सफदरजंग का मकबरा किसने बनवाया ? क्या है , कहाँ है safdarjung tomb was built by in hindi
safdarjung tomb was built by in hindi सफदरजंग का मकबरा किसने बनवाया क्या है , कहाँ है ?
सफदरजंग के मकबरे (लगभग 1753 ईस्वी) के निर्माण द्वारा इस शैली में आए अवसान को रोकने का प्रयास दिखाई देता है। उद्यान शृंखला के वग्रकार स्मारकों की महान परंपरा में बना यह मकबरा एक बड़े आच्छादित वग्रकार टेरेस पर निर्मित है। मुख्य मकबरा दो मंजिला है जो पीताभ बलुआ पत्थर पर बारीक कारीगरी के साथ बनाया गया है।
गौरवशाली भारतीय-इस्लामिक वास्तु परम्परा मुगलों के साथ, या सही अर्थों में शाहजहां के साथ अस्त हो गई थी पर फिर भी यह किसी सीमा तक अवध के नवाबों के संरक्षण में फलती-फूलती रही। सन् 1784 में आसफुद्दौला द्वारा लखनऊ में बनवाये गये बड़ा इमामबाड़ा की आंतरिक सज्जा उल्लेखनीय है। अवध शैली का सर्वाधिक मुखर नमूना इमामबाड़ा का मुख्य प्रवेश द्वार है, जिसे रूमी दरवाजा कहा जाता है। यह अपनी प्रचुर मुखरता और सौंदर्य मिश्रण, समानुपातिक संतुलन और स्वरूप की विविधता के लिए जागा जाता है। परवर्ती अवध वास्तुकला पर यूरोपीय प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
भारतीय इस्लामिक वास्तुकला मैसूर के सुल्तानों हैदर अली और टीपू सुल्तान के शासन काल में भी पल्लवित हुई। सुल्तान के ग्रीष्मकालीन आवास के लिए बना दरिया दौलत बाग अपने लालित्य पूर्ण समानुपातों, शोख चटख रंगों में समृद्ध सज्जा, युद्ध दृश्यों के भित्तिचित्रों और गद्दीनशीनों के जीवंत चित्रों के लिए जागा जाता है।
सिख शासकों ने अपनी निर्माण शैली के लिए मुगलों से प्रभाव ग्रहण तो किया लेकिन इसे मिलाकर एक नई वास्तु शैली का विकास भी कर लिया। सिख वास्तु कला का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक अमृतसर का स्वर्ण मंदिर (1764) है। यह एक बड़े सरोवर के मध्य में स्थित है और मुख्य भूमि से एक पक्के सेतु द्वारा जुड़ा हुआ है। इसकी नींव गुरु रामदास द्वारा रखी गई थी और इसका निर्माण उनके बेटे अर्जुन देव द्वारा पूर्ण किया गया था। पर्सी ब्राउन के अनुसार सिख वास्तुकला की विशिष्टताएं थीं छतरियों की बहुलता जो प्राकारों, कोणों
और महत्वपूर्ण बिंदु या प्रक्षेपों को सज्जित करती हैं। अनिवार्यतः धारीदार गुम्बद का उपयोग जो कांसे या तांबे से मढ़ा होता था। पतली, अर्धवृत्ताकार कार्निस वाले झरोखों का अधिक प्रयोग, जिनके नीचे कोष्ठक बने होते हैं और समस्त मेहराबों पर प्रचुरता से बेल बूटाकारी की सज्जा होती है। मुगलों के समानांतर चली राजपूत वास्तु शैलियां अत्यंत सुंदर और रोमानी हैं। अधिकतर इमारतों पर तरह-तरह के आकार की छजलियां हैं और एक तरफ से खुले लम्बे-लम्बे गलियारे हैं, जिन्हें कलात्मक ढंग से खचित-सज्जित कोष्ठकों पर टिकाया जाता है। एक अन्य महत्वपूर्ण स्वरूप तक्षित, आच्छादित कार्निस हैं जो धनुष जैसी छायाएं उत्पन्न करती हैं।
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