परमहंस मंडली का गठन किसने किया कब हुआ संबंध किससे है paramahansa mandali founded by in hindi
paramahansa mandali founded by in hindi परमहंस मंडली का गठन किसने किया कब हुआ संबंध किससे है ?
प्रश्न: परमहंस मंडली
उत्तर: महाराष्ट्र में जनजागृति उत्पन्न करने के लिए तथा सामाजिक सुधार के लिए दादोबा पांडूरंग, जाम्बेकर शास्त्री लोकहितवादी गोपाल हरि देशमुख ने 1849 में परमहंस मंडली की स्थापना की।
प्रश्न: 19वी-20वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों के दौरान हुए सामाजिक सुधारों की एक सूची बनाइए।
उत्तर: 19वी-20वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों के दौरान निम्नलिखितए सामाजिक सुधार हुए
सामाजिक सुधार अधिनियम अधिनियम वर्ष गवर्नर जनरल विषय
शिशु वध प्रतिबंध 1785 – 1804 वेलेजली शिशु हत्या पर प्रतिबंध
सतीप्रथा प्रतिबंध 1829 लार्ड विलियम बैंटिक सती प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध
दास प्रथा पर प्रतिबंध 1843 एलनबरो 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा 1843 में दासता को प्रतिबंधित कर दिया गया।
हिन्दू विधवा पुनर्विवाह 1856 डलहौजी (लार्ड कैनिंग) विधवा विवाह की अनुमति
नैटिव मैरिज एक्ट 1872 नार्थब्रुक अन्तर्जातीय विवाह
एज ऑफ कंसेट एक्ट 1891 लैंसडाउन विवाह की आयु 12 वर्ष लड़की के लिए निर्धारित
शारदा एक्ट 1930 इरविन विवाह की आयु 18 वर्ष लड़के के लिए निर्धारित
भाषा एवं साहित्य
असमिया
हालांकि असमिया भाषा की मौजूदगी सातवीं शताब्दी से ही है, लेकिन इस भाषा का साहित्य 13वीं शताब्दी से ही विकसित हो सका। प्रारंभिक काल में रुद्रकुंडली ने महाभारत के ‘द्रोण पर्व’ का अनुवाद किया और माधव कुंडली ने रामायण की नाटकीय घटनाओं को असमिया भाषा में प्रस्तुत किया। हेमा सरस्वती को उनके ‘प्रह्लादचरित’ के आधार पर असमी का पहला कवि कहा जा सकता है। महान संत कवि शंकरदेव ने गीत लिखे और गीतों वाले कई एकांकी नाटक भी लिखे। इन्हें अंकिया नाट के नाम से जागा जाता है। असमी गद्य को भट्टदेव ने निश्चित स्वरूप दिया, इन्होंने भागवत और गीता का अनुवाद किया। आधुनिक असमिया से बुरगजी का नाम जुड़ा है।
आधुनिक असमिया भाषा का काल 1819 में अमेरिकी बेप्टिस्ट मिशनरीज द्वारा असमिया में बाइबल के प्रकाशन द्वारा किया गया। मिशनरी ने 1836 में शिवसागर में प्रथम छापाखाना स्थापित किया और लिखने में स्थानीय असमिया बोली का प्रयोग करना शुरू कर दिया। 1846 में, उन्होंने एक मासिक संस्करण निकालना शुरू किया जिसे अरुणोदोई के नाम से जागा गया, और 1848 में नाथन ब्राउन ने असमिया व्याकरण पर प्रथम पुस्तक प्रकाशित की। इसने असम में असमिया भाषा को आधिकारिक भाषा के तौर पर पुनप्र्रस्तुत करने की दिशा में जबरदस्त प्रोत्साहन दिया। मिशनरी ने एम. ब्रोनसन द्वारा 1867 में संकलित प्रथम असमिया-अंग्रेजी शब्दकोश का प्रकाशन किया। ब्रिटिश शासकों ने 1836 में असम में बंगाली भाषा को थोपा। निरंतर अभियान के कारण, 1873 में असमिया को राज्य भाषा के रूप में पुनस्र्थापित किया गया।
