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निजीकरण का अर्थ और परिभाषा क्या है ? निजीकरण किसे कहते है ? की विशेषताएं Privatization in hindi

Privatization in hindi meaning definition निजीकरण का अर्थ और परिभाषा क्या है ? निजीकरण किसे कहते है ? की विशेषताएं ?

 निजीकरण से क्या अभिप्राय है?
परिभाषा
निजीकरण क्या है? निजीकरण में परिसम्पत्तियों की बिक्री के विशेष संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र को स्वामित्व और नियंत्रण का हस्तांतरण सम्मिलित है। निजीकरण का कार्य दो तरह से पूरा किया जा सकता है।
.सरकार अपने स्वामित्व वाली परिसम्पत्तियाँ निजी खरीदारों को बेच सकती है।
.सरकार सीधे सेवा प्रदान करने का कार्य बंद कर सकती है और इन सेवाओं के प्रदान किए जाने हेतु निजी क्षेत्र पर निर्भर रह सकती है।

यहाँ प्रासंगिक सार्वजनिक उपक्रम वे हैं जो मूलतः राज्य के स्वामित्व में हैं या उसके नियंत्रणाधीन हैं तथा राजस्व-अर्जित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए नगर निगम राजस्व अर्जित करने वाली संस्थापना है जो संपत्ति कर वसूलती है।

 निजीकरण की पद्धतियाँ
विनिवेश (डाइवेस्टिट्यूर): निजीकरण की सर्वविदित पद्धति आम जनता को इक्विटी बेच देना है। इसे विनिवेश कहते हैं तथा यह पूर्ण या आंशिक हो सकता है। अर्थात् सरकार एक उपक्रम में अपना संपूर्ण हिस्सा या इसका कुछ प्रतिशत बेच सकती है। यह सीधी बिक्री और इक्विटी की पेशकश दोनों के माध्यम से किया जा सकता है।

तथापि, जहाँ राष्ट्रीय शेयर बाजारों की अपर्याप्तता और देश के अंदर पूँजी अभाव के कारण स्थानीय खरीदारों की कमी रहती है, वहीं विदेशी निवेशक बिक्री के लिए पेशकश किए गए उपक्रमों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलने के कारण पूरी रुचि नहीं दिखाते हैं। इससे भी अधिक, सीधी बिक्री खर्चीली और मंद हो सकती है क्योंकि इसमें प्रत्येक सरकारी परिसम्पत्ति को अलग-अलग बेचने के लिए तैयारी करनी पड़ती है तथा यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है कि खरीदार सभी संविदा उपबंधों का पालन करें।

प्रत्यावस्थापन ;रेस्टिट्यूशन): प्रत्यावस्थापन का अभिप्राय सरकारी परिसंपत्तियों को उनके पूर्व निजी स्वामियों को वापस सौंपना है, यदि सरकार को मूल अधिग्रहण अनौचित्यपूर्ण प्रतीत होता है जैसे अधिग्रहण की पूरी क्षतिपूर्ति नहीं की गई हो। यह तर्क दिया जाता है कि उन मामलों में प्रत्यावस्थापन नैतिक आधारों पर आवश्यक है। मध्य और पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं के संक्रमण में प्रत्यावस्थापन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।

प्रत्यावस्थापन के विरोधी यह दलील देते हैं कि यह प्रक्रिया निश्चित तौर पर वरणात्मक है और इसलिए पिछली भूलों को सुधारने का असंतोषजनक तरीका है। व्यावहारिक तौर पर, निजी दावों की बहुधा उलझाया जा सकता है तथा मामले को तूल दिया जा सकता है और निजीकरण की प्रक्रिया अनावश्यक ही ठप पड़ जा सकती है। व्यवहार में, परिवर्तन करने वाले देशों ने, अपवाद स्वरूप एस्टोनिया और कुछ हद तक चेक गणराज्य को छोड़कर, शायद ही कभी प्रत्यावस्थापन का मार्ग अपनाया।

प्रबन्धन-कर्मचारियों को स्वामित्व का हस्तांतरण करना (डंदंहमउमदज.म्उचसवलमम ठनलवनजे)ः इस पद्धति के अन्तर्गत एक उपक्रम के शेयरों को प्रबन्धकों और अन्य कर्मचारियों के समूह को बेच दिया जाता है अथवा सौंप दिया जाता है। कर्मचारियों और प्रबन्धकों की सुदृढ़ स्थिति से इस पद्धति को दो लाभ हो सकते हैं-व्यवहार्यता और राजनीतिक लोकप्रियता। ऐसा तेजी से किया जा सकता है तथा इसका कार्यान्वयन भी सरल है। सुव्यवस्थित प्रबन्धन-कर्मचारी को स्वामित्व के हस्तांतरण के अक्सर अच्छे परिणाम होते हैं क्योंकि कर्मचारी और प्रबन्धक जो उस उपक्रम के बारे में सबसे अच्छी तरह से जानते हैं वही स्वामी बन जाते हैं।

फिर भी अनुभव से पता चलता है कि स्वामित्व के इस तरह के हस्तांतरण में कुछ गंभीर खामियाँ भी हैं। कर्मचारियों और प्रबन्धकों के हितों को साधने से बहुधा कार्यकुशलता घटती है तथा प्रबन्धन भी त्रुटिपूर्ण हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप लागत में वृद्धि होती है। नए स्वामी मजदूरी में अत्यधिक वृद्धि कर सकते हैं, बड़ी संख्या में कर्मचारी रख सकते हैं और अलाभप्रद निवेश कर सकते हैं । ऐसा भी हो सकता है कि बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था में कार्य करने के लिए कर्मचारियों और प्रबन्धन में दक्षता की कमी हो। यह प्रक्रिया असमानताजनक भी दिखाई पड़ सकती है क्योंकि अधिकांश लाभ बड़ी संख्या में लोगों तक नहीं पहुँच कर कर्मचारियों को पहुँचाई जाती है।

सामूहिक निजीकरण (मास-प्राइवेटाइजेशन): सामूहिक अथवा समान-अभिगम, वाउचर निजीकरण में, सरकार साधारणतया उपक्रमों को दे देती है, अथवा नाम मात्र के शुल्क पर बेच देती है, वाउचरों का उपयोग उपक्रमों के शेयरों को खरीदने में किया जा सकता है। इस पद्धति का मध्य और पूर्वी यूरोप में शुरू हुए भारी परिवर्तन से पहले विश्व में इसे कहीं भी लागू नहीं किया गया था किंतु उन देशों और खासकर चेक गणराज्य में इसे काफी सफलता मिली।

वाउचर निजीकरण से घरेलू पूँजी के अभाव की समस्या से निपटने में सहायता मिलती है। वाउचर स्कीम राजनीतिक रूप से भी लोकप्रिय हो सकती है क्योंकि इससे अन्य पद्धतियों के बारे में तथाकथित बेईमानी की गुंजाइश से बचा जा सकता है और उन आरोपों से भी बचा जा सकता है जिसमें यह कहा जाता है कि राष्ट्रीय परिसम्पत्तियाँ विदेशियों को औने-पौने बेच दी गईं। इस पद्धति को अपना कर निजीकरण से पहले उपक्रमों के मूल्य निर्धारण संबंधी कठिनाइयों से भी बचा जा सकता है।

आरंभिक प्रतिपादकों ने दलील दिया है कि वाउचर निजीकरण को तीव्र गति से लागू करने से सुधार कार्यक्रमों की विश्वसनीयता बढ़ेगी और उनके सफल होने की संभावना भी बढ़ेगी। कभी-कभी तेज गति से निजीकरण करने से कर्मचारियों अथवा अन्य हित समूहों को निजीकरण के विरूद्ध खड़ा करने का अवसर नहीं मिलता है। आगे, देश के नागरिकों की व्यापक भागीदारी से सुधार के संबंध में अधिक समझदारी पैदा होती है और इससे एक नए स्वामी वर्ग का सृजन होता है जिसकी रुचि निजीकरण की प्रक्रिया में रहती है।

हालाँकि, सामूहिक निजीकरण में भी कुछ कमियाँ हैं किंतु सबसे बड़ा जोखिम यह है कि बिखरी हुई स्वामित्व संरचना में कारपोरेट प्रबन्धन को प्रभावी बनाने के लिए व्यवस्था और शक्ति की कमी होती है। इससे पूँजी के संभावित नए स्रोत समाप्त हो सकते हैं। व्यवहार में, निवेश अथवा परस्पर निधियों (म्यूचुअल फंड) में स्वामियों का हित शामिल करके इन समस्याओं का आंशिक हल किया गया है। हालाँकि, यह आवश्यक नहीं है कि निधियों से हमेशा ही पर्याप्त प्रबन्धन नियंत्रण और पर्यवेक्षण शक्तियों हों, उन मामलों में वाउचर निजीकरण निष्प्रभावी अनुपस्थित स्वामित्व मात्र बनकर रह जाता है।

सरकारी सेवाओं को ठेके पर अथवा पट्टे पर देना निजीकरण की एक अन्य पद्धति है। उदाहरण के लिए नगर-निगम कूड़ा एकत्र करने का कार्य निजी पार्टी को ठेके पर दे सकती है।

निजीकरण के साथ साधारणतया उदारीकरण और विनियमन में ढील की प्रक्रिया जुड़ी होती है। उदारीकरण का अर्थ है परम्परागत एकाधिकारवादी उद्योग में प्रतिस्पर्धा शुरू करना या उसे बढ़ावा देना। विनियमन में ढील का अर्थ है बाजार शक्तियों को काम करने देने के लिए सांविधिक अवरोधों का उन्मूलन। उदाहरण के लिए, भारत सरकार प्रशासनिक मूल्य तंत्र के माध्यम से कई वस्तुओं के मूल्यों को नियंत्रित करती है। यदि कुछ वस्तु इस तंत्र के दायरे से बाहर निकाल लिए जाते हैं तो यह विनियमन में ढील देना हुआ क्योंकि अब मूल्य का निर्धारण बाजार शक्तियों के द्वारा किया जाएगा।

बोध प्रश्न 1
1) आपके अनुसार निजीकरण की परिभाषा क्या है?
2) निजीकरण, उदारीकरण और विनियमन में ढील देना, तीनों के बीच भेद स्पष्ट करें।
3) निजीकरण की विभिन्न पद्धतियाँ क्या हैं? आप भारत के लिए किस पद्धति का चयन करेंगे
और क्यों?

 सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना और राष्ट्रीयकरण के कारण
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना करने के कई कारण थे:
ऽ यह विश्वास किया गया था कि राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से सरकार को राजस्व की प्राप्ति होगी जिसकी उसे अत्यधिक आवश्यकता थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारी लाभ अर्जित करेंग/अधिशेष का सृजन करेंगे जिसे अर्थव्यवस्था के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के विकास के लिए निवेश किया जाएगा।
ऽ निजी क्षेत्र को यदि उसकी मर्जी पर छोड़ दिया जाए तो वह अर्थव्यवस्था के तीव्र और सतत् विकास में सहायक नहीं होगा। इसलिए अर्थव्यवस्था की ‘‘उल्लेखनीय उपलब्धियों‘‘ अर्थात् महत्त्वपूर्ण उद्योगों को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है। यदि सरकार इन उद्योगों को नियंत्रण में रखती है तो यह अर्थव्यवस्था को सही दिशा दे सकेगी और महत्त्वपूर्ण अवरोधों को पार कर सकेगी। इस प्रकार, उदाहरण के लिए भारत में इस्पात के प्रमुख उत्पादक के रूप में टिस्को (ज्प्ैब्व्) बना रहा किंतु हाल तक नए इस्पात कारखाने सार्वजनिक क्षेत्र में ही स्थापित किए गए।
ऽ कभी-कभी उपर्युक्त का औचित्य ठहराने के लिए, विशेष कर भारी उद्योगों के संदर्भ में, राष्ट्रीय सुरक्षा का कारण भी बताया गया।
ऽ कई विकासशील देशों में निजी क्षेत्र में उद्यमियों की कमी भी चिन्ता का एक प्रमुख विषय था और इसलिए राज्य को औद्योगिकरण की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए विवश होना पड़ा । स्थानीय निजी उद्यमियों की बहुधा कमी थी। यदि वे थे भी तो उनके पास पर्याप्त पूँजी नहीं थी और इसका एक कारण यह भी था कि स्टॉक बाजार का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। कुछ देशों, में निजी उद्यमी अलोकप्रिय अल्पसंख्य समुदाय से थे अथवा उनका संबंध विदेशी शक्तियों से था।
ऽ वितरण संबंधी विचारों ने भी अहम भूमिका अदा की। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित किए गए थे ताकि क्षेत्रीय असमानता कम की जा सके। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का उपयोग रोजगार सृजन में वृद्धि करने के लिए भी किया गया था।
ऽ राजनीतिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम राज्य के विशिष्ट वर्गों, राजनेताओं और नौकरशाहों के हाथ में महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में थे। उनका उपयोग संभावित मतदाताओं को नौकरी देने और निर्वाचन क्षेत्र का हित साधने के लिए किया जा सकता था (उदाहरण के लिए रेल मंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र को रेलमार्ग से बेहतर ढंग से जोड़ने के लिए रेलवे अधिकारियों को आदेश दे सकता है)।
इस चर्चा से यह स्पष्ट है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना के पीछे जो मुख्य कारक था वह आर्थिक कार्यकुशलता में वृद्धि करना नहीं था। बल्कि सबसे प्रमुख कारण अर्थव्यवस्था के कतिपय अंगों पर नियंत्रण स्थापित करना था।

भारत में आर्थिक कार्यकलाप के अधिकांश क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व का मूल्यांकन सार्वजनिक क्षेत्र में पूँजी विनिर्माण और रोजगार को देखकर किया जा सकता है । सार्वजनिक क्षेत्र में सकल अचल पूँजी विनिर्माण चाहे चालू मूल्यों पर हो अथवा स्थिर (1980-81) मूल्यों पर, आज भी कुल सकल अचल पूँजी विनिर्माण के एक तिहाई से अधिक बैठता है। सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) के प्रतिशत के रूप में यह लगभग 8 प्रतिशत रहा है।

रोजगार सृजन में सार्वजनिक क्षेत्र का महत्त्व निम्नलिखित तालिका 6.1 में दर्शाया गया है:

तालिका 6.1: संगठित क्षेत्र में रोजगार
(हजार में)

वर्ष कुल सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र
1971 11099 6734
1980 15384 7443
1986 17913 7401
स्रोत: आर्थिक सर्वेक्षण

उद्देश्य
1960 और 1970 के दशक की मुख्य विशेषता यह थी कि इस समय विकासशील विश्व में सार्वजनिक क्षेत्र का तीव्र विस्तार हुआ। इसके विपरीत 1980 के दशक में नीति निर्माता राज्य की आर्थिक भूमिका कम करने के लिए प्रयत्नशील थे। सर्वप्रथम ग्रेट ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में निजीकरण का प्रचार-प्रसार हुआ जो बाद में विकासशील विश्व में भी तेजी से फैल गया। इस इकाई से आप निम्नलिखित बातें जान सकेंगे:
ऽ निजीकरण का अर्थ क्या है?
ऽ पूर्व में कई उद्योगों का राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया?
ऽ निजीकरण का प्रयास क्यों किया जा रहा है?
ऽ सरकार को निजीकरण के प्रयास में किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है?
ऽ निजीकरण में कुछ मुख्य मुद्दे क्या हैं? तथा
ऽ निजीकरण का भारतीय अनुभव क्या है?