चट्टानों की प्रकृति क्या हैं ? (Nature of Rocks in hindi) , चट्टान के स्तरों की व्यवस्था तथा स्थिति (Arrangement and Disposition of Rockbeds)
(Nature of Rocks in hindi) चट्टानों की प्रकृति क्या हैं ? चट्टान के स्तरों की व्यवस्था तथा स्थिति (Arrangement and Disposition of Rockbeds) ?
भौमिकीय संरचना
“स्थलरूपाों के विकास में भौमिकीय संरचना एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक होती है तथा उनमें प्रतिबिम्बत होती है।‘‘ सामान्य रूपा में यह प्रतिपादित किया जाता है कि स्थलरूपाों को प्रभावित करने वाले कारकों में भौमिकीय संरचना एक महत्वपूर्ण कारक होती है परन्तु यह तथ्य सदैव चरितार्थ नहीं होता है क्योंकि कभीकभी अनाच्छादनात्मक प्रक्रम इतने अधिक सक्रिय हो जाते हैं। कि वे भौमिकीय संरचना पर हावी हो जाते हैं तथा समस्त भाग एक समतल सतह में बदल जाता है जिसमें कड़ी या कोमल चट्टान का महत्व जाता रहता है। इसी आधार पर कहा जाता है कि ‘कभी -कभी भौमिकीय संरचना स्थलरूपाों के निर्माण में निष्क्रिय तत्व होती है‘। इसी आधार पर ई.एच.ब्राउन ने कहा है- ‘‘स्थलरूपाों के विकास में भौमिकीय संरचना को एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक मान लेना एक प्रवृति है और निश्चय ही यह तथ्य कई बार सत्य भी होता है परन्तु संरचना ही सदैव मुख्य नियंत्रक कारक नहीं होती है और वह भी अकेले ही।‘‘
यदि संरचना का प्रयोग सीमित अर्थ में किया जाय तो इसके अन्तर्गत केवल भूहलचल (अन्तर्जात बल) के कारण शैलों में विरूपाण तथा उनकी व्यवस्था में तब्दीली (यथा-वलन, भ्रंशन, संवलन आदि) को ही सम्मिलित करते है परन्तु यदि इसका प्रयोग व्यापक अर्थों में किया जाय तो इसके अन्तर्गत निम्न सम्मिलित किया जाता है-1. शैल की प्रकृति 2. शैलों की व्यवस्था, तथा 3. शैलों की विशेषतायें।
(1) चट्टानों की प्रकृति (Nature of Rocks) –
चट्टानों की प्रकृति के अन्तर्गत यह देखा जाता है कि स्थान विशेष में चट्टान कौन सी है। भू- आकरिकी में चट्टान के प्रकारों का अत्यन्त महत्व है, क्योंकि वे स्थलरूपाों के विकास को प्रभावित करती हैं. स्थलाकृति क स्वभाव का निर्धारण करती हैं तथा मिट्टी के स्वभाव को निश्चित करती है। इसी आधार पर कहा गया है कि ‘चट्टान चाहे आग्नेय हो या अवसादी, एक तरफ तो पृथ्वी के इतिहास को हस्तलिपि प्रस्तुत काती है तो दूसरी तरफ समकालीन दृश्यावली के लिए आधार प्रस्तुत करती है। चट्टानों के विभिन्न प्रकार कठोातस की दृष्टि से पर्याप्त भिन्न होते हैं। अतः उन पर अपक्षय तथा अपरदन की क्रियायें भी विभिन्न दर से कार्य करती हैं। जिस कारण नाना प्रकार के स्थलरूपाों का निर्माण होता है।
कुछ विशिष्ट चट्टानों की तो स्थलरूपाों के निर्माण में इतना अधिक प्रभुत्व तथा नियंत्रण होता है कि समूची स्थलाकृति का नामकरण ही उनके आधार पर कर दिया जाता है, जैसे ग्रेनाइट स्थलाकृति, कार्य या लाइमस्टोन स्थलाकृति, चाक स्थलाकृति आदि। कोमल चट्टानों पर घाटियों एवं निम्न स्थलरूपाों का निर्माण होता है। इस तरह स्थलरूपाों के निर्माण में चट्टानों के महत्व को देखते हुए ही किसी क्षेत्र के स्थलाकति मानचित्र तथा भौमिकीय मानचित्र से तुलना कर ली जाती है क्योंकि उच्चावच्च तथा उसके नीचे स्थित चट्टानों में पर्याप्त सम्बन्ध होता है।
(2) चट्टान के स्तरों की व्यवस्था तथा स्थिति (Arrangement and Disposition of Rockbeds)
