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रणथंभौर का किला किसने बनवाया | रणथंभौर का किला कहां स्थित है जिले का नाम ranthambore fort built by in hindi

ranthambore fort built by in hindi रणथंभौर का किला किसने बनवाया | रणथंभौर का किला कहां स्थित है जिले का नाम made by whom ?

उत्तर : रणथम्भौर का किला रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) चैहान शासकों द्वारा (आठवीं शताब्दी में) (रणथानदेव/रंतिनदेव) 1301 ई. में बनाया गया था | यह किला प्रथम साका, राणा हम्मीर की आन-बान-शान के लिए प्रसिद्ध है | यह गिरि एवं वन दुर्ग श्रेणी का किला है |

निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: राजस्थान के प्रमुख लोक देवताओं का राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रगति में योगदान बताइये। 
उत्तर भाग – 1 प्रमुख लोक देवताओं के नाम एवं स्थान भमिका (40-50 शब्दों में)
प्रारूप भाग – 2 सामाजिक – सांस्कतिक प्रगति में योगदान (150-160 शब्दों में)

उत्तर: समय-समय पर उत्कृष्ट कार्य, बलिदान, उत्सर्ग एवं परोपकार करने वाले महापुरुष लोकदेवता के रूप में पूजनीय तह राजस्थान में ऐसे लोकदेवताओं में बाडमेर के रामदेवजी तंवर, जोधपुर के पाबूजी राठौड़, चूरू के गोंगाजी चैहान, नागौर के तेजाजी जाट, आसींद के देवनारायणजी गुर्जर, मारवाड़ के कल्लाजी राठौड़ एवं अन्य अनेक लोक देवता हुए जिन्होंने अपने आत्मोत्सर्ग द्वारा सादा व सदाचारी जीवन बिताने के कारण अमरत्व प्राप्त किया। इन्होंने राजस्थान की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं के तहत स्पष्ट किया जा सकता है।
1. सामाजिक सुधारक के रूप में: सभी लोक देवताओं ने अस्पृश्यता, जाति – पांति, छुआछूत, ऊँच-नीच का भेदभाव आदि बुराईयों का निराकरण कर निम्न वर्ग के दयनीय स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया।
2. कष्टों के निवारक के रूप में: इन्होने अपने विचारों से बांझ को पुत्र, अंधे को आंख, लूले को पैर, कोढी को स्वस्थ्यता प्रदान की। लोक आस्था से सरोबार समाज अपने कष्टों की व्यथा, कथा को इनके स्थानों एवं चित्रों के सामने सुनाकर ‘जाण‘ पाते हैं।
3. आपसी मेल मिलाप एवं समरसता को बढ़ावा: लोकदेवों के स्थानों पर लगने वाले मेलों में विभिन्न क्षेत्रों एवं वर्गों के लाखों लोग मिलते हैं जिससे उनमें आपसी मेल मिलाप पारस्परिक सौहार्द उत्पन्न होता है क्योंकि इन लोक देवों में सभी जातियों को बिना भेदभाव के एक साथ समरसतापूर्वक रहने का संदेश दिया था।
4. उद्धारकर्ता एवं संस्कृति के संरक्षक के रूप में: इन लोक देवताओं ने आत्ताइयों के अत्याचारों से देश, धर्म, गाय, ब्राह्मण एवं मातृभूमि की रक्षा कर धर्म का पालन कर इसे अक्षुण्ण रखा। बाहरी आक्रमणकारियों से हमारी संस्कृति को दूषित होने से बचाया।
