WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

नागा आन्दोलन क्या है | नागा जनजाति जनजातीय आंदोलन naga people’s movement for human rights

naga people’s movement for human rights in hindi नागा आन्दोलन क्या है | नागा जनजाति जनजातीय आंदोलन ?

नागा आन्दोलन
नागा आन्दोलन स्वायत्तता अथवा स्वाधीनता हेतु चल रहा प्राचीनतम आन्दोलन है। वर्तमान नागा आन्दोलन का मूल 1918 में कोहिमा हुए एक नागा क्लब के गठन में तलाशा जा सकता है जिसकी एक शाखा मोकोक्चुंग में है। इसमें ईसाई शैक्षणिक संस्थाओं से शिक्षाप्राप्त कोहिमा व मोकोक्चुंग के प्रशासनिक केन्द्रों से आए सरकारी अधिकारियों, और आसपास के गाँवों के कुछ अग्रणी मुखियाओं समेत, मुख्यतः उद्गमित होते नागा आभिजात्य वर्गों के सदस्य हैं। इस क्लब ने नागा हिल्स की सभी जनजातियों को शामिल कर सामाजिक व प्रशासनिक समस्याओं पर विचार-विमर्श किया ।

नागा क्लब ने 1929 में सायमन आयोग के समक्ष विज्ञप्ति-पत्र प्रस्तुत कर दिया। इसमें सुधार-योजना से इन पहाड़ियों को बाहर रखने और इन पर सीधे ब्रिटिश प्रशासन को जारी रखने हेतु आग्रह किया गया था। अप्रैल 1945 में, नागा हिल्स जिले के तत्कालीन उपायुक्त की पहल पर नागा पहाड़ियों में ‘जिला जनजातीय परिषद्‘ बनाई गई जिसने पृथक् जनजातीय परिषदों को एकीकृत किया। 1946 में इस परिषद् का नामकरण ‘नागा राष्ट्रीय परिषद्‘ (एन.एन.सी.) के रूप में कर दिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानियों ने अपनी अंतिम लड़ाई नागा हिल्स जिले के मुख्यालय कोहिमा में लड़ी थी। नागा जनजातियों के राजनीतिक मंच के रूप में ‘नागा राष्ट्रीय परिषद्‘ के गठन को नागा आन्दोलन के आधुनिक चरण की शुरुआत माना जा सकता है। इसने नागा जनजातियों को राजनीतिक एकता का अर्थ प्रदान किया और इसी ने नागा राष्ट्रीयता की संकल्पना को मूर्त स्वरूप दिया।

1946 में, ब्रिटिश सरकार ने नागा हिल्स, तत्कालीन, नेफा (छम्थ्।) क्षेत्र और बर्मा के एक हिस्से को लेकर लन्दन से नियंत्रित एक ‘सर्वोच्च-शक्ति उपनिवेश‘ (काउन कॉलोनी) के रूप में एक न्यास राज्यक्षेत्र‘ को गठित किए जाने की योजना का प्रस्ताव किया। नागा राष्ट्रीय परिषद् के शिक्षित नागाओं ने, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भाँति ही, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के इस विचार का त्वरित विरोध किया और घोषणा की कि ब्रिटिश जब भारत छोड़ें, नागा पहाड़ियाँ भी छोड़कर जाएँ।

नागा राष्ट्रीय परिषद् के उद्देश्य स्वायत्तता से लेकर स्वाधीनता तक अनेक चरणों से गुजर कर विकसित हुए। 27-29 जून, 1947 को परिषद् और असम के तत्कालीन राज्यपाल, स्वर्गीय सर अकबर हैदरी के प्रतिनिधित्व में, भारत सरकार के बीच हुए 9-सूत्रीय समझौते में ये प्रावधान थे – भू-स्वत्व-अंतरण पर रोक, प्रशासनिक स्वायत्तता लाना तथा उनके कार्यान्वयन हेतु भारत सरकार का एक विशेष उत्तरदायित्व। 1947 से 1954 तक नागा हिल्स में नागा आन्दोलन शांतिपूर्ण और संवैधानिक रहा। 1947 के अन्त तक आते-आते, नागा राष्ट्रीय परिषद् ने भारतीय संघ से बाहर स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए अपने लक्ष्य बदल दिए।