इस पहलू के अन्तर्गत यह देखा जाता है कि चट्टान की परतों का रूपा कैसा है, अर्थात् चट्टान के स्तर वलित अवस्था में हैं, भ्रंशित अवस्था में है, चुम्बकीय अवस्था में हैं, या एकदिग्नत अवस्था में है आदि। इस तरह चट्टान की स्थिति द्वारा उच्चावच्च का सामान्य प्रारूपा निश्चित होता है। सम्पीडनात्मक बल के कारण अवसादी शैल की परतें वलित होकर अपनति तथा अभिनति में बदल जाती है। परन्तु कभीकभी वलन में जटिलता के कारण संरचना अत्यन्त जटिल हो जाती है। सामान्य रूपा में प्रारम्भ में वलित रचना पर जालीनुमा अपवाह प्रतिरूपा का आविर्भाव होता है, जिसके अंतर्गत अनुवर्ती परवर्ती प्रत्यनुवर्ती नुवर्ती आदि सरिताओं का आविर्भाव होता है। लम्बे समय तक अपरदन के कारण उच्चावच्च प्रतिलोमन हो जाता है, जिस कारण अपनति के स्थान पर अभिनति तथा अभिनति के स्थान पर अपनति का निर्माण होता है।
इसी प्रकार गुम्बदीय संरचना का आविर्भाव दो रूपाों में होता है- प्रथम पटल विरूपाण के कारण धरातलीय भाग में उत्सवलन के कारण उभार होने से तथा द्वितीय, आग्नेय शैल के धरातल के नीचे प्रवेश के कारण। लम्बे समय तक अनाच्छादन के चलते रहने से निचली संरचना खुल जाती है, जिस पर हागबैक, क्वेस्टा तथा कटक का निर्माण होता है। उत्सवलन के कारण उत्पन्न गुम्बदीय संरचना पर अरीय या केन्द्रत्यागी अपवाह प्रतिरूपा का विकास होता है जिसके अन्तर्गत ढाल के अनुसार प्रवाहित होने वाला अनुवर्ती, परवर्ती, प्रत्यनुवर्ती तथा नवानुवर्ती सरिताओं का निर्माण होता है।
भ्रंशन की प्रक्रिया के अन्तर्गत भ्रंश के सहारे चट्टानी स्तरों के विभिन्न गति से संचलन के कारण कई प्रकार के भ्रंश का निर्माण होता है। सामान्य भ्रंश के अन्तर्गत भ्रंश रेखा के सहारे एक खण्ड नीचे सरक जाता है जिस कारण भ्रंश कगार का निर्माण होता है। यह स्थलरूपा निश्चय ही संरचनात्मक है। इस पर अपरदन होने से विभिन्न प्रकार के अपरदनात्मक स्थलरूपाों का निर्माण होता है।
(3) चट्टानों की विशेषताएँ
चट्टानों की विशेषताओं के अन्तर्गत उनके यांत्रिक एवं रासायनिक संघटन, पारगम्यता एवं अपारगम्यता, पवेश्यता एवं अप्रवेश्यता, संधि प्रारूपा, शैल प्रतिरोधित आदि को सम्मिलित किया जाता है। मैग्नेशियम कालोनट वाली डोलोमाइट शैल अम्लीय जल के सम्पर्क में आने पर शीघ्र अपरदित हो जाती है। चूनायुक्त या लौह युक्त बालुका पत्थर कर भी गर्दि्र जलवायु में रासायनिक अपरदन हो जाता है। इसी प्रकार शल जयां शैलों को पारगम्यता, अपक्षय एवं अपरदन तथा स्थलरूपाों को आकृतियों को प्रभावित करता है।
यदि शैल में संधियों की संख्या अधिक है तो वह पारगम्य होती है तथा उसका तीव्र रासायनिक अपक्षय होता है। इसी तरह संधि युक्त शैलों के यांत्रिक अपक्षय के कारण उसका बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन हो जाता है। अधिक संधियाँ होने से धरातलीय जल रिस कर शीघ्र भूमिगत जल का रूपा ले लेता है जिस कारण धरातलीय सतह का अपरदन कम हो जाता है। संधि प्रतिरूपा अपवाह प्रतिरूपा को भी प्रवाहित करता है। दर-दर संधियों वाली ग्रेनाइट शैल पर अपक्षय द्वारा टार का निर्माण होता है। जबकि अत्यधिक संधियों वाली बेसाल्ट शैल का रासायनिक अपक्षय द्वारा पूर्णतया वियोजन हो जाता है। किसी भी शैल के जल के नीचे प्रवेश कराने की क्षमता को शैल की पारगम्यता कहते हैं। पारगम्यता संस्तर तल एवं संधियों द्वारा निर्धारित होती है। शैलों में स्थित रिक्त स्थानों की स्थिति को शैल की सरंध्रता कहते हैं। अधिक पारगम्यता वाली शैल का अपरदन कम होता है जिस कारण उच्च उच्चावच्च का निर्माण होता है एस्कार्पमेण्ट, कटक आदि जबकि न्यून पारम्यता वाली शैल का अधिक अपरदन होता है क्योंकि जल का नीचे की ओर रिसाव नहीं हो पाता है।
