WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

राष्ट्रीय नवीनीकरण कोष क्या है | राष्ट्रीय नवीकरण कोष किसे कहते है अर्थ मतलब National Renewal Fund in hindi

National Renewal Fund in hindi राष्ट्रीय नवीनीकरण कोष क्या है | राष्ट्रीय नवीकरण कोष किसे कहते है अर्थ मतलब ?

राष्ट्रीय नवीकरण कोष
अलाभप्रद फर्मों को बंद कर देना अर्थव्यवस्था और समाज दोनों के सर्वोत्तम हित में है। किंतु व्यक्तियों के कतिपय समूहों को हानि हो सकती है। इस तरह के फर्मों के श्रमिकों के सम्मुख नौकरी छूटने की परेशानी रहती है और इस मामले में इस समस्या का मानवीय आयाम है जिसकी उपेक्षा महीं की जा सकती है। इसलिए बहिर्गमन नीति को श्रमिकों के लिए सुरक्षा कवच का जरूर प्रावधान करना चाहिए। हमारे श्रम विधान में छंटनी की स्थिति में मुआवजा और पृथककरण वेतन का प्रावधान है। किंतु यदि एक फर्म में तालाबंदी की गई है अथवा यह रुग्णता के कारण बंद है तो यह प्रावधान उपयोगी नहीं है। इन फर्मों में श्रमिक कैसे क्षतिपूर्ति का दावा कर सकते हैं?
श्रमिकों की परेशानी के समाधान के लिए सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय नवीकरण कोष की स्थापना की। यद्यपि कि यह मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिए है, इसका कुछ अंश निजी क्षेत्र के लिए भी उपलब्ध है। इस कोष का उपयोग कुछ विशेष उद्देश्यों के लिए किया जाना है जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लाभों के भुगतान के लिए और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र दोनों में श्रमिकों के पुनःप्रशिक्षण और पुनःनियोजन के लिए।

आरम्भ में श्रमिकों की प्रतिक्रिया उदासीन थी किंतु कुछ हद तक उनका दृष्टिकोण बदला है और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजनाओं का लाभ उठाने वाले श्रमिकों की संख्या बढ़ रही है। 1997 तक, सार्वजनिक क्षेत्र में 1 लाख से अधिक श्रमिकों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वी आर एस) को स्वीकार किया था जिसे ‘गोल्डन हैंडशेक‘ कहा गया। यह उचित भी था क्योंकि पेशकश द्विपक्षीय स्वरूप का था और क्षतिपूर्ति की राशि बहुत अधिक थी।

किंतु यह नोट करना महत्त्वपूर्ण है कि वी आर एस का एक हानिकर पक्ष भी है। यद्यपि कि यह श्रम बल घटाने में प्रभावी है ऐसा करने में कुशल श्रमिक हट जाते हैं तथा कम कुशल श्रमिक बने रहते हैं। यदि एक श्रमिक यदि अपने सहकर्मी की तुलना में अधिक दक्ष अथवा कुशल है उसे अपने सहकर्मी की तुलना में इसी प्रकार की नौकरी बाहर पाने के अधिक अवसर हैं। अतएव, किसी भी वी आर एस राशि की स्वीकार्यता उसके लिए उसके सहकर्मी की अपेक्षा कहीं अधिक है। यही कारण है कि वी आर एस बेहतर श्रमिकों को अकुशल श्रमिकों की अपेक्षा नौकरी छोड़ने के लिए अधिक प्रेरित करता है। इस समस्या को प्रतिकूल चयन की समस्या कहा जाता है जिसे सुलझाना अत्यन्त कठिन है।

औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड की भूमिका
औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड, जो अर्ध-न्यायिक निकाय है और जिसकी स्थापना 1987 में हुई थी, को रुग्ण औद्योगिक कंपनियाँ अधिनियम के ढाँचे के अंदर रुग्ण इकाइयों के पुनर्गठन के लिए ‘एकल-खिड़की‘ (एक ही स्थान पर) सुविधा के रूप में कार्य करना है। रुग्ण औद्योगिक कंपनियाँ अधिनियम के अनुसार, एक इकाई जो रुग्ण हो गई है, बी आई एफ आर को सौंपा जाना चाहिए और सिर्फ बी आई एफ आर के अनुमोदन से इसका पुनर्गठन किया जा सकता है।

विशेष रूप से बी आई एफ आर की प्रक्रिया, अनेक स्तरों जैसे संदर्भित करने, पंजीकरण, प्रारम्भिक जाँच-पड़ताल, पुनर्गठन इत्यादि के कारण, समय लेने वाली है। यदि पुनर्गठन कार्यक्रम स्वीकृत हो जाता है, तब बी आई एफ आर पुनर्गठन के लिए आवश्यक निधियों का प्रबंध राष्ट्रीयकृत बैंकों से करता है। दूसरी ओर, यदि बी आई एफ आर पाता है कि फर्म का पुनरुद्धार नहीं किया जा सकता, तब यह उच्च न्यायालय को परिसमापन की प्रक्रिया आरम्भ करने के लिए सूचित करेगा। इसके पश्चात् न्यायालय परिसम्पत्तियों की बिक्री की प्रक्रिया तथा कंपनी अधिनियम 1956 के अनुरूप प्राथमिकता के क्रम में दावों के निपटान का पर्यवेक्षण करेगा।

प्रथम दृष्टि में, बी आई एफ आर प्रक्रिया में कुछ भी गलत नहीं है, अन्य देशों में समान विनियामक निकायों की तुलना में कुछ भी असामान्य नहीं है। किंतु आम धारणा यह है कि बी आई एफ आर अपने उद्देश्यों, सही समय पर सही तरीके से हस्तक्षेप करने, को पूरा करने में विफल रहा। सी आई एस सी आर प्रतिवेदन में विशेष रूप से बी आई एफ आर की आलोचना की गई थी। इस प्रतिवेदन में कहा गया था कि बी आई एफ आर परिसमापन की सिफारिश करने में आवश्यकता से अधिक रूढ़िवादी था और पुनरुद्धार के मामले में इसकी सफलता दर तुच्छ थी। विलम्ब भी एक घटक था।

सी आई एस सी आर प्रतिवेदन में दावा किया गया कि 1987 और 1992 के बीच मंजूर बी आई एफ आर स्कीमों में से 62 प्रतिशत असफल थी जिसे बी आई एफ आर ने भी परोक्ष रूप से स्वीकार किया था। इसके बावजूद भी इसने परिसमापन की अपेक्षा पुनर्गठन की सिफारिश करने की बी आई एफ आर की प्रवृत्ति को प्रभावित नहीं किया। यह विचार करते हुए कि परिसमापन अंतिम उपाय है, और बी आई एफ आर का मुख्य उत्तरदायित्व पुनरुद्धार में सहायता करना है, पुनरुद्धार के प्रति इसके झुकाव को आसानी से समझा जा सकता है। किंतु अधिक चिन्ता का विषय यह है कि एक रुग्ण फर्म को उसका पुनरुद्धार शुरू होने से पहले काफी लम्बे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सी आई एस सी आर समिति ने अपने प्रतिवेदन में उल्लेख किया कि 1987 में पंजीकृत मामलों में से 15 प्रतिशत पर पाँच वर्ष बाद भी 1992 में निर्णय नहीं किया जा सका था। जैसा कि बीमारी के सभी मामलों में होता है, यहाँ भी समय का अत्यधिक महत्त्व होता है। विलम्ब से फर्म के पुनरुद्धार का अवसर कम हो जाता है।

तीन मुद्दों का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें बी आई एफ आर अपनी नीति में सुधार कर सकता है अथवा परिवर्तन कर सकता है। पहला बी आई एफ आर को अनिवार्य संदर्भ अत्यधिक वांछनीय नहीं है। यह फर्म द्वारा अपने पहल की गुंजाइश को, जब तक यह बी आई एफ आर के माध्यम से नहीं होता है, पूर्णतया समाप्त कर देता है। स्वैच्छिक संदर्भ एक बेहतर विकल्प होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि अनिवार्य संदर्भ के कारण बी आई एफ आर के सम्मुख मामलों की संख्या में भारी वृद्धि हो गई, और यह भी अत्यधिक विलम्ब का कारण है। दूसरा, बी आई एफ आर सर्वसम्मत दृष्टिकोण अपनाना पसंद करता है, जिसमें निःसंदेह व्यापक स्वीकार्यता (श्रमिकों, नियोजकों और वित्तपोषकों के बीच) का पुट रहता है। किंतु सर्वसम्मति में न सिर्फ बहुत समय लगता है अपितु इसमें सर्वोत्तम पहले अथवा दूसरे समाधान को भी छोड़ देना पड़ता है। इसके बदले में, पुनरुद्धार अथवा परिसमापन के निर्णय फर्म के सर्वोत्तम हित में लिए जाने चाहिए और उसके बाद स्वीकार्यता की दृष्टि से संतुलन स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। तीसरा, सर्वसम्मति के कारण, न सिर्फ पुनर्गठन के प्रति झुकाव होता है, अपितु कतिपय स्कीमों के लिए अधिमानता भी होती है, जो कि सर्वोत्तम ही हो आवश्यक नहीं। व्यवहार में, विद्यमान प्रवर्तकों द्वारा बताई गई स्कीमों पर ही पहले विचार किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि बाहर के व्यक्तियों द्वारा दिए गए प्रस्तावों को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता है।

बी आई एफ आर की आलोचना करते समय हमें यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि बी आई एफ आर मात्र अर्ध-न्यायिक निकाय है, और इसे कतिपय सीमाओं में काम करना पड़ता है। बी आई एफ आर के गठन के पश्चात्, हमारे सामने औद्योगिक रुग्णता के संबंध में कम से कम स्पष्ट दृश्य तो प्रस्तुत हुआ और हमें पता चला कि बहिर्गमन समस्या कहाँ है। नवीनतम प्रतिवेदन से पता चलता है कि बी आई एफ आर के कार्य निष्पादन में सुधार हुआ है।

