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पारगम्यता किसे कहते हैं ? permeability in hindi , पारगम्यता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting permeability)

जाने पारगम्यता किसे कहते हैं ? permeability in hindi , पारगम्यता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting permeability) ?

पारगम्यता (Permeability)

यदि किसी वस्तु में से कोई पदार्थ गुजरता है तो वह वस्तु उस पदार्थ के लिए पारगम्य (permeable) होती है। उसका यह लक्षण पारगम्यता (permeability) कहलाता है। पादप कोशिका भित्ति पारगम्य होती है क्योंकि इसमें से विलेय (solute) एवं विलायक (solvent) अणु दोनों निकल सकते हैं। परन्तु इनकी क्यूटिकल परत अपारगम्य (impermeable) होती है क्योंकि यह विलेय एवं विलायक के अणुओं को नहीं दूसरी ओर निकलने देती।

वह झिल्ली (membrane) जिसमें से विलायक अणु तो निकल जाते हैं परन्तु विलेय (solute) के अणु नहीं निकल पाते उसे अर्ध-पारगम्य (semipermeable) झिल्ली कहते हैं। उदाहरण- सेलोफेन (cellophane), कोलोडिओन (collodion) इत्यादि। जैविक झिल्लियों में से विलेय के अणु कुछ सीमा तक ही आ जा सकते हैं अर्थात यह चयनात्मक प्रकृति की होती है। इसलिए इन्हें चयनात्मकं पारगम्य (selectively or differentiatly permeable) कहते हैं। विभिन्न प्रकार की पारगम्यताओं को चित्र 1 में दर्शाया गया है।

एक झिल्ली एक समय में किसी पदार्थ के लिए अत्यधिक पारगम्य, किसी के लिए औसत (moderately) पारगम्य तथा किसी पदार्थ के लिए बहुत ही कम पारगम्य हो सकती हैं। पादप कोशिका की पारगम्यता उसके अन्दर एवं बाहर की परिवर्तनशील स्थितियों पर निर्भर करती हैं। जल, कुछ गैसे जैसे CO2, N2, O2 इत्यादि, वसा में घुलनशील पदार्थ जैसे ईथर (ether), एल्कोहॉल (alcohol), क्लोरोफार्म (choloroform) इत्यादि कोशिका झिल्ली में से सरलतापूर्वक आ जा सकते हैं। परन्तु बड़े अणु जैसे प्रोटीन (protein), फास्फोलिपिड (phospholipid), पॉलीसेकेराइड (polysaccharides) इसमें से आ जा नहीं सकते हैं

पारगम्यता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting permeability)

  1. जीवद्रव्य झिल्ली (plasma membrane, PM) की पारगम्यता उसके घटकों, आर्द्रता (degree of humidity), सरंध्रता (porocity) एवं मोटाई पर निर्भर करती है ।
  2. PM की पारगम्यता उच्च मात्रा में आयनकारी विकिरण (ionising radiation), ताप देने पर अत्यधिक pH परिवर्तन से एवं क्षति पहुँचाने पर बढ़ जाती है।
  3. बाह्य कारक जैसे उच्च ताप, O2 एवं CO2 का कम आंशिक दाब (low partial pressure) तथा बाह्य विलयन में विषैले पदार्थों की उपस्थिति से भी पारगम्यता बढ़ती है
  4. पारगम्यता बाह्य विलयन के संघटन (composition) पर भी निर्भर करती है। उदाहरण- मूल कोशिकाओं के बाहर Ca आयनों की अनुपस्थिति से मूल कोशिकाओं के आयनिक घटक रिसने (leakage) लगते हैं ।

5.पारगम्यता कोशिका की आयु पर भी निर्भर करती है। यह जीर्णता (senescence) के समय बढ़ जाती है तथा मरणासन्न कोशिका पर अधिकतम होती है

अन्तः शोषण (Imbibition)

