neurospora genetics in hindi , न्यूरोस्पोरा आनुवंशिकी किसे कहते हैं , जैव-रासायनिक आनुवंशिकी
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जीन की अवधारणा (Concept of Gene)
सर्वप्रथम जोहनसन (Johannson 1903) ने जीन (Gene) नामक शब्द को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, “किसी भी लक्षण विशेष की आनुवंशिकी ( Inheritance of any specific character) को निर्धारित करने वाली इकाई को जीन कहते हैं।” आधुनिक समय में इसके विभिन्न कार्यों के जीन की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं ।
कारक अवधारणा (Concept of factor )
जीन सिद्धान्त (Gene hypothesis — Factor Concept)
सर्वप्रथम बेटसन (Bateson, 1905) ने मेण्डल के आनुवंशिकता के सिद्धान्तों को समझाने के लिए कारक-परिकल्पना (Factor hypothesis) प्रतिपादित की। इस परिकल्पना के अनुसार-
(1) कारक (Factor)—वह इकाई जो सजीवों में किसी लक्षण विशेष को परिलक्षित करती है, उसे मेण्डल ने कारक का नाम दिया। आजकल इसे जीन ( Gene) कहते हैं ।
(2) क्योंकि उस समय गुणसूत्रों एवं जीन्स (Chromosomes and Genes) के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं थी, अतः बेटसन ने यह भी प्रतिपादित किया कि ये कारक अनेक खण्डों या टुकड़ों (Fragments) के बने होते हैं एवं आपस में संवर्धित हो सकते हैं। मॉरगन (Morgan, 1923) ने ड्रोसोफिला पर किये गये अध्ययनों के आधार पर जीन्स की संरचना एवं कार्यों के बारे में निम्न तथ्य प्रस्तुत किये –
(1) किसी सजीव के लक्षण (Characters), को कारकों (Factors) के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
(2) ये कारक आपस में एक साथ सहलग्न समूहों के तौर पर एक विशेष एवं निश्चित संख्या में पाये जाते हैं।
(3) ये कारक सजीवों की कोशिकाओं में युग्म अथवा जोड़ों (Pairs) के रूप में उपस्थित रहते हैं, जिनको युग्मविकल्पी या ऐलीलोमोर्फ कहते हैं ।
(4) मेण्डल के नियम के अनुसार इन जोड़ों या युग्मविकल्पियों के सदस्य (ऐलील्स), युग्मक (Gamete) निर्माण के समय पृथक् हो जाते हैं। परिणामस्वरूप प्रत्येक युग्मक में युग्मविकल्पी का केवल एक ही सदस्य पाया जाता है ।
(5) जीन विनिमय (Crossing over) की संख्या प्रत्येक सहलग्न समूह में पाई जाने वाली जीनों के रैखिक व्यवस्थाक्रम (Linear arrangement) को निरूपित करती है ।
(6) विभिन्न सहलग्न समूहों में उपस्थित जीन्स के आनुवंशिक पदार्थ का आपस में आदान-प्रदान या जीन विनिमय या क्रॉसिंग ओवर (Crossing over) हो सकता है।
इस प्रकार प्रत्येक जीन किसी विशेष लक्षण के वाहक (Carrier) एवं इसके संचरण (Transmission) का कार्य करती है। इसकी कार्यशैली के अनुरूप जनक पीढ़ी से सन्तान में लक्षण विशेष स्थानान्तरित होते हैं । प्रत्येक सजीव शरीर में उपस्थित जीन्स एक निश्चित संख्या में होते हैं, परन्तु चयन (Selection) एवं उत्परिवर्तन (Mutation) के द्वारा इस संख्या में परिवर्तन हो सकता है ।
