सत्याग्रह की परिभाषा क्या है ? सत्याग्रह किसे कहते है ? satyagraha in hindi meaning सिद्धांत निबंध
(satyagraha in hindi meaning) सत्याग्रह की परिभाषा क्या है ? सत्याग्रह किसे कहते है ? सिद्धांत निबंध गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्य अहिंसा और सत्याग्रह संबंधी विचारों की विवेचना कीजिए मतलब से आप क्या समझते है ?
उद्देश्य
जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, यह इकाई महात्मा गाँधी पर केन्द्रित है। आधुनिक सभ्यता, स्वराज एवं सत्याग्रह के बारे में गाँधी की अवधारणा तथा पश्चिमी सभ्यता की उनकी समीक्षा पर इस इकाई में विचार किया गया है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ आधुनिक सभ्यता के बारे में गाँधी के विचारों को रेखांकित कर सकेंगे,
ऽ स्वराज और सत्याग्रह की उनकी अवधारणा की विवेचना कर सकेंगे,
ऽ पश्चिम के बारे में गाँधी की समीक्षा का मूल्यांकन कर सकेंगे, और
ऽ आज के भारत में उनकी प्रासंगिकता पर विचार कर सकेंगे।
प्रस्तावना
इस इकाई में मुख्य रूप से आप गाँधी की स्वराज एवं सत्याग्रह की अवधारणा तथा उनकी पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा का अध्ययन करेंगे। इस इकाई के द्वारा गाँधीवादी विचारधारा के मुख्य अवधारणाओं से आपका परिचय होगा।
सभ्यतागत औचित्य और अंग्रेजी शासन
इंग्लैंड के गृह-सचिव पर जैसन हिक्स ने 1924 में कहा था ‘‘हम लोगों ने भारत को भारतीयों के हित के लिए नहीं जीता था, हम लोगों ने भारत को जीता था, ग्रेट ब्रिटेन के माल के बाजार के लिए। हम लोगों ने भारत को जीता और तलवार की नोक पर उसे दबोचे रखा क्योंकि ब्रिटिश मालों के लिए और विशेषकर लंकाशायर के सूती सामानों के लिए यह एक अनमोल बाजार था’’।
यद्यपि कुछ अंग्रेज सिद्धांतकार एवं राजनयिक ऐसा मानते हैं कि वे भारत में अपने हित के लिए नहीं, बल्कि, भारतीय हितों के लिए मौजूद थे। वे ऐसा दावा करते हैं कि एक नैतिक दायित्व समझकर ही श्वेत लोग भारतीयों को ससभ्य, ससंस्कृत एवं आधुनिक बनाने के लिए यहाँ आए थे। ऐसे मानने वालों में एक लार्ड कर्जन थे जो 1898 से 1905 के बीच भारत के वायसराय रहे थे। 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उन्होंने कहा थाः ‘‘पूर्व में प्रतिष्ठित होने के बहुत पहले से ही पश्चिम के नैतिक विधान में सत्य का बहुत ही महत्वपूर्ण रुझान था, जबकि पूर्व में हमेशा से ही राजनयिक चरित्रहीनता एवं दुष्टता का बोलबाला रहा था’’। एक दूसरे अवसर पर कर्जन का कहना था कि भारत को स्वराज या तो ब्रिटिश संसद के सहारे मिलेगा या हिंसा के द्वारा।
महात्मा गाँधी ने कर्जन के इन दोनों दावों का जमकर विरोध किया। गाँधी का कहना था कि भारतीय संस्कृति में सत्य का आरम्भ से ही केन्द्रीय स्थान रहा है और सत्य और नैतिकता के मामले में अंग्रेजों का यह सर्वोच्चता का दावा बिल्कुल गलत है। कर्जन के विरुद्ध गाँधी जी ने यह दावा किया कि भारतीय स्वराज न तो ब्रिटिश संसद के द्वारा आएगा और न हिंसा के द्वारा, बल्कि, भारतीय जनता की सीधे अहिंसक कार्यवाही (यानि सत्याग्रह के सहारे)।
अंग्रेजी शासन की वैधता के संबंध में गाँधी, उग्रपंथी एवं
नरमपंथियों के विचार
गाँधी जी के विचारों की विशिष्टता को रेखांकित करने के पहले यहाँ यह कहना आवश्यक है कि उनके विचार न सिर्फ कर्जन के विचारों से अलग हैं बल्कि, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अन्दर उग्रपंथियों और नरमपंथियों के विचारों से भी भिन्न हैं। नरमपंथियों ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा भारत के ‘‘आर्थिक निर्गम’’ के विरोधी थे लेकिन आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की सांस्कृतिक सर्वोच्चता को वे स्वीकार करते थे। वे पारस्परिक राजनैतिक तरीकों यानि, अर्जी और वैधानिक तरीकों द्वारा भारत को स्वतंत्र एवं आधुनिक बनाना चाहते थे। इसके विपरीत उग्रपंथी हिंसा एवं आतंकवादी तरीकों में आस्था रखते थे। इनके बीच जो पुनरुत्थानवादी थे, उन्होंने भारतीय परम्परा की सांस्कृतिक सर्वोच्चता का नारा दिया। गाँधी ने उग्रपंथियों एवं नरमपंथियों के सिद्धांत एवं व्यवहार के कुछ पक्षों को स्वीकार किया और कुछ को खारिज कर दिया। यद्यपि उनका मानना था कि स्वराज प्राप्त करने का जो कार्यक्रम उनके पास हैं. उसमें उग्रपंथी और नरमपंथी दोनों एक अधिक बेहतर धर सकते हैं।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) उत्तर के लिए रिक्त स्थानों का प्रयोग करें
2) अपने उत्तर का परीक्षण इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से करें।
1) ब्रिटिश शासन की वैधता के संबंध में गाँधी के विचार किन मायनों में उग्रपंथियों और नरमपंथियों से भिन्न थे?
सत्याग्रह
राजनैतिक विचार एवं आचरण के क्षेत्र में सत्याग्रह की अवधारणा गाँधी जी का सर्वोच्च योगदान है। स्वराज प्राप्त करने एवं सामाजिक संघर्षों को मिटाने का यह एक नैतिक-राजनैतिक अस्त्र है। जैसे कि बोंदुरा ने लक्षित किया है, ‘सत्याग्रह प्रतिरोध की एक सामान्य विधि से कुछ ज्यादा है। यह मौलिक परिवर्तन एवं बेहतर उद्देश्य प्राप्त करने के संघर्ष का एक असीम अस्त्र है’। सत्याग्रह पर लिखित पुस्तक ‘बिना हिंसा का युद्ध’ में कृष्णलाल श्रीधरनी ने सत्याग्रह की परिभाषा ‘अहिंसक सीधी कार्यवाही’ के रूप में की थी।
आरम्भिक प्रयोग
सत्याग्रह का प्रयोग सबसे पहले गाँधी ने ‘एशिष्टिक लॉ एमेन्डमेंट आर्डिनेंस ऑफ 1906’ के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका के भारतीय मजदूरों के प्रतिरोध में किया था। उस समय यह आन्दोलन ‘निष्क्रिय प्रतिरोध‘ (पैसिव रेजिस्टेंस) कहलाता था। बाद में यह सत्याग्रह कहलाया। गाँधी ने भारत में सैकड़ों सत्याग्रह आन्दोलन चलाए जिसमें चम्पारण, अहमदाबाद, वैकोम, बारादोली और खेड़ा के आन्दोलन मुख्य हैं।
अर्थ
सत्याग्रह का अर्थ है: सत्य का आग्रह। दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रतिरोध आन्दोलन का नाम सत्याग्रह क्यों रखा था, इसकी व्याख्या करते हुए गाँधी का कहना था कि ‘सत्य में प्रेम अन्तर्निहित होता है और उसी से आग्रह भी उत्पन्न होता है, जिसमें एक ताकत है। भारतीय आन्दोलन को सत्याग्रह हम लोगों ने इसलिए कहना आरम्भ किया क्योंकि इसमें जो ताकत है, वह सत्य और प्रेम या अहिंसा से उत्पन्न हुयी है’। हिन्द स्वराज में गाँधी का समीकरण था: शरीर-ताकत = पाशविक ताकत = मजबूत ताकतों के अस्त्रों की ताकत = प्रेम-ताकत = सत्य-ताकत। उन्होंने प्रथम को हिंसा की विधि कहा, जिसका उपयोग आधुनिक सभ्यता करती है। जबकि सत्याग्रह विश्वास करता है, आत्मा-ताकत या सत्य-ताकत और इस प्रकार यह स्वराज के अनुकूल है।
हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा था: ‘सत्याग्रह को अंग्रेजी में निष्क्रिय प्रतिरोध के नाम से जाना जाता है। निष्क्रिय प्रतिरोध एक ऐसी विधि है, जिसमें निजी पीड़ा के सहारे अपने अधिकारों की रक्षा की जाती है, यह अस्त्रों के सहारे प्रतिरोध की विधि से ठीक उल्टा है। कोई चीज जिसे मेरा अन्तःकरण सही नहीं मानता है, अगर मैं करने से इन्कार कर देता हूँ तो इसका मतलब है कि मैं आत्मिक शक्ति का प्रयोग कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए, सरकार एक कानून पास करती है जो मुझ पर भी लागू होता है। मैं इसे पसंद नहीं करता हूँ। अगर मैं हिंसा के द्वारा सरकार को बाध्य करता हूँ कि वह कानून को वापस ले तो इसका मतलब है कि मैं ‘शारीरिक शक्ति‘ का प्रयोग कर रहा हूँ और अगर मैं इस कानून को नहीं मानता हूँ और इसके लिए हर्जाना भरना स्वीकार कर लेता हूँ, तो इसका मतलब है कि मैं ‘आत्मिक शक्ति‘ का प्रयोग कर रहा हूँ जिसमें स्व का त्याग अन्तर्निहित होता है।
गाँधी का कहना था कि भारतीय स्वराज के लिए सत्याग्रह व्यावहारिक रूप से अनिवार्य और नैतिक रूप से अपेक्षित राजनैतिक कार्यवाही था। उनका कहना था कि चूँकि अंग्रेज बहुत अच्छी तरह अस्त्रों से लैस थे, इसलिए भारतीयों को उस स्तर तक अस्त्र-शस्त्र हासिल करने में वर्षों लग जाने की संभावना थी। इस व्यावहारिक कठिनाई के अलावा गाँधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंसा की विधि अपनाए जाने पर होने वाले सभ्यतागत एवं नैतिक परिणामों को अस्वीकार करते थे। उन्होंने इशारा किया था कि भारत को बड़े पैमाने पर अस्त्र से सुसज्जित करने का अर्थ है, इसका यूरोपीयकरण करना या दूसरे शब्दों में, नैतिक रूप से त्रुटिपूर्ण आधुनिक युरोपीय सभ्यता द्वारा भारत को ही गुलाम बनाये जाने की प्रक्रिया को जारी रखना।
आधारगत सिद्धांत
सत्याग्रह सत्य, अहिंसा और तपस के सिद्धांत पर आधारित है। गाँधी ने इसकी व्याख्या लार्ड हंटर के सभापतित्व में ‘डिसआर्डर इन्कवायरी कमिटी‘ के समक्ष अहमदाबाद में 9 जनवरी, 1920 को प्रस्तुत की थी। इसके प्रासंगिक प्रश्न एवं उत्तर नीचे दिए जा रहे हैं।
प्रश्न-मैं मानता हूँ मि. गाँधी की सत्याग्रह आंदोलन के लेखक आप ही हैं।
उत्तर-जी, महाशय।
प्रश्न-क्या सारांश में आप इसकी व्याख्या करेंगे?
उत्तर-यह एक ऐसा आन्दोलन है जो हिंसा की विधियों को बदल देना चाहती है। यह ऐसा आन्दोलन है जो पूर्णतया सत्य पर आधारित है। मैं इसे राजनैतिक क्षेत्र में आन्तरिक नियमों का ही विस्तार मानता हूँ और मेरे अनुभव बताते हैं कि सिर्फ यह आंदोलन ही भारत को सम्भावी हिंसा के चप्रेट से बचा सकता है।
प्रश्न-किसी विशेष कानून के न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण होने को लेकर लोगों में मतभिन्नतया है?
उत्तर-यही मुख्य वजह है कि हिंसा को हटाया जा सकता है क्योंकि एक सत्याग्रही अपने विरोधी को भी वही स्वतंत्रता एवं मुक्ति की भावना प्रदान करता है जिसका कि वह खुद को हकदार मानता है। दूसरे, वह अपने विरोधियों से संघर्ष अपने लोगों को कष्ट पहुँचाकर जारी रखता है।
गाँधी धर्मशास्त्र परम्परा में विश्वास रखते थे जिसके अनुसार धर्म ‘धू‘ धातु से निकला है (जिसका अर्थ है ‘दृढ़ रहना‘) और जो ब्रह्मांड को नैतिक नियमों से परिचालित होने की ओर संकेत करता है। इसका सार है-सत्य जिसका आधार सन्त (यथार्थ, सही क्या है और क्या होगा) है। गाँधी लिखते हैं:
‘‘सत्य शब्द सन्त से निकला है जिसका अर्थ है आस्तित्व। यथार्थ में सत्य के अलावा कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। यही वजह है कि ईश्वर का शायद सबसे महत्वपूर्ण नाम ‘‘सन्त’’ या ‘‘सत्य‘‘ है। वस्तुतः यह कहना ज्यादा सही है कि सत्य ही ईश्वर है बनिस्पत कि यह कहना कि ईश्वर सत्य है। ‘‘यह माना जायेगा कि सन्त या ईश्वर का सबसे सार्थक एवं सही नाम है’’।
चँूकि ‘‘यथार्थ में सत्य के अलावा कुछ भी आस्तित्वमान नहीं है, ‘‘इसलिए राजनैतिक-व्यावहारिक क्षेत्र भी सत्य से अलग नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, गाँधी के अनुसार सत्य या नैतिकता से राजनीति का पृथक्करण अतर्कसंगत है। उन्होंने लिखा है:
‘‘कुछ दोस्तों ने मुझे कहा कि राजनीति और सांसारिक मामले में सत्य और अहिंसा का कोई स्थान नहीं है। मैं इनसे सहमत नहीं हैं। मेरे लिए व्यक्तिगत मक्ति के साधन के रूप में इसका प्रवेश एवं उपयोग ही हमेशा मेरा प्रयोग रहा है’’।
गाँधी जी का सत्याग्रह राजनैतिक आचार में सत्य और अहिंसा को प्रवेश कराने का एक प्रयोग है। गाँधी के अनुसार यद्यपि सत्य निरपेक्ष होता है, लेकिन इसके बारे में हमारा ज्ञान एवं अनुभव सापेक्ष और आंशिक ही है। जिसे हम सत्य मानते हैं, हो सकता है वह दूसरे के लिए असत्य हो। वस्तुतः सत्याग्रही यह मान कर चलते हैं कि उनके विरोधी या शोषक भी सत्य की राह पर चलने वाले हैं। यही वजह है कि अहिंसा सत्य के अन्वेषण का साधन है। गाँधी ने लिखा था कि ‘‘अहिंसा का प्रयोग जिस मलभूत सिद्धांत पर आधारित है, वह यह है कि जो एक आदमी के लिए अच्छा है वह पूरे ब्रह्मांड के लिए भी अच्छा है। सभी मनुष्य सारतः एक हैं। इसलिए जो एक आदमी के लिए सम्भव है, वह सभी के लिए सम्भव है‘‘। सापेक्ष सत्य के आधार पर काम करते हुए सत्याग्रही विरोधी सत्य के दावों को अहिंसक तरीके से निर्दोष ठहराते हुए समाज के मूल संघर्षों को दूर कर समाज में संगति प्रदान करते हैं। गाँधी लिखते हैंः