1954 में, नागाओं ने ‘होम्किन् सरकार‘ यथा स्वतंत्र नागालैण्ड का सर्वसत्ताक जन गणतंत्र‘ (पीपलश्स सॉवरिन रिपब्लिक ऑव फ्री नागालैण्ड) के गठन की घोषणा की। 1954 में हिंसा फैली और भारतीय सेना व क्रांतिकारियों से जुड़ी अनेक घटनाएँ हुईं। जुलाई 1960 में, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और एक नागा शिष्टमण्डल के बीच एक 16-सूत्रीय समझौता हुआ। एक अगस्त, 1960 को प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘नागालैण्ड‘ को भारतीय संघ का 16वाँ राज्य बनाए जाने हेतु सरकार के निर्णय की संसद में घोषणा की। अब तक नागालैण्ड में ‘भूम्योपरी‘ (वअमतहतवनदक) नागा नेताओं का एक गुट उद्गमित हो चुका था, जिन्होंने ‘नागालैण्ड राष्ट्रवादी संगठन‘ (एन.एन. ओ.) बनाया। यह एन.एन.ओ. मुख्यतः उन नेताओं द्वारा बनाया गया था जो नागालैण्ड को राज्य का दर्जा दिलाने में सहायक रहे थे। इसी तर्ज पर, नागालैण्ड लोकतांत्रिक पार्टी उद्गमित हुई। यह उनके द्वारा बनाई गई थी जो एन.एन.ओ. से मतभेद रखते थे और मन में पृथकवादी भूमिगत गुट के लिए सहानुभूति रखते थे। बहरहाल, 1954 और 1964 के बीच, एक दशक से अधिक, नागा आन्दोलन का उग्रवादी वर्ग भूमिगत रहा। 1968 तक, भूमिगत नेताओं के बीच वार्ताओं के अनेक दौर चले। एक अन्य महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी – 11 नवम्बर, 1975 को ‘शिलांग समझौते‘ पर हस्ताक्षर किया जाना, जिसकी शर्तों के तहत भूमिगत नागाओं ने भारतीय संविधान स्वीकार कर लिया, उन्होंने अपने हथियार जमा कर दिए और भारत सरकार ने बदले में नागा राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया तथा उनके पुनर्वास का वचन दिया। तथापि, जबकि विद्रोह के कोई आसार नहीं थे व हिंसा छोड़कर अधिक से अधिक भूमिगत नागा भूमि पर आ चुके थे और अशांत उत्तर-पूर्व में नागालैण्ड सामान्यतः शांति व स्थिरता का एक नखलिस्तान रहा था, यह समझौता स्वयं फिजो व उसके विरोधियों द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है। ये विरोधी तीन दलों में बँटे रहे: (प) फिजो-समर्थक फैडरल पार्टीय (पप) माओन् अन्गामी के नेतृत्व वाला गुट दृ अन्गामी भूमिगत नागा राष्ट्रीय परिषद् के उपाध्यक्ष बन गए जिन्होंने फैडरल पार्टी की नई दिल्ली के साथ पुनः सुलह की निंदा की और ईसाई धर्म से विश्वासघात करने के लिए विद्रोहियों पर दोष लगायाय और (पपप) एक तैंगखुल नागा, टी. मुइवाह तथा ईसाक स्वू, जिन्होंने नागालैण्ड राष्ट्रीय समाजवादी परिषद्‘ (एन. एस.सी.एन.) की स्थापना की, के नेतृत्व में माओवाद विचारधारा से ओतप्रोत विद्रोही। भारत-बर्मा सीमाओं पर फिजो-समर्थक व मुइवाह-ईसाक गुटों के बीच गोली बौछार-युद्ध, आपसी गोली-बारी, कातिलाना हमले और अनिर्धार्य मारकाट की घटनाएँ हुईं।

