कीटनाशक प्रदूषण : कीटनाशक रसायनों द्वारा प्रदूषण (pesticide pollution in india in hindi) मानव शरीर पर कीटनाशक का प्रभाव
(pesticide pollution in india in hindi) मानव शरीर पर कीटनाशक का प्रभाव , कीटनाशक प्रदूषण : कीटनाशक रसायनों द्वारा प्रदूषण , रासायनिक कीटनाशक का उपयोग क्यों नहीं करना चाहिए ?
कीटनाशक रसायनों द्वारा प्रदूषण (pesticide pollution in india in hindi) : विभिन्न रसायनों के आविष्कार के बाद विश्व में कीटों और नाशी प्रजातियों को समाप्त करने के लिए रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग किया जाने लगा है लेकिन इसके कारण अनेक जीव जन्तुओं तथा वनस्पतियों का भी पृथ्वी से सफाया होता जा रहा है।
कीटनाशक दवाएँ भी ऐसे ही जहरीले रसायनों का एक समुदाय है , जिनका उपयोग आज कृषि में बहुत अधिक मात्रा में किया जा रहा है।
कीटनाशकों का असर हानिकारक कीटों तक ही सिमित नहीं रह सकता। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 22 हजार व्यक्ति कीटनाशकों के जहरीले प्रभाव के कारण मरते है जिनमे एक तिहाई भारतीय है।
कीटनाशक दवाएँ उत्पादन से लेकर प्रयुक्त अनाज , सब्जी अथवा फल तक प्रत्येक अवस्था में हानि पहुंचा सकते है। अनपढ़ किसानों द्वारा कीटनाशकों के डिब्बे पर दिए गए निर्देशों को पढ़ एवं समझ नहीं पाने के कारण , इसका खतरा और अधिक बढ़ जाता है।
शरीर में प्रवेश : कीटनाशक हमारे शरीर में कई प्रकार से प्रवेश कर सकते है। खेतों में प्रयोग करने के समय नाक , मुँह , श्वास अथवा त्वचा द्वारा , कीटनाशकों द्वारा संचित अनाज , फल अथवा सब्जियों द्वारा और कीटनाशक युक्त चारा खाने वाले मवेशी के दूध अथवा मांस द्वारा कीटनाशकों का अंश , हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है। प्राय: कीटनाशक हमारे शरीर में संचित होते है तथा शरीर के रक्त , उत्तक और माँ के दूध में भी मौजूद रह सकते है।
कोयंबटूर में किये गए एक सर्वेक्षण के दौरान 20% महिलाओं के दूध में कीटनाशकों के अंश मान्य सर्वोच्च सीमा से अधिक मिले। इसका मुख्य कारण वहां के किसानों द्वारा बेंजीन हेक्साक्लोराइड (बी.एच.सी.) नामक कीटनाशक का अत्यधिक प्रयोग करना है।
कुछ वर्ष पहले कर्नाटक के हण्डीगोद्डू क्षेत्र में गरीब तबके के लोगों में फैली एक एक रहस्यमय बीमारी , जिसमे हड्डियों पर बुरा प्रभाव पड़ता था , का कारण धान के खेतों में अत्यधिक मात्रा में प्रयुक्त एल्ड्रिन एवं इथाइल पारथियान (फोलिडाल) था। जिन खेतों में इनका छिड़काव किया गया था , उससे मछली तथा केंकड़े पकड़कर खाने वालों में यह रोग फैला था। इस क्षेत्र में गर्म्भस्थ शिशुओं में भी असामान्यता पाई गई।
औसतन हजार कीटों में एक हानिकारक होता है तथा उसे ख़त्म करने के चक्कर में अनेक लाभदायक कीट भी कीटनाशकों के जहर के शिकार होते है। केंचुएँ , जो खेतों में अनेक प्रकार से लाभ पहुंचाते है , भी इसके प्रयोग से बड़ी संख्या में मरते है। कीटनाशक अपना प्रभाव तितिलियों तथा मधुमक्खियों पर भी डालते है। लगातार प्रयोग के कारण कई हानिकारक कीटों पर अब कीटनाशक अपना प्रभाव नहीं डाल पाते।
कीटनाशक मिट्टी में संचित रहते है तथा मृदा को विषैला बना डालते है। इनसे कुओं , नदियों और समुद्रों का जल भी प्रदूषित होता है। ये वायुमण्डल में भी फैलते है और वर्षा के साथ वापस पृथ्वी पर आ जाते है। कुछ कीटनाशकों के बारे में कहा जाता है कि वे भारत की जलवायु में जल्दी विघटित हो जाते है तथा फिर कोई हानि नहीं होती , पर कभी कभी इनके अवशेष स्वयं कीटनाशकों से अधिक हानि पहुंचाते है।
सरकारी आंकड़ो के अनुसार पांच कीटनाशकों , बी.एच.सी. , डी.डी.टी. , मैलाथियान , इंडोसल्फान तथा पारथियान का देश में व्यापक तौर पर प्रयोग किया जाता है। बी.एच.सी. को डेनमार्क , फ़्रांस , हंगरी , जापान , स्विट्जरलैंड , अमेरिका आदि देशो में प्रयोग करने की मनाही है। इसके अल्प विषाक्तता की स्थिति में चक्कर आना , पेट दर्द तथा त्वचा में जलन की शिकायत रहती है। बी.एच.सी. के साथ किये गए प्रयोग में कुछ जानवरों में कैंसर युक्त ट्यूमर पाए गए। यह त्वचा , मुंह और नाक द्वारा शरीर में प्रवेश करता है।
डी.डी.टी. एक ऐसा रसायन है जो वातावरण तथा जीवित वस्तुओं में आसानी से विखंडित नहीं होता। यह खाद्य पदार्थो और शरीर के वसा में एकत्रित होता है तथा अधिक मात्रा में होने पर जीभ तथा होंठो को बेकार कर डालता है। इससे यकृत तथा गुर्दे को नुकसान पहुँचता है और कैंसर भी हो सकता है। विखण्डित नहीं होने के कारण यह माँ के दूध में तथा भू जल तक में पाया जाने लगा है। यह पक्षियों एवं मछलियों के लिए भी विष का कार्य करता है।
पश्चिम में किये गए अध्ययनों में यह पाया गया है कि डी.डी.टी. तथा बी.एच.सी. दोनों के ही अवशेषों में काफी विषाक्तता मौजूद रहती है। चूँकि ये दोनों कीटनाशक दवाइयां बहुतायत से इस्तेमाल की जाती है तथा चूँकि ये सब्जियों , अनाज तथा पौधों पर छाई रहती है , इसलिए इन दवाओं के असर से कैंसर होने की आंशका बनी रहती है।
पिछले तीन दशकों में भारत में कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति के साथ साथ कीटनाशक दवाइयों की खपत भी बढ़ी है तथा आज वह 2300 टन वार्षिक से बढ़ कर 66000 टन वार्षिक हो गयी है। इस सम्बन्ध में एक परस्पर विरोधी बात यह है कि जहाँ भारत में कीटनाशकों की खपत यूरोप और अमेरिका के मुकाबले क्रमशः 1870 और 1490 ग्राम (काफी कम : मात्र 180 ग्राम) है , वहीँ भारत में मानवीय वसा में डी.डी.टी. का स्तर सबसे अधिक है। इसका एक सम्भावित कारण यह बताया जाता है कि खाद्यान्नों के भण्डारण के समय चूहों कीड़ो से उनकी रक्षा के लिए उन पर डी.डी.टी. का छिड़काव कर देते है , क्योंकि अन्न के बचाव का यह तरीका सबसे महँगा (मौखिक अर्थ में नहीं , बल्कि मानवीय जीवन के अर्थ में ) तरीका है।
रूस , अमेरिका , इंग्लैंड , स्वीडन , डेनमार्क , फ़्रांस , ऑस्ट्रेलिया , ब्राजील , मैक्सिको तथा फिलीपींस में DDT ( डी.डी.टी.) के प्रयोग पर रोक है। 1962 में जब डी.डी.टी. को फसलों की कई बीमारियों के लिए रामबाण तथा मलेरिया के विरुद्ध एक प्रतिरोधक औषधि माना जाता था , तभी रैशल कार्सन नामक एक शोधकर्ता महिला ने अपनी सुप्रसिद्द पुस्तक “साइलेंट स्प्रिंग” में चेतावनी दे दी थी कि इस दवा का छोटा सा कण भी यकृत को क्षति पहुंचा सकता है। कार्सन की चेतावनी अक्षरश: सच निकली। आज पश्चिमी जगत में डी.डी.टी. के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ है जबकि भारत में यह खतरनाक द्वारा धडल्ले से इस्तेमाल की जा रही है। इसके अलावा बी.एच.