तालिका 33.2 में हम दो वर्षों 1994 और 2000 के लिए बी आई एफ आर मामलों की संख्या में तुलना करते हैं। ये आँकड़े वर्ष 1997 से संचयी हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि 1994 से 2000 तक संदर्भ और पंजीकरण दोनों की संख्या करीब-करीब दोगुनी हो गई जो कि उदारीकरण पश्चात् अवधि में बढ़ी हुई रुग्णता का द्योतक है। वर्ष 2000 के अंत में निपटान दर 63 प्रतिशत (3296 पंजीकृत मामलों में से 2104 मामले निपटाए गए) पर है जो 1994 के स्तर से थोड़ा ही कम है। किंतु कुछ महत्त्वपूर्ण दृष्टियों से उल्लेखनीय सुधार रहा है। वर्ष 1994 में, कुल निपटाए गए मामलों मैं पुनरुद्धार के लिए मंजूर मामलों का प्रतिशत 40 था जबकि 2000 में यह 26 प्रतिशत तक गिर गया। इसके साथ ही साथ परिसमापन के लिए सिफारिश किए गए मामले जो 1994 में 30 प्रतिशत थे 2000 में बढ़ कर 40 प्रतिशत हो गए। यह भी उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा निजी क्षेत्र में पुनरुद्धार योजनाएँ अधिक प्रभावी थीं। वर्ष 2000 तक, सार्वजनिक क्षेत्र में मात्र 17 प्रतिशत मामलों में (45 में से 8) पुनरुद्धार योजना सफल हुई थी जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में यह 47 प्रतिशत (512 में से 241) थी। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि समय बीतने के साथ बी आई एफ आर के कार्य निष्पादन में भारी सुधार हुआ है।

न्यायालय की भूमिका: यदि हम न्यायालय की भूमिका, जो परिसमापन के चरण में इस प्रक्रिया में सम्मिलित होता है, का उल्लेख नहीं करें तो हमारा विश्लेषण अपूर्ण रह जाएगा। जब रुग्ण इकाई को पुनरुद्धार के उपयुक्त नहीं घोषित कर दिया जाता है, तो यह मामला न्यायालय के हाथ में परिसमापन की प्रक्रिया शुरू करने के लिए भेज दिया जाता है। इस चरण पर यह निर्धारित करना कि परिसम्पत्तियों की बिक्री के बाद किसे कितना मिलेगा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। चूँकि फर्म का शुद्ध मूल्य नकारात्मक है, सभी देनदारियों का भुगतान नहीं किया जा सकता है। अब प्रश्न प्राथमिकता निर्धारित करने का उठता है। अर्थात् कौन प्रतिभूत ऋणदाता है और कौन नहीं? न्यायालय को इन समस्याओं का समाधान करना होता है।

यह प्रक्रिया जटिल है और इसमें एक के बाद एक कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है:

(क) उच्च न्यायालय को परिसमापन आदेश पारित करना पड़ता है. और (ख) एक सरकारी परिसमापक नियुक्त करना होता है। (ग) परिसमापक को इकाई को भौतिक अभिरक्षा में लेना पड़ता है, और (घ) सभी वित्तीय तथा लेन-देन संबंधी रिकार्ड एकत्र करना होता है । (ड.) इसके पश्चात् परिसमापक उपलब्ध परिसम्पत्तियों का लेखा-जोखा तैयार करता है। (च) आगे, कंपनी के ऋणी को सूचना भेजना महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। (छ) यदि ऋणी भुगतान नहीं करता है, कंपनी परिसम्पत्तियों को बेचने संबंधी आज्ञापत्र न्यायालय से प्राप्त करना होता है जिससे वसूली प्रक्रिया शुरू की जा सके। (ज) तब बोली लगाने, दावों और प्रतिदावों की प्रक्रिया होती है। (झ) अंत्तः, विभिन्न दावेदारों के बीच प्राप्त राशि के वितरण का जटिल चरण आरम्भ होता है।

यहाँ, न्यायपालिका की सुस्ती से फर्मों का विनाश हो जाता है। सी आई एस सी आर के स्वतंत्र सर्वेक्षण में, यह पाया गया कि 42 प्रतिशत मामलों में (1857 इकाइयों के नमूना में से) परिसमापन की प्रक्रिया 10 वर्षों में पूरी हुई थी और 12 प्रतिशत मामलों में 30 वर्षों से भी अधिक समय लगा। यह निश्चित तौर पर असाधारण है। किंतु यह हमारी न्याय प्रणाली के लिए असामान्य नहीं जो हमेशा अत्यधिक बोझ से दबी रही तथा मंद रही।