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रथ मंदिर किसने बनवाया था rath temple mahabalipuram built by in hindi महाबलीपुरम निर्माण किसने किया

महाबलीपुरम निर्माण किसने किया रथ मंदिर किसने बनवाया था rath temple mahabalipuram built by in hindi ?

 पल्लव कालीन मूर्ति शिल्पकला के केन्द्र के रूप में महाबलीपुरम (मामल्लपुरम) का वर्णन कीजिए।
उत्तर: मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) पूर्वमध्यकालीन कला के तीसरे प्रमुख केन्द्र दक्षिण में कांची के सामने समता मामल्लपुरम में चट्टानों से काटे गये
विशाल मंदिर हैं, जिन्हें रथ कहा जाता है। इसी स्थान को महाबलीपुरम के से भी जाना जाता है।
पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन के प्रथम उत्तराधिकारी नरसिंह वर्मन (प्रथम) मामलल के समय इनका निर्माण हुआ जिसी कुछ मदिर महेन्द्र शैली में भी बनाये गये हैं। ये एक ही चट्टान से काटे गये विशाल मंदिर हैं। अतः इन्हें रथ भी कहा जाता है।
यहां की शैली. छाजनदार वास्तु की है। पल्लव मूर्तिकला पूर्वमध्यकालीन मूर्तिकला थी। पल्लवकालीन मतिमि पूर्ववर्ती आंध्र की वेंगी शैली की अमरावती की मूर्तियों से प्रभावित दिखाई देती हैं जिन्हें शरीर रचना की दलि अमरावती मूर्तिशिल्प के समान ही भव्य और पतली होते हुए भी अधिक गतिशील रूप में व जीवन्तता के साण अभिव्यक्ति दी गई हैं। जो इन मूर्तियों का निजत्व कहा जाना चाहिए जिनमें स्वतंत्र पल्लव शैली के दर्शन होते हैं।
आकृतियों के शरीर मांसल दिखाई देते हैं। ये अधिक उभरे हुए शिल्प हैं। शैली कथात्मक है। चेहरे गोल से लम्बे तथा अण्डाकार हो गये हैं। कमर का भाग क्षीण दिखाया गया है। अत्यन्त भीड़-भाड़ वाला संयोजन है तथा नीचे का होठ थोड़ा-सा आगे की ओर निकला हुआ दिखाया गया है।
अधिकांश तक्षण कला समूह हिन्दू धर्म संबंधी पुराण कथाओं का ही दिग्दर्शन कराते हैं। यथा-महिषमर्दिनी, अनन्तशायी, भू-वराह, त्रिविक्रम, गज-लक्ष्मी, दुर्गा, ब्रह्मा, हरिहर इत्यादि। इसी के साथ राजा-रानियों की भी मूर्तियां हैं, जैसे – सिंह विष्णु, महेन्द्र वर्मन, नरसिंह वर्मन आदि। विशेषताएं
इस प्रकार पल्लव मूर्तिशिल्प कला की मुख्य विशेषता आकृतियों का अतिशय लम्बा और पतला होना है जिनमें मस्तकों पर लम्बे मुकुट के माध्यम से लम्बाई में और भी वृद्धि दिखाई देती है। गुप्तकालीन मूर्तिशिल्पों की तुलना में पल्लव आकृतियों के मुख अधिक अण्डाकार और लम्बोतरे हैं जिनमें कपोल की हड्डियां भी अधिक लम्बी हैं। महाबलीपुरम् के मण्डपों, रथों एवं चट्टानों पर उत्कीर्ण, मूर्तियां एलिफेन्टा एवं एलोरा के मूर्तिशिल्पों की भारी-भरकम शरीर रचना के विपरीत पतली व गतिशील तथा नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण दिखाई देती हैं। पल्लव मूर्तिकला में देव और मानव मूर्तियों को समान रूप से ही भव्यता प्रदान की गई है। इसी के साथ पशु जगत् के अंकन में भी महाबलीपुरम् के उदाहरण सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। बेन्जामिन रोलैण्ड जैसे कला मर्मज्ञ के अनुसार – श्श्पशु जगत् का इतना जीवंत अंकन विश्व के अन्य किसी क्षेत्र में नहीं दिखाई देता है।” गंगावतरण के विशाल चट्टानी शिल्प पर गजसमूह का अकन, गज-आकृतियों के पैरों के बीच एवं उनके पास-पास शिशु गजों का अंकन, खरों से नाक सहलाते मृगों, व्याघ्रो तथा पंचतंत्र की कथा के अनुरूप दोनों पैरों पर खड़े होकर दोनों हाथ ऊपर उठाये तपस्यारत विडाल तथा वानर परिवार की अंकन इस शिल्प में उत्कीर्ण पशु जगत् के श्रेष्ठतम उदाहरण कहे जायेंगे।
प्रश्न: राजपूत कालीन मंदिर वास्तुकला का शिल्पशास्त्रीय आधार क्या था? तत्कालीन समय की मंदिर स्थापत्य शैलियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: वास्तु-कला रू मंदिर रू गुप्तकाल के पश्चात् समूचे भारत में मंदिर निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हो गयी। वास्तुशास्त्रा मंदिर की उपमा मानव
शरीर से देते हुए उसके आठ अंगों का विधान किया गया। ये इस प्रकार मिलते हैं –
1. आधार या चैकी (इसका एक अन्य नाम जगतीपीठ भी है)।
2. वेदिबन्द (आधार के ऊपर का गोल अथवा चैकोर अंग)।
3. अन्तर पत्र (वेदिबन्ध के ऊपर की कल्पबल्ली या पत्रावली पट्टिका)। दृ
4. जंघा (मंदिर का मध्यवर्ती धारण स्थल)।
5. वरंडिका (ऊपर का बरामंदा)।
6. शुकनासिका (मंदिर के ऊपर का बाहर निकला हुआ भाग)।
7. कण्ठ या ग्रीवा (शिखर के ठीक नीचे का भाग)।
8. शिखर (शीर्ष भाग जिस पर खरबुजिया आकर का आमलक होता था)।
मंदिर निर्माण के उपुर्युक्त आठ अंग सम्पूर्ण देश में प्रचलित हो गये। प्रवेश-द्वार (तोरण) को कई शाखाआ म… करने तथा उसे विविध प्रकार के अलंकरणों से सजाने की प्रथा भी प्रचलित हुई। सातवीं शती से सम्पूर्ण भारत में पूर्ण भारत में स्थापत्य एक नया माड़ आया तथा उत्तर. मध्य एवं दक्षिण की कलाकतियां अपनी निजी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत का गयी। अनेक शास्त्रीय ग्रंथों – मानसोल्लास मानसार समरांगणसत्रधार. अपराजितपच्छा, शिल्प्रकाश, सुप्रभदागम्, कामानकागम् आदि की रचना हई तथा इनमें मंदिर वास्त के मानक निर्धारित किये गये। इनके अनपालन में कलाकारा न अपनी कृतियां प्रस्तुत की। शिल्पग्रंथों में स्थापत्य कला के क्षेत्र में तीन प्रकार के शिखरों का उल्लेख मिलता है जिनक आधार पर मंदिर निर्माण की तीन शैलियों का विकास हुआ।
1. नागर शैली
2. द्रविड़ शैली
3. वेसर शैली
उपर्युक्त सभी नाम भौगोलिक आधार पर दिये गये प्रतीत होते हैं। नगर शैली उत्तर भारत की शैली थी जिसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक दिखाई पड़ता है। द्रविड शैली का प्रयोग कष्णा नदी से कन्याकमारी तक मिलता है। विन्ध्य तथा कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में वेसर शैली प्रचलित हुई। चूंकि इस क्षेत्र में चालुक्य वंश का आधिपत्य रहा, अतः इस शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। श्वेसरश् का शाब्दिक अर्थ श्खच्चरश् होता है जिसमें घोड़े तथा गधे दोनों का मिला-जुला रूप है। इसी प्रकार वेसर शैली के तत्व नागर तथा द्रविड दोनों से लिये गये थे। पी.के. आचार्य श्वेसरश् का अर्थ नाक में पहना जाने वाला आभूषण मानते हुए यह प्रतिपादित करते हैं कि चूंकि इसका आकार आधार से शिखर तक वृत्त के आकार का गोल होता था, अतः इसकी संज्ञा श्वेसरश् हुई। इसी प्रकार वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर मंदिर आधार से सर्वोच्च अंश तक चतुरस्र (चतुष्कोण या चैकोर) तथा द्रविड अष्ठकोण (अष्टान) होने चाहिए।
किन्तु कुछ स्थानों पर उपर्युक्त मानक का उल्लंघन भी मिलता है। ऐसी स्थिति में मंदिर का प्रत्यक्ष आकार देखकर ही उसकी शैलीगत विशेषतायें निर्धारित की जा सकती हैं। नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मुख्य अन्त शिखर संबंधी है जिसे श्विमानश् कहा जाता है। शिल्पशास्त्र के ग्रंथों में विमान को सात तलों वाला बताया गया है। नागर शैली में आयताकार गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार के समान गोल या चैकोर शिखर बनाये जाते थे जो त्रिकोण की भांति ऊपर पतले होते थे। द्रविड़ शैली के शिखर वर्गाकार तथा अलंकृत गर्भगृह के ऊपर बनते थे। ये कई मंजिलों से युक्त पिरामिडाकार हैं। बाद में द्रविड़ मंदिरों को घेरने वाली प्राचीर में चार दिशाओं में विशाल तोरण द्वार बनाये गये। इनके ऊपर बहुमंजिले भवन बनने लगे जिन्हें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकत किया गया। ये कभी-कभी विमान से भी ऊँचे होते थे। तोरण द्वार पर बनी इन अलंकृत एवं बहुमंजिली रचनाओं को श्गोपुरमश् नाम दिया गया है।
पूर्व-मध्यकालीन उत्तर भारत में सर्वत्र नागर शैली के मंदिर बनाये गये। इनमें दो प्रमुख लक्षण है – अनुप्रस्थिका (योजना) तथा उत्थापन (ऊपर की दिशा में उत्कर्ष या ऊँचाई)। छठी शताब्दी के मंदिरों में स्वस्तिकाकार योजना सर्वत्र दिखाई देती है। अपनी ऊँचाई के क्रम में शिखर उत्तरोत्तर ऊपर की ओर पतला होता गया है। दोनों पावों में क्रमिक रूप से निकला हुआ बाहरी भाग होता है जिसे श्अम्रश् कहते हैं। इनकी ऊँचाई भी शिखर तक जाती है। आयताकार मंदिर के प्रत्येक ओर रथिका (प्रक्षेपण = च्तवरमबजपवद) तथा अस्रों का नियोजन होता है। शिखर पर आमलक स्थापित किया जाता है जो सम्पूर्ण रचना को अत्यन्त आकर्षक बनाता है।
राजपूत शासक बड़े उत्साही निर्माता थे। अतः इस काल में अनेक भव्य मंदिर, मूर्तियों एवं सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया गया। राजपूतकालीन मंदिरों के भव्य नमूने भुवनेश्वर, खजुराहो, आबू पर्वत (राजस्थान) तथा गुजरात से प्राप्त होते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है –