सी. , सोडियम सायनाइड और डायलेडिन ऐसी कीटनाशक दवाएं है जो अमेरिका में बिल्कुल प्रयोग से बाहर हो गयी है तथा यूरोप में जिनका बहुत ही सिमित मात्रा में प्रयोग हो रहा है लेकिन भारत में ये दवाएँ अभी भी सामान्य प्रयोग के लिए अधिकारिक तौर पर स्वीकृत है। मैलाथियान हंगरी में निषिद्ध है और यह श्वास के साथ अथवा भोजन के रास्ते शरीर में जाकर विषैला प्रभाव डालता है। इंडोसल्फान , जापान , कनाडा एवं ऑस्ट्रेलिया में प्रयोग नहीं होता और वातावरण में इसका विखण्डन आसानी से नहीं होता। यह मनुष्यों को श्वास के साथ तथा चमड़े के संसर्ग में आने पर और पक्षियों तथा मधुमक्खीयों को नुकसान पहुंचाता है। पैराथियान रूस , नॉर्वे , स्वीडन और हंगरी में पूर्ण रूप से निषिद्ध है।
प्रदूषक का मानव शरीर पर संभावित प्रभाव
कई वैज्ञानिकों का मत है कि अनेक कीटनाशक महिलाओं में स्तन कैंसर का कारण भी हो सकता है। महिलाओं के परिपक्व अंडकोष से एस्ट्रोजन नामक हार्मोन स्त्रावित होता है। यही हार्मोन महिलाओं के यौन सम्बन्धी विशिष्ट गुणों के लिए जिम्मेदार है।
हाल के अनुसंधानों से यह स्पष्ट हुआ है कि कुछ रसायन जिनमे आर्गेनोक्लोरिन वर्ग के कीटनाशक , जैसे डी.डी.टी. एवं पोलीक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल्स प्रमुख है। शरीर में एस्ट्रोजन जैसा व्यवहार करते है , अमेरिका के विष वैज्ञानिक डेवरा ली डेविस के अनुसार पर्यावरण में उपस्थित रसायन जो हार्मोन जैसा व्यवहार करते है , महिलाओं में स्तन कैंसर के लिए प्रमुख तौर पर जिम्मेदार है। न्यूयोर्क में स्थित माउंट साईनाई ऑफ़ मेडिसिन में कार्यरत वैज्ञानिक मेरी वुल्फ ने लगातार कई वर्षो तक सामान्य एवं स्तन कैंसर वाली महिलाओं के रक्त के नमूनों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि सामान्य महिलाओं की तुलना में स्तन कैंसर वाली महिलाओं के रक्त में डी.डी.टी. तथा बी.एच.सी. की 50 से 80 मिलीग्राम मात्रा शरीर में कई वर्षो तक रह सकती है।
1. तीसरी दुनिया में कीटनाशक दवाइयों से विषाक्तता के कुल मामलों में एक तिहाई मामले अकेले भारत में होते है और कृषि मजदूर इसके सर्वाधिक शिकार होते है। भारत के दो कपास उत्पादक राज्यों के जिलो में कृषि मजदूरों के बच्चो में भी अंधेपन , कैंसर , विकलांगता , जिगर के रोगों आदि के मामलों का पता चला है।
आंध्रप्रदेश के कृषि क्षेत्रों में कीटनाशकों से विषाक्तता के मामलों की बढ़ी प्रवृत्ति को तो वहां के कृषि विभाग ने स्वयं स्वीकार किया है तथा कहा है कि 1985 में कृषि मौसम में गुंटूर तथा प्रकासम जिलों में 10 कृषि गाँवों के प्रत्येक समूह में कीटनाशकों से विषाक्तता के 75 मामले ज्ञात हुए है।
2. हैदराबाद में मृत प्रसव करने वाली महिलाओं के रक्त में उपरोक्त कीटनाशक भारी मात्रा में मौजूद थे। मराठावाडा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के स्तन ट्यूमरों के विश्लेषण करने पर सभी के उत्तकों में उपरोक्त दोनों कीटनाशकों के अवशेष पाए गए। स्तनपान कराने वाली माताओं पर किये गए अध्ययन के नतीजे के अनुसार उनके दूध में इन दोनों कीटनाशकों की मात्रा निर्धारित सीमा से चार गुना अधिक थी। भारतीय बच्चो को स्तनपान के समय जर्मन , अमरीकी तथा स्वीडिश बच्चों की तुलना में आठ गुना अधिक डी.डी.टी. निगलना पड़ता है।
