ओजोन परत क्या है (ozone layer depletion in hindi) ओजोन परत का क्षरण के कारण , क्षय किसे कहते है ?
(ozone layer depletion in hindi) ओजोन परत क्या है इसका महत्व बताइए ? ओजोन परत का क्षरण के कारण , क्षय किसे कहते है ? को बचाने के उपाय
वायुमण्डल में ओजोन परत (ozone layer of atmosphere)
वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा सिर्फ 0.000002 प्रतिशत ही है अर्थात यदि इसे पृथ्वी सतह पर फैलाया जाए तो मात्र 3 किलोमीटर की तह ही बन पायेगी। इस लेशमात्र गैस की 95% मात्रा समताप मण्डल और क्षोभमण्डल में पाई जाती है। ऊपर समताप मण्डल में ओजोन अत्यंत जटिल प्रकाश रासायनिक क्रियाओं के दौर में उत्पन्न होती है।
वातावरण में ओजोन के निर्माण और विघटन का पहला प्रकाश रासायनिक सिद्धांत 1930 में सिडनी में चैपमैन ने प्रस्तुत किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार वातावरण में ओजोन का निर्माण आण्विक ऑक्सीजन पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से होता है। इससे ऑक्सीजन का अणु परमाणुओं में विभाजित हो जाता है तथा ये स्वतंत्रत परमाणु ऑक्सीजन के अन्य अणुओं से क्रिया करके ओजोन बनाते है। वायुमण्डल में बहुत ऊंचाई पर इतने कम अणु होते है कि उनके पास पास आने और क्रिया करने की सम्भावना बहुत कम होती है ,इसलिए वातावरण में 80 किलोमीटर से ऊपर ओजोन न के बराबर है। दूसरी तरफ लगभग 16 से 18 किलोमीटर से निचे वायुमंडल में परमाण्विक ऑक्सीजन नहीं पाई जाती है। इसलिए यहाँ भी ओजोन का निर्माण संभव नहीं हो पाता। लिहाजा अधिकतर ओजोन स्ट्रेटोस्फीयर में ही पायी जाती है।
अब तक ऐसी लगभग 200 प्रकाश रासायनिक क्रियाएँ ज्ञात है जिसमें इस गैस का हास होता है। आजकल कुछ ऐसे मानव निर्मित यौगिकों का उत्सर्जन हो रहा है जो ओजोन मण्डल में पहुँचकर ओजोन के हास में वृद्धि कर रहे है। परिणामस्वरूप सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँचने लगी है जिसके कई दुष्प्रभाव देखने में आ रहे है।
समताप मण्डलीय ओजोन पर प्रभाव (effect on stratospheric ozone depletion )
वायुमण्डल की समतापमंडल का ओजोन स्तर सूर्य किरणों के हानिकारक पराबैंगनी विकिरणों को पृथ्वी पर पहुँचने से रोकता है और इस प्रकार कृषि , जलवायु और मानव स्वास्थ्य की अनेक दुष्प्रभावों से रक्षा करता है लेकिन हाल के वर्षों में ओजोन के इस रक्षक स्तर की मोटाई में 2 प्रतिशत की कमी आई है जिससे पराबैंगनी किरणों के पृथ्वी तक पहुँचने की सम्भावना बढ़ गयी है।
अभी तक किये गए अध्ययनों से जो परिणाम सामने आये है उनके अनुसार ओजोन परत के क्षय का प्रमुख कारण मनुष्य का भौतिकवाद और सुख सुविधायुक्त जीवन यापन की संकुचित प्रवृत्तियां है। वैज्ञानिक विश्लेषण इस बात की पुष्टि करते है कि ओजोन परत में मुख्य रूप से विघटन उत्पन्न करने वाला रसायन क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFC) है जिसका हम दैनिक जीवन में विभिन्न सुख सुविधाओं में उपयोग करते है। उदाहरण के लिए एयर कंडिशनर , फ्रिज , प्लास्टिक , फोम , रंग , विभिन्न प्रकार के एरोसोल आदि। साथ ही अग्निशामक यंत्रों , औषधि , कीटनाशक , इलेक्ट्रॉनिक आदि उद्योगों में प्रयुक्त रसायन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सी.एफ.सी. (CFC) के अलावा हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन (HCFC) , कार्बन टेट्राक्लोराइड (सी.टी.सी.) , हेलोजन्स , मिथाइल क्लोरोफोर्म आदि रसायन भी इस परत को नष्ट करने में सक्षम है।
एयर कंडिशनर में प्रयुक्त फ्रियोन-11 और फ्रीयोन-12 गैसें ओजोन के लिए अत्यंत घातक है। इन गैसों का एक अणु ओजोन के एक लाख अणुओं को आसानी से नष्ट कर सकता है।
इस शताब्दी के तीसरे दशक में सी.एफ.सी. का प्रयोगशाला में निर्माण हुआ था। इसकी अज्वलनशील और विषहीन प्रकृति ने शीघ्र ही इसे विश्व के बाजारों में स्थान दिला दिया। 1931 में जहाँ इसका उत्पादन मात्र 545 टन था वही आज डेढ़ करोड़ टन से भी ऊपर हो गया है। विभिन्न आराम की चीजों में इसका उपयोग होने लगा है। जब CFC अपने अस्तित्व में आने के 50 वर्षो को पूरा करने जा रहा था उस समय इस बात का पता चला कि इस रसायन के कारण अंटार्कटिका के ऊपरी वायुमंडल में एक छेद हो गया है। हालाँकि उस समय इस छिद्र की तुलना किसी फ़ुटबाल से कर सकते थे लेकिन आज यह छिद्र अफ्रीका महाद्वीप के बराबर हो गया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ओजोन स्तर में इस परिवर्तन का मुख्य कारण यद्यपि सौर अम्लीयता , वायुयानों द्वारा वायुमण्डल की ऊपरी सतहों में विसर्जित पदार्थो और ज्वालामुखी उद्गार है और इसमें वायु विलय नोदकों और प्रशीतकों के रूप में उपयोग में लाये जाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन यौगिकों तथा सुपरसोनिक वायुयानों द्वारा अधिक ऊँचाई पर प्रदूषक पदार्थों के विसर्जन को भी कुछ श्रेय दिया जा सकता है।
ओजोन परत का हास (destruction of ozone layer)
संसार भर में बढ़ते तीव्र तथा व्यापक औद्योगिकरण ने वायुमण्डल की एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी है।जिस वायुमण्डल ने सूर्य और अन्य अन्तरिक्ष पिण्डों से आने वाली घातक किरणों से हमारी रक्षा की है उसको हमने बहुत ऊँचाई तक प्रदूषित कर दिया है। उदाहरण के लिए वायुमंडल में ओजोन गैस की परत हमारे लिए जीवन रक्षा कवच है जिसको आज के परमाणु और अन्तरिक्ष युग ने छेद कर रख दिया है। परिणामस्वरूप सूर्य से आने वाली घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी तक पहुंचकर विनाशकारी प्रभाव डाल रही है।
ओजोन परत के क्षय के मुख्य कारण
(i) क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस का उपयोग
(ii) अन्य क्लोरोनीकृत रसायन (other chlorinated chemicals)
ओजोन क्षय के अन्य कारण
(iii) धुएँ से : क्रुटजेन ने कटिबन्धो में बायोमास के जलाये जाने तथा वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा के मध्य सम्बन्ध प्रतिपादित किया। ऐसा भी माना जाता है कि विमानों , वाहनों , कारखानों आदि से निकलने वाले धुंए से भी विभिन्न प्रकृति वाले रसायन वायुमण्डल में प्रवेश पा रहे है तथा ओजोन परत को नष्ट कर रहे है।
1. उदाहरणार्थ 12 से 15 किलोमीटर की ऊँचाई पर तेज गति से उड़ने वाले जेट विमानों का धुआं , एक अनुमान के अनुसार ओजोन परत को सन 2000 तक 10% तथा अधिक क्षतिग्रस्त कर देगा। एक अनुमान के अनुसार 500 सुपरसोनिक विमानों का एक बेडा वर्ष भर में ऊपरी वायुमंडल में इतना जल , कार्बन डाइऑक्साइड , नाइट्रोजन के ऑक्साइड और कणमय पदार्थ विसर्जित करता है कि समताप मण्डल के जल की मात्रा में 50 से 100 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। इसके फलस्वरूप पृथ्वी की सतह के तापमान में 3 डिग्री फेरेनाइट की वृद्धि हो सकती है और समतापमंडल के ओजोन स्तर का कुछ भाग नष्ट भी हो सकता है।
2. इसके अलावा अन्तरिक्ष यानों का जला ईंधन भी नाइट्रोजन के ऑक्साइड उत्पन्न करता है जो ओजोन को नष्ट करते है।
3. भविष्य में होने वाला कोई भी नाभिकीय विस्फोट क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा में पंक्चर कर सकता है जिससे ओजोन क्षय करने वाले पदार्थ समताप मण्डल में निर्विघ्न प्रवेश कर सकेंगे।
4. मोटर गाडियों से निकलने वाला धुआं , कल कारखानों और बिजलीघरों से निकलने वाले धुंए से कही अधिक खतरनाक साबित हुआ है क्योंकि इसमें कार्बन मोनोऑक्साइड के अलावा , सल्फर डाइऑक्साइड , नाइट्रोजन के ऑक्साइड , हाइड्रोकार्बन , सीसा आदि होते है जो ओजोन परत को क्षति पहुंचाते है।
5. प्रकृति में होने वाली घटनाओं को भी ओजोन परत को नष्ट करने का कारण पाया गया है। हाल ही में कई ज्वालामुखियों के एक साथ सक्रीय हो जाने से वायुमंडल में सल्फर के ऑक्साइड आदि की मात्रा बढ़ने का अंदेशा है। कुछ रुसी वैज्ञानिक इसका कारण मैक्सिको के एल चिम्पोन ज्वालामुखी का प्रबल विस्फोट मानते है। इससे ओजोन परत पर प्रभाव पड़ेगा , ऐसा अनुमान है।
निकोलाई येलान्सकी के अनुसार इस शताब्दी के नवें दशक में तीव्र गति से पर्यावरण प्रदूषित है तथा यही गति रही तो अगली शताब्दी के मध्य तक वायुमंडल में ओजोन की मात्रा 15 प्रतिशत या इससे भी अधिक तक कम होने की आशंका है। कुछ वैज्ञानिकों की राय है कि सी.एफ.सी. वर्ग के रसायनों का जिस गति से उत्पादन और उपभोग हो रहा है , ये सभी अगली शताब्दी के मध्य तक ओजोन की कुल मात्रा की 15% मात्रा नष्ट करने के लिए पर्याप्त होंगे।
विभिन्न प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि ओजोन के लिए घातक रसायनों को वायुमण्डल की ऊपरी सतह तक पहुंचाने में अधिकाधिक 10 वर्षो का समय चाहिए। चूँकि इन घातक रसायनों का जीवनकाल एक शताब्दी के बराबर होता है , इस कारण इन रसायनों का पर्यावरण में प्रवेश पर नियंत्रण भी विचारणीय है। अब तक वायुमण्डल में इतने रसायन पहुँच चुके है कि वे अगले 150 वर्षो तक ओजोन स्तर को नुकसान पहुँचाने के लिए पर्याप्त है। अंटार्कटिका के ऊपर के विशाल छिद्र की सीमा में आने वाले विभिन्न देश जैसे न्यूजीलैंड , ऑस्ट्रेलिया , अर्जेंटीना , चिली में अब सूर्य के प्रकाश के साथ पराबैंगनी किरणें बिना किसी विघ्न के प्रवेश करके प्रकृति के साथ किये गए खिलवाड़ का बदला ले रही है। लगभग 30 हजार से भी अधिक अमेरिकी प्रतिवर्ष के हिसाब से त्वचा कैंसर से ग्रसित नजर आ रहे है। वैज्ञानिकों का यह मत है कि इस छिद्र में प्रति इंच बढ़ोतरी एक लाख तथा लोगो को इस रोग का शिकार बना सकती है।
ओजोन परत क्षय के बचाव की राजनैतिक तस्वीर
ओजोन स्तर का संरक्षण आज विश्व के लिए चुनौती के रूप में उभरकर आया है। इसी प्रयास में संयुक्त राष्ट्र के पहल करने पर 1985 में वियना में एक बैठक का आयोजन किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य ओजोन स्तर पर आये संकट पर विचार विमर्श करना , CFC वर्ग के रसायनों पर नियंत्रण करना आदि था। उस समय इसका कोई उचित समाधान नहीं निकल पाया। इसके दो वर्ष बाद दिसम्बर , 1987 में मांट्रियल , कनाडा में इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर एक तथा बैठक का आयोजन किया गया।
सर्वप्रथम 1974 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो. शेरवुड रॉलेंड ने इस प्रलयंकारी समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षण किया और CFC और ब्रोमीन यौगिकों पर तुरंत रोक लगाने की माँग की। लेकिन इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। जब 10 वर्ष पश्चात् यह पता चला कि अंटार्कटिका पर ओजोन परत में छिद्र बढ़ता जा रहा है तो –
1. 1985 में वियना में प्रथम भूमण्डलीय संगोष्ठी आयोजित की गयी। फिर एक महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी सितम्बर 1987 में कनाडा के शहर मांट्रियल में हुई। इसमें 43 देशों के प्रतिनिधियों तथा वैज्ञानिकों ने भाग लिया। यहाँ मांट्रियल आचार संहिता के नाम से एक प्रारूप तैयार किया गया।
24 औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने एक अन्तर्राष्ट्रीय और महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसमें यह कहा गया है कि सी.एफ.सी. वर्ग के रसायनों के उत्पादन और प्रयोगों में निरंतर कमी करके इस शताब्दी के अंत तक उसे 30 प्रतिशत तक कम कर देना है। इस समझौते पर भारत , चीन , ब्राजील और अन्य विकासशील देशों ने इस कारण हस्ताक्षर नहीं किये क्योंकि इनका यह आरोप था कि इस समझौते में विकासशील देशो के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है।
ओजोन परत के लिए हानिकारक , घातक रसायनों की खपत विकसित देशों में 84% , विकासशील देशो में 14% तथा भारत और चीन में मात्र 2% है। इसे इस प्रकार भी कह सकते है कि इन रसायनों के विश्व स्तर पर 10 लाख टन प्रतिवर्ष के उत्पादन में से भारत में केवल 4000 टन की ही खपत है।
इस प्रकार वर्तमान संकट उत्पन्न करने में मुख्य रूप से वे देश दोषी है जहाँ खपत सर्वाधिक है। विकासशील देश , विशेष रूप से भारत , चीन आदि इस समझौते को उसी स्थिति में मानने को तैयार थे जबकि औद्योगिक देश इन देशों को समतुल्य रसायनों के उत्पादन में आर्थिक सहायता दे। यद्यपि इस समझौते पर मलेशिया ने हस्ताक्षर तो कर दिए थे लेकिन इसके बाद उसे काफी कटु अनुभव प्राप्त हुए। उसे इस बात का आश्वासन दिया गया था कि उसे सी.ऍफ़.सी. के विकल्प के उत्पादन की तकनीक उपलब्ध कराई जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इधर CFC उत्पादक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इनकी कीमतों में 40 प्रतिशत वृद्धि कर दी जो कि मलेशिया के लिए एक महँगा सौदा था।
भारत की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 0.02 किलोग्राम है जबकि विकसित देशों की 1 किलोग्राम है और वह वर्ष में उतने CFC (6000 टन) का उत्पादन करता है जितना सम्पूर्ण विश्व डेढ़ दिन में तथा यह भारत के चहुमुखी विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
