भारतीय राजनीति में भाषा की भूमिका Drishti IAS समस्या पर निबंध , समाधान क्या है role of language in politics in india in hindi

know all facts and points about role of language in politics in india in hindi भारतीय राजनीति में भाषा की भूमिका Drishti IAS समस्या पर निबंध , समाधान क्या है ?
इस अध्याय में हम भारतीय राजनीति को भाषा किस प्रकार प्रभावित करती है और इस समस्या के निवारण के लिए क्या समाधान हो सकते है उन सभी के के बारे में विस्तार से अध्ययन करने जा रहे हैं |
भारतीय राजनीति और भाषा
प्रो. मॉरिस जोन्स० क्षेत्रवाद और भाषा के सवाल भारतीय राजनीति के इतने ज्वलन्त प्रश्न रहे हैं कि राजनीति इतिहास की घटनाओं के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। अक्सर ऐसा लगता है कि यह राष्ट्रीय एकता की सम्पूर्ण समस्या है।
० प्रारंभ में हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाएं थी परन्तु वर्तमान में 22 भाषाएँ है। इसके साथ ही अन्य भाषाओँ को इसमें शामिल करने के लिए समय समय पर अनेक वर्गों द्वारा विभिन्न प्रयास किये जाते रहे हैं |
संघ की भाषा
० संविधान के अनुच्छेद-343 , 344 के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी जिसे 15 वर्ष बाद अंग्रेजी के स्थान पर स्थानापन्न किया जाएगा परन्तु अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है तथा इस समयावधि को आगे बढ़ाया जाता रहा है।
भाषा व राजनीति
आज भाषा का प्रश्न राजनीति का प्रश्न है। भाषा के आधार पर राजनैतिक दलों व राजनीतिज्ञों ने जनता को उत्तेजित करने का प्रयास किया है। कभी- कभी तो ऐसा लगता है कि कहीं भाषा का सवाल हमारी राष्ट्रीय एकता को खण्डित तो नहीं कर देगा। भारत में भाषा और राजनीति निम्न प्रकार से आपस में जुड़ी हुई है।
1. हिन्दी विरोधी राजनीति – दक्षिण भारतीय राज्यों ने प्रारंभ से ही हिन्दी विरोध की राजनीति अपनाई है वहाँ पर तो भाषाई आधार पर क्षेत्रीय राजनीतिक दल जनाधार जुटाने में सफल होते है। D.M.K. का मुख्य ध्येय हिन्दी विरोध होता है। भाषा आयोग के बांग्ला व तमिल सदस्यों (डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और डॉ. पी सुब्बा नारायण) ने अपना मत इन शब्दों में व्यक्त किया – अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रस्थापित करने में जल्दी का परिणाम- हिन्दी भाषी जनता पर हिन्दी थोपना है। फलस्वरूप जन जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। (ध्यान दे कि D.M.K. अर्थात Dravida Munnetra Kazhagam एक राजनितिक पार्टी है जो मुख्य रूप से तमिलनाडु में हैं |)
2. भाषायी आधारों पर राज्यों का पुनर्गठन – स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात ही भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण की मांग जोर पकड़ने लगी। 1952 ई. में तेलगू नेता पोट्टी श्री राम्मलु की अनशन में मृत्यु के पश्चात यह मांग जोर पकड़ गई। राज्य पुनर्गठन आयोग के आधार पर 1960 ई. में मुम्बई से गुजरात व महाराष्ट्र बनें। 1966 में पंजाब से हरियाणा व पंजाब बने। आज भी पंजाब राजस्थान व हरियाणा में स्थित पंजाबी क्षैत्रो का विलय कर पंजाब का विस्तार चाहता है। और ये सभी विलय और विघटन भाषा के आधार पर करने का प्रयास किया जा रहा है तो अत्यंत चिंतित विषयों में से एक हैं |
3. भाषाई राज्यों में विवाद – भाषा के आधार पर राज्य पुनर्गठन से ही “चण्डीगढ़ के स्वामित्व की समस्या अस्तित्व में आई। भाषा के आधार पर ही कर्नाटक व महाराष्ट्र में बेलगाँव को लेकर विवाद है। 1961 की जनगणना के अनुसार यहाँ 51.2% मराठी है। अतः महाराष्ट्र अपना दावा करता है। असम में भी बंगाली व असमी को लेकर विवाद है।
4. भाषा के आधार पर उत्तर बनाम दक्षिण
उत्तर के प्रदेश
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड, पंजाब, हरियाणा (सभी हिन्दी भाषी)
दक्षिण (गैर हिन्दी) के प्रदेश
केरल, कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र (मलयालम, मराठी, कन्नड) तेलगु, मराठी
इस काल्पनिक भाषागत विभाजन ने भारत को दो विरोधी भागों में बांट दिया है। जो भारत के एकीकरण व अखण्डता में विराट समस्या व खतरे की तरह सदैव से उपस्थित रहा है। अर्थात भाषा के आधार पर यह विभाजन अत्यंत जटिल और मूल समस्याओं में से एक मानी जाती है |
5. भाषागत दबाव गुट – भारतीय राजनीति में भाषागत दबाव गुटों का उदय हुआ है उदाहरणार्थ भाषा के आधार पर महाराष्ट्रीयनों और गुजरातियों ने अपने संगठन संयुक्त महाराष्ट्र समिति व महागुजरात परिषद् थे जिन्होने राजनीति में दबाव गुटों की भूमिका निभाई। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के भाषा के आधार पर समूह बन रहे है जिससे इन समूहों का राजनितिक रूप से भी दबाव बढ़ता जा रहा है |
6. भाषा की मान्यता का प्रश्न-8 वीं अनुसूची में 14 से 22 भाषाएँ हो गई है अब भी समय-समय पर क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता का विवाद उठता/रहता है। राजस्थानी ब्रज छत्तीसगढ़ी आदि भाषाएं अपना-अपना दावा पेश करती रहती है।
7. उर्दू और चुनावी राजनीति-उर्दू को लेकर राजनीतिक दल समय-समय पर चुनावों में लाभ लेने का प्रयास करते रहे है। 1980 ई. कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में) उर्दू को सम्मान जनक स्थान देने की बात कर मुस्लिम अल्पसंख्यक Vote Bank को रिझाने का प्रयास किया। जनवरी 1980 ई. में चुनावों से पूर्व लोकदल Gov ने U.P. में उर्दू को तीसरा भाषा के रूप में स्कूलों में अध्ययन की अनिवार्य भाषा बना दिया Nov. -1989 के लोकसभा चुनावों में उर्दू को राज्य की दूसरी राजभाषा बनाये जाने के फैसले पर बदायु में दंगों में 2 दर्जन से अधिक लोगों की जाने गई।
8. भाषाई अल्पसंख्यकों की समस्या- भाषा के आधार पर राज्य पुनर्गठन के बाद भी उन राज्यों में भाषाई अल्पसंख्यकों की समस्या बनी हुई है जैसे – कर्नाटक में मराठी भाषा पंजाब में हिन्दी भाषी वहाँ भाषाई अल्पसंख्यक है। कटिक में बसे मलयालियों व तमिलों में अब असुरक्षा का भाव आ गया है।
9. भाषा व शिक्षा-70 वर्षों बाद भी हम भाषाई समस्या के कारण सर्वमान्य शिक्षा नीति नहीं बना पाये है। जब कोई सर्वमान्य सा फॉर्मूला आता है। तो वह भाषाई समस्या को लेकर वह भी असफल रहा। उत्तरी राज्यों ने तृतीय भाषा के रूप में दक्षिण की भाषाओं के स्थान पर संस्कृत को अपनाया जबकी दक्षिण में हिन्दी की अपेक्षा की गई।
10. भाषाई आन्दोलन- समय -समय पर भाषा विरोधी आन्दोलन चलते रहे है। उत्तर भारत में अंग्रेजी विरोधी तो दक्षिण भारत में D.M.K के नेतृत्व में हिन्दी विरोधी आन्दोलन, 1 दिसम्बर, 1967 में मद्रास में Students ने हिन्दी विरोधी आन्दोलन चलाए। 11. स्थानीयता की संकीर्ण भावना का उदय- भाषागत राजनीति के परिणाम स्वरूप धरती पुत्र अवधारणा” का उदय हुआ है अर्थात् प्रादेशिक भाषा बोलने वाले इस क्षेत्र विशेष में सरकारी व गैर सरकारी नौकरियों में नियुक्त किये गाएक महाराष्ट्र में शिवसेना ने इसी आधार पर दक्षिण भारतीयों को तंग किया है। निष्कर्ष – भाषा विषयक तनावों से भारतीय एकता को खतरा पहुंचा है। आज भाषा का राजनीतिक प्रयोग अल्पसंख्यक तुष्टिकरण हेतु व भाषायी कटुता ने भारतीय अखण्डता को चुनौती खड़ी कर दी। अतः हमें इन विकारों को मिदाकर राजभाषा के प्रश्न के प्रश्न को सुलझाना होगा। विविध राजनीतिक दलों, भाषाओं व क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का व्यापक आधार पर एक गोलमेज सम्मेलन बुलाकर शान्त वातावरण में भाषा भी समस्या का समाधान खोजा जाए। इस सम्बन्ध में निर्णय बहुमत के स्थान पर सर्वसम्मति से है। भारत की एकता, अखण्डता तथा शिक्षा के व्यवस्था के हितों के लिए भाषा की समस्या को राजनीति से प्रथक करना ही होगा।
समाधान हेतु सुझााव
1. हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने के लिए अहिन्दी भाषियों को इस ओर-सकारात्मक सोच तैयार करने के लिए प्रेरित किया जाए।
2. भाषा उग्रता से बचते हुए अहिन्दी भाषियों की कठिनाई की ओर भी हिन्दी भाषियों को ध्यान देना चाहिए।
3. प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाया जाए। इस हेतु प्रादेशिक भाषा का बढ़ावा दिया जाए।
4. वर्तमान वैश्वीकरण की जरूरतों के मुताबिक अंग्रेजी भाषा को भी पढाया जाना चाहिए।
5. त्रिभाषा सूत्र को निष्ठा के साथ लागू किया जाए। 6. शैक्षणिक, भ्रमण, व्याख्यान सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भारतीय भाषाओं में निकटता स्थापित की जाए।
7. भाषा को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम बनाने से रोका जाए।
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