चट्टान की कठोरता सापेक्ष होती है। कोई चट्टान किसी परिस्थिति में कठोर हो सकती है और वहीं दुसरी परिस्थितियों में कोमल हो सकती है। जैसे चूना प्रस्तर उष्णार्द्र प्रदेश में जल के कारण कमजोर हो जाती है, परन्तु उष्ण शुष्क प्रदेश में जल के अभाव में अपेक्षाकृत कठोर होता है सामान्य रूपा में कोमल शैल का अपरदन कठोर शैल से अधिक होता है। मृत्तिका का शीघ्र अपरदन जाने से निम्न भाग या बेसिन का निर्माण होता है परन्तु यह स्थिति तभी सम्भव है जबकि मृत्तिका की स्थिति कठोर चट्टानों के बीच होती है। खरिया शैल पर उर्मिल पृष्ठ वाली स्थलाकृति का निर्माण होता है। इतना ही नहीं, इस पर धरातलीय जल के लुप्त हो जाने के कारण विचित्र स्थलाकृति का निर्माण होता है । इसके विपरीत अपेक्षाकृत कठोर शैल पर दृढ स्थलाकृति का निर्माण होता है। यदि सभी स्थितियाँ समान रहे तो कठोर शैल पर उच्च स्थलरूपाो का निर्माण होता है परन्तु लम्बी अवधि तक अपरदन के कारण इसका भी नाश हो जाता है तथा समतलप्राय सतह का निर्माण होता है।
(4) भू आकृतिक प्रक्रम की संकल्पना
भूआकृतिक प्रक्रम स्थलरूपाों पर अपनी विशेष छाप छोड़ते हैं तथा प्रत्येक भूआकृतिक प्रक्रम स्वयं का स्थलरूपाों का विशिष्ट समुदाय विकसित करता है। कुछ भूआकृतिक विज्ञानवेत्ता भूआकृतिक प्रक्रम तथा भूआकृतिक कारक को अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त करते हैं। थार्नबरी के अनुसार भूआकृतिक प्रक्रिया उन सभी भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों को कहते हैं, जिनके द्वारा धरातलीय सतह प्रभावित होती है।
(5) अवस्था की संकल्पना
थानबरी ने अवस्था की संकल्पना स्पष्ट करते हए कहा है कि जैस ही भूतल पर विभिन्न अपरदनात्मक कारक कार्यरत होते हैं, क्रमिक स्थलरूपाों, जिनके विकास की क्रमिक अवस्थाओं में विशिष्ट विशेषतायें होती हैं, का निर्माण होता है। यह परिकल्पना डेविस की बहुचर्चित संकल्पना ‘स्थलाकृति संरचना, प्रक्रम तथा समय का प्रतिफल होती है‘ के तीन प्रमुख कारकों में से समय यानी अवस्था से सम्बन्धित है। वास्तव में अवस्था की अवधारणा चक्रीय समय की अवधारणा पर आधारित है जिसके अन्तर्गत वृहद् क्षेत्रीय प्रदेश में दीर्घ भूगर्भिक काल के दौरान स्थलाकृतिक विकास का अध्ययन किया जाता है।
इसके बाद विलियन डेविस भे भौगोलिक अपरदन चक्र की पूर्ण समय अवधि को तीन क्रमिक अवस्थाओं में विभाजित किया है जो निम्न अनुसार है।
(अ) तरूणावस्था -क्षेत्र विशष में लघु अवधि में त्वरित गति से उत्थान होता है जिस कारण अधिकतम स्थितिज ऊर्जा तथा न्यूनतम उत्क्रममाप आविर्भाव होता है। सर्वप्रथम ढाल के अनुसार अनुवर्ती नदियों का आविर्भाव होता है। प्रारम्भ में ये नदियाँ संख्या में निहायत कम तथा लम्बाई में छोटी होती हैं। इनकी सहायक नदियाँ संख्या में कम होती हैं। नदियों की अपेक्षा ढालों पर असंख्य अवनलिकाएँ तथा छोटी-छोटी सरिताएँ होती हैं। ये जलधारायें शीर्ष अपरदन द्वारा अपना विस्तार करती हैं। धीरे-धीरे मुख्य नदियाँ अपनी घाटी को गहरा करना प्रारम्भ कर देती हैं, तथा उनकी सहायक नदियों का भी विकास हो जाने पर पादपाकार अपवाह प्रतिरूपा का विकास होता है। इस अवस्था में निम्न कटाव द्वारा नदियों की घाटी अत्यन्त गहरी होती जाती है जिससे नदियाँ संकरी तथा गहरी कन्दराओं से होकर बहती हैं। इन कन्दराओं को गार्जे तथा कैनियन कहते हैं। नदियों के बीच के दोआब तथा जलविभाजक अत्यधिक विस्तृत तथा चैड़े होते हैं, क्योंकि इस अवस्था में केवल निम्न कटाव ही अधिक होता है, क्षैतिज अपरदन नगण्य होता है। जहाँ पर नदियों प्रतिरोधी शैल से होकर कमजोर चट्टान वाले भाग में गिरती हैं, वहाँ पर प्रपात तथा क्षिप्रिकाओं का निर्माण हो जाता है। प्रपात तथा क्षिप्रिकाएँ तरुणावस्था के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थलरूपा होती हैं। जैसे-जैसे अपरदन अधिक होता जाता है तथा चक्र आगे की ओर बढ़ता है, प्रपात तथा क्षिप्रिकाएँ पीछे की ओर हटती जाती हैं तथा तरूणावस्था के अन्त तक इनका अधिकांश रूपा में लोप हो जाता हैं तथा तरूणावस्था के अन्त तक इनका अधिकांश रूपा में लोप हो जाता है। अतः ढाल की तीव्रता तथा कम भार के कारण नदी प्रखर वेग से प्रवाहित होती है।
(ब) प्रौढ़ावस्था – जैसे ही नदी अपनी तरूणावस्था को समाप्त करके प्रौढ़ावस्था में पदार्पण करती है, स्थलरूपाों में पर्याप्त अन्तर होने लगता है। नदी के ढाल में कमी के कारण नदी का वेग बहुत कम हो जाता है, अपरदन की अपेक्षा निक्षेप का कार्य अधिक सक्रिय होता है। घाटी का गहरा होना नगण्य हो जाता है, तथा घाटी का चैड़ा होना अधिक सक्रिय होता है। अर्थात् निम्न कटाव कम हो जाता है तथा क्षतिज अपरदन प्रारम्भ हो जाता है। जैसे ही नदी ऊपरी ढाल से मैदान में बहने लगती है, वैसे ही ढाल के निचले भाग में जलोढ़ पख तथा जलोढ़ शंकओं का निर्माण होने लगता है। प्रमुख नदी तथा उसकी सहायक नदियों का इतना अधिक विकास हो जाता है कि अपवाह प्रतिरूपा का पूर्णरूपोण विकास हो जाता है।
(स) जीर्णावस्था – प्रौढ़ावस्था से जीर्णावस्था करते ही नदी की सामान्य स्थिति में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। प्रौढावस्था की सहायक नदियों की संख्या इस अवस्था में कम हो जाती है परन्तु तरुणावस्था की अपेक्षा अधिक रहती हैं। मुख्य नदी की सहायक नदियाँ भी आधार तल को प्राप्त हो जाती हैं तथा साम्यावस्था की परिच्छेदिका का निर्माण करती हैं। क्षैतिज अपरदन सर्वाधिक होता है, जिससे घाटी अत्यन्त चैड़ी हो जाती है। निम्न कटाव पूर्णतया समाप्त हो जाता है। अपक्षय का कार्य अधिक सक्रिय रहता है। क्षैतिज अपरदन तथा अपक्षय मिलकर स्थलखण्ड को नीचा करने में सतत् सक्रिय रहते हैं। नदी बाढ़ का मैदान अत्यधिक विस्तृत हो जाता है, जिसमें नदियां बल खाती हुई स्वतन्त्रता पूर्वक प्रवाहित होती हैं। बाढ़ के मैदानों में झीलों तथा दलदलों का आविर्भाव हो जाता है परन्तु अन्तर सरिता क्षेत्र में इनका विकास नहीं हो पाता है परन्तु अन्तर सरिता क्षेत्र में इनका विकास नहीं हो पाता है। नदी के वेग में निहायत कमी हो जाने के कारण उसकी परिवहन शक्ति कम हो जाती है। इसके विपरीत इस अवस्था में नदी के अवसाद भार की अधिकता होती है। परिणामस्वरूपा नदी समस्त भार का परिहवन नहीं कर पाती है।
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