जीन के ऊपर किये जा रहे आधुनिक शोध कार्यों के परिणामस्वरूप, आज हमारे पास इसके सम्बन्ध में अनेक तथ्य उपलब्ध हैं। होले (Holley, 1965) ने :- RNA की आण्विक संरचना का अध्ययन किया एवं तत्पश्चात् खुराना (Khurana, 1970) ने जीन का कृत्रिम संश्लेषण किया ।
आज तक कोई भी वैज्ञानिक हालाँकि जीन्स को देख नहीं पाया है । परन्तु विभिन्न सजीवों में, अर्थात् जीवाणु से लेकर मनुष्य में जीन की आण्विक संरचना (Molecular structure), अणुभार (Molecular weight), गुणसूत्रों पर इसकी स्थिति (Gene mapping), व परिमाप (Dimensions) इत्यादि के बारे में निरन्तर अध्ययन किया जा रहा है। ये जीन, गुणसूत्रों पर रेखीय अनुक्रम में पाये जाते हैं ।
प्रत्येक जीन की अपनी एक विशिष्ट कार्य प्रणाली होती है। कुछ जीन्स अन्य जीन्स की तुलना में दृढ़ होती हैं जो कि वातावरण- कारक द्वारा अपेक्षाकृत कम प्रभावित होती हैं लेकिन अन्य जीन्स वातावरण के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं एव तद्नुसार या किसी उत्परिवर्तन से प्रभावित होने पर इनकी कार्यशाला में बदलाव आ जाता है ।
सट्टन (Sutton, 1902) ने मेण्डल के नियमों तथा गुणसूत्रों के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या की। उनके अनुसार सजीवों में कोशिका विभाजन के अन्तर्गत, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचरण के समय मेण्डेलियन कारकों एवं गुणसूत्रों की कार्यप्रणाली में पर्याप्त समानता पाई जाती है। बावेराई एवं सट्टन (Boveri and Sutton, 1902) के अनुसार गुणसूत्रों एवं मेण्डेलियन कारकों में प्रमुख समानताएँ निम्न प्रकार से हैं-
(1) मेण्डल के अनुसार विभिन्न कारक जोड़ों (युग्मविकल्पी) में पाये जाते हैं एवं इसी प्रकार सजीवों की सामान्य कायिक कोशिकाओं में भी गुणसूत्र समजात युग्म (Homologous pair) में पाये जाते हैं ।
(2) मेण्डल के अनुसार युग्मकों के बनते समय युग्मविकल्पी कारकों या जोड़े का एक सदस्य (ऐलील) एक युग्मक में जाता है, ठीक इसी तरह समजात गुणसूत्र जोड़े के सदस्य अर्धसूत्री विभाजन के समय अलग हो जाते हैं एवं पृथक् रूप से युग्मक में प्रवेश करते हैं ।
(3) जिस प्रकार मेण्डेलियन कारकों में स्वतन्त्र अपव्यूहन (Independent assortment) पाया जाता है, ठीक उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के समान गुणसूत्र अर्धसूत्री विभाजन के समय स्वतन्त्र रूप से पृथक् होते हैं, एक जोड़ा गुणसूत्र दूसरे जोड़े पर निर्भर नहीं करता |
(4) मेण्डल की यह मान्यता थी कि कारक या लक्षण नष्ट नहीं होते चाहे वे अभिव्यक्त हों अथवा नहीं। इसी प्रकार सजीव कोशिकाओं में उपस्थित गुणसूत्र अपनी पहचान जीवनपर्यन्त परिलक्षित करते हैं ।
सटन की अवधारणा के अनुसार जान एक विशेष भौतिक इकाई के रूप में गुणसूत्रों पर पायेजाते हैं, इस आधार पर बावेराई एवं सट्टन ने आनुवंशिकी के क्षेत्र में गुणसूत्र सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
जीन की परिभाषा ( Definition of Gene)
जीन, एक सजीव कोशिका के जीवन चक्र की प्रत्येक क्रिया को नियन्त्रित एवं निर्देशित करने वाली आनुवंशिकी सूचनात्मक इकाई होती है। अर्थात् यह कोशिका विभाजन के समय एक कोशिका से दूसरी कोशिका में एवं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आनुवंशिक सूचना सम्प्रेषित करती है।
पूर्ववर्ती अवधारणाओं के अनुसार “जीन उत्परिवर्तन (Mutation) एव पृथक्करण की सूक्ष्मतम इकाई के रूप में निरूपित होती है।” लेकिन आण्विक आनुवंशिकी विज्ञान (Molecular Genetics) के | क्षेत्र में किये गये कार्यों से ज्ञात होता है कि जीन केवल पुन: संयोजन (Recombination) एवं अन्य सम्बन्धित क्रियाओं की ही इकाई नहीं है, अपितु इसका सक्रिय योगदान अन्य कार्यों में भी देखा गया है ।
जीन संरचना (Structure of Genes)
सिमॉर बेन्जर (Seymor Benzer, 1962) की आधुनिक अवधारणा के अनुसार जीन को निम्न पदों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है-
(1) सिस्ट्रॉन (Cistron)—DNA का यह सबसे बड़ा खण्ड, जीन की क्रियात्मक इकाई को निरूपित करता है। यह अनेक उत्परिवर्ती स्थलों (Mutons) से मिलकर बना होता है। अतः सिस्ट्रांन को एक इकाई के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके घटक ( युग्मविकल्पी) सिस-ट्रान्स प्रक्रिया (Cis-Trans Phenomenon) प्रदर्शित करते हैं। अनेक सिस्ट्रान मिलकर एक जीन का निर्माण करते हैं, जैसे-एस्केरेशिया कोलाइ (E. coli) में ट्रिप्टोफेन सिन्थेटेस एन्जाइम बनाने वाला जीन दो सिस्ट्रॉन्स द्वारा निर्मित होता है। सिस्ट्रॉन को कार्यशैली के अनुरूप कॉम्प्लान (Complan) भी कहते हैं, जो कि अनुपूरकता की सूक्ष्म इकाई है।
(2) रिकोन (Recon) – यह जीन संरचना पुनर्योजन की सूक्ष्मतम इकाई है (Unit of Recombination) है इसकी न्यूनतम अभिव्यक्ति के रूप में DNA अणु में संयोजित न्यूक्लिओटाइइस के बीच की दूरी को लिया जा सकता है। सबसे छोटी रिकोन संरचना दो न्यूक्लिओटाइडों के बीच की दूरी को लिया जा सकता है। सबसे छोटी रिकोन संरचना दो न्यूक्लिओटाइडों द्वारा निर्मित होती है। यह रेखीय विन्यास में व्यवस्थित होकर जीन को संगठित करती हैं ।
जी विनिमय (Crossing over) के द्वारा ये अलग भी हो सकती है। सर्वप्रथम बेन्जर (1955) द्वारा एक जीवाणुभोजी वाइरस T बेक्टीरियोफाज के रिकोन जीन में जीन विनिमय का प्रदर्शन किया गया था।
(3) म्यूटॉन (Muton)—यह संरचना उत्परिवर्तन की सबसे छोटी इकाई है, तद्नुसार “DNA का वह न्यूनतम या सबसे छोटा खण्ड जिसमें उत्परिवर्तन (Mutation) की क्षमता होती है, उसे म्यूटॉन (Muton) कहते हैं ।” न्यूक्लिओटाइड के एक जोड़े में होने वाला परिवर्तन इसकी न्यूनतम अभिव्यक्ति को परिलक्षित करता है ।
(4) रेप्लिकॉन (Replicon)—यह DNA प्रतिकृतिकरण (Replication) की सबसे छोटी इकाई है। अनेक रेप्लिकोन संयुक्त रूप से मिलकर क्रोमोसोम का निर्माण करते हैं। रेप्लिकोन सम्भवतः एक क्रोमोसोम के भाग या DNA के एक अणु के रूप में हो सकते हैं।
(5) कोम्प्लान (Complan ) – यह संरचना सिस्ट्रॉन के स्थान पर प्रयुक्त अनुपूरण (Complementation) की इकाई है। यहाँ कुछ एन्जाइम्स के सक्रिय समूह जो दो या दो से अधिक ।
पोलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं के द्वारा बने होते हैं, वे एक दूसरे के अनुपूरक (Complement) होते हैं। इन पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं में किसी प्रकार की न्यूनता की आपूर्ति या परिवर्तन, अनुपूरक पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं या कॉम्प्लान द्वारा सम्पादित होते हैं ।
(6) ओपेरॉन (Operon ) –— प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं में उपस्थित जीन्स का एक झुण्ड जो कि एन्जाइम्स की श्रृंखला को कोडित करते हैं तथा संयुक्त रूप से जैवरासायनिक परिपथ को नियंत्रित ‘करते हैं। उदाहरणार्थ — ई. कोलाई जीवाणु में लेक्टोज औपेरॉन तीन जीनों का समूह अथवा झुण्ड होता है जिसमें प्रत्येक जीन तीन में से एक-एक एन्जाइम को कोडित करता है जो कि डाइसेकैह्राइड लेक्टोज शर्करा को मोनोसेकैहाइड ग्लूकोज व गेलेक्टोज इकाइयों में परिवर्तित करने के लिए आवश्यक होते हैं ।
अतः ओपेरॉन एक विशिष्ट कार्यात्मक इकाई (Physiological unit) है, जो कि संरचनात्मक जीन (Structural Gene) एवं ऑपरेटर या प्रचालक जीन (Operator Gene) दोनों के द्वारा संयुक्त रूप से परिलक्षित होती है। ये इकाइयाँ DNA के द्वारा सम्प्रेषितआनुवंशिकी सूचनाओं के प्रभाव को बदलने का काम करती हैं ।
न्यूरोस्पोरा आनुवंशिकी/ जैव-रासायनिक आनुवंशिकी ( Neurospora-genetics/Bio-chemical genetics) :
कवक न्यूरोस्पोरा (Neurospora) कुल एस्कोमाइसिटीज (Ascomycetes) का सदस्य है। इस कवक में लैंगिक जनन के समय बनने वाले फलनकाय में एसाई ( Asci) का निर्माण होता है, जिनमें प्रारम्भ में (+) व (–) जनन केन्द्र संलयित होकर (2n) युग्मनज का निर्माण करते हैं । युग्मनज में अर्धसूत्री विभाजन के पश्चात् 4 एस्कोबीजाणुओं का निर्माण होता है, जिनमें समसूत्री विभाजन के फलस्वरूप 8 एस्कोबीजाणु बनते हैं । प्रारम्भ में बीडल (Beadle) व टेटम (Tatum) व उनके पश्चात् अन्य शोधकर्त्ताओं द्वारा इस कवक का उपयोग जैव रासायनिक उत्परिवर्तनों के अध्ययन हेतु किया गया। इस कवक का प्रयोगशाला में कृत्रिम संवर्धन, कुछ लवणों, शर्करा व बायोटिन युक्त संवर्धन माध्यम में सरलता से किया जा सकता है। यह कवक इस माध्यम में उपस्थित उपरोक्त रसायनों का उपयोग कर अपनी वृद्धि हेतु आवश्यक यौगिकों को संश्लेषित करने में सक्षम होता है । इस कवक में उत्परिवर्तन उपरान्त ऐसे प्रभेद (strains) प्राप्त किये जा सकते हैं, जिनमें इसकी वृद्धि हेतु आवश्यक एक विशेष यौगिक अथवा कई यौगिकों को संश्लेषित करने की क्षमता का ह्रास हो जाता है ।
इस कवक का वह वन्य प्रभेद (wild strain) जो कि उपरोक्त अल्पतम माध्यम पर उगने में सक्षम होता है, सर्व संश्लेषी (Prototroph) कहलाता है, किन्तु उत्परिवर्तन उपरान्त प्राप्त होने वाला उत्परिवर्ती (mutant) प्रभेद असर्वसंश्लेषी (auxotroph) कहलाता है। बीडल व टेटम ने इस कवक में कृत्रिम उत्परिवर्तन प्रेरित किया। उत्प्रेरण हेतु न्यूरोस्पोरा कवक तन्तुओं द्वारा निर्मित होने वाले कोनिडिया को विकिरणों (radiatiens) द्वारा उत्प्रेरित कर उनका संलग्न (mating ) वन्य प्रभेद से करवाया, तत्पश्चात् प्रेरित उत्परिवर्तनों के विसंयोजन का अध्ययन कर परिणाम प्राप्त किये गये । इसे हेतु “सम्पूर्ण पृथक्करण विधि” (Total isolation method) अपनायी गयी (चित्र 5.4 A व B ) । चूँकि इस कवक में एक एसकस में ही आठो एस्कोबीजाणु पाए जाते हैं, जिससे इनके विसंयोजन का अध्ययन सरल होता है। शोधकर्त्ताओं द्वारा विसंयोजन के अध्ययन के लिए सर्वप्रथम प्रत्येक एसकस बीजाणु को एक ऐसे पूर्णत माध्यम (A) (complete medium) में उगाया गया, जिसमें अल्पतम माध्यम (B) के साथ सभी उपापचयज (metabolites) उपस्थित थे । इसके परिणामस्वरूप उत्परिवर्ती व वन्य दोनों ही प्ररूप प्राप्त हुए। पूर्ण माध्यम पर उगने के पश्चात् प्राप्त प्रत्येक कवक तन्तुओं के एक अंश को परीक्षण हेतु अल्पतम माध्यम पर स्थानान्तरित कर दिया गया। जिनके कवक तन्तु अंशों की अल्पतम माध्यम पर वृद्धि नहीं हो सकी, वे उत्परिवर्ती माने गये। इस प्रकार पहचाने गये उत्परिवर्ती प्रभेदों का ऐसे सम्पूरित माध्यम (supplemented media) में परीक्षण किया गया, जिनमें अल्पतम माध्यम के साथ अलग-अलग किन्तु केवल एक-एक विशिष्ट उपापचयज विद्यमान था (C, D & F-J)। इस प्रकार इस विशिष्ट उपापचयज का पता लगाया गया, जिसकी बनाने की क्षमता उत्परिवर्तन के कारण ही समाप्त हो गयी थी।
इस प्रकार न्यूरोस्पोरा में किसी एक विशिष्ट जीन में उत्परिवर्तन होने के कारण जैव संश्लिष्ट गया (चित्र)। उनके द्वारा न्यूरोस्पोरा में आर्जिनिन संश्लेषण (Arginine synthesis) के लिए क मार्ग में किसी एक विशेष चरण में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। इसे निम्नलिखित उदाहरण द्वारा समझाया उत्परिवर्तियों (Mutants) को विलगित किया गया था – (i) ऐसे उत्परिवर्ती जिनकी वृद्धि केवल आर्जिनीन अमीनो अम्ल की उपस्थिति में ही हो सकती थी, अकेले ऑर्निथीन (Omnithine) अथवा सिलीन (Citrulline) अमीनो अम्ल की उपस्थिति में नहीं, (ii) वे उर्तरवर्ती जिनकी वृद्धि केवल सिटलीन अ आर्जिनिन की उपस्थिति में ही हो सकती थी, केवल आर्निथीन की उपस्थिति में नहीं, (iii) वे उत्परिवर्ती सकती थी।
उपरोक्त उत्परिवर्तनों से ज्ञात हुआ कि प्रथम संवर्ग (i) के उत्परिवर्ती पूर्ववर्ती (Precurses) ऑर्निथीन अथवा सिट्रलीन का उपयोग करने में असमर्थ थे, दूसरे संवर्ग (ii) के उत्परिवर्ती पूर्ववर्ती ऑर्निथीन का उपयोग करने में असमर्थ थे तथा तीसरे संवर्ग (iii) के उत्परिवर्ती पूर्ववर्ती का उपयोग कर ही नहीं सकते थे। इन उत्परिवर्तन अध्ययनों के आधार पर आर्जिनीन संश्लेषण हेतु प्रस्तावित जैव संश्लिष्ट मार्ग (चित्र 5.5 ) में प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार बीडल व टेटम द्वारा न्यूरोस्पोरा में किये गये उत्परिवर्तनों का अध्ययन ‘एक जीन – एक एन्जाइम परिकल्पना का आधार बना ।
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