‘‘ऐसा मालूम पड़ता है कि प्राचीन अन्वेषकों ने ऐसा महसूस किया था कि इस नश्वर शरीर के द्वारा सत्य का पूर्ण अभिज्ञान सम्भव नहीं, इसलिए ये लोग अहिंसा की ओर मुड़े। जिस प्रश्न का इन लोगों को सामना करना पडा वह था कि. ‘‘जिन लोगों ने मेरे लिए बाधाएँ उत्पन्न की क्या मुझे उन लोगों को सहना चाहिए या उन्हें खत्म कर देना चाहिये। उन लोगों को ऐसा अहसास हुआ कि वे जो विरोधियों को खत्म कर दिये, वे जीतने वालों में नहीं थे, बल्कि, जिन लोगों ने दुख या विरोधियों को सहना मंजूर किया वे अपने विरोधियों से आगे निकल गये। जिन्होंने जितना ही हिंसा का सहारा लिया, वे सत्य से उतना ही पीछे हट गये। कल्पित दुश्मनों से लड़ते हुए अपने अन्दर के दुश्मनों की उन लोगों ने अपेक्षा की’’। सत्याग्रही ‘‘प्रेम की शक्ति’’ या ‘‘सत्य की शक्ति’’ का प्रयोग विरोधियों या शोषकों को खत्म करने के लिए नहीं करता है, बल्कि वह संघर्षात्मक या उत्पीड़क सम्बन्धों को पूर्ण रूप से बदल देना चाहता है, जिससे दोनों पक्ष अपने आरम्भिक संघर्ष में नैतिक अन्योन्यश्रितता महसूस कर सके। सत्याग्रह की प्रक्रिया में शोषण का शिकार अपने शोषक को भी उसके कपटपणे असत्य, विश्वासों एवं क्रियाओं से मुक्त कर खुद मुक्त होता है। गाँधी जी ने ‘‘हन्द स्वराज‘‘ में लिखा था ‘‘सत्याग्रह का प्रयोग करने वाला और जिसके विरुद्ध यह प्रयोग किया गया है, दोनों को यह मुक्त करता है‘‘।
अहिंसा और सत्याग्रह
गाँधी के लिए अहिंसा का अर्थ ‘‘दूसरों को कष्ट न पहुँचाना‘‘ मात्र न था। यह अहिंसा का ऋणात्मक या निष्क्रिय अर्थ होता। अहिंसा का एक धनात्मक और सक्रिय अर्थ है-प्रेम या सद्भाव। गाँधी लिखते हैं:
‘‘अहिंसा के ऋणात्मक रूप का अर्थ है, किसी भी प्राणी के मन और शरीर को कष्ट न पहुँचाना। इसलिए मैं किसी गलत काम करने वाले को भी कष्ट नहीं पहुँचाऊँगा, उसके प्रति विद्वेष का भाव नहीं रखुंगा, उसकी किसी भी मानसिक यंत्रणा की वजह नहीं बनूँगा‘‘।
धनात्मक रूप में अहिंसा का अर्थ है, अथाह प्रेम, महानतम सद्भाव। अगर मैं अहिंसा का अनुयायी हूँ, तो मैं अपने दुश्मन को भी प्यार करूँगा, जैसे कि मैं बुरा काम करने वाले अपने पिता या पुत्र को करता हूँ। इस सक्रिय अहिंसा में सत्य और निर्भयता भी शामिल है‘‘।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि गाँधी के लिए, दूसरों को कष्ट न पहुँचाने की भावना किसी नैतिक या व्यावहारिक सत्य को मापने का एक ऋणात्मक प्रतिमान है। सत्य का धनात्मक प्रतिमान तो यह है कि यह कहाँ तक किसी व्यक्ति की भलाई के लिए क्रियाशील है।
हमारी इच्छाओं और प्रेरणाओं को दो वर्षों में बाँटा जा सकता है-स्वार्थपूर्ण और अस्वार्थपूर्ण। सभी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ अनैतिक हैं, जबकि दूसरों की भलाई करने के लिए अपने को सुधारना सही मायने में नैतिक है ‘‘सर्वोच्च नैतिक नियम तो यह है कि हम लोगों को मानव मात्र के लिए निरन्तर काम करते रहना चाहिए’’।
तपस
सत्याग्रह के दो तत्वों की अब तक हम लोगों ने विवेचना की-सत्य और अहिंसा। पर इनके अलावा सत्याग्रह का एक तीसरा तत्व भी है-तपस। दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण क्रिया सत्य को मापने का एक धनात्मक प्रतिमान है, जैसा कि हम लोगों ने पहले देखा। लेकिन अब गाँधी का कहना था कि ऐसे प्रेम की परीक्षा ‘तपस‘ के सहारे ही की जा सकती है। गाँधी कहते हैं: ‘‘दूसरों के प्रति हिंसा या कष्ट या यंत्रणा भोगना अहिंसा का सार है। यह समझना आवश्यक है कि सत्याग्रही द्वारा स्वयं को कष्ट पहुँचाना किसी कमजोरी या कायरता की वजह से नहीं है, बल्कि यह उन लोगों के साहस से ज्यादा उच्च कोटि का साहस है जो हिंसा का आश्रय लेते हैं।
संघर्ष, संकल्प एवं स्वपीड़न पर आधारित सत्याग्रह तर्क की पुरक भूमिका निभाती है। तर्क के सहारे दूसरों को प्रभावित करना वस्तुतः सत्याग्रह का सार है। लेकिन सत्याग्रह मूलभूत सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक या विचारधारात्मक संघर्षों के निराकरण करने में तर्क की सीमाओं को जानता है। ऐसे संघर्षों में विवेकपूर्ण मतैक्य जल्दी हासिल नहीं किया जा सकता। गाँधी इस बात पर जोर देते थे कि विरोधियों या उत्पीड़कों को बदलने के लिए विवेक की सामान्य प्रक्रिया का प्रयोग करने के बाद ही सत्याग्रह की सीधी कार्यवाही का प्रयोग किया जाना चाहिए।
यूं तो सत्याग्रह सीधी कार्यवाही की सबसे शक्तिशाली विधियों में से एक है, लेकिन सत्याग्रही दूसरी अन्य विधियों को निःशेष करने के बाद ही सत्याग्रह का आश्रय लेता है। इसलिए पहले वह गठित सत्ता-प्रतिष्ठानों के पास लगातार प्रयत्न करेगा, लोकमतों का समर्थन मांगेगा, जनता के विचारों को शिक्षित करेगा, वह ऐसे किसी भी व्यक्ति के सामने अपने पक्ष को प्रस्तुत करेगा जो उसे सुनना चाहता है। इन सभी विधियों को आजमाने के बाद ही वह सत्याग्रह का सहारा लेगा।
सत्याग्रह अभियान में सामाजिक प्रणाली के सत्य को तीन सोपानों में स्थापित करने की बात कही जाती है। 1) विरोधियों को तर्क के सहारे कायल करना और विरोधियों के विचारों के प्रति भी अपने को खुला रखना, 2) सत्याग्रह के स्वपीड़न के सहारे विरोधियों को निवेदन करना, और 3) असहयोग और नागरिक अवज्ञा।
सत्याग्रह की विभिन्न विधियाँ: 1) प्रण, प्रार्थना और अनशन जैसी शुद्धात्मक सत्याग्रही कार्यवाहियाँ, 2) बहिष्कार, हड़ताल जैसे असहयोगी कर्म, 3) धरना, विशिष्ट कानूनों की अवज्ञा एवं करों का भुगतान न करना, जैसी नागरिक अवज्ञाओं का प्रदर्शन, 4) साम्प्रदायिक एकता को प्रोन्नत करने, अश्पृश्यता को दूर करने, प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को चलाने एवं सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को दूर करने वाले रचनात्मक कर्ग। इन सभी स्थितियों में सत्याग्रही जहाँ सत्य के दामन को पकड़े रहता है, वहाँ वह विरोधियों को हर वह अवसर प्रदान करता है, जिससे वह सत्याग्रही के पक्ष को गलत एवं भ्रांतिपूर्ण सिद्ध कर सके। सत्याग्रह हिंसा का प्रयोग नहीं करता क्योंकि मनुष्य निरपेक्ष सत्य को जानने में असमर्थ है इसलिए वह दूसरे को दण्डित करने का अधिकारी नहीं है। ‘‘मन में यह आदर्श बनाये रखना चाहिए कि सामुदायिक सत्य के स्वयं-नियंत्रित समाज में हर व्यक्ति स्वयं पर इस प्रकार शासन करे कि वह अपने पड़ोसी के रास्ते की कभी बाधा नहीं बने‘‘। जोन बोन्दुरां लिखती हैं कि ष्सत्याग्रह यह दावा करता है कि वह अहिंसक तरीके से मानवीय आवश्यकताओं को पूर्ति करने वाला ऐसे सत्य की रचना करेगा जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य होगा एवं दोनों को पारस्परिक संतोष प्रदान करने वाला होगा। अतः सत्याग्राहियों का कार्यात्मक सिद्धांत होगाः सत्य को सापेक्ष, अहिंसक और सहिष्णु मानना तथा स्वयं पीड़न का सहारा लेना। गाँधी इन बातों को निम्नांकित उद्धरण में उचित ठहराते हैं:
‘‘सत्याग्रह का प्रयोग करते हुए मुझे यह अनुभव हुआ कि आरम्भिक अवस्था में सत्य का अन्वेषण विरोधियों पर हिंसा के प्रयोग को स्वीकार नहीं करता है बल्कि, बड़े धैर्य और सहानभूति से विरोधियों के भ्रम को दूर करती हैं। क्योंकि हो सकता है जो किसी को सत्य मालूम पड़े, वह दूसरे को असत्य जान पड़े’’।
इसलिए आचार की स्वर्ण संहिता पारस्परिक सहिष्णुता है। इसके पीछे यह मानना है कि हम लोग सभी एक जैसा नहीं सोचते हैं और हम लोग सत्य को खंडित एवं दृष्टि के विभिन्न कोणों से देखते हैं। सबों का अन्तःकरण एक जैसा नहीं होता। इसलिए यह सिद्धांत वैयक्तिक आचार का एक अच्छा मार्ग दर्शक है। सबों पर एक ही आचार संहिता लादना उनके स्वतंत्र अन्तःकरण पर असह हस्तक्षेप होगा।
वास्तविक अधिकार और न्यायपूर्ण नियमों के बारे में लोगों की अवधारणा एक जैसी नहीं होती। यही कारण है कि हिंसा के बदले एक सत्याग्रही अपने विरोधियों को भी वही स्वतंत्रता एवं मुक्ति की भावना का अधिकार देता है, जो वह खुद अपने लिए सुरक्षित रखना चाहता है। वह खुद को क्षति पहुंचाकर संघर्ष जारी रखता है।
प्रजातंत्र का विकास सम्भव नहीं है, अगर हम दूसरे पक्ष को सुनने को तैयार नहीं हैं। विरोधियों को सुनना अगर हमने अस्वीकार कर दिया है, तो इसका मतलब है कि हमने अपने विवेक के दरवाजे को बंद कर दिया है। अगर असहिष्णुता हमारी आदत बन जाती है, तो यह डर है कि हम सत्य को भी खो दें। इसके बावजूद कि प्रकृति ने हमारी समझ की कुछ सीमाएँ निर्धारित कर रखी हैं, फिर भी हम लोगों को जो भी समझ है, उसके अनुसार निर्भय होकर काम करना चाहिए। हम लोगों को खुले मन से यह स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए कि जिसे हम सत्य मानते थे, वह असत्य था। मन का यह खुलापन ही हम लोगों में अन्तर्निहित सत्य को दृढ़ करता है।
बोध प्रश्न 6
टिप्पणी: 1) उत्तर के लिए रिक्त स्थानों का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर का परीक्षण इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से करें।
1) गाँधी ने सत्याग्रह को कैसे परिभाषित किया है?
2) सत्याग्रह किन-किन सिद्धांतों पर आधारित है?.
3) अहिंसा और सत्याग्रह के अन्तःसंबंधों पर टिप्पणी करें।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics