1857 की क्रांति की शुरुआत कब हुई कहाँ से हुई , when and where was the revolt of 1857 started in hindi
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मेरठ (28.99° उत्तर, 77.70° पूर्व)
मेरठ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा एवं यमुना नदियों के मध्य की भूमि पर स्थित है। यह प्राचीन काल से ही भारतीय इतिहास की विविध गतिविधियों का केंद्र रहा है।
मेरठ के समीप स्थित आलमगीरपुर नामक ग्राम में पुरातात्विक उत्खनन से यहां हड़प्पा सभ्यता के प्रमाण पाए गए हैं। यह स्थल सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा थी। इससे मेरठ प्राचीन सभ्यताओं के अंतरराष्ट्रीय मानचित्र में एक प्रमुख स्थल के रूप में दर्ज हुआ है। चित्रित धूसर मृदभाण्डों की प्राप्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि कालांतर में यहां आर्य समूहों ने आकर अधिकार जमा लिया था। मौर्य काल में अशोक के स्तंभ लेख की प्राप्ति से यह सूचना मिलती है कि मौर्यकाल में भी यह एक महत्वपूर्ण स्थल था। इस स्तंभ लेख को बाद में फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली ले जाया गया था।
1857 के विद्रोह के समय भी मेरठ एक महत्वपूर्ण केंद्र था। 10 मई, 1857 को यहीं की छावनी में सेना की तीसरी बटालियन ने विद्रोह की चिंगारी फूंक कर अंग्रेजों के विरुद्ध पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया था। यद्यपि यह विद्रोह शीघ्र ही कुचल दिया गया तथा मेरठ ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रांत में पश्चिमी क्षेत्र का एक प्रमुख शहर बन गया।
वर्तमान में मेरठ में भारतीय सेना की महत्वपूर्ण छावनी है तथा यह औषधि निर्माण का प्रमुख केंद्र है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख व्यापारिक स्थल भी है।
मनमोद गुफाएं (19.18° उत्तर, 73.88° पूर्व)
मनमोद गुफाएं, जो महाराष्ट्र के जुन्नार क्षेत्र में हैं, जैन एवं बौद्ध धर्म के शैलकर्त मंदिरों हेतु प्रसिद्ध 45 गुफाओं का एक समूह है। इन गुफाओं का निर्माण प्रथम शताब्दी ई. से तृतीय शताब्दी ई. के बीच हुआ था (लेनयाद्रि गुफाएं, तुलजा गुफाएं तथा शिवनेर गुफाएं भी जुन्नार क्षेत्र में स्थित हैं) मनमोद गुफाएं तीन समूहों में विभाजित हैं – भीमशंकर समूह (10 गुफाएं) अंबिका समूह (19 गुफाएं) तथा भुतलिंग समूह (16 गुफाएं)।
गुफाओं का भीमशंकर समूह पूर्व दिशा में दुधार पहाड़ियों के निकट स्थित है। गुफा संख्या I भिक्षुओं के निवास (लयान) हेतु प्रयोग में लाई जाती थी तथा यहां एक बरामदा व उसके पीछे तीन कमरे बने हैं। गुफा संख्या II एक चैत्य था जिसमें बैठी हुई अवस्था में एक नारी की अपूर्ण मूर्ति है। गुफा संख्या VI में एक अभिलेख है जो 124 ई. में नहपान के प्रधानमंत्री अयाम द्वारा लिखवाया गया था।
अंबिका समूह की गुफाएं भीमशंकर समूह के उत्तर में स्थित हैं तथा इनका नामकरण गुफा संख्या XVI में स्थापित जैन देवी अंबिका के नाम पर किया गया है। कुछ गुफाओं में तीर्थकरों जैसे चक्रेश्वर, आदिनाथ व नेमिनाथ की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। कुछ गुफाओं में बौद्ध धर्म से संबंधित कलाकृतियां भी हैं।
भूतलिंग समूह की गुफाएं उत्तर-पूर्व की ओर अभिमुख हैं और अंबिका समूह से लगभग 200 मी. की दूरी पर स्थित हैं। गुफा संख्या XXXVIII में एक अपूर्ण पूजास्थल है, जो भुतलिंग समूह में सबसे बड़ा ढांचा है। इस गुफा समूह की अधिकांश गुफाएं बौद्ध विहारों के रूप में उपयोग की जाती थी।
मानसेहरा (34°20‘ उत्तर, 73°12‘ पूर्व)
मानसेहरा उत्तर-पश्चिमी प्रांत का एक व्यापारिक नगर है, जो वर्तमान में पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित है। यहां से मौर्य शासक अशोक का तीसरी शताब्दी ईसापूर्व का एक अभिलेख मिला है। यह एक शिलालेख है, जो खरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ है। यह नगर तीर्थयात्रा के एक प्रसिद्ध मार्ग में स्थित था, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत को पाटलिपुत्र एवं बाहरी क्षेत्रों से जोड़ने वाला प्रसिद्ध मार्ग यहीं से होकर गुजरता था। यह उत्तरी सीमा का भी एक महत्वपूर्ण स्थल था। संभवतः यह उत्तरी सीमाओं से समीपता के कारण चुना गया हो।
मान्यखेत (17°11‘ उत्तर, 77°9‘ पूर्व)
मान्यखेत, आधुनिक मालखेड है, जो कर्नाटक में स्थित है। मान्यखेत प्रसिद्ध राष्ट्रकूट शासकों की राजधानी थी। राष्ट्रकूटों की प्रारंभिक राजधानी महाराष्ट्र में लातूर थी, बाद में उन्होंने राजधानी मान्यखेत स्थानांतरित कर दी।
राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के अधीन मान्यखेत की भरपूर समृद्धि एवं विकास हुआ, जिसने यहां कई झीलों, महलों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। मान्यखेत के समीप कागना नदी बहती है, जिसके तट पर एक पुराना किला स्थित है। ऐसा अनुमान है कि इस किले का निर्माण राष्ट्रकूट शासकों द्वारा ही कराया गया होगा। इसे तंदूर के नाम से भी जाना जाता है। मान्यखेत को मालखेद के अतिरिक्त स्थिरभूत एवं मालकुर नामों से भी जाना जाता था।
यह भट्टारक का मुख्यालय भी रहा। भट्टारक से सम्बद्ध सिद्धांत पुस्तकों के संकलन के समय मान्यखेत राष्ट्रकूटों के अधीन था। यद्यपि राष्ट्रकूटों के पतन के साथ ही मान्यखेत का महत्व भी समाप्त हो गया।
मास्की (15.96° उत्तर, 76.65° पूर्व)
मास्की, जिसे प्रारंभ में मसागी नाम से भी जाना जाता था, कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित है। मास्की से सम्राट अशोक का एक लघु शिलालेख पाया गया है। यह एकमात्र अभिलेख है, जिसमें अशोक का नाम प्राप्त होता है। यह अभिलेख उसके नाम ‘देवानांपिय अशोक’ से प्रारंभ होता है। अशोक के अन्य सभी अभिलेखों में उसकी उपाधि प्राप्त होती है, न कि नाम। यहां से एक प्राक् ऐतिहासिक स्वर्ण खान एवं एक बस्ती की प्राप्ति से यह स्पष्ट होता है कि नवपाषाण काल से मास्की एक प्रमुख नगर बन गया था। यहां प्राप्त बस्ती से कई महत्वपूर्ण अवशेष भी पाए गए हैं। जैसे-पालिशयुक्त प्रस्तर की वस्तुएं, काले एवं लाल मृदभाण्ड, मनके, घोंघे से बने आभूषण, टेराकोटा की वस्तुएं तथा नाग का जम्बुमपि से बना एक छोटा सिर इत्यादि।
मसूलीपट्टनम (16.17° उत्तर, 81.13° पूर्व)
मसूलीपट्टनम आंध्र प्रदेश के पूर्वी भाग में स्थित है। प्रारंभ में इसे मसूलीपट्टम, मछलीपट्टनम एवं बंडार नामों से भी जाना जाता था। गोलकुंडा शासकों के अधीन मसूलीपट्टनम दक्षिण-पूर्वी तट का एक प्रमुख बंदरगाह था। बंगाल की खाड़ी में अंग्रेजों ने अपनी पहली व्यापारिक कोठी 1611 में यहीं स्थापित की थी। अंग्रेज यहां से स्थानीय स्तर पर बुना हुआ सूती कपड़ा खरीदते थे तथा उसे फारस भेजते थे। गोलकुंडा के सुल्तान ने 1632 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए सुनहरा फरमान जारी किया था। इस फरमान के अनुसार अंग्रेज चुंगी अदा करके गोलकुंडा के सभी तटीय बंदरगाहों से स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार कर सकते थे। डच एवं फ्रांसीसियों के विरोध तथा स्थानीय अधिकारियों के असंतोष की वजह से अंग्रेजों को मसूलीपट्टनम में असुरक्षा महसूस होने लगी तथा उसने मसूलीपट्टनम के स्थान पर सेंट फोर्ट जार्ज को अपनी व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र बना लिया तथा यह शीघ्र ही कोरोमंडल तट पर अंग्रेजों का मुख्य व्यापारिक ठिकाना बन गया। 1759 में अंग्रेजों ने मद्रास को पूरी तरह से अंग्रेजों से छीन लिया।
मथुरा (27°29‘ उत्तर, 77°40‘ पूर्व)
यमुना के तट पर बसा हुआ मथुरा, एक पवित्र शहर है। यह एकमात्र ऐसा शहर है, जिसका उल्लेख इतिहास एवं मिथक कथाओं दोनों में प्राप्त होता है। मथुरा भगवान कृष्ण की गाथाओं से जुड़ा हुआ है। यहीं उनका जन्म हुआ एवं अपने जीवन का लंबा समय उन्होंने यहीं गुजारा।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, यह सूरसेन की राजधानी थी, जो छठी शताब्दी ईसापूर्व का एक प्रमुख महाजनपद था।
मथुरा कनिष्क की दूसरी राजधानी भी थी। कुषाणों के अधीन मथुरा कला एवं संस्कृति के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हुआ। मथुरा कला की मुख्य विशेषताएं हैं-स्थानीय रूप से उपलब्ध लाल-बलुआ पत्थर का प्रयोग; ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन जैसे सभी धर्मों से संबंधित मूर्तियों का निर्माण एवं कुषाण शासकों की विशालकाय प्रतिमाएं।
मथुरा बौद्ध धर्म की एक शाखा सर्वास्तिवाद का मुख्यालय भी था। इस शाखा के प्रमुख प्रसिद्ध संत राहलु भद्र थे। मथुरा के निकट स्थित कंकाली टीला की विद्यमानता एवं आज्ञा-पथ अभिलेख से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि यह जैन धर्म का भी एक प्रसिद्ध केंद्र था।
आगे चलकर मथुरा हिन्दू एवं भागवत धर्म के प्रसिद्ध केंद्र के रूप में भी उभरा। वर्तमान में यह शहर ‘कृष्ण नगरी‘ के रूप में प्रसिद्ध है। यहां एक विशाल तेलशोधक कारखाना भी है।
मेहरगढ (29°23‘ उत्तर, 67°37‘ पूर्व)
मेहरगढ़, बलूचिस्तान क्षेत्र में स्थित है, जो अब पाकिस्तान में है। यह नगर, भारतीय उपमहाद्वीप में आवास एवं कृषि के प्रारंभिक प्रमाण प्रस्तुत करता है। यहां आवास के त्रि-स्तरीय साक्ष्य पाए गए हैं-नवपाषाणकालीन सभ्यता, प्राक-सैंधव सभ्यता एवं हड़प्पा सभ्यता।
यहां लगभग 6000 ईसा पूर्व ही मानव ने मिट्टी के ईंटों की सहायता से घरों का निर्माण कर निवास प्रारंभ कर दिया था। भारतीय उपमहाद्वीप में मेहरगढ़ के लोगों ने ही सर्वप्रथम 6000-5000 ईसापूर्व के आसपास गेंहू की खेती प्रारंभ की थी। विभिन्न कमरों वाले ईंट के बने चैकोर आवासों की प्राप्ति से इस स्थल में प्राक-सैंधव सभ्यता के अस्तित्वमान होने के संकेत प्राप्त होते हैं। यहां से हस्तनिर्मित मृदभाण्डों के उपयोग, खजूर, कपास एवं जौ की खेती के प्रमाण तथा पशुपालन के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
आवासों के प्रारूप, मृदभाण्डों एवं मुहरों की प्राप्ति, बहुमूल्य धातुओं के प्रयोग, लेपीज लेजुली जैसे मनकों के प्रयोग एवं सैंधव सभ्यता से संबंधित अन्य वस्तुओं के उपयोग के जो साक्ष्य यहां से प्राप्त हुए हैं, उससे मेहरगढ़ के हड़प्पा सभ्यता से संबंधित होने के तथ्यों की पुष्टि होती है।
मोधेरा (23.42° उत्तर, 72.37° पूर्व)
मोधेरा, मेहसाना से 30 किमी. दूर एवं अहमदाबाद से 128 किमी. दूर गुजरात राज्य में स्थित है। पुष्पवती नदी के तट पर स्थित यह नगर सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह एक प्राचीन नगर है। यह पौराणिक काल से संबंधित है तथा उस समय इसे ‘धर्मरण्य‘ के नाम से जाना जाता था। ऐसा माना जाता है कि लंका का रावण, जो कि एक ब्राह्मण था, का वध करने पर भगवान राम पर जो कलंक लग गया था, उससे मुक्त होने के लिए श्रीराम ने यहीं प्रायश्चित किया था। भगवान सूर्य की उपासना करने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह एक पवित्र स्थल है। यहां के सूर्य मंदिर का निर्माण 1026-27 में गुजरात के सोलंकी शासक भीम प्रथम के समय हुआ था। यह वही समय था जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण कर वहां लूटपाट मचाई थी।
प्रथम दृष्टया यह सूर्य मंदिर अत्यंत चित्ताकर्षक प्रतीत होता है। इसमें स्तंभयुक्त सभामण्डप है, जो कि जलाशय में प्रतिबिम्बित होता है। मंदिर का आंतरिक भाग पूर्व की ओर सूर्य को उन्मुख करते हुए बना है। यहां कामकुंड नामक एक पवित्र सरोवर भी है, जिसमें सूर्य पूजा से पूर्व श्रृद्धालु स्नान करते हैं। यह जलाशय अपनी निर्माण संरचना में देश का एक विशिष्ट प्रकार का जलाशय है। बहुत सावधानी से कामोत्तेजक मूर्तियों के फलकों को अवशिष्ट कोणों पर रखा गया है। एक समय पर सूर्य की स्वर्ण से बनी मूर्ति को कक्ष में ऐसे स्थान पर रखा गया था जहां सूर्य की पहली किरणें उस पर पड़ें, परंतु स्वर्ण प्राप्त करने के लिए आक्रमणकारियों ने मूर्ति को हटा दिया।
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