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भारत का पिकासो किसे कहते है | who is picasso of india meaning in hindi मकबूल फिदा हुसैन

who is picasso of india meaning in hindi भारत का पिकासो किसे कहते है ?

उत्तर :  मकबूल फिदा हुसैन या एम.एफ. हुसैन को भारत का पिकासो कहा जाता है |

प्रश्न: मुम्बई के प्रमुख कलाकार व उनकी कलाकृतियों पर प्रकाश डालिए। (इनमें विभिन्न कलाकारों से संबंधित 15 व 50 शब्दों में प्रश्न पूछे जाते हंै)

एम.एफ. हुसैन : ‘भारत का पिकासो‘ मकबूल फिदा हुसैन एक आत्म दीक्षित चित्रकार थे। इनका सम्पूर्ण कलाक्रम आकृतिपरक है। आज हुसैन भारतीय कला जगत् के सिरमौर हैं और कार्पोरेट जगत् के दिग्गजों की दृष्टि में किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। सतत् नवीन प्रयोग करते रहने वाले कलाकार हुसैन आज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकारों में गिने जाते हैं। एक ओर इनके चित्रों के विषय गायकों, संगीतज्ञों, धर्मगुरुओं, वैज्ञानिकों, नर्तकियों, नेताओं इत्यादि के हैं, तो दूसरी ओर आपने घोड़े, हाथी, पशु, पक्षी, तीर-कमान और लोक प्रतीकों का भी चित्रांकन किया है। ‘सरस्वती‘, ‘कृष्णकथा‘, ‘माधुरी‘, ‘घोडे‘, ‘महाभारत‘ इत्यादि पर चित्रांकित श्रृंखलाएं इनकी पहचान हैं।
‘मुक्ति बोध‘ की कविताओं पर आधारित चित्र भी हुसैन ने बनाये हैं। ‘दो स्त्रियों का संवाद‘, ‘जमीन‘, ‘दुपट्टों में तीन औरतें‘, ‘रागमाला‘, ‘नृत्य‘, ‘रामायण‘, ‘महाभारत‘, ‘राजस्थान‘, ‘कश्मीर‘, ‘मैसूर‘, ‘अंतिम भोज‘, ‘मध्यपूर्व‘, ‘बनारस‘ आदि श्रृंखलाएंएवं ‘महात्मा गांधी‘, ‘आपातकाल‘, ‘मदर टेरेसा‘, ‘माधुरी दीक्षित‘ आदि उनके अत्यन्त महत्वपूर्ण चित्र रहे हैं। मदर टेरेसा चित्र भी अत्यन्त भावपूर्ण और विलक्षण कृति है। 2011 में लंदन में मकबूल फिदा हुसैन की मृत्यु हो गई।
उत्तर: 19वीं शताब्दी के अन्त में मुम्बई कला के उत्थान के लिये अनेक प्रयत्न किये गये। सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुम्बई में जब ‘ग्रीफित्स महोदय‘ ने प्रिंसिपल का पद संभाला, तब उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में अजन्ता के चित्रों का अध्ययन किया और और उनकी अनुकृतियाँ कीं। इस कार्य में वे 13 वर्ष तक संलग्न रहे। भारतीय कला के विकास के साथ-साथ मुम्बई आर्ट स्कूल ने पाश्चात्य शैली का उत्तम रूप विकसित किया। साथ ही टेम्परा तथा तैल चित्रण की पाश्चात्य पद्धति पर अधिक बल देते हुए इस स्कूल के चित्रकारों ने सर्वोत्कृष्ट कृतियां बनाई। बेन्द्रे, हैब्बार, सूज्जा, रज्जा, आरा मुम्बई में कार्यरत रहे हैं।
एन.एस. बेन्द्रे : पांच दशकों तक अपनी श्रेष्ठ कलाकृतियों के माध्यम से श्री एन.एस. बेन्द्रे (नारायण श्रीधर बेन्द्रे) ने समकालीन भारतीय चित्रकला में अपना स्थान बनाया था। स्त्री-पुरुषों के ग्रामीण एवं शहरी जीवन के विभिन्न पहलुओं, प्रकृति के विभिन्न आयामों एवं नारी सौन्दर्य के रूपांकन को अपने कैनवासों पर बखूबी उद्घाटित किया है, जो उनकी अनवरत साधना का द्योतक है। ‘सौराष्ट्र के बरवाड़‘ एक ग्रामीण विषय है, जिसमें ज्यामितीय रूपाकार है। ‘सूर्यमुखी फूल‘ जो ललित कला मोनोग्राफ के मुख पृष्ठ पर छपा है। ‘कंधे पर बच्चा‘, ‘श्रृंगार‘, ‘लकड़ी का गट्ठर उठाते‘, ‘फूल बेचने वाली‘, ‘लकड़ी काटने वाली‘, ‘युवती‘, ‘ज्येष्ठ की दोपहर‘, ‘दार्जिलिंग के चाय बगान में युवती‘ आदि चित्रों में नारियाँ आधुनिक पद्धति से चित्रित हैं।
के.के. हैब्बार : ‘कांटिगेरि कृष्ण हैब्बार‘ की कला में विश्व के विभिन्न कला आंदोलनों, वादों तथा सिद्धांतों के अनेक रस तत्व पनपे। उन्होंने पूर्व व पश्चिम के सभी प्रभावों को ग्रहण किया, किन्तु अभिव्यक्ति के स्तर पर वे अपनी परम्परा व संस्कृति से ही जुड़े रहे। सन् 1940 ई. के दशक में एक तरफ प्रभाववाद आदि पश्चिम कला जगत की शैलियों व अपने ही देश की राजस्थानी व मुगल चित्रकला शैलियों से जूझते रहे। वे कुछ समय तक उत्तर-प्रभाववाद से जुड़े रहे। हैब्बार की शैली में नूतन प्रतीक विधान, नियोजन, रेखाओं की शांत भावविभोरता में एक नये सृजन व कल्पना का नूतन आग्रह स्पष्ट लक्षित होता है।
उनके चित्रों के विषय में जनसाधारण के व मानवीय सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। ग्राम्य जीवन का यह प्रभाव उनके चित्रों में निरंतर बना रहा। उनके चित्रों की प्रेरणा. थी- नगर के सुदूर किसी कोने में निवास करने वाले कामगारों से, जो जीवन निर्वाह हेतु साधारण कार्यों में जुटे रहते थे। यही कारण है, उनकी कृतियों में ‘इमारत बनाने वाले मजदूरों‘, ‘किसानों‘, ‘मछुआरों‘, ‘फल बेचने वालों‘ के दर्शन होते हैं। उनके प्रमुख चित्रों के शीर्षक निम्न हैं – ‘प्रवाह‘, ‘पर्वतधारा‘, ‘श्रद्धा‘, ‘अज्ञात की ओर‘, ‘खोज‘, ‘संगीत‘, ‘अन्वेषण‘, ‘होली‘, ‘दीपावली‘, ‘अजन्ता‘, ‘मुर्गों की लड़ाई‘, ‘माँ-बेटी‘, ‘श्रमिक‘, ‘मवेशी हाट‘, ‘धूप दीप्ति‘, ‘पनघट‘, ‘मयूर‘, ‘यमुना पर‘, ‘सांझ‘, ‘नर जीवन‘, ‘सुनहरे और लाल जाड़े की रात‘, ‘विवाह उत्सव‘, ‘आकाश पर‘ आदि।
प्रगतिशील कलाकार
‘कला के प्रगतिवाद‘ उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मुम्बई का सबसे महत्वपूर्ण समूह ‘प्रोग्रेसिव ग्रुप‘ था। जिसकी स्थापना सन् 1947 ई. में हुई। ‘फ्रांसिस न्यूटन सूजा‘ इसके प्रेरणास्रोत थे। ‘रज्जा‘, ‘हुसैन‘, ‘आरा‘, ‘गाडे‘ और ‘बाकरे‘ (जो मूर्तिकार था) आदि उनके साथ थे, जिनका मुख्य ध्येय केवल परिवर्तन था।

एफ.एन. सूजा: प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के अगुआ एवं संस्थापकों में से एक गिने जाने वाले कलाकार फ्रांसिस न्यूटन सूजा (एफ.एन. सूजा) का जन्म सन् 1924 ई. को ‘गोवा‘ में हुआ। ‘जार्जेल राउले‘ की कला से प्रेरित हो इन्होंने ‘गोथिक पद्धति‘ पर ‘क्राइस्ट और बाइबिल‘ की कथा-आख्यानों जैसे ‘आदम और ईव का स्वर्ग से बहिष्कार‘ आदि चित्रों का निर्माण किया। मूर्तिकला में खजुराहों की मूर्ति-भंगिमाओं ने भी इन्हें विशेष आकृष्ट किया, जिसकी प्रेरणा से इन्होंने ‘प्रणयी‘ नामक शीर्षक लिये चित्र ज्यामितिक रूपाकारों में चित्रित किया।