नागा राजनीति के प्रस्तार और संयोजन के पीछे विभिन्न जनजातियों के बीच बदलते समीकरण दिखाई देते हैं। अन्गामी, आओ व सेमा जिन्होंने नागा विद्रोह के आरम्भ में प्रमुख भूमिका निभायी थी, गंभीर क्षेत्रीय राजनीति हेतु आगे आए हैं। गुरुत्वाकर्षण केन्द्र इन जनजातियों के तथा कोण्यक व लोथा के प्रभूत्व वाले क्षेत्र से अंतर्राष्ट्रीय सीमा तक खिसक गया है। विद्रोह पर अब हेमी का प्रभुत्व है, और फिजो-समर्थक पार्टी के प्रति निष्ठावान कोण्यक व तैंगखुल अन्गामी, खोमैनगन व चाकेसांग की हत्याएँ करते रहे हैं। दरअसल, आओ, अन्गामी, चाकेसांग और लोथा जैसी उन्नत जनजातियों के प्रभुत्व के विरुद्ध इन जनजातियों के बीच प्रत्याक्रमण की भावना रही है।

इस बीच, नागालैण्ड की राजनीति मुख्यधारा व क्षेत्रीय ध्रुवों के बीच भटकती रही है। नागालैण्ड राष्ट्रीय संगठन ने सरकार 1964 से 1975 तक चलाई। 1976 में, एक राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय हो गई। नागा इस बीच उत्तर-पूर्व में सर्वाधिक सक्रिय व प्रगतिशील लोगों के रूप में उद्गमित हुए हैं जिन्होंने ग्रामीण विकास के उत्प्रेरक के रूप में ग्राम विकास बोर्ड स्थापित किया है और उस नागा रेजिमेंट को भी ऊपर उठाया है जो कारगिल में लड़ी।

और अभी तक, नागा समस्या का अन्तिम समाधान दिखाई नहीं दे रहा, यद्यपि हल ढूँढने के लिए भारत सरकार और विद्रोह गुट के बीच बातचीत अक्सर होती रहती है।

नागा आंदोलन
अनेक कारकों ने नागा आंदोलन को जन्म देने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। ये कारक इस प्रकार थेः
प) अंग्रेजों से प्राप्त विशेषाधिकारों को खोने का डर,
पप) सांस्कृतिक स्वायत्तता और विशिष्ट जातीय पहचान खोने का खतरा,
पपप) पहाड़ियों पर पारंपरिक स्वामित्व को खोने का डर,
पअ) ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार
अ) नगा पहाड़ियों में औपचारिक शिक्षा का विकास,
अप) जटिल राजनीतिक ताने-बाने का उदय

नागा जातीय पहचान और आंदोलन को प्रखर अभिव्यक्ति हालांकि स्वतंत्रता के बाद ही मिली थी, लेकिन इसके बीज 1918 में कोहिमा में नागा क्लब की स्थापना के साथ ही पड़ गए थे। इस क्लब ने 1929 में साइमन कमीशन को एक ज्ञापन दिया था जिसमें नागा पहाड़ियों पर प्रत्यक्ष ब्रिटिश प्रशासन को जारी रखने के साथ-साथ कई तरह के मुद्दे उठाए गए थे। इस ज्ञापन पर अधिकांश नगा कबीलों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे।

नागा पहचान के पुनर्जागरण में अति महत्वपूर्ण भूमिका जापू फिजो ने निभाई, जिन्होंने जापानियों और आजाद हिन्द फौज की इस उम्मीद के साथ मदद की थी कि बदले में उन्हें एक संप्रभु नागा राज्य की स्थापना करने में सहायता मिलेगी। अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद इस विषय पर बड़ी जबर्दस्त बहस हुई कि नागा आखिर क्या चाहते हैं। बहस का मुद्दा मुख्यतः स्वायत्तता बनाम स्वतंत्रता थी।

