reversible and irreversible transformation in hindi उत्क्रमणीय एवं अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण ऊष्मागतिकी
उत्क्रमणीय एवं अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण ऊष्मागतिकी क्या है समझाइये reversible and irreversible transformation in hindi ?
उत्क्रमणीय एवं अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण (Reversible and Irreversible Transformations) माना कि एक तंत्र की अवस्था में परिवर्तन कुछ निश्चित माध्यमिक अवस्थाओं द्वारा किया जाता है और फिर तंत्र को उन्ही माध्यमिक अवस्थाओं द्वारा वापस मूल अवस्था (original state) में लाया जाता है। यदि इस प्रक्रम में तंत्र के साथ साथ पारिपाश्विक भी मूल अवस्था में आ जाता है तो यह रूपान्तरण- उत्क्रमणीय रूपान्तरण तथा यह प्रक्रम उत्क्रमणीय प्रक्रम कहलाता है। यदि पारिपार्शिवक मूल अवस्था में नहीं आ पाता तो यह अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण (Irreversible transformation) कहलाता है। उत्क्रमणीय रूपान्तरण तब ही होता है जबकि प्रतिरोधी दाब गैस के दाब से अनन्त सूक्ष्म कम या अधिक हो। यदि प्रतिरोधी दाब कम होता है तो प्रसार कार्य, और यदि प्रतिरोधी दाब अधिक हो तो सम्पीडन कार्य होता है। प्रसार तथा सम्पीडन दोनों में ही तंत्र एवं पारिपाश्विक लगभग साम्य की अवस्था में ही रहते हैं। अर्थात् साम्य स्थापित होने में अनन्त सूक्ष्म समय लगता है।
(i) अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण में प्रसार एवं सम्पीडन कार्य में तन्त्र और पारिपाश्विक साम्यवस्था में नहीं रहते तथा साम्यवस्था में आने के लिये एक निश्चित समय लगता है।
समतापी उत्क्रमणीय रूपान्तरण में कार्य (Work in Isothermal Reversible Transformation)- गैस का दाब प्रतिरोधी दाब के बराबर है, अर्थात् PA = Pअब स्थिर ताप पर इस गैस का प्रसार V1 V2आयतन तक किया जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में इस गैस को V1 से V2 आयतन तक सम्पीडित किया जाता है। इस सम्पूर्ण चक्र में किया गया कार्य निम्न प्रकार लिखा जा सकता है-
इस प्रकार चक्रीय रूपान्तरण में किया गया कार्य शून्य होगा। चूंकि चक्रीय रूपान्तरण में किया गया कार्य (Wcy) चक्र की प्रत्येक अवस्था में किये गये कार्य (dw) का योग होता है, अतः Wcy को dw के चक्रीय समाकलन के रूप में भी व्यक्त किया जाता है।
समतापी अनुत्क्रमणीय रूपान्तरण में कार्य (Work in Isothermal Irreversible Transforma tion)- माना स्थिर ताप पर एक गैस का प्रसार P1 V1अवस्था से P2V2 अवस्था तक किया जाता है अर्थात् प्रतिरोधी दाब गैस के अन्तिम दाब के समान (PA = P2 ) है। अब गैस को मूल अवस्था तक सम्पीडित जाता है। इस अवस्था तक लाने में (PA = P1 ) होगा। समीकरण (12) द्वारा-
चूंकि V2>V1 अतः (V2 – V1) धनात्मक होगा, जबकि P2 < P1 अतः (P2 – P1) ऋणात्मक होगा। इस प्रकार wcy का मान ऋणात्मक होगा। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण चक्र में पारिपाश्विक द्वारा तंत्र पर शुद्ध कार्य किया जाता है। इस प्रकार तंत्र तो मूल अवस्था में आ जाता है परन्तु पारिपाश्विक नहीं आ पाता। इसलिये यह चक्रीय रूपान्तरण अनुत्क्रमणीय कहलाता है। 1.10 ऊष्मा की धारणा (Concept of Heat)
ऊष्मा ऊर्जा का ही एकरूप है जिसे कार्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ऊष्मा का प्रवाह तब ही होता है जबकि तंत्र की अवस्था में परिवर्तन हो। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ऊष्मा पारिपार्शिवक पर हुये प्रभाव द्वारा व्यक्त की जाती है। यह प्रभाव ताप के रूप में देखा जा सकता है। ऊष्मा का प्रवाह उच्च ताप से निम्न ताप की ओर होता है। यदि तंत्र और पारिपाश्विक तापीय साम्य में हो तो ऊष्मा का प्रवाह रूक जाता है। ऊर्जा के अन्य रूप तो कार्य में पूर्ण रूप से परिवर्तित किये जा सकते हैं, परन्तु ऊष्मा को तंत्र अथवा पारिपाश्विक में स्थायी परिवर्तन किये बिना पूर्ण रूप से कार्य में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। कार्य के समान ऊष्मा भी एक बीजीय राशि है। इसे ” q” द्वारा प्रदर्शित किया जाता हैं जब तंत्र पारिपाश्विक से ऊष्मा का अवशोषण करता है तो ऊष्मा का मान धनात्मक (+ q) और जब तंत्र पारिपाश्विक को ऊष्मा देता है तो ऊष्मा का मान ऋणात्मक (q) होता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ऊष्मा का मान अवस्था परिवर्तन के पथ पर निर्भर करता है अतः ऊष्मा अवस्था फलन नहीं है। कार्य के समान ही dq एक अयथातथ अवकल (Inexact differential) है।
II ऊर्जा (Energy )
कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। एक तंत्र में ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा होती है। यह ऊर्जा विभिन्न रूपों जैसे स्थितिज ऊर्जा, गतिज ऊर्जा, ऊष्मा ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, विकिरण ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, यांत्रिक ऊर्जा चुम्बकीय ऊर्जा, गुरुत्वाकर्षण ऊर्जा आदि में हो सकती है।
(i) बाह्य ऊर्जा (External Energy)– यह संपूर्ण तंत्र की स्थितिज तथा गतिज ऊर्जा का योगफल होती है। गतिज ऊर्जा सम्पूर्ण तंत्र की गति के कारण और स्थितिज ऊर्जा तंत्र की विद्युत, चुम्बकीय, गुरुत्व जैसे बल क्षेत्र में स्थित होने के कारण होती है। अतः इसका ऊष्मागतिकी में कोई उपयोग नहीं है। अतः इसकी उपेक्षा कर दी जाती है।
(ii) आन्तरिक या अन्तर्निहित ऊर्जा (Internal Energy of Intrinsic Energy)– एक तंत्र में उपस्थित पदार्थ के अणुओं की स्थानान्तरण, घूर्णन तथा कम्पन गतियों द्वारा उत्पन्न ऊर्जा तथा उपस्थित इलेक्ट्रॉन एवं नाभिकों की ऊर्जा को सम्मिलित रूप से तंत्र की आन्तरिक ऊर्जा (Energy Content or Intrinisic Energy) अथवा अन्तर्निहित ऊर्जा (Energy Content) कहते हैं। यह ऊर्जा E द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं। SI इकाई में यह जूल (J) किलो जूल (kJ) में व्यक्त की जाती है। किसी तंत्र की आन्तरिक ऊर्जा उसमें उपस्थित पदार्थ की रासायनिक प्रकृति ( आन्तरिक संरचना एवं संघटन), ताप, दाब, एवं आयतन पर निर्भर करती है। चूंकि ये कारण तंत्र की अवस्था निर्धारित करते हैं, अतः आन्तरिक ऊर्जा तंत्र की अवस्था पर निर्भर करती है न की अवस्था परिवर्तन के पथ पर। इस प्रकार आन्तरिक ऊर्जा एक अवस्था फलन है।
आन्तरिक ऊर्जा का वास्तविक परिमाण (Absolute value) ज्ञात नहीं किया जाता क्योंकि यह कितने ही अनिर्धारित कारकों जैसे अणुओं की विभिन्न गतियाँ, इलेक्ट्रॉनों की संख्या एवं विन्यास, नाभिकीय ऊर्जा आदि पर निर्भर करता है । परन्तु ऊष्मागतिकी में वास्तविक परिमाण की आवश्यकता नहीं होती केवल अवस्था परिवर्तन में होने वाला आन्तरिक ऊर्जा परिवर्तन (change in internal energy) ही महत्वपूर्ण है, जिसे सरलता से ज्ञात किया जा सकता है। यदि प्रारम्भिक अवस्था (A) तथा अन्तिम अवस्था (B) में किसी तंत्र की आन्तरिक ऊर्जाएं क्रमशः EA तथा EB हों तो
E =EB-EA
सामान्य भाषा में तंत्र की आन्तरिक ऊर्जा को तंत्र की ऊर्जा भी कह सकते हैं।
आन्तरिक ऊर्जा के लक्षण (Characteristics of Internal Energy)-
ऊर्जा के मुख्य लक्षणों का सारांश निम्न लिखित बिन्दुओं में संकलित है-
(1) ऊर्जा तंत्र की प्रारम्भिक एवं अन्तिम अवस्थाओं पर निर्भर करती है, अवस्था परिवर्तन के पथ पर नहीं । अतः ऊर्जा एक अवस्था फलन है ।
(2) ऊर्जा में अनन्तसूक्ष्म परिवर्तन (dE) एक यथायत अवकल (Exact Differential) है।
(3) ऊर्जा का मान तंत्र में उपस्थित पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करता है। अतः ऊर्जा एक मात्रात्मक गुण (Extensive property) होती है।
(4) ऊर्जा का वास्तविक परिमाण ज्ञात नहीं किया जा सकता परन्तु ऊर्जा परिवर्तन सरलता से ज्ञात की जा सकती है।
E =EB-EA
एक चक्रीय प्रक्रम (cyclic process) में ऊर्जा परिवर्तन का मान शून्य होता है ।
(S) E एक बीजीय राशि है, अतः इसका मान धनात्मक अथवा ऋणात्मक हो सकता है। धनात्मक मान (+ E) ऊर्जा अवशोषण (तंत्र की ऊर्जा में वृद्धि ) तथा ऋणात्मक मान (- E ) ऊर्जा उत्सर्जन (तंत्र की ऊर्जा में कमी) को प्रदर्शित करता है।
(6) ऊर्जा को न तो नष्ट और न ही उत्पन्न किया जा सकता है। यद्यपि उसको एक रूप से दूसरे में परिवर्तित (रूपान्तरण) किया जा सकता है।
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