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स्कॉलिओडॉन : डॉगफिश , एक उपास्थिल मछली (scoliodon : the dogfish , a cartilaginous fish)

(scoliodon : the dogfish , a cartilaginous fish meaning in hindi) स्कॉलिओडॉन : डॉगफिश , एक उपास्थिल मछली

मछलियाँ मूलतः जलीय एवं हनुधारी कशेरुकी प्राणी है। इनमें श्वसन के लिए क्लोम और तैरने के लिए युग्मित पंख पाए जाते है। सभी मछलियाँ अधिवर्ग पिसीज के अंतर्गत रखी गयी है जो स्पष्टतया दो विकास मूलक धाराओं में बंटी है :

  1. उपास्थिल मछलियाँ अथवा कॉन्ड्रिक्थीज (chondrichthyes ; chondros = cartilage उपास्थि + ichthys = fish मछली)
  2. अस्थिल मछलियाँ अथवा ऑस्टिक्थीज (osteichthyes ; osteon = bone अस्थि)

उपास्थिल मछलियों अथवा कॉन्ड्रिक्थीज को एलास्मोब्रैंक्स भी कहते है .इनमें शार्कस , रेज , स्केट्स , काइमिरा आदि शामिल है। कुत्ता मछलियों अथवा डॉगफिश शार्कों का अध्ययन व्यापक रूप से समस्त संसार में किया जाता है। जो विवरण यहाँ दिया जा रहा है वह सामान्य भारतीय डॉगफ़िश शार्क , स्कॉलिओडॉन सोराकोवाह पर आधारित है। इसका अध्ययन और वर्णन ई. एम. थिलियमपैलम ने किया था जो सर्वप्रथम 1928 में इंडियन जूलोजिकल मेमायर्स की श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुआ।

अध्ययन के लिए उपयुक्तता या औचित्य (suitability for study)

अध्ययन की दृष्टि से कुत्ता मछली अथवा डॉगफिश का चुनाव कई कारणों से किया जाता है :

  1. यह हिन्द महासागर में सामान्यतया उपलब्ध है।
  2. अंत: कंकाल उपास्थिल होने से इसका विच्छेदन सरलतापूर्वक हो सकता है।
  3. विच्छेदन के लिए इसका परिमाण एकदम उचित है , न तो बहुत बड़ा है एवं न ही छोटा है।
  4. भोजन के रूप में यह अधिक लोकप्रिय नहीं है।
  5. इसकी रचना अत्यधिक विशिष्ट न होकर एक सामान्य मछली की संरचना का प्रतिनिधित्व करती है।
  6. इसकी संरचना आधारभूत कशेरुकी परियोजना को दर्शाती है।
  7. इसके कुछ शारीरिक लक्षण उच्च कशेरुकी जन्तुओं के भ्रूणों में पाए जाते है।

वर्गीकरण (classification)

संघ : कॉर्डेटा

उपसंघ : वर्टिब्रेटा

विभाग : नैथोस्टोमैटा

अधिवर्ग : पिसीज

वर्ग – कॉन्ड्रिक्थीज

उपवर्ग – सिलैकिआई

गण – स्क्वैलीफॉरमीज अथवा प्लयूरोट्रिमेटा

कुल – कारकैरीनिडी

वंश – स्कॉलिओडॉन

जाति – स्कॉ. सॉराकोवाह

वितरण (distribution)

स्कॉलिओडॉन भारतीय , प्रशांत और अटलांटिक महासागरों में व्यापक रूप से पायी जाती है। ग्रेस वाइट के अनुसार इसकी 9 जातियां है जिनमें से केवल 4 जातियां भारतीय समुद्रों में पायी जाती है। सामान्य भारतीय डॉगफिश स्कॉलिओडॉन सॉराकोवाह है। तमिल भाषा में इसका अर्थ है “काली शार्क”  (sorra = a shark शार्क + kowah = black काली)

स्वभाव और आवास (habits and habitats)

अधिकतर शार्क मछलियों की भाँती स्कॉलिओडॉन भी समुद्री , मांसभक्षी और परभक्षी मछली है जो केकड़ों , लॉबस्टर्स , कृमियों और अन्य अन्य मछलियों का शिकार करती है। यह तैरने में बहुत द्रुतगामी और दक्ष होती है और अपने पैने दांतों द्वारा शिकार को पकड़ लेती है।

नर और मादा अलग अलग होते है। निषेचन आंतरिक एवं परिवर्धन प्रत्यक्ष होता है। यह जरायुज होती है अर्थात भ्रूण परिवर्धन मादा के गर्भाशय में होता है जो पूर्ण विकसित बच्चों को जन्म देती है।

बाह्य लक्षण (external features)

1. आकार , परिमाण और रंग : शरीर लम्बा , आकार में तर्कु के समान और पाशर्वों से चपटा होता है। इसका नौकाकार अथवा धारारेखित आकार जल के प्रतिरोध को कम करके तैरने की गति को तीव्र और आसान बनाता है जिससे ऊर्जा का हास (प्रयोग) भी अत्यंत कम होता है। एक पूर्ण वृद्धि प्राप्त स्कॉलिओडॉन की लम्बाई लगभग 60 सेंटीमीटर होती है। पृष्ठतल पर शरीर का रंग गहरा स्लेटी और प्रतिपृष्ठ तल पर पीलापन लिए हुए सफ़ेद होता है। जैसा कि पहले ही बताया जा चूका है , तमिल में शार्क की इस जाति का अर्थ “काली शार्क” (sorra = shark शार्क + kowah = black , काली) होता है। इसका यह विशिष्ट रंग छदम आवरण द्वारा जल में शत्रुओं से इसकी रक्षा करता है।

2. शरीर के भाग : स्कॉलिओडॉन के शरीर को 3 भागों में विभाजित किया जा सकता है : शीर्ष , धड़ एवं पूंछ। गर्दन की अनुपस्थिति में धड़ से सीधा जुड़ा सिर पृष्ठाधरिय चपटा एवं अग्रछोर पर नुकीले तुंड अथवा रॉस्ट्रम में विकसित होता है। धड़ अनुप्रस्थ काट में लगभग अंडाकार होता है तथा पीछे की तरफ क्रमशः पतला होता जाता है। पूंछ शरीर का लगभग आधा पश्च भाग बनाती है एवं ऊपर की दिशा में जरा सी मुड़ी होती है। त्वचा में दबे असंख्य पट्टाभ अथवा प्लैकोइड शल्कों के पीछे की तरफ मुड़े तथा उभरे कंटकों के कारण शरीरतल खुरदरा होता है।

3. पंख : डॉगफिश में उपांग अथवा पंख देहभित्ति के पल्ले अथवा परदे जैसे उद्धर्ध है। ये पीछे की तरफ दिष्ट और भीतर से उपास्थिल छड़ों अथवा रोड्स एवं श्रृंगी फिन रेज द्वारा अवलम्बित होते है। पंख दो प्रकार के होते है :

(i) एकाकी , अयुग्मित अथवा माध्यिक और (ii) युग्मित अथवा पाशर्वीय

(a) माध्यिक अथवा मीडियन पंख : माध्यिक पंखों में 2 पृष्ठीय , 1 पुच्छीय और 1 अधरीय पंख शामिल है। अग्र अथवा प्रथम पृष्ठ पंख त्रिभुजाकार , अपेक्षाकृत बड़ा और शरीर के लगभग मध्य भाग के ऊपर स्थित होता है। पश्च अथवा द्वितीय पृष्ठ पंख भी त्रिभुजाकार लेकिन अपेक्षाकृत बहुत छोटा होता है। यह प्रथम पृष्ठ पंख तथा पूंछ के अंतिम छोर के मध्य में स्थित होता है। पूँछ विषमपालि अथवा हेटरोसर्कल होती है अर्थात इसका पश्च सिरा ऊपर की दिशा में मुड़ा एवं दो असमान पालियों से निर्मित पुच्छ पंख सहित होता है। ऊपरी पालि समानित और निचली पालि भलीभांति विकसित होती है। निचली पालि पुनः एक खांच अथवा कटाव द्वारा एक बड़े अग्रभाग और छोटे पश्चभाग में विभक्त होती है। पुच्छ पंख से 5 सेंटीमीटर आगे की तरफ एक अधर अथवा गुद पंख स्थित है। प्रत्येक पृष्ठ और अधर पंख पीछे की तरफ एक संकरा , लम्बा और मांसल प्रवर्ध बनाता है जो आधारी पालि कहलाता है।

(b) युग्मित अथवा पाशर्व पंख : दो जोड़ी त्रिभुजाकार पंख धड के अधर पाशर्व भागों से जुड़े रहते है। अगले अंस पंख अथवा पेक्टोरल फिन अत्यधिक बड़े और पिछले श्रोणी पंख अथवा पेल्विक फिन अपेक्षाकृत बहुत छोटे होते है। केवल नर डॉगफिश में प्रत्येक पेल्विक फिन का मध्यवर्ती भाग एक दृढ , छड़ समान और पृष्ठीय खांचित प्रवेशी अंग , आलिंगक अथवा क्लास्पर में विकसित होता है जो मैथुन के समय प्रयुक्त होता है।

4. नेत्र : सिर के प्रत्येक पाशर्व में एक स्पष्ट गोल नेत्र है। पलकें त्वचा की अल्प विकसित उभार और अगतिशील होती है। परन्तु खतरें के समय एक अग्राधरिय स्थित गतिशील निमेषक पटल फ़ैल कर नेत्र को ढक लेता है। तारा संकरा एवं उधर्व होता है।

5. देह छिद्र : शरीरतल पर निम्नलिखित महत्वपूर्ण छिद्र होते है –

(a) मुख : सिरे के अगले छोर के पास अधर तल पर एक अनुप्रस्थ , अर्धचंद्राकार मुख उपस्थित है। यह ऊपरी हनु एवं अधोहनु द्वारा परिबद्ध होता है। दोनों जबड़ों में पैने , नुकीले तथा पश्चदिष्ट दाँतों की एक अथवा दो कतारें होती है जो शिकार पकड़ने एवं फाड़ने के लिए अनुकूलित है परन्तु चबाने के लिए नहीं।

(b) नासाछिद्र : मुख के आगे सिर के दोनों अधर पाशर्वों में एक एक अर्धचन्द्राकार बाह्य नासाछिद्र उपस्थित है। यह पूर्णतया घ्राण संवेदी है क्योंकि आंतरिक नासाछिद्रों की अनुपस्थिति में मुखगुहा से सम्पर्क न होने के कारण ये श्वसन क्रिया में भाग नहीं लेते है।

(c) बाह्य क्लोम रन्ध्र : नेत्रों के पीछे परन्तु अंस पंखो के सामने प्रत्येक तरफ 5 तिरछे , उधर्वीय लम्बे क्लोम रंध्रो अथवा गिल छिद्रों की एक श्रृंखला पायी जाती है। यह अन्दर की तरफ क्लोम कोष्ठों द्वारा ग्रसनी गुहिका में खुलते है एवं श्वसन क्रिया में भाग लेते है।

(d) अवस्कर छिद्र : पूँछ के मूल पर दोनों श्रोणी पंखो के मध्य में एक लम्बी मध्यवर्ती खाँच अथवा अवस्कर छिद्र खुलता है। यह एक छोटे वेश्म , अवस्कर में खुलता है जो मूत्र जनन तंत्र और पाचन तंत्र दोनों का सामान्य अथवा सामूहिक निर्गम होता है। अवस्कर के अग्र भाग में गुदा खुलता है जबकि गुदा के निकट पीछे की तरफ एक शंक्वाकार पैपिला पर मादा में मूत्र छिद्र लेकिन नर में मूत्र जनन छिद्र स्थित होता है।

(e) उदरीय छिद्र : अवस्कर के दोनों पाशर्वीय किनारों किनारों के भीतर और उन्नत पैपिला पर एक एक उदरीय छिद्र खुलता है। इन छिद्रों के द्वारा उदरीय देहगुहा बाहर की तरफ खुलती है।

(f) पुच्छ गर्त : पुच्छ पंख के आधार पर पूंछ पर एक पृष्ठीय और एक अधरीय उथला गर्त पाया जाता है। इन्हें पुच्छ गर्त कहते है। इनकी उपस्थिति स्कॉलिओडॉन वंश की विशिष्टता है।

(g) पाशर्व रेखा एवं छिद्र : धड़ एवं पूँछ के दोनों पाशर्व भागों और शीर्ष के ऊपर एक हल्की पाशर्व रेखा होती है। यह त्वचा के निचे स्थित एक संवेदी पाशर्व रेखा नालतंत्र की स्थिति अंकित करती है जो थोड़े थोड़े अंतराल पर छोटे छोटे छिद्रों द्वारा बाहर खुलता है।

(h) तुम्बिका छिद्र : सिर एवं तुंड पर ग्राही अंग लौरेंजिनी तुम्बिकाओं के छोटे छोटे तुम्बिका छिद्रों के अनेक समूह खुलते है। दबाने पर इन छिद्रों से श्लेष्मा निकलता है।

त्वचा (skin)

सम्पूर्ण शरीर एक चिमड़ आवरण द्वारा आच्छादित रहता है जिसे त्वचा अथवा अध्यावरण कहते है। सभी कशेरुकियों की तरह यह द्विस्तरीय होता है –
(1) एक बाह्य एक्टोडर्मल अधिचर्म अथवा एपिडडर्मिस और (2) एक भीतरी मीजोडर्मल चर्म , कोरियम अथवा डर्मिस।
1. अधिचर्म : अधिचर्म स्तरित उपकला कोशिकाओं की कई परतों द्वारा बना होता है। सर्वाधिक भीतरी , स्तम्भी अथवा बहुकोणीय कोशिकाओं द्वारा निर्मित अंकुरण स्तर अथवा स्ट्रेटम जर्मिनेटिवम कहलाता है।
यह एक आधार कला पर आधारित रहता है। बाहरी स्तरों की कोशिकाओं उत्तरोतर सतह की तरफ चपटी एवं श्रृंगीभूत होती जाती है। अनेक अधिचर्म कोशिकाएँ विशिष्ट ग्रन्थि कोशिकाएं बनकर श्लेष्मा का स्त्रवण करती है। श्लेष्मा शरीर की सतह का स्नेहन करता है।
2. चर्म : चरम अंतराली संयोजी उत्तक का बना होता है। इसमें अनेक अरेखित पेशी तन्तु , रुधिर कोशिकाएं , वर्णक कोशिकाएँ और तंत्रिका तन्तु होते है। इसका बाहरी भाग शिथिल तन्तुओं द्वारा निर्मित स्तर स्ट्रेटम लैक्जम और भीतर सघन तंतुओ से निर्मित स्ट्रेटम कॉम्पैक्टम कहलाता है। वर्णक कोशिकाएं जो वर्णकी लवक अथवा मेलानोफोर कहलाती है , अधिचर्म के ठीक नीचे समूहों में स्थित होती है। इनकी उपस्थिति के कारण पृष्ठतल की त्वचा अपेक्षाकृत गहरे रंग की और चित्तीदार होती है।
3. त्वचा के कार्य : (i) आवरण के रूप में यह आंतरिक अंगो की भौतिकीय चोटों से सुरक्षा प्रदान करती है। (ii) लसलसे श्लेष्मा के स्त्रवण द्वारा शरीर की सतह चिकनी रहती है। इससे परभक्षियों को इसे पकड़ने में कठिनाई आती है , गमन में घर्षण अत्यधिक कम हो जाता है और जीवाणुओं के शरीर में प्रवेश करने का प्रतिरोध होता है।
(iii) इसका रंग छद्म आवरण प्रदान करता है , क्योंकि निचे से देखने पर चाँदी सदृश जल की सतह से और ऊपर से देखने पर गहरे रंग की तली से इसका मेल हो जाता है।
(iv) त्वचा ग्राही वातावरण में होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप प्रतिक्रिया करने में सहायक होते है।

आर्थिक महत्व (economic importance)

सभी शार्क माँसाहारी , परभक्षी और लोब्स्टर , केंकड़ों एवं खाद्य मछलियों की विनाशक होती है। समुद्र तट पर रहने वाले गरीब लोग स्कॉलिओडॉन को खाते है। हालाँकि , यह स्वादिष्ट नहीं होती लेकिन इसका मांस आसानी से पचने वाला तथा अत्यंत पोषक होता है। इसकी सुखायी गयी त्वचा से शैग्रीन मिलती है जो फर्नीचर तथा धातु आदि की पॉलिश करने के लिए एक अपघर्षक का काम करती है। प्रयोगशाला में विच्छेदन द्वारा अध्ययन हेतु डॉगफिश उपयुक्त प्राणी है।