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Renal blood supply in hindi वृक्क को रक्त संभरण क्या है समझाइए , परिभाषा किसे कहते हैं

जाने Renal blood supply in hindi वृक्क को रक्त संभरण क्या है समझाइए , परिभाषा किसे कहते हैं ?

वृक्क को रक्त सम्भरण (Renal blood supply)

वृक्क को काफी अधिक मात्रा में रूधिर वितरित किया जाता है। ऐसा अनुमान है कि हृदय से निकले हुए सम्पूर्ण रूधिर का लगभग 10 से 15 प्रतिशत भाग दोनों वृक्कों को दिया जाता है। प्रत्येक वृक्क प्रति मिनिट लगभग 500 से 750 मि.ली. रूधिर प्राप्त करता है। प्रत्येक वृक्क धमनी (renal artery) वृक्क में प्रवेश करने के पश्चात् अनेक छोटी-छोटी वाहिनियों में विभाजित होकर धमनिकाओं (arterioles) का निर्माण करती है। प्रत्येक केशिका, बोमेन सम्पुट में प्रवेश करके केशिकागुच्छ (glomerulus) का निर्माण करती है। इस केशिकागुच्छ में दो प्रकार की धमनिकाएँ पाई जाती है जो धमनिकाएँ केशिका गुच्छ में रूधिर लाती हैं अभिवाही धमनिकाएँ (afferent arterioles) कहलाती है। इसी प्रकार दूसरी धमनिकाएँ केशिकागुच्छ से रूधिर वापस ले जाती हैं जिन्हें अपवाही धर्मानिकाएँ (efferent arterioles) कहते हैं। अपवाही धमनिकाओं का व्यास अभिवाही के अपेक्षा कुछ कम होता है। अपवाही धमनिकाएँ केशिकागुच्छ से बाहर निकलने के पश्चात् पुनः अनेक शाखाओं में विभाजित हो जाती है। ये शाखाएँ समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं तथा ‘हेनले का लूप’ को चारों ओर से घेरे रहती है। इन्हें वांसा रेक्टा (vasa recta) कहा जाता है। ये सभी वासा रेक्टा मिलकर शिरिकाओं (venules) का निर्माण करती है। सभी शिरिकाएँ अन्त में मिलकर वृक् शिरा (renal vein) बना लेती हैं जो वृक्क से बाहर निकलकर पश्च महाशिरा ( post caval) में खुल जाती है।

वृक्क को वृक्क धमनी द्वारा वितरित किये जाने वाले रूधिर में उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है तथा जो रूधिर वृक्क से वृक्क शिराओं द्वारा एकत्रित किया जाता है उसमें उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा कम होती है क्योंकि इन पदार्थों की काफी मात्रा वृक्क द्वारा छनकर मूत्र नलिका में आ जाती है। (मूत्र निर्माण की क्रिया विधि (Mechanism of urine formation) स्तनियों में मूत्र निर्माण की क्रिया विधि को सर्वप्रथम कुशनी (Cushny, 1917) ने प्रस्तुत किय था। इसके अनुसार मूत्र का निर्माण निम्नलिखित तीन चरणों में होता है :

  1. अतिसूक्ष्म निस्पंदन (Ultrafiltration)
  2. वरणात्मक अवशोषण (Selective absorption )
  3. स्त्रावण (Secretion)
  4. अतिसूक्ष्म निस्पंदन या अल्ट्राफिस्ट्रेशन (Ultrafiltration) : मूत्र-निर्माण की क्रिया प्रथम पद रूधिर प्लाज्मा का निस्पंदन होता है। केशिकागुच्छ की केशिकाएँ अत्यधिक पार (permeable) होती है। ये केशिकाएँ उपकलीयस्तर से आस्तरित रहती है। केशिकागुच्छ में रूधिर अत्यधिक दाब होने के कारण अनेक पदार्थ रूधिर प्लाज्मा में निकलकर बामन सम्पुट की गहि में आ जाते हैं। ऐसा देखा गया है कि 67000 से अधिक आण्विक भार वाले पदार्थ रुधिर निस्पंदित नहीं हो पाते हैं तथा ये प्लाज्मा में ही रहते हैं। इन्हें दीर्घ अणु (macro molecule) कार्य हैं। इनमें सामान्यतया रूधिर में उपस्थित कोशिकाएँ एवं प्लाज्मा प्रोटीन्स (एल्बुमिन, गलोबुलिन आदि) आती हैं। रूधिर में उपस्थित शेष लघु अणु (micro molecule) जैसे जल, लवण, (Nat K’, CF, HCO’), ग्लूकोस, अमीनों अम्ल, यूरिया एवं यूरिया अम्ल इत्यादि रूधिर कोशिकाओं में निस्पार्दित होकर बोमेन सम्पुट की दोनों सतह के मध्य उपस्थित गुहिका में पहुँच जाते हैं। इन सर्प पदार्थों का ‘आण्विक भार 67000 से कम होता है। इस प्रकार छनित पदार्थ को नैफ्रिक केशिकागुच्छीय निस्पंद (nephric or glomerular filtrate) कहते हैं। यह विधि अति निस्पंदन या ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन या आल्ट्रफिल्ट्रेशन कहलाती है।

उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि केशिकागुच्छकीय निस्पंद अर्थात् ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट लगभग प्रोटीन रहित प्लाज्मा (protien free plasma) होता है। (तालिका – 2 )

लुडविंग (Ludwig) के अनुसार ग्लोरूलर फिल्ट्रेशन की क्रिया रूधिर दबाव में परिवर्तन के फलस्वरूप होती है। इस प्रकार नेफ्रोन की कार्य प्रणाली केशिकागुच्छ अर्थात् ग्लोमेरूलस में उपस्थित रूधिर दाब, ऑनकॉटिक दाब (रूधिर में उपस्थित प्रोटीन्स द्वारा उत्पन्न दाब ) एवं वृक्कीय

(बोमैन सम्पुट एवं नलिका की गुहिका में उपस्थित निष्पादित पदार्थ द्वारा उत्पन्न दाब ) पर नि करती है। इस प्रकार ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन दर (GPR) एक तरफ ग्लोमेरूलर केशिकीय दर (GCP एवं दूसरी ओर ऑनकॉटि दाब (OP) एवं वृक्कीय दाब अर्थात् रीनल प्रेशर (RP) पर निर्भर कर है। इस प्रकार के विभिन्न दाबों के मध्य परस्पर सम्बन्ध को निम्न गणितीय (methamatical) दिया जा सकता है।

GFR = GCP (OP + RP)

GFR = Glomerular Filtration Rate

GCP Glomerular capillary pressure

OP = Oncotic pressure

RP = Renal pressure

अभिवाही धमनिका या केशिकाओं की अपेक्षा अपवाही धमनिकाओं या केशिक का व्यास कम होता है। इसके कारण एक निश्चित समय में जितना रक्त प्रवेश करता है उतना ही रक्त उस समय बाहर नहीं निकल पाता है। इस प्रकार दोनों के व्यास में पर्याप्त अन्तर होने के कारण रक्त परत अधिक दाब पड़ता है। इस दानको केशिकागुच्छीय दाब या ग्लोमेरूलर कैपीलरी प्रेशर (GCP) कहते हैं। इसका मान 70 से 90mm Hg के लगभग होता है। रूधिर में प्लाज्मा प्रोटीन्स द्वारा उत्पन्न दाब (OP) लगभग 30 mm Hg होता है। बोमेन सम्पुट एवं नलिका की गुहा में उपस्थित निस्पंदित पदार्थ द्वारा उत्पन्न दाब (RP) लगभग 20mm Hg होता है

अर्थात् GFR = 70 (30 + 20) = 20mm Hg

इस प्रकार 20-40mm Hg दाब ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन की क्रिया हेतु उत्तरदायी होता है। अत्यधिक वितरण के कारण होता है। इस प्रकार प्राप्त ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में जल, लवण, ग्लूकोस, दोनों वृक्क 1 मिनट में लगभग 130 मि.ली. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट की यह उच्च मात्रा वृक्कों को अमीनों अम्ल, यूरिया, यूरिक अम्ल क्रीएटीन आदि उपस्थित रहते हैं।

  1. वरणात्मक अवशोषण (Selective absorption): अतिसूक्ष्म निस्पंदन से प्राप्त ग्लोमेरूलर ‘फिल्ट्रेट को इसी अवस्था में शरीर से बाहर नहीं निकाला जा सकता है क्योंकि इसमें अपशिष्ट पदार्थों के अतिरिक्त अन्य लाभदायक पदार्थ जैसे ग्लूकोज, अमीनों अम्ल एवं अनेक लवण आदि पाये जाते हैं जिनको शरीर से बाहर नहीं निकाला जाना चाहिये। इसी प्रकार ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में जल की अत्यधिक मात्रा उपस्थित रहती है। यदि इस सम्पूर्ण जल की मात्रा को शरीर से बाहर निकाला गया तो शरीर में जल की कमी (ehydration) हो सकती है। इस स्थिति में प्राणी की मृत्यु संभव है अत: ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट को मूत्र के रूप में बाहर निकालने से पूर्व इसकी अधिकांश मात्रा वृक्कीय नलिका द्वारा अवशोषित करके पुनः रूधिर को वापिस दे दी जाती है। इस क्रिया को वरणात्मक अवशोषण कहते हैं। यह पाया जाता है कि इस ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट का लगभग 99% भाग अवशोषित हो जाता है तथा शेष 1% भाग मूत्र के रूप में बाहर निकाला जाता है। 150 से 170 लीटर ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट से मात्र 1-1.5 लीटर तरल 24 घण्टे में मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निष्कासित किया जाता है।

(वरणात्मक अवशोषण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में उपस्थित आवश्यक पदार्थ वृक्क नलिका द्वारा अवशोषित करके रूधिर में पहुँचा दिये जाते हैं। वरणात्मक अवशोषण की क्रिया मुख्यतया समीपस्थ कुण्डलित नलिका द्वारा होती है। इस कार्य हेतु समीपस्थ कुण्डलित नलिका पर उपस्थिति उपकला कोशिकाओं के स्वतंत्र सिरों पर (सूक्ष्म रसांकुर पाये जाते हैं जो अवशोषण के आधार तल को बढ़ा देते हैं। इन कोशिकाओं के काशेकाद्रव्य में अनेक माइट्रोकोण्डिया उपस्थित रहते हैं जो अवशोषण हेतु ATP के रूप में आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करा हैं। कई पदार्थों की मात्रा मूत्र में काफी कम होती है एवं कुछ पदार्थ पूर्ण रूप से अनुपस्थित रहते हैं। ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट से पदार्थ का अवशोषण उन पदार्थों की रूधिर में उपस्थित मात्रा पर निर्भर करती है। ऐसे पदार्थ देहली (threshold) पदार्थ कहलाते हैं। ये पदार्थ ग्लोमेरूल फिल्ट्रेट में निम्न तीन प्रकार के होते हैं

  1. उच्च देहली पदार्थ (High threshold substances) : वे पदार्थ जो शरीर के लिये अत्यधिक आवश्यक होते हैं एवं पूर्ण रूप से अर्थात् शत-प्रतिशत ( cenpercent) अवशोषित किये जाते हैं, उच्च देहली पदार्थ कहलाते हैं। इनमें ग्लूकोज अमीनो अम्ल, कीटो अम्ल, विटामिन सी, एसीटो एसीटेट आयन इत्यादि प्रमुख है।
  2. निम्न देहली पदार्थ (Low threshold substances) : वे पदार्थ जो ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट वे वृक्क नलिका द्वारा पूर्ण रूप से अवशोषित नहीं हो पाते हैं तथा मूत्र के साथ कुछ मात्रा में बाहर निकाले जाते हैं उन्हें निम्न देहनी पदार्थ कहते हैं। इनमें (यूरिया (urea) प्रमुख

हैं।

  1. अदेहली पदार्थ (Athreshold substances) : ये पदार्थ ग्लमेरूलर फिल्ट्रेट से बिल्कुल भी अवशोषित नहीं किये जाते हैं तथा सम्पूर्ण मात्रा में मूत्र के साथ बाहर निकाल दिये जाते हैं। वृक्क नलिका अथवा नेफ्रोन द्वारा ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट से पदार्थों का अवशोषण निम्न प्रकार से

इनमें यूरिक अम्ल (uric acid) प्रमुख है। किया जाता है

(i) पोषणीय पदार्थों का अवशोषण (Absorption of ntritional substances) : ग्लोमेरुला फिल्ट्रेट में पोषण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पदार्थ जैसे ग्लूकोस, प्रोटीन्स, अमीनो अम्ल, एसीटीएसीटेट आयन्स एवं विटामिन आदि उपस्थित होते हैं। उपरोक्त सभी पदार्थों में से प्रोटीन को छोड़कर अन्य सभी पदार्थ समीपस्थ कुण्डलित भाग से सक्रिय परिवहन द्वारा पूर्ण रूप से अवशोषित कर लिये जाते हैं। ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में लगभग 30 ग्रा. प्रोटीन एक दिन में छनकर आता है। यह प्रोटीन अपने आपकों समीपस्ट कुण्डलीत भाग की कोशिकाओं की प्लाज्मा झिल्ली से चिपक कर कोशिका के अन्दर ग्रहण कर लिया जाता है। यह क्रिया समीपस्थ नलिका के सूक्ष्म रसाकुर द्वारा पूर्ण होती है। इसे कोशिकापायन (pinocytosis) कहा जाता है। इन कोशिकाओं में प्रोटीन पाचन द्वारा अमीन अम्लों में परिवर्तित कर दी जाती है। इस प्रकार प्राप्त अमीनो अम्ल कोशिकापायनी पुटिका (pinocytic vesicle) की सतहों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं।

(ii) अपापचयी अन्तिम उत्पादों का अवशोषण (Absorption of metabolic end products) : उपापचयी अन्तिम उत्पाद जैसे युरिया, क्रिएटीन, यूरेट्स आदि कम मात्रा में अवशोषण होता है। ग्लोमरूलर फिल्ट्रेट में उपस्थित लगभग 40 प्रतिशत यूरिया का मूत्र नलिका या नेफ्रोनद्वारा अवशोषण किया जाता है। यूरेट्स आयन्स का अवशोषण यूरिया की अपेक्षा अधिक होता है। ये सम्पूर्ण का लगभग 86 प्रतिशत अवशोषित किये जाते हैं। अन्य उपपाचयी उत्पाद जैसे सल्फेट, फॉस्फेट एवं नाइट्रोजन आदि यूरेट्स आयन की तरह की स्थानान्तरित किये जाते हैं। क्रिएटीन का अवशोषण मूत्र नलिका द्वारा नहीं किया जाता है।

(iii) आयनों का अवशोषण (Absorption of ions) : जैसे-जैसे नलिका में उपस्थित ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट से मूत्र में परिवर्तित होता है वैसे ही उसमें विभिन्न आयनों की गति की दर कम होती जाती है। ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में उपस्थित धनावेशित (Positively charged) आयन जैसे Nat Kt, Mg 2+ इत्यादि नेफ्रोन की उपकलीय कोशिकाओं से सक्रिय अभिगमन (active transport) की क्रिया द्वारा अवशोषित किये जाते हैं। ऋणावेशित (negatively charged) आयन (जैसे CI, ECO- , SO ) आदि कोशिकाओं की सतह से निष्क्रिय अभिगमन (passive transport) द्वारा अवशोषित किये जाते हैं। यह क्रिया कोशिकीय सतह पर उपथ्सित वै?त विभव (electric potential) के अन्तर के कारण होती है जो अनावेशित आयनों के सतह से गमन के समय उत्पन्न होता है।

उदाहरण के लिये मूत्र नलिका की गुहिका में उपस्थित आयनों में 75 प्रतिशत Nat समीपस्थ कुण्डलीत नलिका द्वारा सक्रिय अभिगमन की विधि से अवशोषित किये जाते हैं। लगभग इतना ही भाग जल एवं कुछ अन्य पदार्थ जैसे CI निष्क्रिय अभिगमन द्वारा अवशोषित किये जाते हैं।

(iv) जल का अवशोषण (Absorption of water): शरीर में प्रतिदिन लगभग 2400 मिली जल ग्रहण किया जाता है। इसका लगभग 1400 मि.ली. मूत्र के रूप में एक दिन में बाहर निकाल दिया जाता है। शेष 100 मि.ली. पसीने ( sweat) के रूप में 200 मि.ली. विष्ठा (facces) के रूप में लगभग 700 मि.ली. फेफड़ों ( lungs) में वाष्पीकरण (evaporation) या त्वचा से विसरण ( diffusion) द्वारा बाहर निकाला जाता है।

वृक्क नलिका के समीपस्थ कुण्डलित भाग से लगभग 80 प्रतिशत पानी का अवशोषण निष्क्रिय का यह अवशोषण सोडियम परिवहन ( sodium transport) एवं जल वाहक अणुओं (water परिवहन द्वारा किया जाता है। इसे अविकल्पी अवशोषण (obligatory absorption) कहते हैं। जल carrier molecules) द्वारा नियंत्रित रहता है। जब सोडियम एवं अन्य पदार्थ नलिका की गुहा नलिका की भित्ति द्वारा बाहर नलिकीय तरल (peri tubular fluid) में प्रवेश करते हैं तब इस द्रव में पदार्थों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार नलिकीय गुहिका में जल की मात्रा सोडियम से अधिक हो जाती है। इस कारण नलिकीय तरल एवं बाह्य नलिकीय तरल के मध्य परासरणीय प्रवणता ( osmotic gradient) उत्पन्न हो जाती है जिससे जल बाह्य नलिकीय तरल में विसरित होना प्रारम्भ हो जाता है। (लोस्तर फिल्ट्रेट में उपस्थित जल का अवशोषण एटाइटिक हॉरमोन (antidiuretic hormone) ADH द्वारा नियंत्रित किया जाता है। जल की सान्द्रता कम होने पर पश्च पीयूष ग्रन्थि ADH का स्त्रावण प्रारम्भ करती है। इसके दूरस्थ नलिका एवं संग्रह नलिका को कोशिकाओं की परगरूता बढ़ जाती है। इस कारण इन कोशिकाओं से अधिक वाहक अणु गुजरना प्रारम्भ कर देते हैं। इनके साथ जल भी अवशोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार फिल्ट्रेट का लगभग 18 प्रतिशत अल अवशोषित किया जाता है जिसे विकल्पी अवशोषण (facultative absorption) कहा जाता है।

स्त्रावण (Secretion) : यह मूत्र के निर्माण का अन्तिम चरण होता है। वृक्कीय निस्प (renal filtrate) के दूरस्थ कुण्डलित भाग में पहुँचने पर रूधिर में उपस्थित कुछ पदार्थ वृक्कांद नलिका की कोशिकाओं द्वारा इसमें स्त्रावित कर दिये जाते हैं। ये पदार्थ ऐसे होते हैं जो केशिकागुच्च धर्मानिकाओं से ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट में छनकर नहीं आ पाते हैं। इस प्रकार रूधिर में उपस्थित अपशिष्ट पदार्थों वृक्कीय निस्पंद में स्त्रावित करने की क्रिया को स्त्रावण (secretion) कहा जात है। इस क्रिया के कारण शरीर का समस्थैतिक तंत्र (homeostasis system) स्थिर बना रहता है। तथा वृक्कीय नलिका की गुहिका में उपस्थित पदार्थ मूत्र का निर्माण करता है जो शरीर से बाहर निष्कासित किया जा सकता है।

यदि इस रूधिर प्लाज्मा, ग्लोमरूलर फिल्ट्रेट एवं मूत्र (तालिका 5.4) में क्रिएटिनिन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन करें तो यह पता चलता है कि यह पदार्थ रूधिर प्लाज्मा एवं ग्लोमेरूला फिल्ट्रेट में (0.001 प्रतिशत) मूत्र (0.0075 प्रतिशत) की अपेक्षा कम होता है। इस प्रेक्षण से यह प्रश्न उठता है कि क्रिएटिनिन की मात्रा प्लाज्मा एवं फिल्ट्रेट की अपेक्षा मूत्र में अधिक कैसे हैं, इसका एक ही उत्तर सम्भव है कि यह पदार्थ नलिका के किसी धारा के द्वारा ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट अर्थात् वृक्कीय निस्पंद में समायोजित किया जाता है।

चित्र 5.19 : स्तनि में मूत्र का निर्माण प्रक्रिया

कुछ मछलियों (जैसे अस्थिल मछलियाँ) के वृक्क में उपस्थित वृक्कीय नलिकाएँ बिना मैलपीधी कोष के होती है। इनको अकेशिकागुच्छीय (agglmerular) वृक्क कहा जाता है। इन जन्तुओं में बनने वाला मूत्र बिना केशिकागुच्छ के बनता है अर्थात् यह नलिका के शेष भाग द्वारा निर्मित किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि वृक्कीय नलिंका केशिकागुच्छीय निस्पंद (glomerular filtration) एवं चरणात्मक अवशोषण (selective absorption ) के अतिरिक्त कुछ पदार्थों का वृक्कीय निस्पंद (renal filtrate) में स्त्रावित करने का भी कार्य करती है। यह क्रिया स्त्रावण कहलाती है तथा क्रिएटिनिन इस प्रकार स्त्रावित होने वाला एक पदार्थ होता है। अस्थिल मछलियों (Osseous fishes) के वृक्कों में जल, नाइट्रोजनयुक्त अपशिष्ट पदार्थ एवं अनेक आयन्स वृक्कीय निस्पंद में स्त्राविन उपरोक्त प्रेक्षण की अनेक प्रायोगिक अध्ययनों द्वारा पुष्टि की गई है। उदाहरण के लिये कुछ कोलॉइडल रंजक (dye) जैसे फिनोल रेड (phenol red) रूधिर में प्रवेश कराने पर इनकी उपस्थिति देखी गई यद्यपि ये केशिकागुच्छ से नहीं छन पाती है। वृक्कीय नलिका या नेफ्रोन के औतिकीय (hisrological) अध्ययन से इन कोलॉइडल रंजकों को नलिका की कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में देखा गया जिससे स्पष्ट है कि वृक्कीय नलिका पदार्थों के स्त्रावण का भी कार्य करती है। मूत्र में नलिका के साथ स्त्रावण की क्रिया एक सक्रिय क्रिया (active process) है जिसमें ऊर्जा (ATP) की आवश्कयता होती है। कोई भी पदार्थ (जैसे साइनाइड ड्राइनाइट्रोफिनोल आदि) जो नलिका की एपिथिलीयम की उपापचीय क्रिया को कम करता है वह नलिका की स्त्रावण क्रिया को मंद या बंद कर देता है।

स्तनियों की वृक्कीय नलिका द्वारा स्त्रावित पदार्थों में क्रिएटिनिन पेरा अमीनों हिप्यूरिक अम्ल (para amino hippuric acid), डायोड्रास्ट (diodrast), K+, H+ एवं पेनिसिलीन (penicillin) इत्यादि प्रमुख है। यद्यपि अस्थिल मछलियों, कुछ रेप्टाइल्स एवं पक्षियों में स्त्रावण की क्रिया मूत्र के निर्माण हेतु उत्तरदायी होती है। जैसा पहिले वर्णन किया जा चुका है कि अस्थिल मछलियों में वृक्कीय नलिका अकेशिकागुच्छीय होती है जबकि रेप्टाइल्स एवं पक्षियों में इनमें कुछ ही केशिकागुच्छ पाये जाते है एवं अनेक वृक्कीय नलिकायएँ अपने अन्तिम सिरों पर कुछ नहीं रखती है।

इस प्रकार स्तनियों में मूत्र निर्माण की क्रिया को चित्र 5.19 द्वारा निरूपित किया जा सकता हैं |