बॉक्स 10.03
असम के गवर्नर ने 29 जून, 1947 को कोहिमा में नागा नेशनल कांउसिल के साथ एक नौ-सूत्री समझौता किया। यह समझौता विवादों से परे नहीं था। विशेषकर इसके उपबंध 9 की व्याख्या को लेकर बड़ा विवाद उठा। नागा लोगों का दावा था कि इसका मतलब 10 वर्ष बाद उन्हें आत्मनिर्णय का अधिकार है। मगर भारत सरकार को लगता था कि समझौते के सभी पहलू संविधान की छठी अनुसूची में सम्मिलित कर लिए गए हैं। नागा नेशनल कांफ्रेंस के कई सदस्य इस समझौते को आजमाना चाहते थे मगर भारत सरकार ने फिजो और अधिकांश नागा नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। अपनी रिहाई के बाद फिजो ने नागा नेशनल कांउसिल का नेतृत्व फिर से संभला और नागा स्वायत्तता के मुद्दे पर ‘जनमत संग्रह‘ कराया। कुछ हजार लोगों के विचार के आधार पर यह घोषणा कर दी गई कि 99 प्रतिशत नागा स्वंतत्रता चाहते हैं।

नागाओं ने 1952 में हुए पहले आम चुनावों और जिला परिषद योजना का बहिष्कार किया। आंदोलन के नेता फिजो ने जब 18 सिंतबर 1954 को ‘काउटागा‘ में एक स्वतंत्र नागालैंड गणतंत्र की सरकार के गठन की घोषणा की तो इस आंदोलन ने हिंसक मोड़ ले लिया। इस प्रक्रिया में साखरी जैसे मध्यमार्गी लोग आंदोलन के हाशिए पर धकेल दिये गये। कुछ ही समय बाद साखरी की हत्या कर दी गई और गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया गया। नागा विद्रोह को कुचलने के लिए केन्द्र सरकार ने 27 अगस्त 1955 को नागरिक प्रशासन की सहायता के लिए राज्य को सेना के हवाले कर दिया। गुरिल्ला संघर्ष धीरे-धीरे कमजोर पड़ गया। लेकिन कठोर सैनिक शासन के अधीन नागा लोगों को दमन और घोर कष्ट झेलने पड़ रहे थे। इस स्थिति ने मध्यमार्गियों को आगे आने का मौका दिया और उन्होंने स्वतंत्रता की मांग छोड़कर भारतीय संघ में एक ऐसे नागालैंड की संभावना को तलाशना शुरू किया जिसे अपनी विरासत और जीवन शैली की रक्षा करने की पूरी स्वतंत्रता हो। अगस्त 1957 में कोहिमा में नागा लोगों की एक सभा बुलायी गयी। इस सभा में नागा पहाड़ियों और नेफा के तुएनसांग जिले के लगभग सभी कबीलों के 760 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। गहन विचार-विमर्श के पश्चात सभा ने भारतीय संघ के तहत एक नागा पहाड़ी – तुएनसांग प्रशासनिक (एन.एच.टी.ए.) इकाई की मांग करने का फैसला किया। फलतरू भारत सरकार ने एक स्वायत्त

जिले के रूप में एन.एच.टी.ए का गठन किया जिसके प्रशासन की बागडोर भारत के राष्ट्रपति की ओर से असम के राज्यपाल को सौंपी गई। इस सम्मेलन के बाद दो और सम्मेलन बुलाए गए। अक्तूबर 1959 में विचार-विमर्श के आधार पर भारत सरकार के साथ जुलाई 1960 में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत एन.एच.टी.ए को नागालैंड का नया नाम देकर 1963 में स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाना तय हुआ । नवगठित राज्य की विधानसभा के चुनाव हुए तो उधर भूमिगत नागा नेताओं के बीच बातचीत, सुलह-समझौते के अनके निष्कर्षपूर्ण दौर चले। फलस्वरूप 1964 में एक शांति मिशन गठित किया गया, जिसके सदस्यों में जयप्रकाश नारायण, बी. पी. कालिका, रेवरेंड माइकल स्कॉट और शांधकारो देव थे। इन सब गतिविधियों और प्रयासों की परिणति। नवंबर, 1975 की शिलांग समझौते में हुई। इस समझौते के तहत भूमिगत नागा आंदोलनकारी संगठनों ने भारतीय संविधान को स्वीकार कर लिया, उन्होंने अपने हथियार सौंप दिए। बदले में भारतीय सुरक्षा बलों ने अपनी कारवाई रोक दी और उन्हें आखिरी समझौते के लिए मुद्दे तय करने के लिए पर्याप्त समय दिया। इस समझौते से राज्य में शांति तो कायम हो गई लेकिन 1980 में गठित नेशनलिस्ट सोशलिस्ट कांउसिल ने एक संप्रभु नागा राष्ट्र के लिए अपना भूमिगत आंदोलन अभी तक नहीं छोड़ा है।

कृषिक व वनाधारित आन्दोलन
उपनिवेशोपरांत काल में जनजातियों के भूमि जैसे संसाधनों के स्वत्व-अंतरण का पैटर्न एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दर्शाता है। जनजातीय लोग विस्थापित न सिर्फ गैर-जनजातियों द्वारा विस्थापित किए जा रहे हैं बल्कि राज्य व उन दूसरे संगठनों द्वारा भी किए जा रहे हैं जिन्हें विकासार्थ भूमि चाहिए। वे अब न सिर्फ अन्य लोगों के विरुद्ध गड्ढे में धकेल दिए गए हैं बल्कि उस राज्य के विरुद्ध भी, जिसे वे अपनी भूमि से खुद को विस्थापित किए जाने हेतु प्रमुख हथियार के रूप में देखते हैं।

ये जनजातियाँ न सिर्फ उस भूमि की पुनप्राप्ति हेतु निवेदन कर रही हैं जो उन्होंने 1963 में लागू हुए ‘आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भू-हस्तांतरण अधिनियम, 1959‘ के प्रावधान का आह्वान करते खोई थी, बल्कि उनको आबंटित भूमि के संबंध में स्वत्व-अंतरण और स्वामित्व सौंपे जाने के लिए भी कर रहे हैं। हाल ही में, ये पीपल्स वार ग्रुप (पी.डब्ल्यू.जी.) की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मा. ले.) द्वारा संगठित किए गए हैं। फरवरी 1981 में, वे जमीनें जो उनसे गैर-जनजातीय लोगों द्वारा छीन ली गई थीं, पर बलात् फसल एकत्रण करने, साहूकारों के घरों पर छापा मारने और गिरवी रखे गहने आदि को ले भागने की एक अनूठी लहर चली। जनजातीय लोगों को संगठित करने के लिए संचार की पारम्परिक व्यवस्था को पुनर्जाग्रत किया गया। ढोल पीट-पीटकर संकेत इधर से उधर भेजे गए। 6 फरवरी, 1981 को केस्लापुर में हुए ‘गोंड दरबार‘ ने यह घोषणा की कि जनजातीय जन-समस्याएँ अब उबाल पर हैं। गोंडों ने वनोन्मूलन हेतु भूमि-सीमांकन को भी रोका। इससे पूर्व 1977 में, उन्होंने व्यापारियों व साहूकारों के एक समुदाय – लम्बरदारों, को एक जनजाति के रूप में अनुसूचित किए जाने का पुरजोर विरोध किया था, क्योंकि लम्बरदारों ने जनजातीय लोगों का हमेशा शोषण किया था और एक जनजाति के रूप में उनकी सामाजिक स्थिति गोंडों की जमीन पर उनके अवैध कब्जे को वैध करार देने में उनकी मदद करती थी। 20 अप्रैल, 1981 को इंदरवल्ली में भा.क.पा. (मा.ले.) द्वारा एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सभा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और जनजातीय लोगों को वहाँ न इकट्ठा होने हेतु राजी किया गया। बहरहाल, उन्होंने एक जुलूस निकाला जो एक पुलिस बल से विवाद में पड़ गया। लगभग 15 जनजातीय लोगों की जानें गईं।