3. आम आदमी तथा कृषि मजदूर के अलावा एक तीसरा वर्ग भी है , जो कीटनाशक दवाइयों की विषाक्तता का शिकार हो रहा है – उनका निर्माण करने वाले फैक्ट्री कामगार। कीटनाशकों का निर्माण करने वाली फैक्ट्रियां “इन्सेक्टिसाइड एक्ट 1968” का सरेआम उल्लंघन कर रही है , जिसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि ये कीटनाशक मनुष्यों को कोई नुकसान पहुंचाए बिना केवल कीटों को ही मारे।
अहमदाबाद स्थित एक अन्य संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ऑक्यूपेशनल हेल्थ द्वारा किये गए दुसरे अध्ययन में पाया गया है कि पाँच फार्मूलेशन यूनिटों के 160 पुरुष कामगारों में से 73 प्रतिशत कामगारों में विषाक्त लक्षण मौजूद थे , 35% पुरुष कामगार कार्डियो वैस्क्युलर तथा गैस्ट्रो इंटेस्टिनल तकलीफों के शिकार थे तथा एक आर्गेनों फास्फोरस यूनिट के 40 कामगारों में आँखों की जलन की तकलीफ पाई गई।
तिरुची की कीटनाशक वैज्ञानिक के अनुसार “फास्फोरस का एक ग्राम भी मितली उबकाई , डायरिया तथा यहाँ तक कि फासिल का कारण बन सकता है। ”
यही नहीं , कृषि कार्यो में कीटनाशक दवाइयों के जरिये भूमि जल के स्रोत प्रदूषित हुए है।
जबकि दूसरी ओर विडम्बना यह है कि लगातार डी.डी.टी. तथा मैलाथियान के प्रयोग के बाद भी मच्छरों तथा कीटों की संख्या में वृद्धि हो रही है , लेकिन इसके बाद भी जहरीले कीटनाशकों की संख्या एवं मात्रा में लगातार वृद्धि होती जा रही है।
देश में करीब 400 कारखाने कीटनाशकों का उत्पादन करते है तथा इनका मुख्य उपयोग कृषि और जनस्वास्थ्य सेवाओं में है। हमारे देश में कृषि व्यवस्था में कीटनाशकों के प्रयोग में अनेक असमानताएं है। कपास देश के कुल कृषि योग्य भूमि में से 5% पर लगाया जाता है , पर समस्त कीटनाशकों के 52 से 55% का छिड़काव उन पर किया जाता है। धान 24% भूमि पर उपजता है तथा 18% कीटनाशकों का प्रयोग इन पर किया जाता है। कीटनाशकों निर्माण फैक्ट्रियों में 25 हजार से भी अधिक कामगार काम करते है। क़ानूनी उपबंध ये अपेक्षा करते है कि काम करते हुए सभी कामगार ओवरकोट , हैलमेट , दस्ताने , गमबूट्स और मुखावरण (मास्क) पहने हुए होए चाहिए। परन्तु वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है। इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट , अहमदाबाद द्वारा 1980 में किये गए एक अध्ययन में रहस्योंद्घाटन किया गया है कि 50% संरक्षी कपडे नहीं पहनते , 20% हाथ नहीं धोते तथा जो धोते भी है तो उनमे से 80% किसी किस्म का साबुन इस्तेमाल नहीं करते।
कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग से होने वाली खतरनाक विषाक्तता को रोकने के लिए सर्वप्रथम उनके निर्माण स्तर ही इन्सेक्टिसाइड एक्ट के उपबन्धो का सख्ती से कार्यान्वयन होना चाहिए और उनमे काम करने वाले कामगारों के लिए संरक्षी कपडे तथा उपकरणों का प्रयोग अवश्यम्भावी बनाया जाना चाहिए। दूसरी ओर विदेशों में प्रतिबंधित कीटनाशकों का देश में आयात रोका जाना चाहिए।
सामान्य अध्ययनों में यह पाया गया है कि अधिकांश किसान और कृषि मजदूर कीटनाशकों के प्रयोग सम्बन्धी जानकारी के अभाव में इसकी विषाक्तता के शिकार होते है। इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को टालने के लिए किसानों तथा कृषि मजदूरों को कीटनाशकों के सुरक्षित प्रयोग के बारे में शिक्षित किया जाना बहुत जरूरी है। दूसरी ओर कीटनाशक दवाइयों के प्रत्येक पैकेट अथवा बोरे में स्थानीय भाषा में सरल शब्दों में उनके प्रयोग में बरती जाने वाली सावधानियों की हिदायतें दी जानी चाहिए।
आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले के 37 वर्षीय किसान गणपति पुल्लैया उदाहरण से स्पष्ट है , जिसने जानकारी के अभाव में एक कीटनाशक घोल में 100 लीटर पानी मिलाने के बजाय सिर्फ 10 लीटर पानी ही मिलाया , जिसका नतीजा यह हुआ कि उसका छिड़काव करते समय तीखी गंध से वह मितली का शिकार हो गया। दुसरे छिड़काव के समय वह मुखावरण भी नहीं पहने हुए था तथा उसकी तीखी गंध ने तत्काल अपना असर दिखाया।
पिछले 3 से 4 दशकों में रंजक द्रव्यों (30 गुना) , दवाइयों (5 से 10 गुना) , पेट्रोरसायन (40 गुना) , खादों (30 गुना) और पीड़कनाशियों (40 गुना) के उपयोग में वृद्धि हुई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने तो 1988 में लगभग 80 कीटनाशियो का वर्गीकरण उनकी विषाक्तता के आधार पर किया है। इनमे से कुछ तो अत्यधिक हानिकारक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 80 रसायनों को प्रतिबंधित घोषित किया है और अब यह संख्या बढ़कर 129 से भी अधिक हो गयी है। हाल ही में हमारे देश में भी आर्गेनोक्लोरिन यौगिकों जैसे एल्ड्रिन , टोक्सोफेन , डाइब्रोमो क्लोरोप्रोपेन , डी.डी.टी. , बी.एच.सी. , लिन्डेन , डाइएल्ड्रिन और फिनायल , मरकरी एसिटेट के उपयोग पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया है। फिर भी कीटनाशियों में ओर्गेनोक्लोरिन यौगिकों का उत्पादन और खपत दोनों ही बहुत अधिक है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में 29800 मीट्रिक टन आर्गेनोक्लोरिन की खपत है जबकि 13600 मीट्रिक टन ओर्गेनोफास्फोरस , 100 मीट्रिक टन कार्बोनेट्स और उतनी ही मात्रा संश्लेषित पाईरेथ्रोएड्स की है।
मनुष्य और जानवरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 1968 में भारतीय कीटनाशक अधिनियम तथा 1971 में बनाये नियमों के अंतर्गत कीटनाशकों के निर्यात , उत्पादन , क्रय , परिवहन , वितरण , गुणवत्ता और उन पर लेबल लगाने आदि पर ध्यान देना आवश्यक है। प्रयोगों में लाये जाने वाले पीडकनाशकों का पंजीकरण केन्द्रीय सरकार द्वारा गठित पंजीकरण समिति से कराना अति आवश्यक है। पंजीकरण संस्था ने भारत में कृषि और जन स्वास्थ्य के प्रयोग में लाने वाले 143 पीडकनाशियों का पंजीकरण किया है जिनमें कीटनाशक , फंफूदीनाशक , खरपतवारनाशक , रोडेन्टीसाइड्स आदि शामिल है। इनका पंजीकरण इनके पर्यावरण तथा मानवजाति पर होने वाले प्रभाव को देखने के बाद किया गया है। एक उच्च स्तरीय संस्था ने 49 पीडकनाशियों , जो पर्यावरण के लिए हानिकारक सिद्ध हुई है , की जाँच कर 18 पीडकनाशियों का अत्यधिक विषाक्तता के कारण पंजीकरण अस्वीकृत कर दिया है।
12 को पंजीकरण की तालिका से हटा दिया गया है तथा 19 के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
भारत में समाकलित पीड़क व्यवस्था पर काम 1981 में आरम्भ हुआ था। इसके 13 केन्द्रीय पादप सुरक्षा स्टेशन , 19 केन्द्रीय निगरानी स्टेशन , 11 जैविक नियंत्रण स्टेशन है। 26 केन्द्रीय समाकलित पीडक प्रबंधन केंद्र तथा 22 राजकीय /संयुक्त क्षेत्र 1991 में संगठित हुए तथा ये समाकलित पीडक प्रबंधन कार्यक्रम का सञ्चालन करते है।
विकल्प के लिए अन्य प्रकार के पीडकनाशियों की खोज की जा रही है। इसी प्रकार की एक श्रेणी है माइक्रोबियल पीडकनाशी। मिट्टी में पलने वाले अतिसूक्ष्म जीवाणुओं से इन पीडकनाशी का उत्पादन किया जाता है।
माइक्रोबियल पीडकनाशी रोगजनकों से ही निकाले जाते है। इनको चार विभिन्न श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। बैक्टीरियल , वायरल , फंफूद और प्रोटोजोआ।
1. माइक्रोबियल पीडकनाशियों में अभी तक बैक्टीरियल पीडकनाशी ही सबसे अधिक प्रचलित है जैसे कि बी.टी. यानी “बैसिलस थुरिंजीयोन्सिस ”
बी.टी. की कई प्रजातियाँ है जो कि लेपिडोप्टेरस , डिप्टेरस तथा कोलियोप्टेरस कीटों को नष्ट करने की क्षमता रखती है।
2. वाइरल पीडकनाशी में न्यूक्लिअर पोलीहेड्रोसिस तथा ग्रेन्यूलोसिस वायरल कुछ ही समय में खेती में प्रयोग किये जाने लगे। यह एक विशेष प्रकार के कीटों को नष्ट कर सकता है। यह कीटों पर धीरे धीरे असर करता है तथा इसका अधिक मात्रा में उत्पादन अत्यधिक महँगा पड़ता है जो कि इसके प्रचलित होने में एक रुकावट है।
3. फंफूद पीडकनाशी अभी अधिक प्रचलित नहीं है लेकिन फंफूद पीडकनाशी बैक्टीरियल तथा वाइरल से कही अधिक लाभकारी सिद्ध हो सकते है , क्योंकि यह अनेक प्रकार के कीटों पर प्रभावी हो सकते है।
रासायनिक पीडकनाशियों के साथ साथ माइक्रोबियल पीडकनाशी भी धीरे धीरे प्रचलित हो रहे है। भारत में इनका प्रयोग अभी आम किसानों तक नहीं पहुंचा है।
पौधों का कीटनाशक के रूप में उपयोग काफी समय पूर्व से ग्रामीण क्षेत्रों में होता रहा है। नीम की पत्तियों और निम्बौलियो का कीड़े भगाने और मारने में उपयोग सर्वविदित है। इसके अतिरिक्त निम्बूघास , पीपरमिंट , तुलसी , वच , काली मिर्च और पोंगामिआ आदि पौधों से प्राप्त रसायनों में कीटनाशक और कीट भगाने के गुण विभिन्न शोधो द्वारा प्रमाणित किये जा चुके है। इतना ही नहीं , अनेकों सुगन्धित तेलों में भी कीटनाशक , बीजाण्डनाशक , प्रजनन मारक आदि रसायन पाए जाते है। इनकी नरकीट बंध्याकारक क्षमता प्रयोगों द्वारा सिद्ध की जा चुकी है तथा इनका उपयोग निकट भविष्य में कीटनाशक या कीट भगाने के लिए तैयार किये जाने वाले पदार्थों में किये जाने की पर्याप्त संभावनाएं है।
कीटनाशकों के रूप में जीवाणुओं , कृमि कीटों या कीट अवयवों का प्रयोग भी काफी उत्साहजनक सिद्ध हो रहा है क्योंकि इससे पर्यावरण की सुरक्षा के साथ साथ रासायनिक कीटनाशकों के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से बचा जा सकेगा। बेसीलस जीवाणु की कई जातियां जिन्हें थूरीसाइड के नाम से जाना जाता है , कई प्रकार के हानिकारक कीड़ों को मारकर फसलों को नष्ट होने से बचाने के काम में लाई जाती है। इसी प्रकार “एन.पी.वी.” नामक विषाणु टमाटर , कपास , गोभी आदि के कीटों को मारकर फसलों की रक्षा करता है। कई प्रकार के लाभदायक कीड़े जो हानिकारक कीड़ों के अंडे बच्चो को नष्ट कर देते है। किसानों के मित्र के रूप में दालों , सब्जियों और फलों एवं धान आदि की फसल की रक्षा करते है। ब्राकोन नामक ततैया और टेकनिड मानक मक्खियाँ ऐसी भी लाभदायक जातियों के उदाहरण है। कीटनाशकों के रूप में काम आने वाले अन्य उदाहरणों में फिरोमोंस नामक हार्मोन और एम्स के द्वारा नपुंसक बनाये गए “नर कीड़े” आदि है जो कीटों की प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर उनकी जनसंख्या को नियंत्रित कर देते है।
परजिनी पौधे
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics