mycobacterium tuberculosis in hindi , माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस रोग क्या होता है , लक्षण उपचार
जाने mycobacterium tuberculosis in hindi , माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस रोग क्या होता है , लक्षण उपचार ?
माइकोबैक्टीरिया (Mycobacteria)
माइकोबैक्टीरिया समूह में पाये जाने वाले जीवाणु छोटे, बेलनाकार व शलाखा या छड़ समान हैं। जिनमें वक्रता हो सकती है इनमें कभी-कभी शाखाएँ भी बनती हैं अतः आकृति कवक जाल (fungal mycelium) के समान दिखाई देती है। इनका नामकरण भी इसी के अनुसार कवक समान जीवाणु (mycobacteria) किया गया है। ये एसिड फास्ट जीवाणु हैं जो ग्रैम ग्राही प्रकार के होते हैं। ये वायुवीय, अचल, असम्पुटी (non capsulated) तथा बीजाणु अनुत्पादी (non sporing) प्रकृति के होते हैं। इनमें वृद्धि धीमी गति के साथ होती है। इस समूह में अविकल्पी परजीवी, अवसरवादी मृतोपजीवी जीवाणु आते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ जीवाणु जल, मृदा तथा जल अन्य स्त्रोत्रों में निवास करते हैं।
माइकोबैक्टीरिया समूह में तपेदिक, कुष्ट रोग, अल्सर, आंत्र शोथ जैसी बीमारियों का उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं के साथ मक्खन, घास – पत्तों, दवाओं आदि में रहने वाले जीवाणु भी सम्मिलित किये गये हैं।
- माइकोबैक्टीरिया ट्यूबरकुलोसिस (Mycobacterium tuberculosis) : तपेदिक रोग के इस जीवाणु की खोज का श्रेय कॉक (Koch ; 1882) को है जिन्होंने रोगियों की देह से इस जीवाणु को पृथक् कर रोग का कारण जानने का प्रयास किया। कॉक के अनुसार दो प्रकार के बैसिलस मनुष्य में तपेदिक रोग उत्पन्न करते हैं। (i) मा. ट्यूबरकुलोसिस (ii) मा. बोसिवस (M. bovis) मा. बोविस मवेशियों में भी यह रोग फैलाता है। तथा साँपों में भिन्न जातियों द्वारा इसी प्रकार का रोग उत्पन्न किया जाता है। वेल्स (Wels; 1937) ने मनुष्य में तपेदित फैलाने वाले जीवाणु व रोग के क्षेत्र में इस रोग के एक रोगी से दूसरे रोगी में स्थानान्तरण करने की दिशा में सफलता प्राप्त की। यह जीवाणु पूर्णतया परजीवी प्रकृति का है जो विभिन्न प्रारूपों (types) के पाये जाते हैं, किन्तु मानव में दोनों विभेद ही मनुष्य में तपेदित रोग उत्पन्न करते हैं। यह वायु के माध्यम से फैलने वाला रोग है।
मा. ट्यूबरकुलोसिस जीवाणु सीधी या मुड़ी हुई शलाखा के समान 1.4pu x 0.2 – 0.8 आमाप के होते हैं जो एकल या युग्मों अथवा निवह बनाते हैं। आपाम वृद्धि कारकों के अनुसार बदलता रहता है। ये तन्तु रूपी या मुग्दराकार या शाखित रूप में भी हो सकते हैं। मा. बोविस जीवाणु सीधी रेखा के समान, दृढ़ तथा लम्बाई में छोटा होता है। दोनों ही विभेद के जीवाणु, अचल, बीजाणु अनुत्पादी (non-sporing) तथा असम्पुटी ( noncapsulated) प्रकृति के हैं। ये जीवाणु ग्रैम ग्राही प्रकार के हैं जो सरलता से अभिरंजन ग्रहण नहीं करते हैं किन्तु एक बार अभिरजित हो जाने पर अम्ल द्वारा विरंजीकरण का प्रतिरोध करते हैं। ये कार्बोल फ्युश्चिन द्वारा जील- नेल्सन विधि से अभिरंजित किये जाते हैं अतः इन्हें अम्ल स्थायी एसिड फास्ट जीवाणु (acid fast bacteria) का दर्जा भी प्राप्त है। कुछ विभेद नान एसिड फास्ट प्रकृति के भी पाये जाते हैं।
संवर्धन लक्षण (Cultural characteristics)
ये जीवाणु 37°C के आदर्श तापक्रम पर वृद्धि करते हैं, वृद्धि धीमी गति से होती है जो 6.4 7.0 pH पर सामान्य रूप से होती है, 10% कार्बन डाई ऑक्साइड की उपस्थिति का माध्यम में होना जीवाणु के अनुकूल रहना है। प्रयोगशाला में ठोस तथा द्रव दोनों प्रकार के माध्यमों में यह वृद्धि करते हैं। यह जीवाणु अंधेरे, ठण्डे स्थानों में 6-8 माह तक जीवित बना रह सकता है किन्तु धूप को सहन नहीं करता। इनकी देह पर सम्पुट मोम समान होता है अतः इन पर निर्जलीकरण एवं अनेक रसायनों का विपरीत प्रभाव कम ही होता है। मा. ट्यूबकुलोसिस ठोस माध्यम पर ठोस, खुरदरी सतह वाली अनियमित निवह बनाते हैं जो आरम्भ में हल्की पीली होती है किन्तु फिर पीली या भूरे रंग की हो जाती है मा. बोविस द्वारा बनायी गई निवह चपटी, चिकनी सतह वाली एवं श्वेत रंग की होती है। द्रव माध्यम में उग्र विभेद सर्प के समान रज्जु जैसे निवह इस जीवाणु द्वारा बनाई जाती है। ऊत्तक संवर्धन के दौरान ये बैसिलाई चूजे के भ्रूण ( chick embryo) पर उगाई जा सकती है।
प्रतिरोधकता (Resistance)
ये जीवाणु 15-20 मिनट तक 6°C पर रखने पर तथा धूप में में 2 घण्टे रखने पर नष्ट हो ज हैं थूक में ये 20-30 घण्टे तक जीवनक्षम बने रहते हैं। रसायनिक पदार्थों जैसे 5% फिनोल, 15% सल्फ्यूरिल अम्ल, 4% सोडियम हाइड्रोक्साइड, टिंचर आयोडीन व इथेनाल द्वारा शीघ्र की नष्ट हो जाते हैं। त्वचा को जीवाणुरोधी बनाने हेतु 80% इथेनाल का उपयोग करते हैं।
जैव-रसायनिक क्रियाएँ (Bio-chemical reactions)
माइकोबैक्टिरिया की पहचान हेतु नायसिन परीक्षण, केटेलेज पराक्साइड परीक्षण, एमाइडेज परीक्षण, एराइल सल्फाइड परीक्षण तथा न्यूट्रल रेड परीक्षण किये जाते हैं। ये परीक्षण बैसिलस द्वारा की जाने वाली क्रियाओं पर आधारित है अतः परीक्षण के उपरान्त उक्त जीवाणु की उपस्थिति निश्चित हो जाती है।
निदान (Diagnosis) –
इस रोग के निदान हेतु टी.बी. त्वक परीक्षण, मॉन्टु परीक्षण, थूक व दैहिक तरल की जाँच, रोगाणुओं को पृथक पर संवर्धन कराकर तथा प्रभावित भाग के एक्स-रे परीक्षणों को काम में लाते हैं।
रोगजनकता (Pathogenicity)
मा. ट्यूबरकुलोसिस मनुष्य एवं अन्य प्राइमेट जन्तुओं, कुत्ते आदि में तपेदित रोग उत्पन्न करता है जो मनुष्य के सम्पर्क में आते हैं किन्तु यह खरहे, बकरी, गाय व मुर्गी में अरोगजनक रहता है। मा. बोविस मनुष्य के अतिरिक्त प्राइमेट्स, गाय, बिल्ली, तोते आदि को भी प्रभावित करता है | मा. एवियम पक्षियों में रोग उत्पन्न करता है। इनके अतिरिक्त मा. माइक्रोटी जाति कम महत्त्व की है जो अधिक हानि नहीं पहुँचाती है।
तपेदिक रोग में रोगी के संक्रमणित ऊत्तकों में विशेष प्रकार की गुलिकाएँ या ट्यूबरकल (tubercle) उत्पन्न हो जाते हैं। इस गुलिकाओं के केन्द्र में वृहत् कोशिकाएँ व परिधि पर लिम्फोसाइट्स तथा फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएँ स्थित होती हैं। ये गुलिकाएँ परजीवी के देह के चारों ओर कैल्शियम लवणों के एकत्रित होने से बनती है साथ ही कुछ तन्तुकी पदार्थ (fibrous material) भी गुलिका में पाया जाता है। गुलिकाएँ X-ray फोटोग्राफ में दिखाई देती है। ये जीवाणु आविष (toxins) उत्पन्न नहीं करते किन्तु इनके द्वारा की जाने वाली जैव रासायनिक क्रियाएँ रोगी में बीमारी का कारण बनती हैं। रोग की जीवाणु श्वेत रक्ताणुओं में जीवित रहते हुए वृद्धि करते हैं। एवं ट्रीहेलोज डीमाइकोलेट बनाते हैं जो श्वेत रक्ताणुओं के माइटोकॉन्ड्रिया को तोड़ देते हैं। कुछ विभेदों द्वारा उत्पन्न गुलिकाओं में जीवाणुओं द्वारा स्त्रावित द्रव एकत्र हो जाते हैं अतः ये फूल जाते हैं और रोगी के ऊत्तकों को नष्ट कर देते हैं। बच्चों में यह ट्यूबरकुलस निमोनिया रोग उत्पन्न करते हैं। वयस्कों में ये फेफड़ों के तपेदिक रोग को जन्म देते हैं। रोग के लक्षणों में छाती में दर्द, बुखार लगातार होने वाली खाँसी के साथ बलगम का निकला प्रमुख है। इसका रंग लाल हो सकता है जो रक्त फेफड़ों में रिसने से होता है। यह रोग काफी पुराना है, मनुष्य कई सदियों में इस रोग का शिकार होता रहा है। अधिकतर रोगी धीरे-धीरे कमजोर होकर मर जाया करते हैं। वयस्कों में होने वाले रोग के कारण फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। खांसी के कारण शरीर क्षीण होने लगता है। जीवाणु लिम्फोसाइट्स असहाय बना देते हैं जो इनके वाहक कार्य करते हैं।
रोग की व्यापकता
सामान्यतः यह रोग गरीबों या आर्थिक रूप से कमजोर समूह के लोगों में पाया जाता है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में तपेदित के 20 करोड़ रोगी हैं इनमें से लगभग 3 करोड़ रोगी प्रति वर्ष मर जाते हैं। प्रतिवर्ष 4-5 करोड़ रोगी इसका शिकार हो जाते हैं। रोग के जीवाणु किसी भी अवस्था में मनुष्य में संक्रमण कर सकते हैं; पोषणीय पदार्थों की कमी, गन्दगी व कम प्रतिरोधक क्षमता वाले मनुष्यों को यह रोग जल्दी लगता है। रोग के जीवाणु लम्बे समय तक देह के भीतर वृद्धि करते रहते हैं। आरम्भिक संक्रमण मिट्टी, धूल युक्त वायु द्वारा श्वास के साथ देह में प्रवेश करता है। रोगी के थूक द्वारा भी लोगों को यह रोग हो सकता है। अस्थियों, आंत्र व ग्रन्थियों में भी यह रोग होता है जो विश्व के पश्चिमी भागों में अधिक पाया जाता है।
रोग से बचाव
रोगी के थूक की जाँच कररा कर या अन्य परीक्षण करा कर शीघ्रता के साथ उपचार डॉक्टरों की देख रेख में चिकित्सालय या सेनेटोरियम में आरम्भ कर देना चाहिये। रोगी के बर्तन व कपड़ों को अलग रख कर उबलते हुए पानी से साफ करना चाहिये। मुख पर कपड़ा रख कर खाँसने व रोगी के थूक व कफ को नष्ट करने की आदत डालनी चाहिये ।
ये रोग अच्छे भोजन (पोषण पदार्थों युक्त) स्वस्थ रहन-सहन ही आदतें, चिकित्सा संबंधी ज्ञान के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। रोग का शीघ्र निदान व उपचार होना आवश्यक है।
केलमेट एवं गुनिन (Clamette and Guenin) द्वारा 1921 में बैसिलिकेलमेट गुनिन (BCG) वेक्सीन (टीका) विकसित किया गया है। यह टीका लगने के बाद रोग के जीवाणु के प्रति प्रतिरोध की क्षमता बढ़ जाती है जो 10-15 वर्षों तक बनी रहती है। अतः रोग की संभावना लगभग नष्ट को जाती है। यह टीका अभियान चलाकर बच्चों को लगा दिया जाता है, टीका उपचर्म में लगाया जाता है।
उपचार (Therapy)
रोगी का सेनेटोरियम में उपचार, पूर्ण आराम, शुद्ध वायु, हल्का तथा पोषक युक्त आहार आवश्यक है। रोगी को रीफेम्पिनि, पायरेजिनामाइड, स्ट्रेप्टोमाइसिन, इथेमब्लूटोल, थाओएसिटाजोन, इथियोनामाइड, पेराअमीनो सेलिसिलिक ऐसिड तथा साइक्लोसेरीन जैसी एन्टीबेक्टीरियल औषधियाँ देकर उपचार किया जाता है। उपचार पूर्ण होने पर ही इलाज बन्द करना चाहिये, चिकित्सक परामर्श अत्यन्त आवश्यक है। रोगी के जीवाणु दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर लेते हैं। अतः रोग का उपचार असम्भव नहीं है पर कठिन अवश्य है जिसे पूर्ण सावधानी के साथ किया जाना आवश्यक है।
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