सत्यशोधक समाज की स्थापना किसने की और कब की थी satyashodhak samaj was founded by whom in hindi
satyashodhak samaj was founded by whom in hindi सत्यशोधक समाज की स्थापना किसने की और कब की थी ?
प्रश्न: ज्योतिराव गोविंदराव फुले
उत्तर: ज्योतिबा फुले के नाम से प्रसिद्ध 19वीं शताब्दी के एक महान भारतीय विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर 1873 में इन्होंने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं व दलितों के उत्थान के लिए इन्होंने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गों को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समर्थक थे। फुले ने महात्मा बुद्ध व कबीर के क्रांतिकारी विचारों को समन्वित किया।
प्रश्न: 19वीं सदी में नव वैष्णव संप्रदाय के उदय एवं विकास के बारे में बताइए। इसने कहां तक सामाजिक धार्मिक सुधारों में योगदान दिया?
उत्तर: नव वैष्णव सम्प्रदाय: बंगाल में ब्रिटिश शासन के शुरू के वर्षों में वैष्णव भक्ति का इतना गहरा प्रभाव था कि कई छोटे-छोटे वैष्णव संप्रदाय बन गए थे और प्रत्येक संप्रदाय की अपनी ही कोई विशेषता थी। कभी कभी इन्हें ‘नव वैष्णव संप्रदाय‘ भी कहा जाता था। इनमें प्रमुख थे स्पष्टदायक, बाऊल, सहूजी और सखीभावक संप्रदाय। स्पष्टदायक संप्रदायक रूपराम कविराज ने चलया था। इसके सदस्य मठों या विहारों में रहते थे और इनमें स्त्री और पुरूष दोनों ही आ सकते थे। लेकिन स्त्रियों को अपने सिर मुडाने होते थे। भक्तजन भगवान कृष्ण की प्रशंसा से भाव-विभोर होकर गाते और नाचते थे। स्पष्टदायक संप्रदाय में कोई जात-पांत नहीं थी। बाऊल संप्रदाय में छोटी जातों के लोग थे। वे बालकृष्ण की पूजा करते थे।
साहूसी संप्रदाय भी बाऊल पंथियों जैसा ही था। इन सभी धार्मिक पंथों में सबसे विचित्र था सखीभावक। इसमें भक्तजन स्त्रियों जैसे कपड़े पहनते थे और उनके हाव-भाव भी स्त्रियों जैसे ही हो गए थे। वे राधा के पुजारी थे और कृष्ण तक पहुंचने के लिए उसके साथ अपना काल्पनिक संबंध सथापित करना चाहते थे।
दरवेश फकीर संप्रदाय: 19वीं शताब्दी के मध्य में एक व्यक्ति उदचंद करमाकर ने ढाका में एक पंथ की स्थापना का, जिसका नाम था। दरवेश फकीर। इस मत के सदस्य तपस्या, त्याग, संयम, साधना आदि संन्यास आश्रम के कई तरीक अपनाते थे और यह प्रदर्शित करते थे कि उन्हें किसी से घृणा नहीं है।
हरिबोल संप्रदाय: बंगाल में एक और संप्रदाय था, हरिबोल। ये वैष्णव भक्तों का समूह था जो ईश्वर प्राप्ति के लिए हरनाम का उच्चारण करता था।
खुशी विश्वास: बंगाल में नडिया जिले में एक मुसलमान खुशी ने खुशी विश्वासी चलाया। यह भी वैष्णव संप्रदाय ही था और इसके सदस्य अपने गुरू को श्री चैतन्य का अवतार मानते थे। इस पंथ की सदस्यता हालांकि सीमित थी फिर भी इसकी विशेषता यह थी कि हिंदू वैष्णव एक मुसलमान को अपना गुरू मान सकते थे।
ऐसा कहा जाता था कि इस पंथ के गुरू में रोगों और बीमारियों को दूर करने की चमत्कारी शक्ति थी। नडिया में ही एक और संप्रदाय ‘साहूबधनी‘ था। इसके संस्थापक इसी नाम के एक संन्यासी थे। वे जात पात में विश्वास नहीं रखते थे। यहां तक कि उन्होंने मुसलमानों को भी अपना शिष्य बनाया।
कुदापंथी: उत्तर भारत में 19वीं शताब्दी के मध्य में एक नेत्रहीन व्यक्ति तुलसीदास ने एक छोटे से पंथ की स्थापना की। इसका नाम था, कुदापंथी। इसके सदस्य मूर्ति पूजा नहीं करते थे और उनमें जातपात का कोई भेदभाव नहीं था। वे मध्ययुग के महान संतों नानक, कबीर और रविदास के भजन गाते थे।
कूका: इसी तरह का एक और संप्रदाय था, कूका। इसकी स्थापना भी लगभग 19वीं शताब्दी के मध्य में रावपिडी जिले के एक सिक्ख बुलाक सिंह ने की थी। कूका पंथ के अनुयायी बहुत ऊंची आवाज में प्रार्थना करते थे। वे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते थे और अपने खान-पान तथा सामाजिक आचरण में बहुत ही सीधा-सादा जीवन बिताते थे।
महिमा संप्रदाय: 19वीं शताब्दी के उड़ीसा में महिमा गोस्वामी ने महिमा आंदोलन के नाम से एक पंथ चलाया। उनका जीवन एक रहस्य है। पहली बार उन्हें 1826 ई. में पुरी में देखा गया और उनकी मृत्यु उड़ीसा के धेकनाल जिले के जोरांदा में हुई। 50 वर्ष तक महिमा गोस्वामी ने योग और ब्रत तथा प्राश्चित करके एक संत जैसा जीवन व्यतीत किया। धीरे-धीरे उन्हें श्रद्धालु अनुयायियों ने घेर लिया। इनमें एक था भीमाबोई जिसे गुरू ने आशीर्वाद देते हुए निर्देश दिया कि वह बहुत से धार्मिक ग्रंथ तैयार करें। महिमापंथी, ‘अलख परम ब्रह्म‘ की उपासना करते थे।
इस पंथ के अनुयायी, ‘उस शाश्वत, अगम और निर्विकार पुरूष के उपासक थे जो विश्व का सृजक तथा पालक था वह ‘अलख, अनाकार और अनादि है।‘ महिमापंथियों का सर्वोच्च लक्ष्य था, वह ब्रह्म या शून्य पुरुष के समक्ष आत्मसमर्पण।
18वी शताब्दी में रामचरण ने राम स्नेही पंथन की स्थापना शाहपुरा में की और यह 19वीं शताब्दी में भी अस्तित्व में रहा। इसके अनुयायियों को कई नियमों का पालन करना होता था। इस संप्रदाय में सभी जातियों के लोग शामिल हो सकते थे।
रामबल्लभी संप्रदाय: एक और छोटा संप्रदाय रामबल्लभी था। 19वीं. शताब्दी में बंगाल में था। इसका संस्थापक औलेचर का एक शिष्य रामबल्लभी था। इस संप्रदाय की विशेषता यह थी कि वे हिंदुओं, मुसलमानों और इसाइयों के धर्मग्रंथों में आस्था रखते थे और अपने वार्षिक धार्मिक समारोह में इन सभी धार्मग्रंथों का पाठ करते थे। वे भी जातिपाति नहीं मानते थे और इकट्ठे बैठ कर भोजन करते थे तथा सभी संप्रदायों के खाने-पीने की आदतों का आदर करते थे। 19वीं शताब्दी के छोटे धार्मिक आंदोलनों की सूची में अंतिम था,
देवसमाज: इसकी स्थापना 1887 ई. में शिव नारायण अग्निहोत्री ने की थी। वें 1850 ई. में जन्में, रूडकी कालेज में शिक्षा पाई और लाहौर के गवर्नमेंट कालेज में अध्यापक बने। शिव नारायण अग्निहोत्री साधारण ब्राह्म समाज के सदस्य थे। लेकिन अंत में उन्होंने अपने ही समाज की स्थापना की और अद्वैतवाद का प्रचार प्रारंभ कर दिया। देवसमाज की आस्था और विश्वास सामाजिक सुधारों में थी और इस दिशा में देवसमाज ने काफी प्रयत्न किए।
इस तरह के छोटे संप्रदाय या पंथों के उदय से आमतौर पर हिंदू समाज पर कोई बहुत अधिक प्रभाव नहीं पडा। लेकिन सीमित क्षेत्रों में विभिन्न दलों पर धार्मिक तथा नैतिक उत्थान के लिए काफी प्रभाव पड़ा।
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