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Munda Rebellion in hindi , led by , where started , बिरसा मुंडा आंदोलन कब हुआ था , मुंडा विद्रोह का कारण , परिणाम

जाने Munda Rebellion in hindi , led by , where started , बिरसा मुंडा आंदोलन कब हुआ था , मुंडा विद्रोह का कारण , परिणाम ?

प्रश्न: मुंडा आंदोलन
उत्तर: अंग्रेजी शासन के विरुद्ध उनकी शोषणपरक नीतियों से तंग आकर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में दक्षिण बिहार में 1895-1900 तक चलाया जाने वाला मुंडा आंदोलन जनजातीय आंदोलन था जिसने अंग्रेजों को बैचेन कर दिया।

प्रश्न: राष्ट्रीय आन्दोलन में बिरसा मुण्डा को योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: ब्रिटिश साम्राज्यवाद में देश को मुक्त कराने में झारखण्ड के सपूतों का बहुत योगदान रहा है बिरसा मुण्डा उन्ही सपूतों में से एक थे, 1895 में उन्होंने स्वयं को ईश्वर का भेजा देवदूत घोषित करते हुए धार्मिक व सामाजिक सुधार पर सर्वप्रथम जोर दिया, उन्होंने अपने अनुयायियों को कुरीतियों, बुराइयों तथा अन्धविश्वासों से दूर रहने अर्थात् मॉस, मदिरा तथा बलि आदि से बचने की सलाह दी, धीरे-धीरे उनके आन्दोलन ने राजनीतीक स्वरूप ग्रहण कर लिया।
उनके आन्दोलन का मुख्य राजनीतिक लक्ष्य था- मुण्डा भूमि से विदेशियों को बाहर करना उन्होंने लोगों को किसी भी तरह के कर व मालगुजारी अदा करने से मना किया, बिरसा के प्रभाव व जनाक्रोश में जगह-जगह उपद्रव होने लगा। अतः 1895 में उन्हें उत्तेजक कार्यवाही करने के जुर्म में दो वर्ष की सजा दी गई।
1898 में रिहाई के पश्चात् आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया जनता के अधिकारों, उत्पीडन व अन्याय के खिलाफ सुनियोजित तरीके से संघर्ष करने के लिए उन्होंने रात्रि सभाओं का आयोजन किया तथा जुझारू सशस्त्र सैन्य बलों का गठन किया। 1899 में रॉची व सिंहभूम जिलों पर धावा बोलकर सरकारी दफ्तरों, थानों, जमींदारों व महाजनों को निशाना बनाया, स्थनीय अंग्रेज सैन्य बल द्वारा इस संधर्ष को दबाने का भरपूर प्रयास असफल रहा।
1900 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और राँची जेल में डाल दिया गया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा का सम्पूर्ण जीवन जनता व राष्ट्र की सेवा में समर्पित था, शोषण, उत्पीडन व दोहन के खिलाफ उनका संघर्ष राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।
प्रश्न: राष्ट्रीय आन्दोलन में ताना भगत जतरा भगत को योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: झारखण्ड के गुमला जिले के चिंगारी नवाटोली में सितम्बर 1888 में जतरा का जन्म हुआ। उन्होंने किशोरावस्था में स्कूल की पढाई के बजाय तंत्र मंत्र की विद्या सीखने के लिए तुरिया उरांव भगत को अपना गुरु बनाया। 1914 में उन्हें पोखर पानी के भीतर श्धरमेशश् (उराव जनजाति के सर्वोच्च देवता) का दर्शन व मॉस न खाने, मदिरा पान न करने, भूतप्रेत का अस्तित्व न मानने, परोपकारी बनने, यज्ञोपवीत धारण करने, जीव हत्या न करने, आँगन में तुलसी का पौधा स्थापित करने तथा अंग्रेजो की बेगारी न करने का उपदेश देना, शुरु किया।
जतरा भगत के उपदेश का महत्व इसलिए अधिक है कयोंकि माँसाहारी पशुबली समर्थक उरांव जनजातियों ने उनकी बात का सरलता से मानना शुरु कर दिया। थोडे ही समय में उनके समर्थकों की संख्या बहुत बढ गई। जतरा भगत के इस पथ का नाम श्तानाश् पड़ा और उनके समर्थक ताना भगत कहलाए। ताना भगत ने समाज सुधार के आन्दोलन को चलाते हुए अग्रेजो के विरुद्ध बिगुल बजाया। लोगों ने अंग्रेजो को मालगुजारी व चैकादारी टैक्स आदि देना बंद कर दिया। अंग्रेजों ने ताना भगतों की जमीन जब्त करना शुरु कर दिया।
सरकार ताना भगत आदोलन के प्रभाव से घबरा गई। सरकार ने 1916 की शुरुआत में जतरा भगत पर नियोजित ढंग से उत्तेजक विचारों के प्रचार का अभियोग लगाकर उनकों समर्थकों सहित गिरफ्तार कर लिया और एक वर्ष की कठोर सजा दी गई। जेल में उन्हें कड़ी प्रताड़ना दी गई। जिसके कारण जेल से बाहर आने 2-3 माह बाद ही 28 वर्षीय जतरा भगत का देहावसान हो गया।
प्रश्न: संथाल विद्रोह ब्रिटिश शासन की आर्थिक-प्रशासनिक नीतियों का परिणाम था। विवेचना कीजिए।
उत्तर: संथाल जाति के लोग काफी शांतिप्रिय थे। ये प्रारंभ में मानभूमि, बड़ाभूमि, हजारीबाग, मिदनापुर, बांकुड़ा तथा वीरभूमि क्षेत्रो में रहते थे। जिस भूमि पर वे शताब्दियों से खेती कर रहे थे, वह कार्नवालिस व्यवस्था (1793) के अंतर्गत जमीनदारों के स्वामीत्व में पहुंच गई इस कारण अपनी पैतृक भूमि छोड़कर राजमहल की पहाडियों में बसना पड़ा।
कठोर परिश्रम द्वारा इन लोगों ने जंगल काटकर भूमि को कृषि योग्य बनाया। जब जमीनदारों की नजर उस पर पड़ी तो उन्होंने इस भूमि के स्वामित्व का भी दावा कर डाला। बंगाल तथा उत्तरी भारत के साहूकारों ने यहाँ ब्याज प्रथा प्रारंभ कर दी । संथाल लोगों को यह महसूस हुआ की उनकी उपज, उनके पशु, वे स्वंय तथा उनका परिवार भी इस ऋण को चुकाने के लिए साहकारों के हाथ में चला जाता है और फिर भी ऋण चुकता नहीं हो पाता है। स्थानीय पुलिस तथा न्याय व्यवस्था भी साहूकारों व जमींदारो के पक्ष में रहती है।
शोषण इस चरम पर पहुंचने पर सीद्ध तथा कान्हू के नेतृत्व में गैर- आदिवासियों को भगाकर उनकी सत्ता को खत्म करने के लिए आन्दोलन की शुरूआत हो गई। उन्होंने भागलपुर तथा राजमहल के बीच संपर्क व्यवस्था भंग कर दी तथा कंपनी के शासन के अंत की घोषणा कर दी और स्वतंत्र संथाल राज्य की धोषणा कर दी । बागान मालिकों तथा रेल अधिकारियों के विरुद्ध हिंसक कार्यवाईया शुरू कर दी।
सरकार ने आन्दोलनकारियों का कठोरता से दमन किया तथा संथाल नेताओं को बंदी बना लिया। बाद में अंग्रेज सरकार को संथाल परगना क्षेत्र के लिए अलग से जिला बनाना पड़ा।
प्रश्न: उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कृषक आन्दोलनों में वैकल्पिक समाज की सकारात्मक संकल्पना काअभाव था – वह संकल्पना, जो लोगों को व्यापक प्रादेशिक और अखिल भारतीय स्तर पर एकजट कर देती और दीर्घकालीन राजनीतिक उन्नतियों के विकास में मदद करती।
उत्तर: अंग्रेजों की शोषणकारी नीति से ऊबकर देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न किसान आन्दोलन छिटपुट रूप से होते रहे, जिसमें नील विद्रोह, पाबना विद्रोह, दक्कन किसान विद्रोह आदि शामिल हैं। अंग्रेजी शासन के अधीन विकसित हुए नवीन भू-पद्धति तथा राजस्व की अधिकतम उगाही ने कृषकों की कमर तोड़ दी। यद्यपि इन किसानों का असंतोष 19वीं शताब्दी में हुए विभिन्न विद्रोह व्यवस्था में परिवर्तन की माँग को लेकर तो था ही, परन्तु उसका क्षेत्र एवं भागीदारी सीमित रही।
तत्कालीन समस्या के समाधान होते ही आन्दोलन समाप्त हो जाते थे। यह विद्रोह आमतौर पर जमीदारों एवं महाजनों द्वारा किए गए शोषण के विरुद्ध था न कि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध। अतः हम कह सकते हैं कि इस समय के किसान वर्ग औपनिवेशिक शोषण के वास्तविक स्वरूप की जटिलता को समझने में विफल रहे।
इन किसानों का आक्रोश तात्कालिक शोषकोंय जैसे – जमींदार, महाजन अथवा नील उत्पादकों के प्रति था जिसका उदाहरण हमें पाबना के कृषक विद्रोह में देखने को मिलता है। इस विद्रोह में वहां के किसानों का कहना था कि श्हम महारानी विक्टोरिया के रैय्यत हैं और उनके ही रैय्यत होकर रहना चाहेंगे।
इस तरह हम कह सकते हैं कि 19वीं शताब्दी के कृषक विद्रोह सीमित क्षेत्रों, सीमित भागीदारी एवं संकुचित मांगों को लेकर किए गए थे, परन्तु 20वीं शताब्दी में विशेषकर गाँधी युग में राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ ही राष्ट्रीय आन्दोलन में मुख्य भूमिका हेतु अग्रसर हुए। अब कृषक वर्ग अखिल भारतीय स्तर पर संगठित हुए फलतः समाज एवं राजनीति को एक नया दृष्टिकोण मिला।