2. सुरक्षा प्रयासों में एक और पहल जून 1990 में की गयी जब लगभग 118 देशों के प्रतिनिधियों ने ओजोन बचाओं विषय से सम्बन्धित एक सम्मलेन में भाग लिया। इसका आयोजन लन्दन में किया गया था। इसमें 1987 के मांट्रियल समझौते की बातों का पुनरवलोकन किया गया तथा निम्न अन्य कारणों से भी ओजोन स्तर का क्षतिग्रस्त होने से बचाने सम्बन्धी तकनीक पर विचार विमर्श किया गया –
- विश्व प्रयासों में यह भी निर्णय लिया गया कि सन 2000 तक सारे विकसित देश CFC और हेलोजन्स का उत्पादन पूर्ण रूप से बंद कर देंगे जिसमे विकासशील देशो को और 10 वर्षो का समय (2010 तक) दिया गया।
- इस समझौते पर अनेकानेक संशोधनों के बाद चीन और भारत ने भी हस्ताक्षर किये। इस सम्मलेन में मलेशिया ने तकनीक पर एकाधिकार समाप्त करने की भी बात उठाई लेकिन यह बात ओजोन संधि का हिस्सा नही बन पाई।
- इस अन्तर्राष्ट्रीय समझौते में घातक रसायनों के उत्पादन पर नियंत्रण और तकनिकी आदान प्रदान को जोड़ा गया।
- इस बात को भी सुनिश्चित किया गया कि विकासशील देशों को दी जाने वाली तकनिकी सहायता वहां के पर्यावरण के अनुकूल हो।
- इसमें नियंत्रित किये गए पदार्थों की सूची में अनेक अन्य नामों को भी शामिल किया गया।
- एक अन्तर्राष्ट्रीय कोष की भी स्थापना की गयी जो इस बैठक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
- इस संधि का एक और महत्वपूर्ण लक्ष्य यह भी था कि वायुमण्डल में क्लोरिन का स्तर कम किया जाए।
- इस बात पर भी विशेष ध्यान दिया गया कि ऐसे प्रयास किये जाए जिससे वायुमंडल में नाइट्रोजन और क्लोरिन के ऑक्साइड न बन पाए। वृक्षों की कटाई रोकने , वृक्षारोपण को बढ़ावा देने आदि पर भी विशेष बल दिया गया।
3. विश्व का 37% CFC संयुक्त राज्य अमेरिका , 35% यूरोपीय समुदाय के देशों तथा केवल 5% विकासशील देशों और शेष सोवियत रूस और अन्य यूरोपीय देशों द्वारा उत्पादित किया जाता है। चीन , भारत और ब्राजील की जनसंख्या दुनियाँ की 40% है तो भी उनका CFC उत्पादन मात्र 3% ही है। CFC के जिन विकल्पों की चर्चा आज हो रही है उनको बनाने में 5 गुना अधिक खर्चा आयेगा जो तीसरी दुनिया के गरीब राष्ट्रों पर 1300 अरब अमेरिकी डॉलर का अनावश्यक बोझ होगा। अत: यह आवश्यक है कि विकसित राष्ट्र जो ओजोन परत के 85% नाश के लिए जिम्मेदार है वे ही इस सुरक्षा के खर्च को उठायें।
CFC के प्रयोगशाला के निर्माण के लगभग 5 दशक बाद हमारे देश में इससे सम्बन्धित पहली इकाई 1968 में स्थापित की गयी थी। अब हमारे यहाँ इसका उत्पादन जहाँ 17000 टन है , वही खपत मात्र 4000 टन है। अर्थात हमारा देश आज सी.ऍफ़.सी. वर्ग के रसायनों के निर्यात में समर्थ है लेकिन संधि के अनुसार 1992 के बाद यह निर्यात वर्जित है।
4. दुर्भाग्यवश CFC का एक ऐसा कोई भी विकल्प नहीं खोजा जा सका है जो पूर्ण रूप से ओजोन नाशक न हो। हाइड्रोफ्लोरो कार्बन (HFC) की चर्चा इस समय अवश्य है जो CFC से 10 गुना कम ओजोन नाशक है लेकिन इसके बनाने का तरीका उतना आसान और सस्ता नहीं है जितना CFC का है।
CFC के विकल्प के रूप में एच.सी.ऍफ़-22 के उत्पादन की तकनीक हमारे यहाँ उपलब्ध तो है लेकिन इसका प्रयोग अत्यंत महंगा है।
सन 1978 में विश्व पर्यावरण सम्बन्धी एक संस्था ने एरोसोल्स में CFC के प्रयोग पर पूर्ण पाबंदी लगा दी थी लेकिन इस पाबंदी के उपरान्त लगभग 750 हजार टन गैस प्रतिवर्ष के हिसाब से अभी भी निकल रही है। अब यह लापरवाही कितनी घातक होगी इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
वास्तव में दुनियां के बदलते हुए मौसम ने परमाणु युद्ध की विभीषिकाओं पर होने वाली परिचर्चाओं को भी पीछे छोड़ दिया है। मानव जाति को इस खतरे से बचाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास जारी है लेकिन आज तक के उपलब्ध वैज्ञानिक विकास के बल पर यह कहना मुश्किल है कि हम पुनः अपनी पुरानी संतुलित और सुरक्षित स्थिति में लौट सकेंगे या नहीं।
ओजोन क्षय के दुष्प्रभाव
1. शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव : सूर्य की किरणों के साथ आने वाली घातक पराबैंगनी किरणों को ओजोन परत अवशोषित कर लेती है। यदि कुछ पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँच जाती है तो वह जीवों और वनस्पति जगत के लिए निम्नलिखित रूप से हानिकारक साबित हुई है –
- इनके प्रभाव से मनुष्यों की त्वचा की ऊपरी सतह की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती है। क्षतिग्रस्त कोशिकाओं से हिस्टेमिन नामक रसायन का स्त्राव होने लगता है। हिस्टेमिन नामक रसायन के निकल जाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तथा ब्रोंकाइटिस , निमोनिया , अल्सर आदि रोग हो जाते है।
- त्वचा के क्षतिग्रस्त होने से कई प्रकार के चर्म कैन्सर भी हो जाते है। मिलिग्रैंड नामक चर्म कैंसर के रोगियों में से 40 प्रतिशत से अधिक की अत्यंत कष्टप्रद मृत्यु हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण सुरक्षा अभिकरण का अनुमान है कि ओजोन की मात्र 1% की कमी से कैंसर के रोगियों में 20 लाख की वार्षिक वृद्धि हो जाएगी।
- पराबैंगनी किरणों का प्रभाव आँखों के लिए भी घातक सिद्ध हुआ है। आँखों में सूजन तथा घाव होना और मोतियाबिंद जैसी बीमारियों में वृद्धि का कारण भी इन किरणों का पृथ्वी पर आना ही माना जा रहा है। ऐसा अनुमान है कि ओजोन की मात्रा में 1 प्रतिशत की कमी से आँख के रोगियों में 25 लाख की वार्षिक वृद्धि होगी।
- सूक्ष्म जीवों और वनस्पति जगत पर भी पराबैंगनी किरणों का बुरा असर पड़ता है। इनके पृथ्वी पर आने से सम्पूर्ण समुद्री खाद्य श्रृंखला गडबडा सकती है क्योंकि इनके प्रभाव से सूक्ष्म स्वतंत्रजीवी शैवाल (फाइटोप्लैंक्टन) जो समुद्री खाद्य श्रृंखला का आधार है , नष्ट हो जाते है। यदि वे शैवाल नष्ट होंगे तो इन पर निर्भर रहने वाले छोटे छोटे समुद्री जीव भी मर जायेंगे , फिर क्रमशः मछलियाँ , समुद्री पक्षी , सील , व्हेल तथा अंत में मानव भी प्रभावित होगा जो इस खाद्य श्रृंखला की अंतिम कड़ी है।
- यदि ओजोन की मात्रा 35% से 50% कम हुई तो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मंद पड़ जाएगी। मात्र 1 प्रतिशत ओजोन की कमी से 2 प्रतिशत पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर आने लगेंगी जिससे 6 प्रतिशत से अधिक वनस्पति कोशिकाएँ नष्ट हो जाएंगी। सम्पूर्ण रूप से इसके द्वितीयक प्रभावों की कल्पना करना कठिन है।
वायुमण्डल पर पड़ने वाले प्रभाव
असमांगी रसायन वैज्ञानिक अवचेतना
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics