rok country in hindi | आर.ओ.के. देश | दक्षिण कोरिया देश के बारे में जानकारी south korea information in hindi
south korea information in hindi rok country in hindi | आर.ओ.के. देश | दक्षिण कोरिया देश के बारे में जानकारी दीजिये , कोरिया की विदेश निति क्या है ? अन्य देशो के साथ सम्बन्ध कैसे है ? कौनसा देश है फुल फॉर्म क्या है ?
विदेश नीति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
दक्षिण आर.ओ.के. तथा उत्तर डी.पी.आर.के. की विदेश नीति
विदेश नीति के निर्धारक तत्व
विदेश नीति का विकास
विदेश सम्बन्ध: कोरिया का गणतंत्र-कोरिया (आर ओ.के.)
आर.ओ.के. तथा संयुक्त राज्य अमरीका के सम्बन्ध
आर.ओ.के. तथा जापान के सम्बन्ध
दक्षिण कोरिया तथा दूसरे राष्ट्र
विदेश सम्बन्ध: कोरिया का जनवादी प्रजातंत्रात्मक गणतंत्र (डी.पी.आर.के. – उत्तर कोरिया)
डी.पी.आर.के. तथा चीन के सम्बन्ध
डी.पी.आर.के. तथा भूतपूर्व सोवियत संघ के सम्बन्ध
डी.पी.आर.के. तथा जापान के सम्बन्ध
डी.पी.आर.के. तथा संयुक्त राष्ट्र अमरीका के सम्बन्ध
डी.पी.आर.के. तथा दूसरे देश के सम्बन्ध
उत्तर-दक्षिण कोरिया सम्बन्ध
परमाणु अप्रसार संधि की समस्या
भारत-कोरिया सम्बन्ध
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई में दक्षिण (आर.ओ.के.) तथा उत्तरी (डी.पी.आर.के.) कोरिया की विदेश नीति का वर्णन है । इस इकाई को पढ़ने के बाद आप निम्न बातें जान सकेंगे ।
ऽ आर.ओ.के. तथा डी.पी.आर.के. विदेश नीति के निर्धारक तत्वों को पहचान सकेंगे।
ऽ दोनों देशों की विदेश नीति के विकास को समझ सकेंगे ।
ऽ विश्व के अन्य देशों के साथ इन दोनों राज्यों के सम्बन्ध को समझ सकेंगे ।
ऽ भारत तथा कोरिया के बीच ऐतिहासिक सम्बन्धों को समझ सकेंगे ।
ऽ परमाणु (अप्रसार संधि) समस्या का विश्लेषण कर सकेंगे ।
प्रस्तावना
कोरिया पूर्व एशिया का एक पुराना देश है । 19वीं सदी के उत्तरार्ध से इस देश में पश्चिमी शक्तियों की उपस्थिति को महसूस किया जाने लगा । पश्चिमी शक्तियों की मौजूदगी ने कोरिया को अपना उपनिवेश बनाने के लिए जापान को उकसाया । इस प्रायद्वीप से जापान की वापसी के तुरंत बाद इस पर संयुक्त राज्य अमरीका तथा भूतपूर्व सोवियत संघ का कब्जा हो गया । इस तरह कोरिया महाशक्तियों के बीच शत्रुता का शिकार हो गया । इस भूमि पर बड़े पैमाने पर एक लड़ाई लड़ी गई तथा इस लड़ाई के अन्त में कोरिया का औपचारिक बंटवारा हो गया । दक्षिण तथा उत्तरी कोरिया की विदेश नीति को इन बातों ने प्रभावित किया ।
दक्षिण आर.ओ.के. तथा उत्तरी डी.पी.आर.के. की विदेश नीति
किसी भी देश की विदेश नीति घरेलु तथा विदेशी कारकों की मिश्रित प्रतिक्रिया में है । किसी भी देश की विदेश नीति तीन स्तरों पर कार्य करती है। विश्व, क्षेत्रीय तथा द्विषः किसी भी देश की विदेश नीति जहां पर वह देश स्थित हैं वहां की भू-राजनीतिक जरूरतें के लिए इसके संघर्ष, इसकी घरेलू जरूरतों, आर्थिक विकास के प्रयास तथा किसी विचारधारा प्रति इसकी प्रतिबद्धता का ठोस परिणाम होती है ।
निर्धारक तत्व
कोरिया से जापान के निकलते ही उस पर संयुक्त राज्य अमरीका तथा भूतपूर्व सावियते संघ का कब्जा हो गया । विदेशी शक्तियों के कब्जे की परिणति दो क्षेत्रों में इस प्रायद्वीप, बंटवारे में हुई: वह क्षेत्र जो 38वीं सामानान्तर के उत्तर था उत्तर कोरिया कहलाया 38वीं समानान्तर के दक्षिण का क्षेत्र दक्षिण कोरिया बना। जहां उत्तरी कोरिया पर भूतपूर्व वियत संघ का नियंत्रण था, वहां दक्षिण कोरिया पर संयुक्त राज्य अमरीका का नियंत्रण था । संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य सत्रों ने इन दोनों भागों को इकट्ठा करने के कई उपाय सुझाये परन्तु इनमें से कोई भी उपाय सभी सम्बद्ध पक्षों को मंजूर नहीं हुआ । अन्ततः 1950 में युद्ध का आरंभ हुआ । इस युद्ध में दक्षिण कोरिया को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा खड़ी की गई सोलह देशों की सेना, जिसका नेतृत्व अमरीका के हाथ में था, का समर्थन प्राप्त था । उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ तथा चीनी जनवादी गणराज्य का समर्थन मिला । जान माल की भारी हानि में युद्ध का अन्त हुआ तथा विभाजन की औपचारिकता पूरी हुई । दक्षिणी कोरिया पश्चिमी खेमें में रहा जबकि उत्तरी कोरिया एक समाजवादी राज्य में विकसित हुआ । दो भिन्न प्रकार की शासन तथा आर्थिक व्यवस्था का आरंभ दोनों राज्यों में हुआ । दोनों देशों की विदेश नीतियों पर विभाजन तथा अलग-अलग प्रकार की व्यवस्थाओं का प्रभाव भी पड़ा है । जहां दक्षिण कोरिया ने पश्चिमी खेमें के साथ घनिष्ट सम्बन्ध बनाने की कोशिश की है वहीं उत्तरी कोरिया ने चीन तथा भूतपूर्व समाजवादी राष्ट्रों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये हैं ।
दक्षिण कोरिया की उत्तर कोरिया के अतिरिक्त और किसी राज्य से प्रादेशिक सीमा नहीं है । इस प्रायद्वीप के बाहर इसका निकटतम पड़ोसी जापान है। यह भी सामरिक रूप से स्थित है । दक्षिण कोरिया के रास्ते चीन पहुंचना आसान है। इसकी ऐसी भौगोलिक स्थिति ने अमरीका की प्रधानता वाले पश्चिमी खेमें में दक्षिण कोरिया की अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने की इच्छा उत्पन्न की । कोरियाई प्रायद्वीप के देशों को विरासत में एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था मिली । ये देश आवश्यक वस्तुओं की कमी से आक्रान्त थे । जबकि संयुक्त राष्ट्र अभिकरण तथा अमरीका ने दक्षिण कोरिया को आसन्न आर्थिक संकट से उबरने में मदद की । उत्तरी कोरिया को समाजवादी खेमें से समर्थन मिला । दक्षिण कोरिया आरंभ से ही रूढिवादी तथा दक्षिण पंथी राजनीतिक नेताओं का गढ़ रहा है । राष्ट्रपति डा. सींगमन रही अमरीका द्वारा शिक्षित राजनीतिज्ञ थे । उनके बाद सेना ने सत्ता संभाली । यह सेना अमरीकी सहयोग से खड़ी की गई थी । यहां का उत्तरोत्तर नेतृत्व समाजवाद के भय से आक्रान्त था। इसी कारण से यहां के नेताओं को अमरीका तथा पश्चिमी खेमें के साथ मजबूत सम्बन्ध बनाने में हिचक नहीं हुई । दक्षिण पंथी नेतृत्व ने संयुक्त राष्ट्र अभिकरणों तथा अमरीका द्वारा निर्धारित विकास रणनीति को चुना । इस तरह इस देश को पश्चिम समर्थक विदेश नीति का अनुसरण करना पडा ।
उत्तरी कोरिया पर हमेशा ही साम्यवादियों तथा राष्ट्रवादियों का प्रभाव रहा है । इन लोगों ने समाजवादी खेमें तथा गुट-निरपेक्ष राष्ट्र समूह के देशों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये । उत्तरी कोरिया के नेतृत्व ने विकास का ऐसा रास्ता चुना जिसके लिए उसे मुख्यतः समाजवादी देशों से सहायता तथा मदद लेनी पडी। समाजवादी खेमें के विघटन के पश्चात यह राष्ट्र अलग-थलग पड़ गया । अब धीरे-धीरे यह अपने अलगाव से बाहर निकल रहा है । परमाणु अप्रसार संधि के मामले ने इस बात को स्थापित कर दिया कि उत्तर कोरिया अब अलग-थलग नहीं है ।
विदेश नीतियों का विकास
इन दोनों देशों आर.ओ.के. तथा डी.पी.आर. के की विदेश नीति का विकास
सामान्यीकरण तक फैला हुआ था । दूसरा चरण चीन तथा अमरीका के बीच सामान्य सम्बन्ध स्थापित होने से लेकर शीत युद्ध की समाप्ति (सोवियत संघ के विघटन) तक फैला था । तीसरा चरण शीत युद्ध के बाद का समय है । प्रथम चरण में दक्षिण कोरिया (आर.ओ.के.) पश्चिमी खेमें तथा जापान के साथ ही कूटनीतिक, आर्थिक तथा दूसरे सम्बन्ध रख रहा था तथा उत्तर कोरिया (डी.पी.आर.के.) समाजवादी खेमें तक ही सीमित था । चीन तथा अमरीका के बीच सम्बन्धों की सामान्यीकरण तथा कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना ने डी.पी.आर.के. तथा आर.ओ.के. दोनों की विदेश नीतियों में गुणात्मक परिर्वतन लाये । डी.पी.आर.के. जहां गुटनिरपेक्ष आंदोलन में मित्र ढंूढ रहा था तथा समाजवादी खेमें के देशों से संबंध बनाने का आरंभ कर रहा था वहीं आर.ओ.के. चीन सोवियत संघ के खेमें के बाहर के देशों से सम्बन्ध बनाने का प्रयास कर रहा था । शीत युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व मंच पर दूसरे प्रकार के विकास का आरंभ किया । अब अमरीका अकेली महाशक्ति के रूप में उभरा है । भूतपूर्व समाजवादी खेमा विखंडित हो गया है। अपने गहन आर्थिक संकट तथा राजनीतिक अस्थिरता से रूस अब महाशक्ति नहीं रह गया है । इस तरह से इस महाद्वीप से महाशक्तियों की शत्रुता समाप्त हो गई । दक्षिण कोरिया चीन तथा रूसके प्रयासों के बावजूद उत्तरी कोरिया अमरीका तथा जापान के साथ मित्रवत होने में असमर्थ रहा है। चीन विश्व की महाशक्तियों में एक है बिना इसकी सहमति के कोरियाई महाद्वीप में कोई महत्वपूर्ण फैसला नहीं किया जा सकता है। परिणामतः हाल में जब यह प्रायद्वीप परमाणु अप्रसार संधि की समस्या को लेकर युद्ध की कगार पर पहुंच गया था, किसी कठोर कदम उठाये जाने से चीन के विरोध ने अमरीका तथा इसके मित्र राष्ट्रों को रोक दिया । शायद यह प्रायद्वीप एक और विध्वंस से बच गया है ।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये गये स्थान का अपने उत्तर के लिए प्रयोग करें ।
2) इस इकाई के अन्त में दिये गये उत्तर से अपने उत्तर की जांच करें ।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) कोरिया युद्ध
2) कोरिया प्रायद्वीप में विश्व शक्तियों का उलझाव,
3) आर्थिक पिछड़ापन
4) भौगोलिक स्थिति
5) राजनैतिक नेताओं का दृष्टिकोण
आर.ओ.के. (दक्षिण कोरिया की) के विदेश सम्बन्ध
कोरिया के युद्ध ने आर.ओ.के. विदेश सम्बन्धों के भविष्य को प्रभावित किया । यह देश पश्चिमी खेमें से लम्बे समय के लिए बंध गया । अमरीका-चीन के सम्बन्ध का सामान्यीकरण तथा शीत युद्ध की समाप्ति ने आर.ओ.के. की विदेश नीति तथा सम्बन्धों में नये तत्वों का समावेश किया ।
आर.ओ.के. तथा अमरीका से सम्बन्ध
आर.ओ.के. तथा अमरीका सम्बन्ध दो स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्रों के सम्बन्ध से बिल्कुल मिलता है। अमरीका की सेना ने द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त में दक्षिण कोरिया पर कब्जा कर लिया । तब से अमरीका का एक बड़ा सैनिक दस्ता दक्षिण कोरिया में तैनात रहा है । दक्षिण कोरिया अपनी सुरक्षा के लिए मूलतः अमरीका पर निर्भर है। 1945 में इस क्षेत्र पर कब्जा करने के बाद अमरीका इस क्षेत्र के राजनीतिक आर्थिक विकास में गहराई से उलझ गया है । 1948 में स्थापित सबसे पहली सरकार सींगमन रही की, अमरीका शिक्षित रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ की अध्यक्षता में बनी । दक्षिण कोरिया की सेना अमरीका द्वारा खडी की गई। इसको अमरीका ने ही शिक्षित किया तथा अमरीकी शस्त्रों से सुसज्जित किया । इस तरह सेना पर स्पष्ट अमरीकी प्रभाव है, अमरीका
प्रभावित किया तथा आर्थिक विकास में सहायता दी । उत्तरोतर सरकारों द्वारा विकास ने निर्यात उन्मुख विकास नीति को अपनाया । दक्षिण कोरिया बाजार के प्रधानता के लिए अमरीका तथा उसके मित्र राष्ट्रों पर निर्भर था ।
जब तक ऐसी स्थिति है तब तक दोनों देशों के बीच तनाव के अवसर बहुत कम हैं । वैसे तो दक्षिण कोरिया में अमरीका विरोधी प्रदर्शन नियमित रूप से होते रहे हैं फिर भी दोनों देशों के बीच बिना तनाव का सम्बन्ध रहा है । आर.ओ.के. में समय-समय पर हुए लोकप्रिय असंतोष तथा विरोध आंदोलनों ने देश को हिला दिया । विरोध करने वालों ने कोरिया से अमरीका सेना की वापसी की मांग की । साथ-साथ कोरिया के एकीकरण तथा समतावादी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण की मांग की । इन आंदोलनों को हिंसक रूप से दबा दिया गया । अमरीका के मानव अधिकार आंदोलनकारी तथा प्रजातांत्रिक ताकतों ने आर.ओ.के. में जन आंदोलनों के दबाये जाने का विरोध किया । आंदोलनकारियों ने इस दमन को मानव अधिकारों का निषेध माना । 1973 में जब आर.ओ.के. के एक विपक्षी नेता कीम-डे-जूग को तथाकथित सरकार समर्थक ताकतों ने अपहृत कर लिया तो अमरीका के विरुद्ध जनविरोध पराकाष्ठा पर पहुंच गया । आर.ओ.के. के अमरीका सम्बन्ध निम्नतम बिन्दु पर पहुंच गये । अमरीकी राष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड ने आर.ओ.के. की यात्रा की तथा आर.ओ.के. के नेतृत्व को अमरीकी समर्थन का पुर्नआश्वासन दिया । 1976 में कार्टर के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका दक्षिण कोरिया सम्बन्ध पुनः तनावयुक्त हो गये । अपनी सारी थल सेना को वापस बुलाने का अमरीकी निर्णय, तथा अमरीका मे कोरियाई राजदूत का चावल विक्रयकर्ता के रूप में काम करने वाले कोड़ ने सम्बन्धों को दूषित कर दिया । अमरीका में कोरिया विरोधी आंदोलन ने जोर पकड़ लिया । चीन तथा अमरीका के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध की स्थापना से यह तनाव और बढ़ गया । इसी तरह अमरीकी टेनिस दल का उत्तरी कोरिया में खेल प्रतियोगिता में भाग न लेना भी इस तनाव को बढाने में सहयोगी रहा । यह तनाव कार्टर की दक्षिण कोरिया यात्रा तथा सेना की वापसी के निलंबन से आंशिक रूप से कम हो गया । इसके बावजूद दक्षिण कोरिया में मानव अधिकारों के दमन की निंदा अमरीका में होती रही । 1985 में जब कोरिया आये अमेरीकी नागरिकों को कोरिया के हवाई अड्डे पर सुरक्षा बलों द्वारा पीटा गया तो पुनः मतभेद उभरे । 1980 के वर्षों में स्वतंत्र प्रजातंत्र की पुर्नस्थापना के पश्चात अमरीका दक्षिण कोरिया सम्बन्ध पुनः स्थापित हो गये ।
इन वर्षों में इन दो देशों के बीच आर्थिक सम्बन्धों का विकास हुआ । 1980 के वर्षों में आर. ओ.के. विश्व में अमरीका का सातवां बड़ा व्यापारी हिस्सेदार बन गया । आर.ओ.के. का 40 प्रतिशत से अधिक निर्यात अमरीका को होता है जबकि अमरीका का 20 प्रतिशत निर्यात दक्षिण कोरिया से आता है ।
दक्षिण कोरिया अमरीका को निर्यात अधिक तथा उससे आयात कम करता है अतः अमरीका का कोरिया से व्यापार घाटा बना रहा है। अब अमरीका निर्यात के लिए अमरीका दक्षिण कोरिया पर दबाव डाल रहा है । अमरीका आर्थिक पाबन्दियों की धमकी भी देता है । प्रतिबंधों से बचने के लिए दक्षिण कोरिया ने जापान सरीखें देशों से आयात बढ़ाया है । अब दक्षिण कोरिया अमरीका से करीब 100 ऐसी चीजें मंगाता है जो वह पहले दूसरे देशों से मंगाता था । कोरियाई बाजार अमरीका सामानों की प्रतिस्पर्धा बढाने के लिए कोरियाई सिक्के की मूल्य वृद्धि की गई । प्रतिरक्षा क्षेत्र में भी दोनों देशों में काफी सहयोग रहा है।
अमरीका तथा दक्षिण कोरिया ‘‘टीम स्प्रीट’’ नामक नौसैनिक अभ्यास कोरियाई प्रायद्वीप में हर वर्ष करते हैं। 1992 में कोरियाई लोगों के विरोध के कारण ‘‘टीम स्प्रीट’’ अभ्यासों को निलंबित कर दिया गया । उत्तरी कोरिया के विरोधों के बीच 1993 में इस अभ्यास को पुनः शुरू किया गया। सैनिकों की एक बहुत बड़ी संख्या को दक्षिण कोरिया में स्थाई रूप से रखा गया है । अमरीका ने दक्षिण कोरिया में परमाणु अस्त्र भी रखे थे, परंतु 1992 में अमरीका ने घोषणा की कि परमाणु शस्त्रों को दक्षिण कोरिया से हटा लिया गया हैं ।
इस क्षेत्र में परमाणु अप्रसार संधि को लेकर बढ़े तनाव के कारण अमरीका आर.ओ.के. में अपनी सैन्य उपस्थिति को पुनः दृढ कर रहा है । हाल में (अप्रैल 1994) दो अमेरीकी सैन्य परिवहन आर.ओ.के. के दक्षिणी शहर पूसन बन्दरगाह पर पहुंचे । इन जहाजों पर प्रक्षेपास्त्रभेदी पैट्रीयट तोपखाना है। एक अनुमान के अनुसार तीन पैट्रीयट तोपखाना 24 प्रक्षेपकों के साथ पहुंच चुका है । 84 स्टींगर प्रक्षेपास्त्र भी पहुंच चुके हैं । अमरीकी स्रोतों ने दावा किया है कि दक्षिण कोरिया को ये सामग्री इसलिए भेजनी पड़ी कि दक्षिण कोरिया को उत्तरी कोरिया के राकेट हमलों से रक्षा करनी थी । दक्षिण कोरिया के लोग अमरीकी तर्क से सहमत नहीं थे । प्रक्षेपास्त्रों की खेप भेजे जाने का विस्तृत विरोध हुआ । परिणामतः सरकार ने सैनिकों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी विर, को रोकने के लिए नियुक्त की । 18 मार्च 1994 को विभिन्न शहरों में एकत्रित छात्र पुलिस से टकराये। ये लोग अमरीका के सुरक्षा सचिव वीलियम पेरी की दक्षिण कोरिया अफ्रीका यात्रा का विरोध कर रहे थे। छात्रों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को अश्रु गैस छोड़नी पड़ी । 19 मार्च को पेरी दक्षिण कोरियाई अधिकारियों से सैनिक तैयारी के सम्बन्ध में तीन दिन की बातचीत के लिए आने वाले थे। इस समय उत्तर कोरिया की परमाणु योजना को लेकर बहुत अधिक तनाव बना हुआ था। छात्रों का मत था कि पेरी की यात्रा तथा पैट्रीयट प्रक्षेपास्त्रभेदी तोपखाने का लगाया जाना डी.पी.आर.के. युद्ध के लिए उकसायेगा । उनका कहना था कि दक्षिण कोरिया में पहले से ही 36,000 अमरीकी सैनिक मौजूद हैं । इससे इस प्रायद्वीप में तनाव में वृद्धि होगी ।
आर.ओ.के. के जापान से सम्बन्ध
जापान ने कोरिया पर अपने उपनिवेश की तरह चार दशक तक शासन किया । जापान की वापसी के समय यह एक कटु विरासत थी जिसने दोनों देशों के सम्बन्धों के भविष्य को प्रभावित किया । अमरीकी हस्तक्षेप ने इस क्षेत्र में तनाव को कम किया तथा आर.ओ.के. और जापान के बीच सम्बन्धों के सामान्यीकरण में मदद की । परन्तु सम्बन्धों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया बहुत समय तक धीमी थी । इसका कारण समय-समय पर मतभेदों का उभरना था । 1980 के वर्षों में जापान में एक इतिहास की पुस्तक प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में जापान तथा कोरिया सम्बन्ध के अतीत के सम्बन्ध में बहुत हानिकारक तथा विकृत करने वाली बातें थी । आर.ओ.के. ने जापान से एक ऋण की मांग की थी। जापान द्वारा इन्कार करने से इस पुस्तक के प्रकाशन से उत्पन्न चिड़चिड़ाहट को और बढ़ाया । यह चिडचिडापन उस पुस्तक को वापस कर लिये जाने तथा बाद में 1988 में जापानी प्रधानमंत्री की दक्षिण कोरिया यात्रा से कम हुआ । 1984 में चून जो आर.ओ.के. के राष्ट्रपति थे जापान यात्रा पर गये । 40 वर्षों में कोरिया के किसी उच्च अधिकारी द्वारा यह पहली जापान यात्रा थीं । इस यात्रा में राजा हिरोहितो सहित कई जापानी नेताओं ने अतीत में कोरिया पर औपनिवेशिक शासन के लिए पश्चाताप व्यक्त किया । 1990 में आर.ओ.के. राष्ट्रपति शंह-टे-वु ने जापान की सरकारी यात्रा की । इस तरह से दोनों देशों के बीच यात्राओं का सिलसिला आरंभ हुआ जिससे परस्पर सम्बन्धों में स्पष्ट सुधार हुआ ।
