धर्म एक विचारधारा है – कार्ल मार्क्स ने ऐसा क्यों कहा स्पष्ट कीजिये Religion is an ideology in hindi
Religion is an ideology in hindi definition and meaning धर्म एक विचारधारा है – कार्ल मार्क्स ने ऐसा क्यों कहा स्पष्ट कीजिये क्या है अथवा कैसे है बताइए ?
कार्ल मार्क्स (1818-1883)
मार्क्स ने अपना ध्यान धर्म पर नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के अध्ययन पर केन्द्रित किया । पर पूँजीवाद के अध्ययन के दौरान उसने समाज के बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण का भी विकास किया जिसके अंतर्गत समाज के लगभग सारे पहलू विशेषतः धर्म और राजनीति शामिल थे। मार्क्स की सामाजिक परिकल्पना का एक ऐसा आर्थिक आधार था जो धर्म, राजनीति और कला आदि से गठित अधिरचना को बाधित करती है। जर्मनी के यहूदी समाज के सदस्य होने के नाते मार्क्स ने हेगल और फयूअरबॉक की बौद्धिक विरासत का लाभ उठाया। दूसरे शब्दों में मार्क्स द्वारा धर्म के विषय में विचार मोटेतौर पर हेगल और फयूअरबॉक के विचारों की प्रतिक्रिया के रूप में हैं।
3) हेगल और फ्यूअरबोंक की आलोचना (Critiquing Hegel and Feuerbach) : कार्ल मार्क्स फ्यूअरबॉक से एक कदम आगे बढ़ा। उसने यह सवाल कियाः कैसी सामाजिक परिस्थितियाँ मनुष्य को धर्म की ओर आकृष्ट करती हैं। मार्क्स के विचारों को ध्यान में रखते हुए यह प्रश्न अत्यंत स्वाभाविक सिद्ध होता है। आप तो जानते ही हैं कि मार्क्स के अनुसार समाज मानव की चेतना को निर्धारित करता है। अतः जिन समस्याओं के हल के लिये धर्म आवश्यक होता है वे सिर्फ व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि विशिष्ट शोषक सामाजिक परिस्थितियों से पैदा होती हैं। इस प्रकार, मार्क्स के विचार में धर्म समाज से ही पैदा होता है।
मोटेतौर पर मार्क्स के धर्म पूँजीवाद संबंधित विचार तीन मुद्दों से संबद्ध हैंः प्रथम, धर्म सिर्फ एक माया है, जो समाज की वास्तविक शोषक परिस्थितियों को छुपाता धर्म विरोध प्रकट करने का माध्यम अर्थात अलगाव का एक रूप है, तीसरा, धर्म का पतन आलोचना से नहीं, बल्कि उन सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन से होगा, जिन्होंने धर्म को जन्म दिया।
4) मार्क्सः धर्म एक विचारधारा है (Marx: Religion is an ideology) : धर्म के दो कार्य हैं, यह शासक वर्ग की राजनीतिक विचारधारा के रूप में काम करता है। धर्म आम जनता के लिए नशीली वस्तुओं के समान है। मार्क्स के धर्म संबंधित विचार 19वीं शताब्दी के प्रशियाई राष्ट्र और प्रोटेस्टैंट धर्म के अनुभव से प्रभावित रहे हैं। प्रशियाई राष्ट्र प्रोटेस्टैंट धर्म को प्रोत्साहन और रक्षा प्रदान कर रहा था, जिसकी मार्क्स ने आलोचना की। इसका कारण यह था कि प्रोटेस्टैंट धर्म उस नये वर्ग की विचारधारा के रूप में काम करने लगा जो सामंतवाद के पतन के बाद उभरा।
5) मार्क्सः धर्म अलगाव का रूप है (Marx: Religion is a Form of Alienation) : मार्क्स ने पूँजीवादी समाज और वस्तु उत्पादन वाली बाहरी विशेषता के रूप में भी धर्म को समझा है। जैसा कि आप जानते है, वस्तु मनुष्य के श्रम का फल होता है। इसमें श्रम का सामाजिक पहलू वस्तु के रूप में सामने आता है। यहां उत्पादकों और उनके श्रम का संबंध उनके बीच के संबंध के रूप में नहीं बल्कि उनके अपने श्रम की वस्तुओं के बीच के संबंध के रूप में दर्शाया जाता है। इस प्रकार पुण्य वे सामाजिक वस्तुएँ हैं जिनके गुण इंद्रियों से समझे नहीं जा सकते हैं। तब मनुष्यों के संबंध वस्तुओं के बीच के संबंध बनते हैं। ऐसे में पुण्यों का स्वतंत्र अस्तित्व होता है। इसी तरह धर्म जो मनुष्य से अलग किये गये श्रम का फल है, स्वतंत्र होकर मनुष्य पर हावी होता है। मनुष्यों के सामाजिक संबंध पराये वस्तुओं के संबंधों की तरह लगने लगते है पुण्य-पदार्थो और धर्म दोनों के स्तर पर इस प्रकार धर्म अलगाव पैदा करता हैं। इस जीवन के दुखों से मुक्ति पाने के लिये मनुष्य परलोक की कल्पना करता है। फ्यूअरबॉक के अनुसार मनुष्य की चेतना को बदलना होगा, ताकि उसे वे गुण वापस मिल जाये जो उसने ईश्वर को प्रदान कर दिये है।
बॉक्स 10.01
मार्क्स (1975: 39) कहता हैः “धार्मिक व्यथा वास्तविक व्यथा और साथ ही साथ वास्तविक व्यथा का विरोध भी होता है।‘‘ यह विरोध समाज में पाये जाने वाले शोषण के खिलाफ न होते हुए काल्पनिक बातों पर केन्द्रित होता है। इस प्रकार, मनुष्य उस धर्म के गुलाम बनते हैं, जिसे उन्होंने स्वयं निर्मित किया है। धर्म को नशा माना जाता है। क्योंकि वह दुख या पीड़ा से बचने का एक साधन है, उससे झूठी तसल्ली मिलती है, उसके पीछे समाज में चल रहे शोषण को छुपाया जा सकता है।
जब हर प्रकार के शोषण का विनाश हो तो धर्म की आवश्यकता ही नहीं होगी। जब मनुष्य स्वतंत्र होकर आपसी संबंध कायम कर सकें और दुख का अंत हो तो धर्म की क्या आवश्यकता। मार्क्स कहता हैः ‘‘धर्म के विरुद्ध संघर्ष……… अप्रत्यक्ष रूप से उस विश्व के विरुद्ध संघर्ष है जिसका आध्यात्मिक अंग धर्म है‘‘ (1975ः38)।
मैक्स वेबर (1864 – 1920)
मैक्स वेबर ऐसे दूसरे जर्मन विद्वान हैं जिन्होंने यूरोप में पूँजीवाद के उदय का अध्ययन किया । वेबर के अध्ययन की मूल धारणा तर्कसंगति या तर्कसंगतिकरण पर है। तर्कसंगतिकरण के अंतर्गत दो प्रक्रियाएं साथ-साथ सामने आती हैं।: प्रथम जादुई विचारों में परिवर्तन और दूसरी, विचारों का क्रमबद्ध या व्यवस्थित होना और उनमें एक प्रकार की स्वाभाविक एकरूपता का आ जाना। (गर्थ और मिल्स 1952-51)।
वेबर तर्कसंगतिकरण की इस धारणा का प्रयोग धर्म, विज्ञान, कला, प्रशासन और राजनीति में परिवर्तन को समझने के लिये करता है। वेबर मानता है कि पूँजीवाद का जन्म आर्थिक क्षेत्र के तर्कसंगतिकरण की उच्चतम कोटि से हुआ।
वेबर मानता है और सिद्ध करता है कि विचार विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं। पूँजीवाद के विकास में प्रोटेस्टैंट पंथों के विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मैक्स वेबर द्वारा रचित ‘‘प्रोटेस्टैंट एथिक एंड स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म‘‘ 1904 और 1905 के बीच जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ। तब से यह दुनिया भर के समाज वैज्ञानिकों के लिये चर्चा का विषय बना है। खासतौर पर दूसरे महायुद्ध के बाद तीसरी दुनिया (विकासशील देशों) के विद्वान भी इस चर्चा में हिस्सा लेने लगे।
प) पूरब और पश्चिम (East and West)
वेबर ने पाया कि पूर्वी देशों की अपेक्षा पश्चिमी देशों में तर्कसंगतिकरण का अधिक विकास हुआ है। जैसे आइए विज्ञान का उदाहरण लें। वेबर कहता है कि पश्चिमी सभ्यता में ही विज्ञान विकास के उच्च चरण तक पहुँचा है। वह स्वीकार करता है कि भारत, चीन और मिश्र (इजिप्ट) में ज्ञान की महान परंपरा थी, फिर भी प्रयोग की पद्धति के अभाव में वे पिछड़ गए। संगीत, वास्तुशिल्प, न्यायव्यवस्था, छपाई/ मुद्रण, दफतरशाही पूँजीवाद जैसे अनेक क्षेत्रों में तर्कसंगतिकरण की मात्रा पश्चिम में अधिक है। तर्कसंगत पूँजीवाद जैसे अनेक क्षेत्रों में तर्कसंगतिकरण की मात्रा पश्चिम में अधिक है। तर्कसंगत पूँजीवाद के उदय से संबद्ध तीन मुद्दों पर वेबर ध्यान देता हैः प्रथम: ‘‘स्वतंत्र श्रमिकों की तर्कसंगत पूँजीवाद व्यवस्था, दूसरा ‘‘व्यवस्थित बाजार की और केंद्रित तर्कसंगत औद्योगिक व्यवस्था‘‘, तीसरा “वैज्ञानिक जानकारी का तकनीकी उपयोग‘‘ और लागत प्रभावी अनुमान लगाना, हिसाब किताब रखना, बकाया निकालना और उनका मानना है कि ये सब पूँजीवादी व्यवस्था की विशेषताएँ हैं। पूँजीवाद के उदय से पहले जादुई और धार्मिक शक्तियों को अधिक महत्व दिया जाता था। प्रोटेस्टेंट धर्म ने ऐसी आर्थिक मनोवृत्ति को पैदा किया जिससे तमाम पारम्परिक जादुई धार्मिक शक्तियों विश्वासों का पतन हुआ और पूँजीवाद को पनपने का मौका मिला।
पप) कैथोलिक एवं प्रोटेस्टैंट (Catholics and Protestants)
कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट अनुयायी अपनी धार्मिक मान्यताओं से अत्यंत प्रभावित थे, और इन्हीं के बल अपना पेशा और शिक्षा चुनते थे। ऑकड़ों में जिक्र करते हुए वेबर बताता है कि प्रोटेस्टैंट अनुयायी अपने बच्चों को तकनीकी, औद्योगिक और वाणिज्यिक शैक्षिक संस्थाओं में भेजते थे। जबकि कैथोलिक बच्चे मानविकी पढ़ते थे। अधिकतर कुशल कारीगर और प्रशासक प्रोटेस्टेंट ही थे।
पपप) पूँजीवादी मनोवृत्ति (Spirit of Capitalism)
प्रोटेस्टैंट धर्म, विशेषतः कैल्विनिजम ने एक ऐसी आर्थिक मनोवृत्ति दी जो पूँजीवाद के पनपने में सहायक रही। ‘‘आर्थिक मनोवृत्ति के मायने हैं कार्य करने की वे व्यावहारिक प्रेरणाएँ जो धर्म के मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक परिवेश से जुड़ी हुई हैं। (वेबर 1952ः267) बैजामिन फ्रेंक्लिन के कुछ उपदेश जैसे ‘‘समय धन है‘‘ ‘‘साख धन है‘‘ ‘‘पैसे से पैसा पैदा होता है‘‘ में यति प्रोटेस्टैंट वाद का सार है। प्रायः पारम्परिक समाजों में लोग आजीविका के लिये कमाया करते थे। पर प्रोटेस्टैंटवाद में कमाना अपने आप में गुण बन गया, कमाना अपने व्यवसाय में कौशल का प्रमाण बन गया। प्रोटेस्टैंटवाद के आगमन के बाद लोगों ने भरपूर कमाया पर हाथ खोल कर खर्च नहीं किया। उन्होंने कठोर परिश्रम किया पर ऐश नहीं की। पूँजीवाद मनोवृत्ति की जड़ें यति प्रोटेस्टैंटवाद में थीं, जिसके अधिकतर अनुयायी औद्योगिक मध्यम वर्ग के उभरते हुए लोग थे।
पअ) व्यवसाय करने की भावना (Sense of Calling)
व्यवसाय और श्रम के मायने कैथोलिकवाद, लूथरवाद और कैल्विनवाद में भिन्न रहे हैं। कैथोलिक चर्च के लिये व्यवसाय के मायने थे जग को त्यागना और सन्यास लेना, जबकि लूथर के अनुसार इसका मतलब था अपनी जिम्मेवारियों को निभाना। कैथोलिकवाद के अनुसार श्रम ‘‘स्वार्थ का फल‘‘ है जबकि लूथरवाद इसे ‘‘बंधु-भाव की अभिव्यक्ति‘‘ मानता है। लूथर ने कहा कि श्रम विभाजन के कारण प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के लिये काम करना पड़ता है। लूथर के विचार में व्यवसाय का मतलब यही है हर व्यक्ति जग में अपने स्थान को स्वीकार करे, अतः उसकी आर्थिक मनोवृत्ति विकासवादी नहीं थी। पर कैल्विन द्वारा दी गई ‘‘व्यवसाय” की अवधारणा और “पूर्वनियति के नियम ने पूँजीवाद के विकास को बढ़ावा दिया, खासतौर पर हॉलैंड, नीदरलैंडस, स्विटजरलैंड जैसे देशों में।
अ) कैल्विनवाद और जग से जुड़ी हुई तपस्या (Calvinism and Worldy asceticism) कैल्विनवादी विचारधारा से उत्पन्न पूँजीवादी मनोवृत्ति को समझने के लिये पूर्वनियति का नियम समझना अत्यावश्यक है। इस नियम के अनुसार ईश्वर कुछ लोगों को मोक्ष देता है और कुछ को नरक दण्ड। कैल्विन कहता है कि ईश्वर की मर्जी जानना असंभव है, और मनुष्य को इसे जानना भी नहीं चाहिये। जिन लोगों को ईश्वर ने नहीं चुना है, वे कभी भी उसकी कृपा नहीं पा सकेंगे, चाहे वे कुछ भी करें। अपनी आस्था सिद्ध करने के लिये मनुष्य को यह मानकर चलना चाहिये कि ईश्वर ने उसे चुना है, और ईश्वर की महिमा के लिये उसे कठोर परिश्रम करना चाहिये।
पूर्वनियति के नियम के कई सामाजिक मनोवैज्ञानिक असर हैं। पहले यह है कि व्यक्ति बिल्कुल अकेला हो जाता है, क्योंकि उसके और ईश्वर के बीच मध्यस्थता कोई नहीं कर सकता है, न पुजारी न पंथ । दूसरा यह कि व्यक्ति को मोक्ष का रास्ता स्वयं ढूँढना पड़ता है, क्योंकि उसके लिये मंत्र, कर्मकांड आदि जादुई रास्ते बंद हैं। ऐसे में हर ‘‘प्यूरिटन‘‘ खुद से यह सवाल पूछता है “क्या ईश्वर के चुने हुए लोगों में से मैं एक हूँ‘‘ लेकिन इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, अपने कर्मों द्वारा भी इन्सान इस बात को जान नहीं सकता है कि ईश्वर ने उसे चुना है या नहीं।
प्यूरिटन के पास एक ही मार्ग बचता है, उसे इस बात पर विश्वास करना पड़ता है कि ईश्वर ने उसे चुना है। इस बात पर विश्वास करते हुए उसे सारे सांसारिक सुखों को त्यागकर हर प्रलोभन का सामना आत्मविश्वास के साथ करना पड़ता है। आत्मविश्वास पाने का एक मात्र रास्ता है ईश्वर की महिमा के लिये परिश्रम करना । ऐसा करने से यह स्थापित होता है कि ईश्वर परिश्रमी, आत्मविश्वासी और तपोमय प्यूरिटन के द्वारा काम कर रहा है। मोक्ष की निश्चितता प्यूरिटन को स्वयं सिद्ध करनी पड़ती है, और जीवन का हर कदम संभल कर उठाना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि यदि वह चूक गया तो पश्चाताप और प्रायश्चित के लिए कोई जगह नहीं है। प्यूरिटन स्वयं पर नियंत्रण रखता है और कठोर परिश्रम करके अपने उस विश्वास को प्रदर्शित करता है कि वह ईश्वर द्वारा चुने हुए लोगों में से है।
जब प्यूरिटन श्रम करके खूब सारा पैसा कमाता है और फिर भी ऐयाशी से दूर रहता है, तब स्वाभाविक रूप से पूँजी इकट्ठी होती है। इस पूँजी का पुनः निवेश होता है। वेबर बताता है कि हाँलैंड जैसे देशों में इसी प्रक्रिया को देखा गया है। अन्य प्रोटेस्टैंट पंथों में, जैसे कि पायटिज्म, मेथोडिज्म, बैपटिस्ट आदि में वेबर ने इसी प्रकार की मनोवृत्ति के निशान देखें। पर कैल्विनिज्म की तुलना में इन पंथों द्वारा उत्पन्न आर्थिक मनोवृत्ति अधिक प्रभावशाली नहीं थी।
इस प्रकार, प्रोटेस्टैंट पंथों की आर्थिक मनोवृत्ति थी, जिससे पश्चिम यूरोप के देशों में पूँजीवाद के पनपने में सहायता हुई।
मार्क्स और वेबर की तुलना (Comparison between Marx and Weber)
बर्नहाम (Bernhaum) (1953) मार्क्स और वेबर के विचारों की साम्यता की ओर इशारा करता है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे इस प्रकार हैंः सबसे पहले, मार्क्स और वेबर दोनों मानते हैं कि पूँजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था मात्र न होते हुए पूरे समाज में बसा हुआ है, दूसरी बात जिस पर दोनों सहमत हैं वह यह कि पूँजीवाद का उदय “स्वाभाविक‘‘ न होते हुए ऐतिहासिक विकास का निष्कर्ष है, तीसरे दोनों के अनुसार नये पूँजीवादी ठेकेदार वर्ग पूर्व-पूँजीवादी वित्तीय या व्यापारी वर्गों से उत्पन्न नहीं हुए (बल्कि)……… नया पूँजीवादी वर्ग उभरता हुआ वर्ग था। इसके अतिरिक्त ऐसा लगता है कि मार्क्स और वेबर दोनों भविष्य में ‘‘धर्म के पतन” के बारे में सहमत थे।
दोनों में मुख्य अंतर यह है कि मार्क्स विचारों को सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं के सीधे सादे प्रतिबिंब मात्र मानता था, जबकि वेबर विचारों को विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण मानता था। वेबर ने धर्म और विकास के बीच सीधा संबंध नहीं जोड़ा। वेबर के अनुसार, विकास के एक विशिष्ट चरण के बाद धर्म उन लोगों की विचारधारा के रूप में काम कर सकता है जिन्हें विकास का लाभ प्राप्त हुआ है। मार्क्स और वेबर के विचारों में अंतर इस बात पर भी है कि वेबर ये मानता है कि धर्म की आलोचना धर्म से जुड़कर भी की जा सकती है, जबकि मार्क्स इस बात को स्वीकार नहीं करता। मार्क्स के अनुसार धर्म की आलोचना उससे बाहर रहकर ही की जा सकती है। उसके विचार में धर्म सामाजिक शोषण को छुपाने वाले यंत्र के रूप में हर युग, हर समाज और हर संस्कृति में सक्रीय रहा है, जबकि वेबर के अनुसार धार्मिक विचारों और विकास का संबंध विशिष्ट ऐतिहासिक सांस्कृतिक संदर्भो पर ही लागू है। वेबर की विचारधारा ‘‘व्यक्ति‘‘ को महत्व देती है, मार्क्स की विचारधारा में यह बात नहीं है।
इन विशिष्ट भिन्नताओं के अतिरिक्त मार्क्स और वेबर के धर्म संबंधित विचारों में काफी अंतर है। मार्क्स ने इतिहास को अनेक युगों में विभाजित किया है, जो उत्पादन के साधनों के स्वामित्व पर आधारित हैं। इतिहास में पूँजीवाद भी ऐसा एक युग है। दूसरी और वेबर के लिये पूँजीवाद ‘‘तर्कसंगतिकरण‘‘ के लंबे इतिहास का एक विषय चरण है। वेबर पूँजीवाद को एक आर्थिक या सामाजिक व्यवस्था मात्र न मानते हुए उसे एक सांस्कृतिक व्यवस्था भी मानता है, जिसमें वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र-जैसे कि प्रशासन, न्याय व्यवस्था, विज्ञान आदि में- तर्कसंगतिकरण को दर्शाता है।
कार्यकलाप 1
अपने क्षेत्र के कुछ धनी व्यक्तियों अथवा व्यापारियों से मिलने का प्रयास करें तथा धर्म के बारे में उनके विचारों की जानकारी प्राप्त करें। इसके साथ ही उनके धार्मिक व्यवहारों का भी अध्ययन करें।
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