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Reproductive system of cockroach in hindi कॉकरोच जनन तंत्र नोट्स male female नर मादा में निषेचन तिचट्टा

पढेंगे कि Reproductive system of cockroach in hindi कॉकरोच जनन तंत्र नोट्स male female नर मादा में निषेचन तिचट्टा ?

जनन तन्त्र (Reproductive system) 

कॉकरोच एकलिंगी (unisexual or dioecious) प्राणी होता है अर्थात् नर व मादा कॉकरोच पृथक होते हैं। इनमें स्पष्ट लिंग विभेद (sexual dimorphism) पाया जाता है जो निम्न प्रकार है

  1. नर कॉकरोच का शरीर छोटा एवं चपटा होता है जबकि मादा का शरीर बड़ा व मोटा होता है
  2. नर कॉकरोच के उदर भाग में 9 खण्ड स्पष्ट दिखाई देते हैं जबकि मादा के केवल 7 खण्ड ही स्पष्ट दिखाई देते हैं।
  3. नर के नवें उदर खण्ड की स्टनम से जुड़ी एक जोड़ी गुदा कटिकाएँ (anal styles) पायी जाती है जबकि मादा में ये अनुपस्थित होती है।
  4. नर में उदर का भाग नुकीला होता है व सातवीं स्टरनम अविभाजित होती है जबकि मादा में उदर का पश्च भाग चौड़ा होता है तथा सातवीं स्टरनम दो भागों में विभाजित होती है।
  5. नर के पंख बड़े होते हैं जबकि मादा में पंख छोटे होते हैं।

नर जनन तन्त्र (Male reproductive system)

नर जनन तन्त्र निम्नलिखित अंगों से मिलकर बना होता है-1. वृषण (Testes), 2. शुक्रवाहिकाएँ । (Vasa deferentia)3. स्खलन वाहिका (Ejaculatory duct)4. छत्रक ग्रन्थि (Utricular gland) 5. फेलिक ग्रन्थि (Phallic gland) (6) बाह्य जननांग (External genetalia)

  1. वृषण (Testes) : कॉकरोच में एक जोड़ी वृषण पाये जाते हैं। ये उदर के चौथे खण्ड से छठे खण्ड तक दोनों पार्श्व किनारों पर वसा काय में फंसे हुए पाये जाते हैं। प्रत्येक वृषण तीन पालियों का बना होता है। प्रत्येक पालि फिर अनेक छोटी-छोटी श्वेताभ पुटिकाओं (follicles) की बनी होती की पटिकाएँ एक धागेनुमा महीन शुक्रवाहिका के चारों तरफ व्यवस्थित रहती हैं। ये पुटिकाएँ जनन उपकला द्वारा आस्तरित रहती हैं तथा शुक्राणुजनन की क्रिया द्वारा शक्राणुओं का निर्माण करती हैं। वृषण, वयस्क प्राणी में निष्क्रिय होकर आकार में छोटे हो जाते हैं।
  2. शुक्रवाहिकाएं (Vasa-deferantia) : प्रत्येक वषण से एक-एक महीन शक्रवाहिका निकलती है जो नीचे की ओर जाकर, ऊपर की तरफ मुडकर आठवें खण्ड में स्खलन वाहिका में खुल जाती है।
  3. स्खलन वाहिका (Ejacultoryduct): यह एक लम्बी तुम्बाकार व संकुचनशील नलिका हाती है। यह पीछे की तरफ नर जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती है। भीतर की तरफ यह क्यूटिकल द्वारा आस्तरित होती है। स्खलन वाहिका के अगले भाग की अधर सतह पर अनेक छोटे-छोटे कोषों के दो समूह पाये जाते हैं जो शुक्राणुओं का संचय करते हैं व शुक्राशयों (seminal vesicle) का निर्माण करते हैं। ये छोटी गोल, फूली हुई सफेद धब्बेदार नलिकाएँ होती हैं जो छत्रक ग्रन्थि की नलिकाओं से विभेदित रहती है।
  4. छत्रक संधि (Utriculargland) : शुक्रवाहिकाओं तथा स्खलन वाहिका के संगम स्थल पर एक बड़ी सफेद रंग की सहायक ग्रन्थि पायी जाती है जो अनेक अन्य नलिकाओं की बनी होती है इसे छत्रक ग्रन्थि कहते हैं। इस ग्रन्थि की नलिकाएँ दो समूहों में व्यवस्थित रहती है- (i) परिधीय नलिकाएँ या यूट्रिकली मेजोरस (utriculi majores) (ii) यूट्रिकुली ब्रिविओरेस (utriculi breviores)।

(i) परिधीय नलिकाएँ या यूट्रिकुली मेजोरस (Utriculi majores) : ये लम्बी पतली । ग्रन्थिल नलिकाएँ होती है जो परिधि की तरफ पायी जाती है तथा इनके स्राव से शुक्राणुधर की आन्तरिक पर्त का निर्माण होता है।

(ii) युट्रिकुली ब्रिविओरेस (Utriculi breviores) : ये छोटी-छोटी अनेक नलिकाएँ होती है जो ग्रन्थि का अधिकांश भाग बनाती हैं। इनका स्रावण शुक्राणुओं के पोषण में सहायक होता है।

  1. फेलिक ग्रन्थि (Phallic gland) या संगोलित ग्रन्थि (Conglobate gland) : यह एक बड़ी तुम्बाकार ग्रन्थि होती है जो स्खलन वाहिका के अधरतल की तरफ स्थित होती है। पीछे की तरफ यह ग्रन्थि संकरी नलिका द्वारा नर जनन छिद्र के समीप खुलती है।
  2. बाह्य जननांग (External genetalia): शरीर के पिछले सिरे पर नर जनन छिद्र के समीप तीन काइटिन की बनी अनियमित संरचनाएँ पायी जाती हैं जिन्हें गोनेपोफाइसिस या फैलोमियर्स (gonapophyss or phallomeres) कहते हैं। इनमें से एक दाहिनी तरफ, एक बायीं तरफ तथा एक अधर तल के तरफ पाये जाते हैं।

(i) दाहिनी फैलोमियर (Right Phallomere): यह द्विपालित होता है। इसका दाहिना भाग दो चपटी काइटिनी प्लेटों का बना होता है। बांया भाग चपटा एवं कठोर होता है, इसे कंटक पिण्ड (serrate lobe) कहते हैं। इसके पिछले किनारे पर आरी की भांति छोटे-छोटे दांत पाये जाते हैं। आधार भाग पर एक हुक पाया जाता है।

(ii).बांया फैलोमियर (Left Phallomere): यह भा सरचना में जटिल होता है। इसके अधर भाग से चार प्रवर्ध निकले रहते हैं जो निम्न प्रकार है (a) बांयी तरफ एक लम्बी पतली संरचना निकली रहती है। जिसके अन्तिम सिरे पर एक हुक पाया जाता है, इसे टिटीलेटर (titillator) कहते हैं। (b) इसके दाहिनी तरफ एक लम्बी पालि हाती है जिसके सिर पर हथौड़ा नुमा फूली हुई संरचना पाया जाता है, इस कूट शिश्न (psuedo penis) कहते हैं। (c) इसके भीतर की तरफ एक छोटी कोमल कटिका युक्त पालि पायी जाती है, इसे एस्पिरेट पालि (aspirate lobe) कहते हैं। (d) सबसे दाहिने तरफ एक छोटी पालि पायी जाती है जिसे एक्यूटो लोबस (accuto lobus) कहते हैं। इसक सिरे पर एक वक्रित हुक पाया जाता है।

(iii) अधर फैलोमियर (Ventral phallomere): यह एक भूरे रंग की प्लेट नुमा संरचना होती है जो दाहिने फैलोमियर के पीछे अधर सतह पर स्थित होती है। इस पर नर जनन छिद्र खुलता

मादा जनन तन्त्र (Female reproductive system)

कॉकरोच का मादा जनन तन्त्र निम्नलिखित अंगों से मिलकर बना होता है

  1. अण्डाशय (ovaries), 2. अण्डवाहिनियाँ (oviducts), 3. योनि (vagina), 4. जनन वेश्म (genital chamber), 5. संग्राहक ग्रन्थियाँ (collaterial glands) 6. शुक्र ग्राहक (recepticula seminis or spermatheca) 7. बाह्य जननांग (gonapophysis)।
  2. अण्डाशय (Ovaries): मादा कॉकरोच में एक जोड़ी अण्डाशय पाये जाते हैं। ये उदर के चौथे खण्ड से छठे या सातवें खण्ड तक उसी तरह फैले रहते हैं जिस तरह नर में वृषण पाये जाते हैं। ये भी वसा काय में धंसे रहते हैं तथा सफेद रंग के होते हैं। प्रत्येक अण्डाशय आठ लम्बी नलिका रूपी अण्डाशयकों (ovarioles) का बना होता है। प्रत्येक अण्डाशय (ovary) का सबसे अगला भाग एक पतले धागेनुमा होता है, जिसे अवलम्बन तन्तु कहते हैं। यह आगे की तरफ पृष्ठ देह भित्ति से जुड़ा रहता है तथा अण्डाशयकों को साधे रखना है। यह एक बहुकेन्द्रीय (syncytial) संरचना होती है, इसके पीछे वाला भाग जरमेरियम (germarium) कहलाता है, जिसमें पंक्तिबद्ध रूप से विकसित हो रहे अण्डे पाये जाते हैं। ये एक लड़ी (chain) के रूप में पाये जाते हैं। अण्डाशयक का पिछला भाग फूला हुआ होता है तथा इसे विटेलेरियम (vitellarium) कहते हैं। इसमें परिपक्व अण्डों की वृद्धि होती है।
  3. अण्डवाहिनियाँ (Oviducts): सभी अण्डाशयक पीछे की तरफ एक चौड़ी अण्डवाहिनी में खुलते हैं। अण्डवाहिनी की दीवार मोटी, पेशीय तथा संकुचनशील होती है।
  4. योनि (Vagina) : दोनों तरफ की अण्डवाहिनियाँ मिलकर सह अण्डवाहिनी या योनि का निर्माण करती है। यह सातवें खण्ड की मध्य रेखा में पायी जाती है तथा आठवें खण्ड की अधर सतह पर मादा जनन छिद्र द्वारा जनन वेश्म में खुलती है।

4.जनन वेश्म (Genital atrium) : जनन वेश्म का अधर भाग सातवें खण्ड की स्टरनम से : बनता है। यह चौड़ी व नौकाकार होकर पीछे की तरफ दो अण्डाकार प्लेटों में बंटी रहती है इन्हें गाइनोवाल्वुलर प्लेटें (gynovalvular plats) कहते हैं। आठवें तथा नवें खण्ड की स्टरनम भीतर धंस कर जनन वेश्म का पष्ठ एवं पश्च भाग बनाती है। जनन वेश्म दो भागों में बंटा होता है अगला भाग जनन कक्ष तथा पिछला भाग अण्डप्रावर वेश्म (oothecal chamber) कहलाता है।

  1. संग्राहक ग्रन्थियाँ (Collateral glands) : जनन वेश्म में एक जोड़ी अत्यन्त शाखित ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं जिन्हें संग्राहक ग्रन्थियाँ (collateral glands) कहते हैं। ये दोनों ग्रन्थियाँ असमान होती हैं; बांयी ग्रन्थि बड़ी तथा दाहिनी ग्रन्थि छोटी होती है। बांयी ग्रन्थि परान्ध तथा दाहिनी ग्रन्थि पारदर्शी होती है। दोनों ग्रन्थियाँ अलग-अलग छिद्र द्वारा जनन वेश्म में खुलती हैं। ये सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं तथा दोनों ग्रन्थियाँ भिन्न-भिनन पदार्थों का स्रावण करती हैं।
  2. शुक्रग्राहक (Recepticuls Seminis या Spermatheca) : ये एक जोड़ी छोटी थैलीनुमा संरचनाएँ होती हैं। ये दोनों शुक्रग्राहक संरचना में असमान होते हैं। बांया शुक्रग्राहक बड़ा तथा मुग्दाकार होता है जबकि दाहिना शुक्रग्राहक पतला नलिकाकार होता है। दोनों शुक्रग्राहक मिलकर जनन वेश्म में स्थित शुक्रग्राहक पेपिला (spermathecal papilla) पर खुलते हैं। इसमें मैथुन क्रिया के समय, नर से प्राप्त शुक्राणुओं का संचय किया जाता है।
  3. बाह्य जननांग (External genetallia or Gonapophyses) : जनन वेश्म में काइटिन के बने तीन जोड़ी प्रवर्ध पाये जाते हैं जिन्हें अण्ड निक्षेपक (ovipositors) कहते हैं। ये निषेचित अण्डों को नवनिर्माणाधीन अण्डकवच में जमाते हैं। ये अण्डकवच वेश्म की छत से इसकी गुहा में लटके रहते हैं।

मैथुन (Copulation) : कॉकरोच का जननकाल मार्च से सितम्बर तक होता है। इस काल में मैथन क्रिया के लिए मादा कॉकरोच, नर कॉकरोच को आकर्षिक करने के लिए, एक पीले से रंग के, वाष्पशील, गन्धयुक्त लिंग-आकर्षक पदार्थ का स्रावण कर सतह पर छोड़ता है। इसे फीरोमोन (pheromone) या बाह्य हारमोन (ectohormone) कहते हैं। इसकी गन्ध को नर कॉकरोच की अंगिकाओं में स्थित रसायन ग्राही संवेदी रोम द्वारा ग्रहण किया जाता है। इस गन्ध को ग्रहण कर नर कॉकरोच अपने अग्र पंखों को 450 से 90° तक फैलाकर तथा पिछले पंखों को फड़-फड़ा कर अनुक्रिया प्रदर्शित करता है। नर, मादा की तरफ बढकर प्रणय निवेदन (courtship) प्रतिक्रिया करता है, फिर नर कॉकरोच मादा के नीचे जाकर अपने टिटिलेटर (titillator) की सहायता से गाइनो वाल्वुलर प्लेटो (gynovalvular plates) को हटा कर जनन वेश्म को खोल देता है तथा अपना बायाँ फैलोमियर वेश्म में घुसा देता है फिर अपने कुटशिश्न (psuedopenis) को वेश्म में प्रवेश करा कर मादा के नीचे से खिसककर इस तरह घूम जाता है कि दोनों कॉकरोचों के पश्च सिरे जुड़े रह जाते हैं। मैथुन क्रिया रात्रि के समय ही होती है तथा यह क्रिया एक घण्टे या इससे भी अधिक समय में पूरी होती है।

शुक्राणुधर का निर्माण (Formation of Spermatophore) : वृषण द्वारा उत्पन्न शुक्राणु शक्राशयी नलिकाओं में संचित रहते हैं। मैथुन क्रिया के समय शक्राणु इन नलिकाओं से निकलकर स्खलन वाहिका में आ जाते हैं, जहाँ इन पर छत्रक ग्रन्थि की युट्रिकुली ब्रिविओरेस (utriculi – breviores) द्वारा स्रावित पोषक पदार्थ शुक्राणुओं के साथ मिला दिया जाता है। अब इनके चारों तरफ छत्रक ग्रन्थि की ही परिधीय नलिकाओं या युटिकली मेजोरेस (utriculi majores) द्वारा एक आवरण चढ़ा दिया जाता है, जो कठोर होकर शुक्राणुधर की सबसे भीतरी पर्त का निर्माण करता है। जैसे ही यह एक स्तरीय शुक्राणुधर स्खलन वाहिका में नीचे उतरता है स्खलन वाहिका की ग्रन्थिल भित्ति इस पर दूसरी पर्त का स्रावण करती है। अब यह शुक्राणुधर नर जननछिद्र द्वारा अधर फैलोमियर पर आता है तो फैलिक ग्रन्थि द्वारा स्रावित पदार्थ इस पर छोड़ दिया जाता है, जो शुक्राणुधर के तीसरे आवरण का निर्माण करता है।

मैथन क्रिया के समय यह शुक्राणुधर मादा के जनन वेश्म में शुक्रग्राहक पेपिला पर छोड़ दिया जाता है। मैथन क्रिया के बाद शुक्राणुधर काफी समय तक शुक्रग्राहक पेपिला पर चिपका रहता है। इसमें से शक्राणु शुक्रग्राहकों में भर जाते हैं तथा खाली शुक्राणुधर को जनन वेश्म से बाहर गिरा दिया। जाता है।

निषेचन व अण्डकवच का निर्माण (Fertilization and formation of ootheca) :  निषेचन मादा के जनन प्रकोष्ठ में होता है। निषेचन से पूर्व जनन प्रकोष्ठ में अण्डकवच (ootheday का निर्माण होता है। अण्डकवच का निर्माण संग्रहक ग्रन्थियों के सावण से हाता है। जैसा कि पर्व में बताया जा चुका है कि दोनों संग्राहक ग्रन्थिया भिन्न-भिन्न पदार्थों का स्रावण करती है, बांयी ग्रन्थि एक दूधिया घुलनशील प्रोटीन का तथा दाहिनी ग्रन्थि डाइहाइड्रोक्सी फीनोल (dihydroxyphenol) का स्रावण करती है। ये दोनों पदार्थ मिलकर स्क्ले रो प्रोटीन (sclero protein) बनाते हैं। ये ग्रन्थियाँ अपने स्रावणों को जनन वेश्म की भीतरी सतह पर बिछा देती है, इसके बाद प्रत्येक अण्डाशयक (ovariole) से एक-एक अण्डा आकर इसमें भर जाता है। इस तरह इसमें 16 अण्डे आ जाते हैं जिन्हें अण्डनिक्षेपक प्रवर्षों द्वारा दोहरी पंक्ति में व्यवस्थित कर दिया जाता है। अब अण्डों पर शुक्रग्राहक में संचित शुक्राणुओं को छोड़ दिया जाता है जिससे निषेचन हो जाता है। संग्राहक ग्रन्थियों के और स्रावण से अण्डकवच का निर्माण हो जाता है। पहले अण्डकवच कोमल होता है परन्तु बाद में सूख कर कठोर हो जाता है। प्रत्येक अण्डकवच में 16 निषेचित अण्डे पाये जाते हैं जो सिगरेट केस में सिगरेटों की तरह दो पंक्तियों में व्यवस्थित रहते हैं। अण्डकवच लगभग 8 मि.मी लम्बा होता है। इसकी आकृति बटुए (purse) की तरह होती है तथा बाहरी स्वतन्त्र किनारे पर एक नौतल (keel) पाया जाता है। आरम्भ में यह सफेद रंग का होता है परन्तु बाद में यह गुलाबी रंग का हो जाता है। इसका निर्माण लगभग 24 घण्टे में पूरा हो जाता है।”

C.अण्डकवच की अनुलम्ब काट

अण्ड कवच के निर्माण के पश्चात् अण्ड कवच को अण्ड निक्षेपकों की सहायता से इसे उदर के पश्च भाग से निकाल कर गर्म सुरक्षित अन्धेरे स्थान पर निक्षेपित कर दिया जाता है। यहाँ पर अण्डकवच कई दिनों तक पड़ा रहता है व गहरे भूरे रंग का हो जाता है।

भ्रूणीय परिवर्धन व अण्डजोत्पत्ति (Embryoic development and Hatching) : कॉकरोच के अण्डों का परिवध्रन अण्डकवच में होता है। इसके अण्डे केन्द्रपीतकीय (centrolecithal) प्रकार के होते हैं। अर्थात् पीतक अण्डों के मध्य भाग में केन्द्रित होता है। अण्डों में एक द्विगुणित. केन्द्रक तथा परिवर्धन के लिए पीतक पाया जाता है। … अण्डे में पहले विदलन होता है जिसके परिणाम स्वरूप ब्लास्टुला (blastula) अवस्था का निर्माण होता है। ब्लास्टुला, गैस्ट्रला भवन की क्रिया द्वारा गैस्ट्रला अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। गैस्टुला अवस्था में तीनों जनक स्तर एक्टोडर्म (ectoderm) मीजोडर्म (mesoderm) तथा एण्डोडमे (endoderm) पाये जाते हैं। इन जनक स्तरों से विभिन्न अंगों का निर्माण होता है तथा विकसित होने वाला भ्रूण अर्भक (nymph) में परिवर्तित हो जाता है। यह विकास 5 से 13 सप्ताह में पूरा हो जाता है। परिवर्धन पूरा होते-होते अण्डकवच के किनारे पर एक लम्बी दरार बन जाती है तथा अन्त में यहीं से अण्डकवच फट जाता है एवं इसमें से छोटे-छोटे अर्भक बाहर निकल आते हैं। अर्भक (nymph) संरचना में वयस्क के समान होते हैं परन्तु छोटे, हल्के रंग के व पंखविहीन होते हैं। नवविकसित अर्भक (nymph) कोमल, पारदर्शी व लगभग रंगहीन प्राणी होते हैं।

 

कायान्तरण (Metamorphosis) 

अर्भक (nymph) तेजी से पोषण कर आकार में वृद्धि करते हैं। कुछ समय पश्चात् अर्भक अपर पुराने बाह्य कंकाल को त्याग देते हैं। इस क्रिया को त्वक पतन या निर्मोचन (ecdysis or moulting) कहते हैं। यह क्रिया हारमोन्स द्वारा नियंत्रित की जाती है। पुरानी क्यूटिकल या बाह्य कंकाल को उतारना इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि कठोर कंकाल के कारण वृद्धि नहीं हो पाती है। यह क्रिया केवल वयस्क बनने तक होती रहती है। अण्डकवच से निकाले अर्भकों के वयस्क तक विकसित होने की अवधि में लगभग 6 या 7 बार त्वक पतन की क्रिया होती है। इस क्रिया को नियंत्रित करने के लिए अग्रवक्षीय ग्रन्थि (prothoracicgland) द्वारा निर्मोचन हारमोन (moulting hormone) का स्रवण किया जाता है। अण्डकवच से बाहर निकले अर्भकों को प्रथम इन्स्टार कहते है। दो निर्मोचनों के बीच की अवधि को स्टेडियम (stadium) कहते हैं, तथा हर निर्माचन के बाद विकसित. अर्भक को इन्स्टार कहते हैं। पूर्ण विकस की क्रिया में लगभग एक वर्ष का समय लग जाता है। इस प्रकार अर्भक अपने परिमाण में वृद्धि कर वयस्क अवस्था को प्राप्त करते हैं। अन्तिम निर्मोचन के पश्चात् बनने वाले पंख युक्त प्राणी को इमेगो (imago) कहते हैं। इमेगों तथा वयस्क में केवल इतना अन्तर होता है कि इमेगों में अभी जननांग पूर्णतया विकसित नहीं होते हैं।

कॉकरोच में अण्डों से निकलने वाले अर्भकों व वयस्क प्राणी में विशेष अन्तर नहीं होता है अत: अर्भकों में विशेष परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती है। अतः इस तरह के कायान्तरण को अपूर्ण कायान्तरण (incomplete metamorphosis or hemimetabolus) कहते हैं।

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