ठोस पदार्थ के द्वारा घुले बिना जल अथवा किसी अन्य तरल पदार्थ के अवशोषण को अन्तः शोषण (imbibition) कहते हैं। ठोस पदार्थ जो अवशोषण करता है अन्तः शोषक (imbibant) कहलाता है। इस क्रिया में तरल पदार्थ के अणु उच्च आंशिक दाब (high partial pressure) वाले स्थान से निम्न आंशिक दाब वाले (low partial pressure) स्थान की ओर अभिगमन करते हैं ।

जब बीजों को अथवा लकडी को जल में डुबोया जाता है अथवा इन्हें आर्द्र वायु में रखा जाता है तो इनमें उपस्थित अन्तः शोषी पदार्थ जैसे प्रोटीन एवं सेल्यूलोज जल अवशोषित करते हैं जिससे यह फूल जाते हैं। शुद्ध प्रोटीन (जिलेटिन ), केल्प के स्तम्भ (stalks of Kelps), कवक तन्तु के वृद्धि बिन्दु (growing points) तथा विभज्योतकी कोशिकाएँ भी अन्तःशोषी होती हैं। अणु सतह के जितना नजदीक होते हैं वह उतनी ही दृढ़ता से जुड़ते हैं। वह दृढ़ता (tenacity) जिससे कि वह अतः शोषी परत जुड़े रहते हैं उसे रासायनिक विभव (chemical potential) अथवा जल विभव (water potential) द्वारा, दर्शाया जाता हैं।

अन्तःशोषण क्रिया के तीन मुख्य लक्षण होते हैं-

  1. आयतन में परिवर्तन (Change in volume) – अन्तःशोषण क्रिया में निकाय (system) का आयतन बढ़ जाता है अर्थात यह फूल जाता है। इस क्रिया को मटर अथवा चने के बीजों को जल में भिगोकर प्रयोगशाला में सरलता पूर्वक देखा जा सकता है। ये बीज अन्तःशोषण के कारण फूल जाते हैं। अंतःशोषित जल एवं अन्तःशोषक का कुल आयतन वास्तव में जल के अन्तःशोषक सतह पर विन्यासित होने से घट जाता है। इस प्रकार अन्तः शोषित अणु स्वतंत्र तरल अवस्था की अपेक्षा कम आयतन घेरते हैं ।
  2. दाब का विकास (Development of pressure)- वह दाब जो अन्तःशोषक के द्वारा शुद्ध अन्तःशोषी तरल पदार्थ में निमग्न करने से उत्पन्न होता है उसे अन्तःशोषी दाब (imbibition pressure) कहते हैं। आज कल इसे मेट्रिक विभव (metric potential) कहते हैं। अन्तः शोषण के दौरान विसरण दाब प्रवणता (diffusion pressure gradient) उत्पन्न हो जाती है जिससे कि अन्तःशोषण क्रिया तब तक होती रहती है जब तक कि जल एवं अन्तःशोषक दोनों का विसरण दाब बराबर नहीं हो जाता।
  3. उष्मा की विमुक्ति (Production of heat)- जब जल के अणु अन्तःशोषक की सतह पर विन्यासित होते हैं तब यह अपनी गतिज ऊर्जा मुक्त करते हैं जो निकाय में उष्मा के रूप में उत्पन्न होती है।

अन्तःशोषण का महत्व (Importance of imbibition)

  1. बीज अंकुरण में यह प्रथम चरण होता है। सर्वप्रथम बीज आवरण द्वारा तथा बाद में अन्य उत्तकों जैसे भ्रूण एवं भ्रूणपोष

द्वारा जल अवशोषित किया जाता है।

  1. इससे बीज / भ्रूण फूल जाते हैं तथा बीजचोल (testa) के टूटने पर अंकुरण में यह सहायक होता है।
  2. मूल कोशिकाओं द्वारा जल अवशोषण की प्राथमिक स्थितियों में अन्तःशोषण प्रभावी होता है। सर्वप्रथम जल मूलराम (root hairs) भित्ति द्वारा अधिशोषित ( adsorbed ) किया जाता है जो कि मूल रोम द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। यह क्रिया अवायवीय परिस्थितियों में भी सम्पन्न हो सकती है।
  3. बीजाण्ड के बीज में परिपक्वन के समय जल इसमें अन्तःशोषण द्वारा प्रवेश कर जाता है।