सितम्बर, 1939 की प्रातः उस समय युद्ध प्रारंभ हो गया जब जर्मन सेनाओं ने पोलैंड पर आक्रमण किया। 3 सितम्बर, 1939 को इंग्लैंड तथा फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 18 सितम्बर को सोवियत संघ ने भी पोलैंड पर आक्रमण कर दिया, किंतु न तो इटली और न ही संयुक्त राज्य अमरीका कुछ समय तक युद्ध में शामिल हुए। इसी बीच इंग्लैंड तथा उसके मित्र राष्ट्र युद्ध में व्यस्त थे, लेकिन अभी भी किसी प्रकार के समाधान हेतु प्रयास जारी थे। लेकिन जर्मनी एक सम्पूर्ण युद्ध के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ का मित्र बनना
जिस समय युद्ध का प्रारंभ हुआ उस समय जर्मनी तथा इटली राजनीतिक मित्र थे, लेकिन सोवियत जर्मन गैर-आक्रामण समझौते ने मुसोलिनी को बड़ा हताश किया। इटली जून, 1940 तक युद्ध में शामिल नहीं हुआ। जिस समय फ्रांस पराजय तथा आत्मसमर्पण के कगार पर था, इटली फ्रांस तथा मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध जर्मनी के पक्ष की ओर से युद्ध में शामिल हो गया। सोवियत संघ युद्ध में शामिल नहीं हुआ, लेकिन पोलैण्ड पर आक्रमण द्वारा जर्मनी की मदद कर रहा था। बाद में सोवियत संघ ने फिनलैण्ड पर आक्रमण किया और सोवियत संघ को लीग ऑफ नेशन्स की सदस्यता से निष्कासित कर दिया गया। स्टालिन हिटलर पर तब तक विश्वास करता रहा जब तक कि नाजी तानाशाही ने अधिकतर यूरोपीय पड़ोसियों को पराजित नहीं कर दिया और फिर 22 नून, 1941 को सोवियत संघ पर आक्रमण किया। इसी बीच स्टालिन ने तीन बालटिक राष्ट्रों, लेर्तिविया, लिथूनिया तथा इस्टोनिया को अपने संघ गणराज्यों के रूप में सोवियत संघ में सम्मिलित होने के लिए बाध्य किया। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को खो दिया था क्योंकि उनको स्टालिन ने बताया कि यदि वे सोवियत संघ में शामिल होने से इंकार करते हैं तो उनको जर्मनी द्वारा नष्ट कर दिया। जायेगा। सोवियत संघ ने रूमानिया के सम्मुख भी शर्ते रखी और बेरूसेरबिया तथा बुकोविना को उससे ले लिया। इस तरह सोवियत संघ 1941 के मध्य तक युद्ध में न होने के बावजूद भी युद्ध की जून, 1940 में हिटलर ने फ्रांस के आत्मसमर्पण को प्राप्त कर लिया। लेकिन स्पेन के विषय में हिटलर भाग्यशाली न हो सका था। फ्रांको ने अपने देश को युद्ध से बाहर रखने का पक्का निश्चय किया हुआ था। हिटलर स्टालिन के साथ मिलकर युद्ध कर रहा था। इसलिए संपूर्ण युद्ध में स्पेन तटस्थ बना रहा।
संयुक्त राज्य अमरीका में बहुसंख्यक जनमत उसके युद्ध में उलझने का विरोधी था। 1937 में अमरीकी कांग्रेस ने तटस्थता अधिनियम को पारित कर भविष्य के युद्ध में हथियारों की बिक्री पर रोक लगा दी थी। जब वास्तव में युद्ध प्रारंभ हो गया और जर्मनी ने पश्चिमी लोकतत्रों पर बम वर्षा तथा उनको नष्ट करना प्रारंभ कर दिया तब अमरीकियों ने अपनी तटस्थता के निर्णय को कमजोर करना शुरू कर दिया। नवम्बर, 1939 में कैश एवं कैरी अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा अमरीकी हथियारों को उन देशों को खरीदने की अनुमति थी जो युद्ध में शामिल थे, लेकिन उनका नकद भुगतान करना तथा अपने स्वयं के जहाजों द्वारा ले जाना था। जिस समय युद्ध निर्णायक स्थिति में प्रवेश कर गया तब अमरीकी कांग्रेस द्वारा मार्च, 1941 में भूमि एवं पट्टा (संदक ंदक समंेम) अधिनियम पारित किया गया। इसके द्वारा राष्ट्रपति को रक्षा की किसी भी वस्तु को बेचने, विनिमय करने, उधार देने या अन्य किसी प्रकार से देने की अनुमति प्रदान की गयी। इस प्रकार अमरीका ने ब्रिटेन तथा चीन जैसे अपने मित्र राष्ट्रों को हथियारों की आपूर्ति प्रारंभ कर दी। तीन माह बाद जिस समय सोवियत संघ पर जर्मनी द्वारा आक्रमण किया गया वह भी भूमि एवम् पट्टा अधिनियम के अंतर्गत आ गया।
1939 में किये गये सोवियत जर्मन गैर-आक्रामक समझौते का प्रारूप हिटलर द्वारा अपने वास्तविक लक्ष्यों के विषय में सोवियत संघ को अंधकार में रखते हुए तैयार किया गया था। जैसे ही जर्मनी ने अपने यूरोपीय महाद्वीप के शत्रुओं को पराजित किया वैसे ही उसने सोवियत संघ पर आक्रमण करने की तैयारियां शुरू कर दी। लेकिन स्टालिन का मानना था कि हिटलर सोवियत संघ पर आक्रमण नहीं करेगा। चर्चिल, टोकियो में अमरीकी दूतावास एवं स्टालिन के स्वयं के लोगों ने स्टालिन को नाजी आक्रमण की चेतावनी दी थी। लेकिन स्टालिन ने उस समय तक सुनने से इंकार कर दिया जब वास्तव में जर्मनी ने 22 जून, 1941 को सोवियत संघ पर आक्रमण किया। स्टालिन इस पर आश्चर्यचकित रह गया और सोवियत संघ ने मित्र राष्ट्रों की सहमति की मांग की। ब्रिटेन ने सोवियत संघ को मित्र राष्ट्रों के खेमे में स्वीकार कर लिया। जुलाई, 1941 में लंदन एवं मास्को के बीच एक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर किये गये।
जिस समय सोवियत संघ विध्वंसकारी युद्ध का सामना कर रहा था, ठीक उस समय जापान ने अमरीकी नौसेना अड्डे पर्ल हार्बर पर आक्रमण किया और दिसम्बर, 1941 में बाध्य होकर संयुक्त राज्य अमरीका भी युद्ध में शामिल हो गया। जापान के साथ कभी भी अमरीकी रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं रहे थे। अमरीका में लगी जापानी सम्पत्ति को पहले से ही जब्त कर लिया गया था। अगस्त, 1941 में अमरीका ने घोषणा की कि थाईलैंण्ड के विरुद्ध जापान द्वारा की गयी कोई भी कार्यवाही उसके लिए अति चिंता का कारण होगी। सितंबर, 1941 में जापानी प्रधानमत्री कोनोय तथा अमरीकी राष्ट्रपति के बीच बैठक कराने के असफल प्रयास किये गये। अक्टूबर में कोनोय ने त्यागपत्र दे दिया और जनरल तोजो जापान के प्रधानमंत्री बन गये। उसने खुले रूप में संघर्ष को उत्साहित किया। 1 नवम्बर, 1941 में ब्रिटेन ने अमेरीका से वायदा किया कि यदि वह जापान के साथ युद्ध में उलझ जाता है तब ब्रिटेन अमरीका की ओर से जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करेगा। तनाव बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा था और युद्ध अनिवार्य हो गया था। 6 दिसम्बर, 1941 को राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने शांति बनाये रखने के लिए जापानी सम्राट से व्यक्तिगत आग्रह कर सहायता की मांग की। शांति के स्थान पर अमरीका में अगले ही दिन जापान द्वारा बमवर्षा की गई। 7 दिसम्बर, 1941 की प्रातः जापानियों द्वारा पर्ल हार्बर (हार्बर द्वीप) में स्थित अमरीकी नौसेना अड्डे पर भारी बमवर्षा की गयी। कुछ ही घंटे बाद जापान ने “संयुक्त राज्य अमरीका तथा ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।‘‘ इस प्रकार यह युद्ध विश्वव्यापी हो गया।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर का मिलान कीजिए।
1) द्वितीय विश्वयुद्ध के किन्हीं दो बड़े कारणों का वर्णन कीजिये।
2) द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रांरभ होने का सारांश लिखिये।
बोध प्रश्न 1 के उत्तर
1) वारसा संधि की अनुचित एवं अन्यायपूर्ण शर्तों को थोपना, सामूहिक सुरक्षा की असफलता,
2) एंग्लो सोवियत वार्ताओं की असफलता और सोवियत जर्मन गैर आक्रामक समझौते ने सितम्बर, 1939 में पोलैण्ड पर जर्मन आक्रमण के मार्ग को प्रशस्त किया। ब्रिटेन तथा फ्रांस ने पोलैण्ड को दी गयी गारन्टी को पूरा किया तथा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सोवियत संघ (जून, 1941) तथा संयुक्त राज्य अमरीका (दिसम्बर, 1941) पर धुरी शक्तियों ने आक्रमण किया और वे भी युद्ध में शामिल हो गये।
द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम
चूंकि हम एक इकाई के रूप में द्वितीय विश्वयुद्ध का वर्णन कर रहे हैं, इसलिए हम धुरी राष्ट्रों-इटली, जर्मनी तथा जापान के पतन एवं पराजय की यहाँ संक्षेप में चर्चा कर रहे हैं। लड़ाइ, विजय एवं पराजय का विस्तृत विवरण देना हमारा इस इकाई में हमारा विषय नहीं है। लेकिन हम संक्षेप में यह उद्धृत कर सकते हैं कि किस तरह धुरी राष्ट्रों की पराजय हुई और अन्ततः मित्र राष्ट्र कैसे विजय की ओर अग्रसर हुए।
इटली और जर्मनी की पराजय
यूरोप की इन दोनों फासीवादी ताकतों ने महाद्वीप के अधिकतर देशों पर विजय प्राप्त कर ली थी। ब्रिटेन लगातार आक्रमण की चपेट में था और तीन बालटिक गणराज्यों सहित सोवियत संघ के बड़े भू-भाग जर्मनी के अधीन हो गये थे। 1943 में मित्र राष्ट्रों ने तय किया कि अफ्रीका में विद्यमान इटली साम्राज्य को समाप्त कर धुरी शक्तियों के विरुद्ध आक्रमण किया जाये। इस उद्देश्य को मई, 1943 तक प्राप्त कर लिया गया। इटली की सेनाओं को बाधित किया जा चुका था और फासीवादी संरचना में दरार के चिहन् दिखायी दिये। मित्र राष्ट्रों ने इटली पर सिसली की ओर से आक्रमण कर ‘‘ऑपरेशन हंगकी‘‘ पर कार्यवाही करने का निर्णय किया। यह सभी कुछ न था क्योंकि इटली को एक अड्डे के रूप में जर्मनी तथा बाल्कान प्रदेशों पर बमवर्षा करने के लिए इस्तेमाल करने का विचार था। जुलाई, 1943 में भारी हवाई हमलों के कारण इटली की सेनाओं ने सिसली में आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी द्वीप की रक्षा न कर सके। सिसली पर प्रथम आक्रमण होने के कुछ दिन बाद मुसोलिनी ने हिटलर से भेंट की तथा और अधिक जर्मनी सहायता की मांग की, लेकिन इसको मानने से इंकार कर दिया गया। मुसोलिनी ने फासीवादी ग्राण्ड कोंसिल की बैठक पी और इस कौंसिल ने राजा से प्रत्यक्ष नेतृत्व करने के लिए कहा। 25 जुलाई, 1943 को किंग विक्टर एम्मेन्यूल-प्प्प् ने मुसोलिनी को हटा दिया और मार्शल बोडोलिओ को नयी सरकार का प्रधान नियुक्त किया। मुसोलिनी को गिरफ्तार कर लिया गया। इटली ने अन्ततः 3 सितम्बर, 1943 को बगैर किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया। ठीक उसी दिन जर्मन सेनाओं ने रोम में प्रवेश किया और कई महीनों तक इसको अपने अधीन बनाये रखा। मित्र राष्ट्रों की सेनायें केवल 4 जून, 1944 को रोम पर अधिकार कर सकी।
मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के विरुद्ध दो मोर्चे खोलकर उसे पराजित करने का निर्णय किया। पूरब की ओर से सोवियत संघ उसको धकेल रहा था, पश्चिम की ओर से फ्रांस को स्वतंत्र कराने के लिए इंग्लैण्ड, अमरीका तथा उनके दूसरे मित्र राष्ट्रों ने नॉरमण्डी पर हमला शुरू किया। मार्च, 1944 तक उक्रेन तथा सोवियत संघ के दूसरे भागों से धुरी सेनाओं को बाहर खदेड़ दिया गया। वर्ष के अंत तक जर्मनी सेनाओं से सोवियत संघ की भूमि को खाली करा लिया गया। 6 जून, 1944 को जर्मनी के विरुद्ध पश्चिमी मोर्चा खोला गया। इसको इंगलिश चैनल से खोला गया और इस उद्देश्य के लिए प्रत्येक माह 1,50,000 अमरीकी सिपाहियों को लाया जाता था। मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने फ्रांस को मुक्त करा लिया तथा अपने आक्रमण के 97 दिनों के बाद 11 सितम्बर, 1944 को जर्मनी में प्रवेश किया। जैसे ही जर्मन सेनायें पराजित होने लगी वैसे ही हिटलर को खत्म करने के लिए षडयंत्र होने लगे। फरवरी, 1945 में माल्टा सम्मेलन में जर्मनी पर अंतिम प्रहार करने की योजना तैयार की गयी। जर्मनी पर ब्रिटेन, कनाडा, फ्रास तथा अमरीका की सेनाओं ने चारों ओर से हमला किया। इसी बीच सोवियत संघ का आक्रमण बगैर किसी बाधा के आगे बढ़ता जा रहा था। जर्मनी चांसलेरी पर सबसे अधिक घमासान युद्ध हुआ क्योंकि अपने अंतिम मुख्यालय पर हिटलर ने भूमिगत सुरक्षा व्यवस्था कायम की थी। जब एक बार सब कुछ नष्ट हो गया तो नाजी तानाशाह ने, जिसने संपूर्ण विश्व पर शासन करने का स्वप्न देखा था, 30 अप्रैल 1945 को आत्महत्या कर ली। हिटलर ने डॉकनित्ज को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया लेकिन देश को बचाने के लिए वह भी कुछ न कर सका। उत्तर पूर्वी जर्मनी, नीदरलैण्ड तथा डेनमार्क में 5 मई 1945 को जर्मन कमाण्डरों ने बगैर किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया। अगले दिन आस्ट्रिया में जर्मन सेनाओं ने आत्मसमर्पण किया । अंत में 7 मई, 1945 को डॉकनित्ज की सरकार ने बगैर किसी शर्त के “राइक (त्बपबी) की सभी थल, जल एवं वायु सेनाओं के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। 8 मई, 1945 को यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया।
जापान की पराजय
मित्र राष्ट्रों की सेनायें सुदूर पूर्व में जापान के विरुद्ध विजय के लिए कडा संघर्ष कर रही थी। इस क्षेत्र में मुख्य उत्तरदायित्व संयुक्त राज्य अमरीका पर था और ब्रिटेन, चीन, नीदरलैण्ड, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड द्वारा उसकी सहायता की जा रही थी। चीन को आधार बनाकर मित्र राष्ट्रों के जापान विरोधी आक्रमण को संगठित किया गया था। मैक आर्थर इन कार्यवाहियों को निर्देशित कर रहा था। 1944 की शरद ऋतु में एक साथ दो अभियान शुरू किए गये। एक को माउंटबेटन के नेतृत्व में बर्मा को पुनः विजित करने के लक्ष्य से शुरू किया गया और दूसरा जनरल मैक ऑर्थर की कमाण्ड में फिलीपीन द्वीपों को मुक्त कराने के लिए। दोनों लक्ष्यों को जून, 1945 तक प्राप्त कर लिया गया। इन कार्यवाहियों का यहाँ पर विस्तृत विवरण करना हमारा विषय नहीं है। पोट्सडम सम्मेलन में पराजित जर्मनी तथा दूसरे संबंधित प्रश्नों पर निर्णय किया जाता था। इस सम्मेलन में जुलाई, 1945 में जापान का आह्वान किया गया, सभी जापानी सेनाओं को बगैर किसी शर्त के आत्मसमर्पण की उद्घोषणा करनी चाहिये . . .अन्यथा जापान के लिए शीघ्र एवं भयकर विध्वंस के अलावा कोई और विकल्प न बचेगा।‘‘ सोवियत सेनाएँ जापान के साथ युद्ध नहीं कर रही थी इसलिए उसने इस घोषणा पर हस्ताक्षर नहीं किये। जापान ने इस चेतावनी को अनदेखा किया और युद्ध को जारी रखा। इस स्थिति में अमरीका ने अणु बम का प्रयोग करने का निर्णय किया और बिना शर्त जापान का आत्मसमर्पण करा लिया। 6 अगस्त, 1945 को अमरीकी वायु सेना ने सबसे प्रथम अणु बम को जापान के महत्वपूर्ण नगर हिरोशिमा पर गिराया जिसमें इस नगर की आधी जनसंख्या मारी गयी। दो दिन पश्चात 8 अगस्त, 1945 को सोवियत संघ ने भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और मंचूरिया तथा दक्षिणी सरवलिन (दोनों जापानी नियंत्रण के अधीन थे) में आक्रमण शुरू हो गया। सोवियत संघ की सेनायें तेजी के साथ आगे बढ़ी। 9 अगस्त, 1945 को दूसरा अणु बम नागासाकी पर गिरा दिया गया, जिसने भयंकर प्रलयंकारी विध्वंस किया। अगले दिन जापान शांति के लिए तैयार हो गया। युद्ध रुक गया लेकिन आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर अमरीका युद्धपोत मिसोरी पर 2 सितम्बर, 1945 को हस्ताक्षर किये गये। जापान का अमरीका के अधीन हो जाने पर अंततः द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत हो गया।
इस प्रकार युद्ध का परिणाम धुरी राष्ट्रों की पूर्ण पराजय तथा मित्र राष्ट्रों की विजय के रूप में हुआ। इसका यह भी अभिप्राय था कि लोकतंत्र की विजय और फासीवाद तथा तानाशाही की हार हुई।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) जर्मनी में कैसे नाजी तानाशाही का अंत हुआ ?
2) उन घटनाओं का वर्णन कीजिये जिनके कारण जापान को बिना शर्त आत्मसमर्पण करना पड़ा।
3) द्वितीय विश्वयुद्ध के मुख्य परिणामों को संक्षेप में लिखिये।
बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) युद्ध में अमरीकी प्रवेश ने मित्र राष्ट्रों की शक्ति में वृद्धि की। जर्मनी दो मोर्चों पर लड़ने में असक्षम था, सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोपीय देशों को मुक्त कराया और ब्रिटेन तथा अमरीका ने पश्चिमी यूरोप को मुक्त किया, पराजित होने के कारण, हिटलर ने 30 अप्रैल 1945 को आत्महत्या कर ली।
2) मित्र राष्ट्रों की विजय ने उन्हें लड़ने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया तथा जापान को पराजित करने के लिए अमरीका ने अगस्त, 1945 में दो अणु बम गिराये जिससे जापान को बाध्य होकर बगैर किसी शर्त के आत्मसमर्पण करना पड़ा।
3) धुरी राष्ट्रों की पूर्ण पराजय तथा मित्र राष्ट्रों की विजय अर्थात् जिसका अभिप्राय था कि फासीवाद तथा तानाशाही की पराजय एवं लोकतंत्र की विजय।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् शांति की स्थापना
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् शांति संधियों को संपन्न करना बड़ा मुश्किल कार्य था। विश्वयुद्ध के समाप्त होने के दो वर्षों के बाद तक केवल पाँच पराजित राष्ट्रों के साथ संधियाँ की जा सकी। वे इटली, रूमानिया, बुल्गारिया, हंगरी तथा फिनलैण्ड थे। आस्ट्रिया के साथ शांति संधि केवल 1955 में और जापान के साथ 1952 में हो सकी। जर्मनी का पुनः एकीकरण नही किया जा सका। यह पश्चिमी समर्थक फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (पश्चिमी जर्मनी तथा सोवियत संघ के प्रभाव के अधीन डेमोक्रेटिक जर्मन रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) के बीच विभाजित बना रहा। तब से जर्मनी का न तो एकीकरण किया गया और न ही उसके साथ कोई संधि की गयी। दोनों जर्मनी देशों का एक जर्मनी में एकीकरण अंततः 1990 में हो पाया। हम संक्षेप में पोट्सडम सम्मेलन तथा अन्य पराजित राष्ट्रों के साथ होने वाली शांति संधियों का विवरण दे रहे हैं।
शांति संधियाँ
1919 के पेरिस शांति सम्मेलन से भिन्न प्रकार की विदेश मंत्रियों की बैठक 1 सितम्बर से 3 अक्टूबर, 1945 तक लंदन में हुई। लेकिन इस समय तक एक ओर पश्चिमी शक्तियों तथा दूसरी ओर सोवियत संघ के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गये। लंदन सम्मेलन में बहुत कम प्रगति हुई। इसके बाद होने वाली लगातार तीन बैठकों में भी कोई विशेष प्रगति नहीं हो सकी। इटली, रूमानिया, बुल्गारिया, हंगरी एवं फिनलैण्ड जैसे पाँच देशों के साथ होने वाली संधियों के प्रारूप इन तीन बैठकों में तैयार किये गये। इसके पश्चात 19 जुलाई, 1945 से 15 अक्टूबर, 1945 तक पेरिस में 12 राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ। इसके बाद विदेश मंत्रियों की समिति की दूसरी बैठकें हुई। और 12 दिसम्बर, 1946 को न्यूयार्क में संधियों को समिति द्वारा अनुमोदित कर दिया गया। अंत में इन संधियों पर एक पक्ष के रूप में मित्र राष्ट्रों द्वारा हस्ताक्षर किये गये और दूसरे पक्ष की ओर से इन पर उद्धत पाँच देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गये। उनमें से प्रत्येक के साथ अलग से संधियाँ की गयीं।
इन शांति संधियों की मुख्य धाराओं को यहां संक्षेप में उद्धृत किया जा सकता है। इटली के साथ की गयी संधि द्वारा उससे कई क्षेत्रों को ले लिया गया । इटली के कई क्षेत्रों को फ्रांस, यूनान तथा युगोस्लोवाकिया को दे दिया गया। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा सभा द्वारा नियुक्त गवर्नर के अधीन । ट्रियास्ते एक स्वतंत्र बंदरगाह बन गया। अलबेनिया तथा इथोपिया ने अपनी स्वतंत्रताएँ प्राप्त की। वे एक बार फिर सार्वभौमिक राज्य बन गये। इटली को लीबिया, सोमालिया तथा ऐरिट्रेया जैसे अपने उपनिवेशों को छोड़ना पड़ा। इटली की रक्षा सेनाओं में काफी मात्रा में कटौती की गयी और सात वर्षों के अंदर उसे हर्जाने के रूप में एक बड़ी धनराशि अदा करनी थी।
रूमानिया के साथ की गयी संधि की शर्तों के अनुसार उसे बेस्सरबिया, तथा बुकोबिना जैसे क्षेत्रों को सोवियत संघ और डोबरूज को बुल्गारिया को हस्तांतरित करना था। उसे युद्ध हर्जाने को सोवियत संघ को अदा करना था तथा उसकी सैनिक बलों की शक्ति पर भी एक सीमा लागू की गयी।
हंगरी को डेन्यूब नदी के दक्षिण में विद्यमान उन गाँवों को चेकोस्लोवाकिया को लौटाना था जिन पर उसने 1938 में अधिकार कर लिया था। हंगरी ने ट्रांसिल्वानिया प्रदेश रूमानिया को वापस किया उसको भी युद्ध हर्जाना देना पड़ा तथा उसे हथियार विहीन कर दिया गया।
बल्गारिया ने कोई प्रदेश नहीं खोया। उसने वास्तव में रूमानिया से डोबरूज के क्षेत्र को प्राप्त किया। अन्य दूसरे देशों की भांति बुल्गारिया से भी हर्जाना अदा करने को कहा गया और उसकी सशस्त्र सेनाओं में भी कटौती कर दी गयी। फिनलैण्ड को बहुत से छोटे छोटे क्षेत्रों से वंचित कर दिया गया और ये सभी सोवियत संघ को दे. दिये गये। उसका सल्ला का क्षेत्र पेसेमो का प्रदेश तथा पोर्काला उड्ड का नौसैनिक अड्डा भी सोवियत संघ को दे दिया गया। अन्य पराजित राष्ट्रों की भांति फिनलैण्ड पर भी युद्ध का हर्जाना थोपा गया। उसकी सशस्त्र बलों में काफी कमी की गयी और उनको सीमित कर दिया गया। इन पाँच संधियों से सोवियत संघ को सबसे अधिक लाभ पहुँचा। जिस देश को पर्याप्त मात्रा में क्षेत्र, ताकत एव सम्मान प्राप्त हुआ वह युगोस्लोवाकिया था। बालकान क्षेत्र में वह सबसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्र एवं इटली का विरोधी बन गया ।
आस्ट्रिया
1938 में जर्मन सेना ने आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया था और तभी से उसको पराजित जर्मनी के अधीनस्थ भाग के रूप में माना गया। आस्ट्रिया को मुक्त क्षेत्र समझा गया। 1943 के मास्को सम्मेलन में आस्ट्रिया को एक सार्वभौमिक देश बनाने का वचन दिया गया था। लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद शीघ्र ही मित्र राष्ट्रों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये। सोवियत संघ आस्ट्रिया पर भी कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाना चाहता था। यह पश्चिमी शक्तियों को स्वीकार्य न था। लगभग 10 वर्षों तक गतिरोध बना रहा। अंततः आस्ट्रिया स्वयं को एक तटस्थ देश घोषित करने तथा सोवियत संघ को कुछ क्षतिपूर्ति देने को सहमत हो गया। इसपर सोवियत संघ जर्मनी की समस्या से आस्ट्रिया के सवाल को अलग करने पर सहमत हो गया। 15 मई, 1955 को आस्ट्रिया ने शांति संधि पर हस्ताक्षर कर दिये और वह एक तटस्थ राष्ट्र बन गया।
जापान
शीतयुद्ध तथा सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमरीका के बीच मतभेदों के कारण जापान के साथ होने वाली शांति संधि में देरी हुई। किंतु जर्मनी एवं आस्ट्रिया से भिन्न जापान केवल अमरीकी सेनाओं के अधिकार में था। 10 अगस्त. 1945 को जापानियों के आत्मसमर्पण के बाद अमरीकियों ने वहाँ पर अन्तरिम सैनिक प्रशासन की स्थापना की थी। संपूर्ण सत्ता मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च कमाण्डर के हाथों में निहित थी। जनरल मैकआर्थर को सर्वोच्च कमाण्डर एवं जापान का प्रशासक नियुक्त किया गया। शांति संधि करने के लिये संयुक्त राज्य अमरीका ने सेन फ्रांसिस्कों में 1951 में एक बैठक बलायी। इस बैठक में 52 देशों ने भाग लिया। इसमें सोवियत संघ तथा दसरे समाजवादी देशों ने भी भाग लिया। लेकिन भारत तथा बर्मा ने इसमें भाग लेने से इंकार कर दिया। कुछ प्रस्तावित शांति की शर्ते भारत को स्वीकार्य न थी। सोवियत संघ को भी इस संधि के प्रारूप पर हस्ताक्षर करना असंभव प्रतीत हुआ। इस संधि को अमरीका के प्रभाव में किया गया था और इसपर 49 देशों ने 28 अप्रैल, 1952 को हस्ताक्षर किये। भारत ने जापान के साथ अलग से एक शांति संधि पर जून, 1952 में हस्ताक्षर किये।
संयुक्त राज्य अमरीका तथा 48 अन्य देशों के साथ जापान द्वारा हस्ताक्षर किये गये। शांति संधि में 27 धारायें थी। इसने कोरिया की स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की। यह याद रखा जाना चाहिये कि युद्ध के बाद कोरिया को उत्तर कोरिया (साम्यवादी) तथा दक्षिणी कोरिया (उदार लोकतंत्र) में विभाजित किया जा चुका था। जापान ने फारमोसा, सखालिन तथा कुरील द्वीपों पर से अपने अधिकारों का परित्याग कर दिया था। बोनिन तथा रियुक्यू (ओकिनावा) अमरीकी ट्रस्टीशिप के अधीन कर दिया गया था। जापान की सार्वभौमिकता को कुछ छोटे द्वीपों तथा चार प्रांतों तक सीमित किया गया। दूसरे, जापान चीन पर अपने सभी प्रकार के अधिकारों को छोड़ने के लिए सहमत हुआ। तीसरे, जापान ने युद्ध के उत्तरदायित्व तथा युद्ध हर्जाने को अदा करना स्वीकार किया किन्तु उसके आर्थिक हालात को देखते हुए उसे युद्ध हर्जाना देने से मुक्त कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि यह सधि युद्ध की गर्मी काफी कम हो जाने के बाद की गयी तथा रे, अब यह अमरीका का घनिष्ठ सहयोगी था। अंतिम, इसपर सैद्धांतिक रूप में सहमति हुई कि जापान से विदेशी सेनाओं को हटा लिया जायेगा लेकिन जापान तथा संयुक्त राज्य अमरीका के बीच हुए आपसी समझौते के अनुसार अमरीकी सेनायें जापान में बनी रहेगी लेकिन ऐसा एक नये एवं स्वैच्छिक समझौते के अंतर्गत होगा। जापान पर उसके हथियारों के संदर्भ में कोई सीमा थोपी नहीं गयी।
जर्मनी
हम ऊपर बता चुके हैं कि जर्मनी के आत्मसमर्पण के तुरन्त पश्चात् उसको चार अधीनस्थ क्षेत्रों में विभाजित किया गया । पश्चिमी देशों ने आरोप लगाया कि पहले हुई सहमति का उल्लंघन करते हुए सोवियत संघ पूर्वी जर्मनी के अपने अधीन क्षेत्र को एक साम्यवादी राज्य में परिवर्तित कर रहा है। इसने न केवल जर्मनी के एकीकरण में बाधा उत्पन्न की अपितु शांति संघ भी इस कारण सम्पन्न न हो सकी। इन सबके बावजूद भी सोवियत संघ तथा पश्चिमी राष्ट्रों ने जर्मनी के संदर्भ में एकतरफा कई निर्णय किये। ऐसा पहला निर्णय ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका ने अपने प्रभाव क्षेत्रों को एक ही प्रभाव क्षेत्र में एकीकृत करने का निर्णय 1 जनवरी, 1947 को किया। बाद में, फ्रांस ने भी अपने प्रभाव क्षेत्र को एकीकृत पश्चिमी क्षेत्र में मिल जाने की अनुमति प्रदान कर दी। इसके बाद तीनों शक्तियों ने पश्चिमी जर्मनी में एक मुक्त, स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने का निर्णय किया। पूर्ववर्ती पश्चिमी क्षेत्रों को मिलाकर 21 सितम्बर, 1949 को औपचारिक तौर पर फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (एफ आर जी) को स्थापित किया गया। पश्चिमी शक्तियों ने 1951 में फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी के साथ युद्ध की स्थिति को रद्द कर दिया।
फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी की स्थापना के तुरंत बाद सोवियत संघ ने भी पूर्वी जर्मनी को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में गठित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। इसको जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक कहा गया और इसको सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की भांति संगठित किया गया। पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा पश्चिमी जर्मनी की सार्वभौमिकता को मान्यता प्रदान किये जाने के एक वर्ष पश्चात् सोवियत संघ ने सितम्बर, 1955 को जी डी आर के साथ संधि कर उसे सार्वभौमिकता प्रदान कर दी। इस प्रकार जर्मनी दो शत्रुतापूर्ण देशों के बीच 1990 में तब तक विभाजित बना रहा जब तक पर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी में विलय नहीं हो गया। पश्चिमी जर्मनी में पूँजीवादी व्यवस्था कायम हुई थी और उसने बड़ी तेजी से औद्योगिक प्रगति की। पूर्वी जर्मनी सोवियत संघ का सहयोगी बना तथा उसकी अर्थव्यवस्था समाजवाद पर आधारित थी तथा राजनीतिक व्यवस्था सोवियत संघ के प्रतिमानों पर। दोनों जर्मनियों – पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ 1989 में हुआ। एकीकृत जर्मनी का जन्म केवल अक्टूबर, 1990 में पूरा हुआ।
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