सूजा ने सन् 1947 ई. में ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स‘ समूह की स्थापना की। उनका कहना था कि अपने लोगों के बीच प्रेरणा स्रोत कायम करने के लिये एक ग्रुप की नींव डाली जानी चाहिये। जिसका सहयोग ‘आरा‘ एवं ‘रजा‘ ने किया और नाम ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप‘ दिया, क्योंकि प्रोग्रेसिव शब्द में ‘आगे जाने‘, ‘आगे बढ़ने‘ का मंतव्य छिपा हुआ था।
सन् 1948 ई. में इसकी पहली समूह प्रदर्शनी हुई। सूजा ‘आकृतियों के कलाकार‘ के लिये मशहूर रहे हैं। ‘सूली‘, ‘नारी‘ और ‘दार्शनिक‘, ‘महात्मा गांधी और मनुष्य की दशा‘, ‘सैर को निकला परिवार‘, ‘हजरत‘, ‘ईसा‘, ‘मस्तक‘, ‘निर्वाण‘ आदि सूजा के प्रसिद्ध चित्रों में गिने जाते हैं।
सैयद हैदर रजा: भारतीय आधुनिक कला परिदृश्य में रजा ऐसे कलाकार हैं, जिनके बिना भारतीय आधुनिक कला अपूर्ण है। ये प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापक सदस्य थे। आरा व इन्हीं के प्रयासों से भारतीय आधुनिक कला आंदोलन ने जोर पकड़ा। रजा ने भारतीय परम्परा व संस्कृति को अपने चित्रों के माध्यम से जीवंत बनाया है। विदेशों में देशी शैली के प्रभाव से रजा को सरकारी छात्रवृत्ति भी मिली। ‘सैरीग्राफ‘, ‘चैपाटी‘, ‘जमीन‘, ‘राजस्थान चित्र श्रंखला‘, ‘ग्रीष्म आवास‘, ‘आज‘, ‘कश्मीर की एक गली‘ आदि रजा के कुछ प्रसिद्ध चित्रों के शीर्षक हैं।
के.एच. आरा: आरा ने दृश्यचित्र, स्टिल-लाइफ, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं जनजीवन से संबंधित चित्रों का निर्माण किया। उनके सप्रसिद्ध चित्रों में ‘स्टिल-लाइफ‘, ‘हरा सेब‘, ‘लाल मेज‘, ‘चीनी बर्तन‘, ‘टोकरे में रखे पात्र‘, ‘प्रातः कालीन नाश्ते की मेज‘ ‘सुसज्जित पात्र‘ हैं, जो चटक रंगों (पीले, हरे, काले, गुलाबी, नीले) के सम्मिश्रण से बड़े सुन्दर बने हैं। अन्य उत्तम चित्रों में ‘उन्मुक्त घोड़ों की सरपट दौड़‘, ‘पनघट पर‘, ‘चक्की पीसने वाले‘, ‘मेले से लौटाते हुये‘, ‘गाँव के छोर पर‘, ‘कोना‘, ‘हाट बाजार‘, ‘नर्तक‘, ‘लकड़हारे‘, ‘धान कूटते हुये‘, ‘स्वतंत्रता दिवस की उल्लासमयी झांकी‘ आदि हैं।
प्रश्न: दिल्ली शिल्पी चक्र के प्रमुख कलाकारों व उनके कला के क्षेत्र में योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर: कला के अभ्युत्थान में ‘दिल्ली शिल्पी चक्र‘ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मार्च 1949 ई. में प्रगतिशील प्रवत्ति के कतिपय कलाकारों के एक समूह ने एक आर्ट सर्किल की स्थापना की, जो नई अभिजात संस्कृति के संस्कारों और आधुनिक कला-प्रणालियों की प्रतिक्रियास्वरूप मौजूदा समय और वातावरण के साथ कदम से कदम मिलाते हुये कुछ नया कर गुजरने के लिये आगे बढ़े। नव्यजीवन मूल्यों का स्वर मुखर करने वाले अभिनव अन्वेषियों में बी.सी. सान्याल, सतीश गुजराल, राम कुमार, धनराज भगत का योगदान प्रमुख रहा है। अन्य कलाकारों में ऐ.एस. कुलकर्णी, कंवल कृष्ण, देवयानी कृष्ण, अजित गुप्ता, कृष्ण चन्द्र आर्यन भी इसके सक्रिय सदस्य रहे हैं।
बी.सी. सान्याल: भावेश चन्द सान्याल, जिन्हें बी.सी. सान्याल के नाम से पुकारा जाता है, की गणना दिल्ली शिल्पी चक्र के प्रमुख के रूप में की जाती है। भारत विभाजन के बाद बी.सी. सान्याल दिल्ली आये, जहां इन्होंने कला का नया वातावरण तैयार किया और कछ सक्रिय कलाकारों को लेकर इस समूह की नींव डाली व कुछ समय तक उसके चेयरमैन भी रहे।
बी.सी. सान्याल के अपने मौलिक चित्र हैं। वे किसी की शैली से प्रभावित नहीं रहे हैं। उनके आरम्भिक चित्रों में हमें समाज की समसामयिक समस्याओं के साथ-साथ राष्ट्रीयता तथा देशप्रेम का भी परिचय मिलता है। इन्होंने कल्पना और यथार्थ दोनों के मेल से चित्राकृतियां तैयार की। इन्होंने ग्राफिक पद्धति तथा मूर्तिशिल्प में भी कार्य किया। ‘उखड़े हुये‘, ‘गोल मार्केट के भिखारी‘, ‘माँ-बच्चा‘, ‘मेरे पड़ोसी भिखारी‘, ‘आश्रयहीन लड़की‘, ‘कलकत्ता की सडक पर विश्राम करता सपेरा‘, ‘पूर्वाभ्यास‘ आदि चित्रों में दर्द की टीस और प्रणों की कचोट है। इस प्रकार आदमी के सुख-दुःख को आत्मसात करके बी.सी. सान्याल ने जो अभिव्यक्ति की है, वह प्रेरणादायी है।
प्रश्न: आधुनिक या समकालीन भारतीय चित्रकला के विकास क्रम को बताइए। इस कला की प्रमुख विशेषताएं क्या थी? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: आमतौर पर आधुनिक या समकालीन कला की अनिवार्य विशेषताएं हंै- कपोल-कल्पना से कुछ स्वतंत्रता, एक उदार दृष्टिकोण को स्वीकृति जिसने कलात्मक अभिव्यक्ति को क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्थापित कर दिया है, तकनीक का एक सकारात्मक उत्थान जो प्रचुरोद्भवी और सर्वोपरि दोनों ही हो गया है और कलाकार का एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में उभरना।
कई व्यक्ति आधुनिक कला को निषिद्ध क्षेत्र नहीं तो वीभत्स अवश्य ही मानते हैं, ऐसा नहीं कि कोई भी क्षेत्र मानव की उपलब्धियों से वंचित हो। अपरिचित से निपटने की सर्वोत्तम विधि यह है कि इसका दृढ़ता से सामना किया जाए। इच्छा-शक्ति, अध्यवसाय और उचित तथा सतत अनावरण अथवा सामना करना परम आवश्यक हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते, भारतीय चित्रकला, भारतीय वाद्य चित्रकला के एक विस्तार के रूप में, मुख्य रूप से राजनीतिक और समाजवैज्ञानिक दोनों प्रकार के ऐतिहासिक कारणों की वजह से बीच में ही रूक गई तथा इसमें गिरावट आने लगी एवं क्षीण और विवेकहीन अनुकृति के रूप में इसका हास होने लगा जिसके परिणामस्वरूप एक रिक्त स्थान उत्पन्न हो गया जिसे बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक भी भरा नहीं जा सका था। देश के कई भागों में जीवित लोक कला के अधिक ठोस रूपों के अतिरिक्त, चित्रकला की ‘बाजार‘ और ‘कंपनी‘ शैलियों के रूप में मध्यवर्ती अवधि के दौरान कला की कुछ छोटी-मोटी अभिव्यक्तियां ही देखने को मिलती हैं। इसके पश्चात् प्रकृतिवाद की पश्चिमी संकल्पना का उदय हुआ। इसके सर्वप्रथम प्रतिपादक राजा. रवि वर्मा थे। भारतीय कला के समूचे इतिहास में इनके समकक्ष कोई नहीं है, जबकि भारतीय साहित्य में यदा-कदा कुछ संदर्भ मिलता है।