वर्तमान में जापान आर.ओ.के. का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है तथा ये दोनों मजबूत आर्थिक सूत्र में बंधे हैं । दोनों के बीच वार्षिक व्यापार 31 करोड़ अमेरीकी डालर से अधिक का है । कच्चे माल के आयात के लिए दक्षिण कोरिया प्रधानतः जापान पर निर्भर है जिससे जापान के निर्यात की वस्तुएं बनायी जाती हैं ।
दक्षिण कोरिया तथा दूसरे देश
विश्व के अधिकांश स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ दक्षिण कोरिया का कूटनीतिक सम्बन्ध है । परन्तु अमरीका तथा जापान के अतिरिक्त इसके प्रमुख व्यापारिक साझेदार जर्मनी, आस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, कैनाडा, फ्रॉस, इटली, मलेशिया, साउदी अरबीया, ओमान, ताइवान, संयुक्त अरब एमिरेट, इंग्लैंण्ड, सिंगापुर तथा होंगकांग हैं ।
बहुत से देशों के साथ दक्षिण कोरिया का व्यापार संतुलन प्रतिकूल है । परन्तु अमरीका, इंग्लैंड, जापान, सिंगापुर तथा कुछ अन्य देशों के साथ बहुत ही अनुकूल व्यापार संतुलन है । दक्षिण कोरिया के व्यापार में हाल के वर्षों में कई गुणा वृद्धि हुई है । दक्षिण कोरिया के समग्र व्यापार का प्रायः 50 प्रतिशत केवल अमरीका तथा जापान के साथ होता है ।
पश्चिमी खेमें के देशों ने कोरियाई युद्ध में दक्षिण कोरिया का समर्थन किया । तब से इन देशों के साथ दक्षिण कोरिया के राजनीतिक सम्बन्ध और भी मजबूत हुए।
तीन वर्ष तक चले कोरियाई युद्ध में भूतपूर्व समाजवादी देश तथा चीन ने उत्तर कोरिया को समर्थन दिया। तब से वर्षों तक इन देशों के साथ दक्षिण कोरिया का सम्बन्ध ठंडा पड़ गया था। 1980 के दशक के अन्तिम वर्षों में ही सम्बन्ध सुधरना आरंभ हुआ । प्रजातांत्रिक ढंग से चनी गई रोह-ताओ-व की सरकार के आरंभ से सम्बन्ध सुधरने प्रारंभ हो गये । 1988 में दक्षिण कोरिया ने रूस तथा चीन के साथ अपने व्यापार का विस्तार किया । 1990 में दक्षिण कोरिया तथा पूर्व यूरोपीय देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना हुई। रूस तथा दक्षिण कोरिया के बीच पूर्ण कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना के पश्चात सम्बन्धों को और अधिक सामान्य करने तथा व्यापार बढ़ाने के लिए दोनों देशों के बीच कई उच्च स्तरीय बैठकें हुई । चीन तथा आर.ओ.के. के साथ पूर्ण कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना अगस्त 1992 में हुई । कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना के पश्चात रूस इस प्रायद्वीप. के दोनों भागों के बीच सम्बन्ध सामान्य करने के लिए प्रयास करता रहा है । परमाणु अप्रसार संधि की समस्या को लेकर इस क्षेत्र में बढ़ते हुए तनाव के कारण दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति किमयंग चीन पहुंचे । वे चीन के सभी प्रमुख नेताओं से मिले तथा परमाणु अप्रसार संधि को लेकर उत्तर दक्षिण कोरिया के बीच उलझन में हस्तक्षेप कर उसके समाधान करने का आग्रह किया । इस यात्रा के दरम्यान चीन तथा दक्षिण कोरिया आर्थिक सम्बन्धों के विस्तार करने पर सहमत हुए । कार के कलपुर्जे, हवाई जहाज तथा कुछ अन्य चीजें बनाने के लिए योजनायें बनायी गई ।
अगस्त 1992 में कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना के पश्चात चीन में दक्षिण कोरिया से व्यापार तथा चीन में पूंजी निवेश में काफी वृद्धि हुई है । अमरीका तथा जापान के पश्चात चीन दक्षिण: कोरिया के निर्यात का सबसे बड़ा बाजार बन गया है ।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये हुए स्थान को अपने उत्तर के लिए उपयोग करें ।।
2) इकाई के अन्त में दिये गये उत्तरों से अपने उत्तर की जांच करें ।
1) आर.ओ.के. तथा अमरीका के सम्बन्धों की चर्चा करें ।
2) दक्षिण कोरिया तथा जापान के बीच बढ़ते सम्बन्धों का विश्लेषण करें ।
3) चीन तथा दक्षिण कोरिया एक दूसरे के पास कैसे आये ? इन देशों के सम्बन्धों में आगे
विस्तार की कोई संभावना आपको लगती है ?
बोध प्रश्न: 2 उत्तर
1) 1) गौण सम्बन्ध
2) आर. ओ. के में जन आन्दोलनों के दबाय जाने से मधुर सम्बन्धों में अस्थाई चिड़चिड़ाहट आयी।
3) मजबूत व्यापार तथा आर्थिक सम्बन्ध
4) कोरिया के लिए व्यापार संतुलन हमेशा फायदेमन्द रहा है।
5) दक्षिण कोरिया में अमरीकी सैनिक अड्डा है।
6) अमरीका की सैनिक उपस्थिति का जनता ने विरोध किया है ।
2) 1) औपनिवेशिक विरासत के कारण आरम्भ में मनमुटाव था।
2) इस क्षेत्र में अमरीका के हस्तक्षेप ने जापान-आर. ओ. के. सम्बन्ध को सामान्य करने में सहायता पहुँचायी
3) जापान के व्यापारिक तथा आर्थिक सम्बन्ध मजबूत हैं।
3) 1) अमरीका-चीन सम्बन्ध के सामान्यीकरण से चीन के प्रति दक्षिण कोरिया का रुख बदल गया।
2) चीन को अपनी अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा उदारीकरण के लिए दक्षिण कोरिया की आर्थिक समृद्वि उपयोगी लगी।
उत्तर-दक्षिण कोरिया संबंध
कोरिया के विभाजन को उस प्रायद्वीप के लोगों का बहुत कम समर्थन प्राप्त था। इसके परिणामस्वरूप पुर्नएकीकरण की मांग जनता द्वारा बार-बार उठाई गई। उत्तर कोरिया की सरकार ने विभाजन को स्वीकार नहीं किया। इसने कभी-कभी पुनएकीकरण के पक्ष में जनमत को सुस्पष्ट किया। उत्तर दक्षिण सम्बन्ध पर पुनएकीकरण की समस्या छायी रही। विभाजन की औपचारिकता पूरी होने के बाद दोनों कोरिया जिसमें एक ही कोरियावासी रहते थे में दो दशक तक कोई औपचारिक सम्बन्ध नहीं था । दक्षिण कोरिया में भीषण जन आंदोलन ने आर.ओ.के. को डी.पी.आर.के. के साथ वार्ता करने के लिए बाध्य कर दिया। दोनों देशों का रेड काल समाज 1971 में मिला। यह सबसे पहली उत्तर दक्षिण बैठक थी। यह बैठक कई दिनों तक चली। 1972 में दोनों देशों ने साझा वक्तव्य जारी किया। इससे पुर्नएकीकरण के प्रस्ताव की स्पष्ट पुष्टि हुई । इसके द्वारा पुर्नएकीकरण को शांतिपूर्ण तरीके से प्राप्त करने के निश्चय को व्यक्त किया गया। इसमें एक दूसरे के विरूद्ध राजनीतिक मुहिम को निलंबित करने पर सहमति व्यक्त की गई। इसके बाद कुछ दिनों तक पुनएकीकरण की बातचीत जारी रही। परन्तु बिना किसी स्पष्ट कारणों के 1973 में इसे निलंबित कर दिया गया। वार्ता के निलंबन के फलस्वरूप दोनों भागों के बीच सम्बन्ध पुनः खराब हो गये। एकीकरण की मुहिम को पुनः जीवित किया गया। 1974 में उत्तर दक्षिण नौसैनिक मुठभेड़ बार-बार होती रही। 1978 में दक्षिण कोरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारी ने डी.पी.आर.के. पर आरोप लगाया कि उसने 1953 के युद्ध विराम का उल्लंघन किया है। डी.पी.आर,के. ने भी पुर्नएकीकरण के समर्थन में प्रचार करना आरंभ किया तथा जरूरत पढ़ने पर बल प्रयोग से इन्कार नहीं किया। इसने संयुक्त राज्य अमरीका पर कोरिया वासियों के खिलाफ षडयंत्र करने का आरोप लगाया। डी.पी.आर.के. ने कहा कि कोरिया की भूमि पर अमरीका की उपस्थिति पुनएकीकरण में सबसे बड़ी बाधा है। 1980 के दशक के मध्य में स्थिति बदली। डी.पी.आर.के. ने एक त्री-पक्षिय बैठक का प्रस्ताव रखा जिसमें अमरीका, आर.ओ.के. तथा डी.पी.आर.के. शामिल हों । इससे आर.ओ.के. के प्रति इसकी धारणा में परिवर्तन हआ तथा इसने दक्षिण कोरिया में आई भयानक बाढ़ के शिकार लोगों के लिए सहायता के लिए सामग्री भेजी। 1984 में आर्थिक सम्बन्ध के आरंभ के लिए समझौते की शुरुआत हुई। समझौता जारी रहा परंतु बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गया। 1986 के मध्य में डी.पी.आर.के. इन समझौतों से बाहर हो गया। ऐसा उसने अमरीका तथा दक्षिण कोरिया के वार्षिक सैनिक अभ्यास टीम-स्प्रीट के विरोध में किया। डी.पी.आर.के. ने इसका विरोध 1976 में इसके आरंभ से किया था। सम्बन्ध तनावग्रस्त हो गये। आर.ओ.के. ने कीगांग पर्वत पर एक बांध के निर्माण का विरोध किया। उसका कहना था कि जमा किए हुए पानी को दक्षिण कोरिया में बाढ़ लाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। तथापि बाद के वर्षों में बहत हद तक सम्बन्ध सामान्य हो गया । सिर्फ कभी-कभी आर.ओ.के. के अन्दर तोड़ फोड़ के कार्य में डी.पी.आर.के. के शामिल होने के आरोप कभी-कभी लगते थे । 1990 के दशक के आरंभ में सम्बन्धों में पर्याप्त सुधार हुए थे। इसके परिणाम स्वरूप 1991 के सितम्बर में दोनों कोरिया को अलग-अलग संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता दे दी गई।
1991 में उच्च स्तरीय वार्ता के कई दौर चले। इसके पांचवे दौर के अन्त में सामंजस्य अनाक्रमण तथा सहयोग के समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। यह समझौता उत्तर-दक्षिण कोरिया के बीच सम्बन्ध में एक युगान्तकारी घटना है। दोनों राज्य एक दूसरे के विरूद्ध मुहिम न चलाने, आर्थिक तथा एक दूसरे के फायदे वाले सम्बन्ध को बढ़ावा देने, परिवार के अलग हुए सदस्यों को मिलने देने तथा प्रायद्वीप में शान्ति तथा अमन चैन के लिए काम करने पर सहमत हुए। 1988 में उत्तर तथा दक्षिण कोरिया के बीच व्यापार सम्बन्ध का आरम्भ हुआ। 1991 में यह श्व्यापार 192 करोड़ अमरीकी डालर का था। 1992 में यह बढ़ कर 220 करोड़ का हो गया। व्यापार के आरम्भ से उत्तर कोरिया को फायदा हुआ है। दक्षिण कोरिया को इसका समग्र निर्यात इसके समग्र आयात से अधिक है। उत्तर कोरिया का निर्यात 166 करोड़ डालर है जबकि इसका आयात सिर्फ 26 करोड़ डालर का है। तथापि प्रमाण अप्रसार संघ की समस्या, तथा टीम-स्प्रीट सैनिक अभ्यासों के प्रस्तावित पुनरिम्भ के कारण सम्बन्ध पुनः बिगड़ गये।
बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिए गये स्थान को अपने उत्तर के लिए प्रयोग करें ।
2) इकाई के अन्त में दिए उत्तरों से अपने उत्तर की जांच करें ।
1) दोनो भागों के बीच सम्बन्धों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया का विश्लेषण करें ।
बोध प्रश्न 4 उत्तर
1) 1) दोनों देशों के लोग पुनएकीकरण चाहते हैं। दक्षिण कोरिया में अक्सर ही लोग पुनएकीकरण की माँग करते हुए विद्रोह कर उठते हैं।
2) 1972 में सरकारी कदम उठाये गये।
3) यदि अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं होता तो उत्तर दक्षिण कोरिया सम्बन्ध मधुर रहे होते ।
बोध प्रश्न 5
1) उत्तर कोरिया एन. पी. टी. हस्ताक्षर कर्ता है । परन्तु ‘‘टीम-स्प्रीट’’ सैनिक अभ्यासों तथा दक्षिण कोरिया अमरीका की विशाल सैनिक उपस्थित से उत्तर कोरिया भयभीत महसूस करता है । परिमाणामतः उत्तर कोरिया ने एन. पी. टी से हटने की धमकी दी है।
परमाणु अप्रसार संधि की समस्या
डी.पी.आर.के. ने मार्च 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को अधिसूचित किया है चूंकि इसका हित खतरे में है तथा देश की सुरक्षा अमरीका आर.ओ.के. 1,20,000 सैनिकों के साझा सैनिक अभ्यासों से खतरे में है। इसलिए यह प्रमाणु अप्रसार संधि से हट जायेगा। इस संधि में ऐसे प्रावधान हैं जिसके अनुसार यदि कोई राष्ट्र जो हस्ताक्षरकर्ता है खतरा महसूस करने पर इस संधि से बाहर निकल सकता है। जापानी अमरीकी तथा पश्चिमी स्रोतों ने दावा किया है कि डी. पी.आर.के. ने गुप्त रूप से बहुत से प्रमाणु बम बनाने की तकनीक विकसित कर ली है । अंतर्राष्ट्रीय आणविक उर्जा प्राधिकार जो कि प्रमाणु अप्रसार संधि को मानीटर करता है, जापान तथा अमरीका के दवाब में आकर आरोप लगाया कि डी.पी.आर.के. के पास गुप्त प्रमाणु ठिकाने हैं। आइ.ए.इ.ए. ने इसे एक विषय बना लिया है तथा डी.पी.आर.के. से अपने परमाणु ठिकानों की अंतर्राष्ट्रीय जांच कराने को कहा है। आद.ए.इ.उ. के दबाव का कारण डी.पी.आर.के. द्वारा एन.पी. टी. से हटने की अधिसूचन भी हो सकता है । अपने निर्णय के पक्ष में डी.पी.आर.के. अधिकारी ने कहा कि उन.पी.टी. से हटना आत्म रक्षा में लिया गया उचित कदम है। इसका औचित्य अमेरिका के प्रमाणु युद्ध युद्वाभ्यास तथा आइ.ए.ई.ए. के सचिव के डी.पी.आर.के. के खिलाफ किये अनुचित कार्य में है। डी.पी.आर.के. ने टीम-स्प्रीट परियोजना को अमरीका दक्षिण कोरिया साझा सैनिक अभ्यास का उत्तरी कोरिया को धमकाने वाले प्रमाणु युद्ध का पूर्वाभ्यास कहा। आइ.ए.इ.ए. की समस्या है उत्तर कोरिया पर दवाब डाल कर अपनी बात मनवाना। कोरियन अधिकारियों ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि यदि उन ताकतों ने (अमरीका शासित अंतर्राष्ट्रीय अभिकरण संयुक्त राष्ट्र संघ और दूसरे) जो कि उत्तरी कोरिया के प्रति शत्रुतापूर्ण है दवाब डाल कर हमें भयभीत करना चाहते हैं तो यह एक मूर्खता पूर्ण स्वप्न है । . . . . . हम कठोर कदमों का जवाब आत्म सुरक्षा के कदम तथा सैनिक कार्यवाई से देंगे। अतीत में डी.पी.आर.के. ने अमरीकी दक्षिण कोरियाई ‘‘टीम-स्प्रीट’’ सैनिक अभ्यासों का उग्रता से विरोध किया। डी.पी.आर.के. का एन. पी.टी. से हटने के निर्णय ने इस प्रायद्वीप की स्थिति को तनाव पूर्ण कर दिया है। अमरीका डी.पी. पर कार्रवाई करने की धमकी देता रहा है। चीन ने उत्तर कोरिया पर आइ.ए.इ.ए. तथा अमरीका प्रशासन के एन.पी.टी. पर विचार को पुष्टि नहीं दी है । शायद इस समस्या पर चीन के विचार से अब तनाव कम करने तथा समस्या के शांतिपूर्ण समझौतों से समाधान के प्रयास किये जा रहे हैं। अमेरिका ने टीम-स्प्रीट अभ्यासों को निलंबित कर दिया है।
बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये स्थान को अपने उत्तर के लिए प्रयोग करें।
2) इस इकाई के अन्त में दिये उत्तरों से अपने उत्तर की जांच करें।
1) एन. पी. टी. समस्या पर एक टिप्पणी लिखें ।
भारत-कोरिया सम्बन्ध
आधुनिक काल के पूर्व भारत कोरिया के बीच सीधे सम्पर्क के बहुत कम प्रमाण मिलते हैं। तथापि कोरिया में बौद्ध धर्म फला-फूला तथा यह अभी भी वहाँ का प्रधान धर्म है। मध्य युग के आरम्भ में बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रापीतका का अनुवाद कोरियाई भाषा में हुआ। दूसरे बौद्ध धर्म ग्रन्थों का अनुवाद भी कोरियाई भाषा में हुआ। इन की छपाई 19वीं तथा 14वीं शताब्दी में हुई। इस समय तक कोरिया में छपाई की तकनीक का विकास हो चुका था। बौद्ध धर्म के करीब 81,000 पन्ने कोरियाई भाषा में उपलब्ध हैं।
19वीं सदी में तथा 20वीं सदी के आरम्भ में भारत कोरिया सम्बन्धों में आगे बढ़ने की बहुत कम गुंजाइश थी। 1950-53 के कोरियाई युद्ध में भारत ने किसी का पक्ष नहीं लिया। परन्तु इसने अमेरिका समर्थित कोरिया की सेना को 38वीं समानान्तर को पार करने से मना किया। भारत ने महसूस किया कि 38वीं समानान्तर को करना चीन को हस्तक्षेप करने के लिए उकसायगा। यह भविष्यवाणी सही साबित हुई। दक्षिण कोरिया की सेना ने 38वीं समानान्तर को पार किया और चीन ने उत्तर कोरिया के पक्ष में हस्तक्षेप किया। युद्ध काफी उलझ गया। तब से दक्षिण कोरिया के साथ भारत का सम्बन्ध सामान्य स्तर तक ही सीमित था। हाल में खास कर 1998 में भारतीय प्रधानमंत्री की दक्षिण कोरिया यात्रा के बाद भारत दक्षिण कोरिया सम्बन्ध फैलने लगा है। दक्षिण कोरिया के साथ भारत का आर्थिक सम्बन्ध बढ़ रहा है । दोनो देशों के बीच व्यापार का हेर-फेर 1988 में 8,57,683 अमरीकी डालर था जो कि 1984 में अमरीकी डालर 1,449,269 हो गया। 1988-89 में सम्पूर्ण व्यापार 46,006 करोड़ रुपये का था। दो वर्षों में यह राशि बढ़कर 6,487.1 करोड़ रुपया हो गयी। हाल की घटनाओं से ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में दोनों देशों के बीच सम्बन्ध आगे बढ़ेगा ।
से इन दोनों के बीच मधुर सम्बन्ध विकसित होने लगे थे। उत्तर कोरिया के साथ भारतः का व्यापार सम्बन्ध है। 1984 तथा 1985 में व्यापार का कुल हेर-फेर क्रमशः 37.34 करोड़ डालर तथा 18.73 करोड़ डालर था। इन वर्षों में दोनों देशों के बीच व्यापार में वृद्धि हुई है।
बोध प्रश्न 6
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये गये स्थान का अपने उत्तर के लिए प्रयोग करें ।
2) इस इकाई के अन्त में दिये गये उत्तरों से अपने उत्तर. की जाँच करें ।
1) कोरिया के युद्ध में भारत की भूमिका पर टिप्पणी लिखें ।
बोध प्रश्न 6 उत्तर
1) 1) भारत ने अमरीका के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र की सेना को 38वीं समानान्तर के पार नहीं जाने के लिए कहा।
2) भारत ने तटस्थता का पालन किया परन्तु यह उत्तर कोरिया के प्रति सहानुभूतिपूर्ण था।
सारांश
पिछले पन्नों में दक्षिण तथा उत्तर कोरिया की विदेश नीतियों तथा सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। कोरिया युद्ध ने इन दोनों देशों की विदेश नीति को प्रभावित किया है । सम्पूर्ण विश्व की घटनायें खास कर पूर्व एशिया में घटित होने वाली घटनाओं ने पुरानी विरासत से बाहर आने में मदद की। परिणामतः विश्व के देशों के साथ इन प्रायःद्वीपीय देशों की विदेश नीति तथा सम्बन्धों में ऐसे मौलिक परिवर्तन हुए जो विदेश नीतियों के भविष्य को प्रभावित करेंगे।
शब्दावली
पैट्रिमट प्रक्षेपशास्त्र: एक प्रकार का बहुत ही आधुनिक अमरीकी शस्त्र जो दुश्मन के किसी भी प्रकार के राकेट को विफल कर सकता है ।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
स्कालपिनो रोबर्ट एण्ड किम जून-याप (एडिरर्स) 1984: नार्थ कोरिया अड्डे: स्ट्रेटीजिक एण्ड डमेस्टीक ठस्यूप्न: लास एन्जेल्स यूनिवर्सिटी आफ केलिफोरनिया
प्रेस यांग संग-चुल, 1981: कोरिया टू कैम्ब्रीज एम. एस. एस. सेहेयूकमन पब्लिशिंग कम्पनी
ब्रीजज ब्रियन: 1986: कोरियन एन्ड द वेस्ट: लन्डन राउटलेज एन्ड केगन पॉल
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