5. उच्च सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा: इन्होंने आत्मज्ञान, साधना, आत्मकल्याण, त्याग, सत्य, निष्ठा, ईमानदारी, कर्तव्य परायणता, न्याय, सद्मार्ग की प्रेरणा आदि उच्च सांस्कृतिक आदर्शों का पालन कर एवं बोलचाल की भाषा में व्यक्त कर लोगों को इन मूल्यों को मानने के लिए प्रेरित किया।
6. भक्ति भावना के विकास में योगदान: इन्होंने तत्कालीन राजस्थान की अशिक्षित, खेतीहर एवं निम्न जातियों में नवीन भक्ति भावना को प्रस्फुटित किया। लोग जटिल आराधना पद्धति को त्याग गांव- गांव में इनके देवरे, मंदिर आदि बनाकर सहज भक्ति एवं भावना से उन्हें पूजने लगे।
7. एकता, ध्यान व नैतिक मूल्यों के विकास में योगदान: इन लोक देवों में विश्वास के कारण राजस्थान की अधिकांश ग्रामीण जनता ने बिना धर्मदर्शन पढ़े संस्कृति के मूल मंत्र एकता, ध्यान और नैतिक मूल्यों को समझने में सफलता प्राप्त की।
8. समाज को एकसूत्रता में बंधे रहने की प्रेरणा: इन लोक देवताओं में लोगों का अत्यधिक लगाव होने के कारण इनके अनुयायी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं जो अपने आपको एक समाज का अंग मानकर एकता का अनुभव करते हैं।
9. लोक साहित्य के विकास में योगदान: अनेक लोकदेवता कवि भी हुए जिन्होंने अपने धर्मोपदेश ग्रंथ लिखे। बाद के साहित्यकारों/अनुयायिओं ने इनकी गाथाओं से भरपूर लोक साहित्य की रचना कर राजस्थान के लोक साहित्य को समृद्ध किया है।
10. लोक स्थापत्य – कला के विकास में योगदान: राजस्थान में एक भी ऐसा गांव या शहर नहीं है जहाँ इन लोकदेवताओं के छोटे-बड़े एवं विशाल मंदिर, देवरे न हों जिसने लोक स्थापत्य के साथ – साथ राजस्थान की स्थापत्य कला को समृद्ध किया है।
11. लोकगीतों के विकास में योगदान: राजस्थान के लोक गीतों में राजस्थान के लोक देवताओं के शौर्य एवं चमत्कारिक कार्यों से सम्बन्धित अनेक लोक गीत भरे पडे हैं जो सर्वत्र ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी गाये जाते हैं।
12. चित्रकला एवं मूर्तिकला आदि के विकास में योगदान: इस प्रकार इनकी प्रेरणा से लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिली। इससे सामाजिक जीवन सुसंगठित हुआ और आचारगत विशिष्टताओं की व्यावहारिकता के पालन हेतु लोग जागरूक रहने लगे। इस प्रकार लोक देवताओं-देवियों यहाँ के सामाजिक धार्मिक, नैतिक जीवन को न केवल प्रभावित किया बल्कि एक नवीन दिशा भी दी जो उस समय की आवश्यकताओं के अनुरूप थी।
प्रश्न:. राजस्थान की सामाजिक सांस्कृतिक प्रगति में यहाँ के प्रमुख संतों के योगदान का वर्णन कीजिये। संतों का संक्षिप्त वर्णन 50 शब्दों में।
उत्तर: उपरोक्त उत्तर बिन्दुओं में से 1, 3, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12
ईश्वर, गुरु महिमा का प्रतिपादन आदि बिन्दुओं को भी सम्मिलित करना है।
प्रश्न: राजस्थान म भाक्त आदोलन क्या था। इसके प्रमुख संतों की जानकारी एवं उनका योगदान बताइये।
उत्तर: परम्परागत धर्मों में सभी वर्गों के और स्तरों के व्यक्ति विश्वास रखते थे और रखते हैं परन्तु उनमें अनेक दोष समाहित हो थे। देश के साथ – साथ राजस्थान में भी अनेक विचारक इन दोषों को निकालने का प्रयत्न कर रहे थे। इस्लाम के प्रभाव से धार्मिक मनन को प्रधानता, जाति-पांति से ऊपर उठकर मानव कल्याण की ओर ध्यान, आधारभूत भारताय विचार एव धर्म में श्रद्धा को बनाये रखना तथा निहित विचारों की भक्ति द्वारा परिमार्जित कर ईश्वर में आसक्ति पैदा का जाये। इस प्रकार की प्रगति को भक्ति आंदोलन (धार्मिक सामाजिक सुधार) की संज्ञा दी गई।
भक्ति आंदोलन के तहत राजस्थान में अनेक संत और उनके पंथ हए जिन्होंने इस आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनमें से प्रमुख संत एवं उनके पंथ निम्नलिखित हैं –
जाम्भोजी: 15वीं सदी में नागौर के जाम्बोजी ने निर्गण भक्ति का प्रचार कर 29 नियमों का प्रतिपादन किया, जिनमें साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं का विरोध एवं गुरु महिमा, ईश्वर में आस्था आदि का प्रचार किया। इनके अनुयायी विश्नोई कहलाये।
संत जसनाथजी: 15वीं सदी के बीकानेर के जसनाथजी ने ज्ञानमार्गी ‘जसनाथी सिद्ध सम्प्रदाय‘ का प्रचार कर 36 नियमों का प्रतिपादन किया। सिंभूदडा व कोण्डा ग्रंथों में अपने धर्मोपदेश अहिंसा, नैतिकता आदि विचार रखे जिनका उद्देश्य व्यक्तित्व समाज के आचरण को शुद्ध करना था।
संत दादूजी: संत दादू जी राजस्थान के कबीर कहे जाते हैं इन्होंने अपने विचार स्थानीय बोधगम्य भाषा में जनता के सामने रखे। ये निर्गुण संत परम्परा के प्रमुख संत थे जिन्होंने निर्गुण निराकार ब्रह्म, एकेरेश्ववाद एवं गुरु की महिमा का प्रतिपादन किया। साम्प्रदायिक सौहार्द, जाति-पांति, छुआछूत का विरोध कर प्रेम का सन्देश फैलाया। इनके अनुयायी दादू पंथी कहलाये।
संत मीराबाई: संत शिरोमणि मीरा बाई का धर्म भक्ति था जिसमें रूढ़ियों और उपकरणों का कोई स्थान नहीं था। इनकी भक्ति की प्रमुख विशेषता थी ज्ञान पक्ष की बजाय भावना पर बल। इन्होंने उच्च सिद्धान्तों को बोलचाल की भाषा में व्यक्त किया जिससे उनके अनुयायियों एवं प्रशंसकों में कृषकों से लेकर उच्च विचारक तक सम्मिलित हुए। इनके अनुयायी मीरादासी कहलाते हैं।
संत लालदासजी: अलवर क्षेत्र के मेव जाति के लक्कड़हारे लालदास जी ने सीधी सपट भाषा में गुरु महिमा. ईश्वर की एकता, जाति-पांति का विरोध, साम्प्रदायिक एकता पर बल देकर ग्रामीण समाज को सद्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया। इनके अलावा संत पीपाजी, धन्नाजी, चरणदासजी, सुन्दरदासजी, हरिदासजी, रामदासजी अनेक प्रसिद्ध संत और उनके द्वारा स्थापित पंथ हए जिनके अथक परिश्रम से जाति-भेद, कर्मकाण्ड आदि समाप्त होने लगे। नैतिक आचरण, सदाचार, भक्ति. साधना प्रेम, सत्य, गरु भक्ति, ईश्वर में विश्वास आदि का प्रकाश देदीप्तयमान हुआ। इन पंथों में एक आध्यात्मिक स्वर था जिसमें जिज्ञासु एवं भ्रान्तों के लिए शांति का मार्ग सुलभ हो सका।
प्रश्न: राजस्थान में धार्मिक मान्यताएं एवं सम्प्रदाय तथा प्रमुख संत एवं उनके पंथों का वर्णन कीजिए। ख्त्।ै डंपदश्े 2007,
उत्तर: भारत की धार्मिक परम्पराएं वैदिक संस्कृति, अवतारवाद, भक्ति आंदोलन, कवियों एवं संतों के उपदेशों से प्रभावित रही जिसके फलस्वरूप राजस्थान में विभिन्न धार्मिक मान्यताआ एव. सम्प्रदाया का विकास हुआ जो निम्नलिखित हैं –
शैव धर्म एवं उसके सम्प्रदाय: शिव से सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा गया जिसकी निरन्तरता यहाँ सिंधुघाटी सभ्यता से रही है। 12वीं सदी में इसके अनेक सम्प्रदाय विकसित हुए जिनमें से लुकलीश द्वारा प्रवर्तित पाशुपत सम्प्रदाय, भैरव का कापालिक सम्प्रदाय तथा नाथ पंथ, खाका, न खाकी, नागा, सिद्ध, निरंजनी आदि प्रमुख है। इस मत के अनेक पंथ और कंथ विकसित हुए जो आज जगह-जगह दिखाइ भी देते है। इनके प्रमुख संतों में लकुलीश, हरित ऋषि, जसनाथ गोरखनाथ जी, मछन्दर नाथ आदि प्रमुख संत थे।
वैष्ण धर्म एवं उसके सम्प्रदाय: विष्णु एवं उसके अवतारों को मानने वाले वैष्णव धर्मावलम्बियों के प्रमाण यहाँ दूसरी सदी के घोसुण्डी अभिलेख से प्रमाणित होते हैं। 15-16वीं सदी में इस धर्म के वल्लभ-सम्प्रदाय, निम्बाक्र सम्प्रदाय, गौड़ीय सम्प्रदाय एवं रामावत सम्प्रदाय की सगुण भक्ति परम्परा का यहाँ विकास हुआ। इन सम्प्रदायों ने श्रीकृष्ण एवं राम को आराध्य देव मानकर पूजा की जाने लगी। इनके प्रमुख संतों में संत मीराबाई, कृष्ण पयहारी, परशुराम निम्बार्की आदि प्रमुख संत थे।
शाक्त धर्म: शक्ति देवी की पूजा में विश्वास करने वाले शाक्त कहलाये। यहाँ प्राचीन काल से देवी सम्प्रदाय की मान्यता रही है। पूर्व मध्यकाल में योद्धा जातियों ने शक्ति को आराध्य मानकर अपनी कुल देवी का दर्जा दिया जो लोक देवी के रूप में भी पूजित एवं श्रद्धा की पात्र रही। करणीमाता, नागणेची माता, जीणमाता आदि आज भी जनमानस की लोकदेवी है।
जैन धर्म: राजस्थान के दक्षिण – पश्चिमी अंचल में जैन धर्म काफी फैला तथा इसके अनेक मंदिर बनाए गए। इसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी आदि सम्प्रदाय विकसित हुए। यह अपनी अहिंसा एवं कर्म सिद्धान्त के लिए जाना जाता है।
इस्लाम धर्म: राजस्थान में 12वीं सदी में इस्लाम का प्रवेश हुआ जिसके एकेश्वरवाद एवं सूफी संतों के नैतिक आचरणों से जनता प्रभावित हुई। आज यह राजस्थान का दूसरा बड़ा धर्म है। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेर हाजिब शक्कर बादशाह झुंझुनूं, फखरुद्दीन वीर गलियाकोट, संत हमीमुद्दीन नागौरी आदि प्रसिद्ध सूफी संत हुए।
प्रकृति पूजा की मान्यता: याज्ञिक कर्मकाण्डों की बजाय यहाँ के निवासियों की यक्ष – यक्षिणी, पश, नाग, वृक्ष, जलाशय, मछली आदि की पूजा अर्चना में निष्ठा एवं मान्यता देखने को मिलती है।
प्रमुख संत एवं उनके पंथ: इसमें निर्गुण परम्परा से रामस्नेही सम्प्रदाय व उसके संत, जाम्बोजी, जसनाथजी, दादजी, चरणदासजी, लालदासजी आदि का एवं उनके सम्प्रदायों का संक्षिप्त वर्णन करना है। (100 शब्द पीछे वाले प्रश्न से ले)