इस सांस्कृतिक स्थिति का सामना करने के लिए अवनींद्र नाथ टैगोर ने एक प्रयास किया था। जिनके प्रेरित नेतृत्व में चित्रकला की एक नयी शैली अस्तित्व में आयी जो प्रारम्भ में स्पष्टतः गृह प्रेम तथा प्रेम सम्बंधी प्रणयी थी। इसने बांग्ला चित्रकला शैली के रूप में तीन दशकों से भी अधिक समय तक अपनी शैली में कार्य किया, इसे पुनरुज्जीवन शैली या पुनरुद्धार-वृत्ति शैली भी कहा जाता है- यह ये दोनों ही थी। प्रारम्भिक वर्षों में समूचे देश में अपने प्रभाव के बावजूद, चालीस के दशक तक इसका महत्व कम हो गया था और अब तो यह मृतप्रायः ही है, जबकि पुनरुज्जीवन शैली के योगदान ने चित्रकला की, विगत समय के साथ पूर्णतया एक सफल कड़ी के रूप में नहीं तो एक उत्प्रेरित और नेकनीयत के रूप में सेवा की। कला में उत्तरवर्ती आधुनिक आन्दोलन के लिए उर्वरक भूमि के रूप में भी इसका महत्व नगण्य है। आधुनिक भारतीय कला के उद्गम अन्यत्र ही है।
समकालिक भारतीय चित्रकला की एक मुख्य विशेषता यह है कि तकनीक और पद्धति में एक नवीन महत्व अर्जित कर लिया है। आकार को एक पृथक अस्तित्व माना जाता था और इस पर दिए जाने वाले अधिकाधिक बल के साथ-साथ इसने एक कलाकृति की अंतर्वस्तु को गौण बना दिया। अभी हाल तक स्थिति ऐसी ही थी और अब भी स्थिति कुछ-कुछ
ऐसी ही है, आकार को अंतर्वस्त के एक वाहन के रूप में नहीं माना जाता था। वास्तव में स्थिति विपरीत हो गई थी। इसका अर्थ यह हुआ कि बाह्य तत्वों को प्रेरणा मिली तथा इनका विकास हुआ, तकनीक को अति जटिल बना दिया और अपने अनुक्रम में एक नए सौन्दर्यशास्त्र को जोड़ दिया। चित्रकार ने बड़ी मात्रा में दृष्टि तथा इन्द्रिय स्तर अर्जित कर लिया था। विशेष रूप से वर्गों के प्रयोग के बारे में, अभिकल्प और संरचना की संकल्पना में और गैर-परम्परागत सामग्री को प्रयोग में लाने के संबंध में। चित्रकला वर्ण, संघटन संबंधी युक्ति अथवा मात्र संरचना की दृष्टि से या तो टिकी या फिर गिर गई। कला ने कुल मिलाकर अपनी स्वायत्तता अर्जित कर ली और कलाकार ने अपनी एक व्यक्तिगत स्थिति हासिल कर ली, जो कि पहले कभी नहीं हुआ था।
दूसरी ओर, हमने कला की समय के साथ अर्जित एकीकृत संकल्पना को खो दिया है, कला की आधुनिक अभिव्यक्ति ने वहां स्पष्टतः एक करवट ली है जहां कोई एक तत्व, जिसने कभी कला को एक हितकारी अस्तित्व बना दिया था, अब शेष के आंशिक या समग्र अपवर्जन के प्रति असाधारण ध्यान का दावा करता है। व्यक्तिवाद में वृद्धि के परिणामस्वरुप और कला के सैद्धान्तिक रूप से पृथक्करण के कारण कलाकारों की लोगों के साथ वास्तविक घनिष्ठता की एक नई समस्या उत्पन्न हो गई थी। कलाकार और समाज के बीच पर्याप्त तथा विशिष्ट परस्पर संबंध के अभाव की वजह से दुर्दशा में वृद्धि हुई थी। जबकि काफी हद तक यह तर्क दिया जा सकेगा कि समकालिक कला की यह विशिष्ट दुर्दशा समाजवैज्ञानिक विवशताओं के कारण हुई है. और यह है कि आज की कला समकालीन समाज की अव्यवस्थापूण स्थितियों का आईना है, हम कलाकार और समाज के बीच दुर्भाग्यपूर्ण रिक्ति को स्पष्टतः देख सकते हैं। हमारे अपने क्षितिज से आगे के क्षितिजों के अपने हितकारी पहलू हैं और ये आज की बढती हुई अन्तर्राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से असाधारण मान्यता रखते हैं। नए सिद्धान्तों का साझा करने में विशेष रुप से तकनीक और सामग्री की दृष्टि से अन्य लोगों एवं विचारों के साथ सरलतापूर्वक आदान-प्रदान हितकारी है।
एक बार पुनः उदारता और प्रयोग की शताब्दी के चतुर्थांश की समाप्ति पर बंधनयुक्त अनुभूति के और चीजों का पता लगाने तथा उन्हें परखने की दिशा में किए गए एक प्रयास के कुछ प्रमाण हैं। मूल्यवान अनुभव और ज्ञान को अन्यत्र ले जाया जा रहा है और इसका मूल्यांकन हो रहा है। अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की अवर्णित विसंगति की दबंगई के विपरीत, प्रेरणा के एक ऐसे वैकल्पिक स्रोत को तलाशने का प्रयास किया गया जिसे समकालिक होने के साथ किसी भी व्यक्ति के अपने देश से होना चाहिए और किसी भी व्यक्ति के वातावरण के अनुकूल होना चाहिए।
समकालिक भारतीय कला ने रवि वर्मा, अवनींद्रनाथ टैगोर और इनके अनुयायियों तथा यहां तक कि अमृता शेरगिल के समय से एक लम्बा सफर तय किया है। स्थूल रूप से, इसी प्रवृत्ति का अनुसरण किया गया है। लगभग सभी प्रतिष्ठित कलाकारों ने एक प्रकार की निरूपणीय या चित्र-संबंधी कला से शुरूआत की थी या अन्य प्रभाववाद, अभिव्यक्तिवाद या उत्तर-अभिव्यक्तिवाद से जुड़े रहे। आकार और अन्तर्वस्तु के कष्टप्रद संबंध को सामान्यतः एक अनुपूरक स्तर पर रखा गया था। फिर विलोपन तथा सरलीकरण के विभिन्न चरणों के माध्यम से, आयाम-चित्रण और तन्मयता एवं अभिव्यक्तिवादी विभिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से, कलाकार लगभग गैर चित्र-संबंधी या समग्र गैर चित्र-संबंधी स्तरों पर पहुंचे थे। कुछेक को छोड़कर अधिकांश कला-विरोधी एवं अल्पज्ञानी वास्तव में हमारे कलाकारों की कल्पनाशक्ति तक पहुंच ही नहीं पाए थे। विफल और उदासीन तन्मयता पर पहुंचने के पश्चात् बैठ कर चिन्तन करने का मार्ग ही शेष रह जाता है। इस घिसी-पिटी प्रवृत्ति का वरिष्ठ और सुस्थापित कलाकारों सहित बड़ी संख्या में कलाकारों ने पालन किया है। शून्य की दिशा में इस यात्रा के प्रतिक्रियास्वरुप, तीन अन्य मुख्य रुझान है मुख्य विषय के रुप में मनुष्य की दुर्दशा के साथ विक्षुब्ध सामाजिक अशान्ति और अस्थिरता का प्रक्षेपण, भारतीय चिन्तन और सैद्धान्तिकी में अभिरुचि, तथाकथित तांत्रिक चित्रकलाओं में तथा प्रतीकात्मक महत्व की चित्रकलाओं में यथा अभिव्यक्ति, और इन दो प्रवृत्तियों से भी बढ़कर, नई अभिरुचि अस्पष्ट अतियथार्थवादी दृष्टिकोणों में एवं भ्रान्ति में है। इन सबसे बढ़कर अधिक महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि अब कोई भी आकार और अन्तर्वस्तु अथवा तकनीक तथा अभिव्यक्ति के बीच परस्पर विरोध की बात नहीं करता। वास्तव में, और पूर्ववर्ती स्वीकृति के विरोध स्वरुप, लगभग प्रत्येक व्यक्ति इस बारे में आश्वस्त है कि किसी धारणा, संदेश या मनोवृत्ति के रहस्य के संबंध में तकनीक और रूप एकमात्र महत्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है जो किसी अज्ञात अस्तित्व में प्राण. फूंकती हैं जिससे कि एक ऐसे व्यक्ति को अन्य से कुछ भिन्न बनाया जा सकता है।