उन्नीसवीं शताब्दी में आकर असमी साहित्य में पुगर्जागरण आया। इसके प्रणेता थे चंद्रकुमार अग्रवाल, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ और हेमचंद्र गोस्वामी। इन्होंने मासिक जागकी निकाली और रोमांटिक युग में प्रवेश किया। असमी के आधुनिक उपन्यास के क्षेत्र में पद्मनाथ गोहाई बरुआ और रजनीकांत बोरदोलोई का नाम आता है। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ ने लघु कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ज्योति प्रसाद अग्रवाल, विरिंची कुमार बरुआ, हेम बरुआ, अतुल चंद्र हजारिका, नलिनी बाला देवी, नवकांता बरुआ, मामोनी रायसोम गोस्वामी, भावेन्द्र नाथ सैकिया, सौरव कुमार सलिहा असमिया साहित्य के प्रमुख लेखक हैं।
हेमचंद्र बरुआ (1835-96) का महत्वपूर्ण कार्य उनका हेमकोश था, जो एक एंग्लो-असमिया शब्दकोश था और 1900 में उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। अरुणोदोई में बरुआ के लेखों, उनके शब्दकोशों, और उनके व्याकरणबद्ध पाठ्य पुस्तकों ने असमिया को सरलीकृत किया और स्थानीय लोगों द्वारा असमिया के प्रयोग को मजबूती प्रदान की गई। इनमें असमिया व्याकरण (1873), असमिया लोरार व्याकरण (1892), और पाठसालिया अभिदान (1892) प्रमुख हैं। उनके साहित्य ने सामाजिक सुधार के लिए भी चिंता प्रकट की। गुनाभिराम बरुआ के राम-नवमी (1858) को प्रथम आधुनिक असमिया नाटक के तौर पर देखा जाता है। वह प्रथम असमिया कथाकार (आनंदरम देखियाल फूकनार जीवन सरित, 1880) भी थे। बरुआ ने असमिया साहित्यिक निबंधन के विकास में भी योगदान दिया।
जोनाकी काल को असमिया साहित्य में रोमांटिक युग के तौर पर भी जागा जाता है। इस समय के असमिया लेखकों को उनके समकालीन विक्टोरियन्स से अधिक रोमांटिक समझा जाता था।
केंद्रीय विषय भगवान के प्रति आस्था से हटकर संसार, इसकी सुंदरता, मनुष्य दैवीय प्रतिबिम्ब के रूप में और व्यक्ति की आनंद एवं सुंदरता की चाहत हो गए। असोम साहित्य सभा का गठन 1917 में किया गया। साहित्य सभा ने विचारों के विनिमय, असमिया साहित्य, कला एवं संस्कृति को लोकप्रिय बनाने, और अपने अभिसमयों, जर्नल्स, एवं प्रकाशनों के माध्यम से साहित्यिक चर्चा एवं विचार-विमर्श को मंच प्रदान करके सुसाध्य बनाया।
जोनाकी का प्रकाशन सर्वप्रथम 9 फरवरी, 1889 को चंद्रकुमार अग्रवाल द्वारा किया गया। बाद के जोनाकी संपादकों में लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ और हेमचंद्र गोस्वामी शामिल थे। इस समय के साहित्य में इन तीन लेखकों का प्रभुत्व था। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के महत्वपूर्ण लेखकों में, जिन्होंने प्रथम बार जोनाकी में प्रकाशन किया, रघुनाथ चैधरी; भोलानाथ दास; और आनंदचंद्रा अग्रवाल थे। अन्य महत्वपूर्ण कवियों में अम्बिकागिरी रायचैधरी (तुमी); जतिन्द्रनाथ दुआरा; पार्वती प्रसाद बरुआ; और ज्योति प्रसाद अग्रवाल शामिल थे जिन्होंने असमिया साहित्य के एक अलग पहलू को परिभाषित किया।
आज के असमिया साहित्य में कविता, उपन्यास, लघु कथाएं, नाटक,एवं एक अलग प्रकार के साहित्य जैसे लोकगीत, विज्ञान गल्प, बाल साहित्य, कथाएं एवं अनुवाद की व्यापक शृंखला शामिल है।
आधुनिक कविता आधुनिक जीवन (शहरी जीवन) के तेजी से बदलते प्रतिरूप पर ध्यान देती है और वैयक्तिक प्रतिक्रिया को प्रकट करती है। नवकांत बरुआ, नीलामोनी फूकन, निर्मलप्रभा बोरदोलाई, और हीरेन भट्टाचार्य, समीर तंती में कवित्त दृष्टि है जिसने तृतीय विश्व की दशाओं को प्रतिबिम्बित किया है। इनके कार्यों में युद्ध भूमीर कविता (1985) और शोकाकोल उपत्यका (1990) शामिल है। भाबेन बरुआ और हीरेन दत्ता स्वतंत्रता पश्चात् के प्रमुख आधुनिक कवि हैं। भूपेन हजारिका के गीतों एवं कविताओं ने विविध विषयों को आच्छादित किया जिसमें अत्यंत वैयक्तिक से लेकर बेहद राजनीतिक तक शामिल हैं।
एक अन्य समकालीन उपन्यासकार जिनके विषय अक्सर राजनीतिक होते हैं, होमेन बोरगोहें हैं। आधुनिक प्रमुख उपन्यासकारों में निरूपमा बोरगोहैं, नीलिमा दत्ता, और मामोनी रेसोम गोस्वामी शामिल हैं। लक्ष्मीनंदन बोराह ने साधारण जीवन विशेष रूप से ग्रामीण जीवन (गंगा सिलोनिर पाखी, निशर पुरोबी, और ममित मेघोर सनह) पर ध्यान केंद्रित किया। जोगेश दास ने हमारे समाज के बंधनकारी प्रकृति पर टिप्पणी की, विशेष रूप से महिलाओं की दशा को लेकर (1959 में जोनाकिर जुई, 1963 में निरूपाई.निरूपाई )। देवेन्द्रनाथ आचार्य ने अपने उपन्यासों कल्पपुरुष (1967), अन्य जोग अन्य पुरुष (1971), और जन्गम (1982) में प्रथम बार एक अलग प्रकार की शैली में लिखा। रोंग बोंग तेरांग का उपन्यास रोंगमिलिर हानही (1981) कारबी समाज को साहित्य की मुख्यधारा में लेकर आया। शिलाभद्र ने मधुपुर (1971), तरंगगिनी (1971),गोधूलि (1981) और अनुसंधान (1987) में एक नए विषय एवं रूप के साथ प्रयोग किया। अन्य समकालीन फिक्शन लेखकों में चंद्रप्रसाद सैकिया, मेदिनी चैधरी, अरुणाचली लूम्मर दाई, त्रिलोकीनाथ गोस्वामी, स्नेही देवी, हीरेन गोहन, और गोविंद प्रसाद शर्मा शामिल हैं।
आधुनिक असमिया नाटक ने भी सामाजिक विश्लेषण एवं संरचनात्मक प्रयोग को प्रस्तुत किया। शेक्सपीयर एवं इबसेन जैसे पश्चिमी नाटकों के अनुवाद आधुनिक असमिया नाटक का एक महत्वपूर्ण पहलू है। असोम नाट्य सन्मिलन का गठन 1959 में किया गया और इसके नियमित वन-एक्ट प्ले प्रतिस्पद्र्धाओं ने इस रूप के विकास में बेहद मदद की। दुर्गेश्वर ठाकुर का निरोदेश; प्रबीन फूकन का त्रितिरंगा; भवेन्द्रनाथ सैकिया की पुटोला-नास; और भूपेन हजारिका की ईरा बटोर सुर प्रमुख वन-एक्ट प्ले हैं। महत्वपूर्ण संख्या में आधुनिक नाटकों ने परम्परागत लोक कला एवं शास्त्रीय रूपों को भी पुगर्जीवित किया है।
1917 में, ओक्सओम झेहिटो झोभा को असमिया समाज के संरक्षक के तौर पर स्थापित किया गया, जो कि असमिया भाषा एवं साहित्य के विकास के मंच के तौर पर था। झोभा का प्रथम अध्यक्ष पदमनाथ गोहेन बरुआ थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के लेखकों में सैयद अब्दुल मलिक, जोगेश दास और बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य (जिन्हें उनके उपन्यास मृत्युंजय के लिए 1979 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला) है। असमी साहित्य पर पश्चिमी प्रभाव भी देखा जा सकता है।
समकालीन लेखकों में अरूपा कलिटा पटंगिया, मोनीकुंटला भट्टाचार्य, मौसुमी कोंडोली, मोनालिसा सैकिया और अमृतज्योति महंत थे।
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