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इन्द्रधनुष की परिभाषा क्या है ? आकाश में इंद्रधनुष कब और कैसे बनता है , कारण , rainbow in hindi

rainbow in hindi , इन्द्रधनुष की परिभाषा क्या है ? आकाश में इंद्रधनुष कब और कैसे बनता है , कारण , प्राथमिक और द्वितीयक प्रकार  :-

इन्द्रधनुष (rainbow in hindi) : इंद्र धनुष एक प्राकृतिक घटना है जो आकाश में प्रेक्षक को संकेन्द्रीय अर्द्ध चापो के रूप में तथा अलग अलग रंगों की पट्टियों के रूप में दिखाई देता है।

इंद्रधनुष प्रकाश के अपवर्तन , पूर्ण आंतरिक परावर्तन तथा वर्ण विक्षेपण की एक सम्मिलित घटना है।

चित्र-वर्षा की बूंद द्वारा प्रकाश का अपवर्तन , पूर्ण आन्तरिक परावर्तन व वर्ण विक्षेपण।

इन्द्र धनुष मुख्यतः दो प्रकार के होते है –

  1. प्राथमिक इंद्रधनुष
  2. द्वितीयक इन्द्रधनुष

चित्र : वर्षा की बूंदों द्वारा प्राथमिक इन्द्र धनुष का निर्माण।

 प्राथमिक इन्द्रधनुष  द्वितीयक इन्द्रधनुष
 1. इसका निर्माण प्रकाश किरण का वर्षा की बूंदों द्वारा दो बार अपवर्तन तथा एक बार पूर्ण आंतरिक परावर्तन के कारण होता है।  इसका निर्माण प्रकाश किरण का दो बार अपवर्तन तथा दो बार पूर्ण आंतरिक परावर्तन के कारण होता है।
 2. इस इन्द्रधनुष में बैंगनी रंग सबसे नीचे तथा लाल रंग सबसे ऊपर होता है।  इस इन्द्र धनुष में बैंगनी रंग सबसे ऊपर तथा लाल रंग सबसे नीचे होता है।
3. इस इंद्र धनुष की तीव्रता अधिक होती है जिसके कारण यह स्पष्ट दिखाई देता है।  इस इंद्रधनुष की तीव्रता कम होती है जिसके कारण यह धुंधला दिखाई देता है।
 4. इस इन्द्रधनुष के लिए दर्शन कोण 2 डिग्री होता है।  इस इन्द्रधनुष के लिए दर्शन कोण 3 डिग्री होता है।
 5. इस इन्द्रधनुष की चौड़ाई कम होती है।  इस इन्द्रधनुष की चौड़ाई अधिक होती है।
 6. इस इन्द्रधनुष में प्रेक्षक की क्षेतिज दिशा से वर्षा की बूंद का दर्शन कोण लगभग 41 डिग्री होता है।  इस इन्द्रधनुष में प्रेक्षक की क्षैतिज दिशा से वर्षा की बूंद का दर्शन कोण लगभग 53.5 डिग्री होता है।
 7. प्राथमिक इन्द्रधनुष में आपतित प्रकाश किरण की दिशा तथा निर्गत बैंगनी रंग की दिशा के मध्य का कोण 40 डिग्री तथा आपतित प्रकाश किरण की दिशा व निर्गत लाल रंग की दिशा के मध्य कोण 42 डिग्री होता है।  द्वितीयक इन्द्रधनुष में आपतित प्रकाश किरण की दिशा तथा निर्गत बैंगनी रंग की दिशा के मध्य कोण 55 डिग्री तथा आपतित किरण की दिशा व निर्गत लाल रंग की दिशा के मध्य कोण 53 डिग्री होता है।

मानव नेत्र (human eye)

मानव नेत्र प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक ऐसा प्रकाशिकी यंत्र है जिसकी सहायता से संसार में स्थित रंग बिरंगी वस्तुओ को देखा जाता है।

बनावट एवं क्रियाविधि : नेत्र के सबसे उपरी भाग पर बाहरी आघातों से बचाने के लिए एक कठोर पारदर्शी पृष्ठ होता है जिसे दृढ पटल कहते है।

दृढ़ पटल के निचे एक पारदर्शी झिल्ली का लेंस होता है जिसे कोर्निया या स्वच्छ पटल कहते है।

कोर्नियाँ एक ऐसा प्राकृतिक लेंस होता है जिसमे कभी भी स्क्रेच नहीं होता है।

कोर्निया के पीछे भूरे रंग की एक पतली झिल्ली होती है जिसे पारितारिका या आइरिस कहते है। पारितारिका तथा कोर्निया के मध्य पारदर्शी द्रव भरा रहता है जिसे नेत्रोद द्रव कहते है।

परितारिका के मध्य भाग में एक छोटा सा छिद्र होता है जिसे आँख की पुतली या आँख का तारा कहते है।

पुतली वस्तु से आने वाले प्रकाश को नियंत्रित करने के लिए अपने आकार को फैला सकती है या सिकुड़ सकती है।

पुतली के पीछे उत्तलाकार तथा अलग अलग वक्रीय अपवर्तक पृष्ठों का एक लैंस लगा रहता है जिसे अभिनेत्री लेंस कहते है। अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी को कम ज्यादा करने के लिए पक्ष्माभी पेशियों का उपयोग किया जाता है।

वस्तु से निकलने वाली प्रकाश किरण जब कोर्निया को पार करती हुई तथा पुतली में प्रवेश करती हुई अभिनेत्री लेंस पर आपतित होती है तो अभिनेत्री लेंस इन्हें रेटिना पर फोकसीत (केन्द्रित) करता है। रेटिना पर वस्तु का उल्टा प्रतिबिम्ब प्राप्त होता है।

इस प्रतिबिम्ब के संकेतो को दृक तंत्रिकाओ की सहायता से मस्तिष्क तक पहुँचाया जाता है जहाँ मस्तिष्क के ज्ञान के अनुभव के आधार पर वस्तु का प्रतिबिम्ब सीधा होने का आभास कराया जाता है।

रेटिना व अभिनेत्री लेंस के मध्य एक गाढ़ा पारदर्शी द्रव भरा रहता है जिसे काचाभ द्रव कहते है। रेटिना पर पित्-बिंदु व अंध बिंदु उपस्थित रहते है। अंध बिन्दु पर बनने वाले प्रतिबिम्ब धुंधले दिखाई देते है जबकि पित बिन्दु पर बनने वाले प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देते है।

नेत्र की समंजन क्षमता : दूर या पास स्थित वस्तुओ के प्रतिबिम्बों को स्पष्ट देखने के लिए पक्ष्माभी पेशियों द्वारा अभिनेत्री लेंस की फोकस दूरी को कम ज्यादा करने की क्षमता को ही नेत्र की समंजन क्षमता कहते है।

नेत्र का निकट बिन्दु : नेत्र से न्यूनतम दूरी पर स्थित वह बिंदु जिस पर स्थित वस्तु को नेत्र की अधिकतम समंजन क्षमता का उपयोग करके स्पष्ट देखा जा सके , नेत्र का निकट बिंदु कहलाता है।

नेत्र का दूर बिन्दु : नेत्र से अधिकतम दूरी पर स्थित वह बिंदु जिस पर स्थित वस्तु का नेत्र की अधिकतम समंजन क्षमता का उपयोग करके स्पष्ट देखा जा सके , नेत्र का दूर बिन्दु कहलाता है।

नेत्र की न्यूनतम स्पष्ट दूरी (D) : नेत्र के निकट बिंदु की वह न्यूनतम दूरी जिस पर रखी वस्तु स्पष्ट दिखाई दे , नेत्र की न्यूनतम स्पष्ट दूरी कहलाती है।

स्वस्थ मानव के नेत्र की न्यूनतम स्पष्ट दूरी (D) 25 सेंटीमीटर होती है।

स्वस्थ मानव के नेत्र की अधिकतम स्पष्ट दूरी (D) अनंत होती है।

दृष्टि परास : मानव के नेत्र के निकतम बिंदु तथा दूर बिंदु के मध्य की वह सीधी दूरी जिस पर रखी वस्तु स्पष्ट दिखाई दे , नेत्र की दृष्टि परास कहलाती है।

दृष्टि दोष : दृष्टि दोष मुख्यतः चार प्रकार के होते है –

(i) निकट दृष्टि दोष

(ii) दूर दृष्टि दोष

(iii) जरा दृष्टि दोष

(iv) अवबिन्दुवत का दोष

(i) निकट दृष्टि दोष : वह दृष्टि दोष जिसमे निकट की वस्तु तो स्पष्ट दिखाई दे परन्तु दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं दे , निकट दृष्टि दोष कहलाता है।

कारण :

  • अभिनेत्री लेंस व रेटिना के मध्य दूरी बढ़ने के कारण।
  • अभिनेत्री लेन्स की फोकस दूरी कम होने के कारण।

उपाय : अवतल लेंस का उपयोग किया जाता है।

(ii) दूर दृष्टि दोष : वह दृष्टि दोष जिसमे दूर की वस्तु तो स्पष्ट दिखाई दे परन्तु पास की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है , दूर दृष्टि दोष कहलाता है।

कारण :

  • अभिनेत्री लेंस व रेटिना के मध्य की दूरी कम होने के कारण।
  • अभिनेत्री लेंस की फोकस दूरी बढ़ने के कारण।

उपाय : उत्तल लेंस का उपयोग किया जाता है।

(iii) जरा दृष्टि दोष : वह दृष्टि दोष जिसमे न तो पास की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है तथा न ही दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है , जरा दृष्टि दोष कहलाता है।

कारण : वृद्धावस्था में पक्ष्माभी पेशियों में शिथलता उत्पन्न हो जाने के कारण।

उपाय : द्वि फोकसी लेंस का उपयोग किया जाता है।

(iv) अवबिन्दुवत का दोष : वह दृष्टि दोष जिसमे यदि क्षैतिज रेखाएँ स्पष्ट दिखाई देती है तो उध्वाधर रेखाएं अस्पष्ट दिखाई देती है या फिर यदि उर्धवाधर रेखाएं स्पष्ट दिखाई देती है तो क्षैतिज रेखाएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती है , अवबिंदुकता का दृष्टि दोष कहलाता है।

कारण : कोर्निया की वक्रता में परिवर्तन होने के कारण।

उपाय : बेलनाकार लेंस का उपयोग किया जाता है।

इन्द्रधनुष– परावर्तन, पूर्ण आन्तरिक परावर्तन तथा अपवर्तन द्वारा वर्ण विक्षेपण का सबसे अच्छा उदाहरण इन्द्रधनुष हैं।

इन्द्रधनुष दो प्रकार के होते है-

1. प्राथमिक इन्द्रधनुष

2. द्वितीयक इन्द्रधनुष

1. प्राथमिक इन्द्रधनुष- जब बूंदों पर आपतित होने वाली सूर्य की किरणों का दो बार अपवर्तन व एक बार परावर्तन होता है, तो प्राथमिक इन्द्रधनुष का निर्माण होता है। प्राथमिक इन्द्रधनुष में लाल रंग बाहर की ओर और बैंगनी रंग अन्दर की ओर होता है। इसमें अन्दर वाली बैंगनी किरण आँख पर 40°8’ तथा बाहर वाली लाल किरण आँख पर 42°8‘ का कोण बनाती है।

2. द्वितीयक इन्द्रधनुष- जब बूंदों पर आपतित होने वाली सूर्य-किरणों का दो बार अपवर्तन व दो बार परावर्तन होता है, तो द्वितीयक इन्द्रधनुष का निर्माण होता है। इसमें बाहर की ओर बैंगनी रंग एवं अन्दर की ओर लाल रंग होता है। बाहर वाली बैंगनी किरण आँख पर 54°52’ का कोण तथा अन्दर वाली लाल किरण 50°8‘ का कोण बनाती हैं।