मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताएं क्या है ? mathura art upsc in hindi features
mathura art upsc in hindi features मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताएं क्या है ?
मथुरा कला (Mathura Art)
प्राचीन काल के शौरसेन या आधुनिक मथुरा के क्षेत्र में विकसित हुई इस शैली को क्षेत्र के नाम पर ही ‘मथुरा कला‘ कहा जाता है। इस कला शैली का सर्वाधिक विकास कुषाण काल में हुआ। यहाँ की कला शैली में बौद्ध धर्म के अलावा ब्राह्मण धर्म और जैन धर्म से संबंधित मूर्तियाँ भी मिलती हैं। जहाँ गंधार कला में विदेशज प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है वहीं मथुरा कला में भारतीय प्रकार की परंपरागत शैली सामने आई। मथुरा कला में भारतीय आदर्शमयता, भावों का चित्रण और कल्पना का आयाम सभी पूर्णरूप से भारतीय हैं। इस शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों का विषय बौद्ध ही रहा है लेकिन इसके साथ-साथ लोकजीवन भी इन मूर्तियों में बहुतायत में दिखाई पड़ता है।
2. मथुरा की मूर्तियाँ वहीं आसपास मिलने वाले सफेद चित्तीदार लाल रवेदार पत्थर से बनाई गयी हैं।
3. गंधार कला में बुद्ध की जो बैठी हुई मूर्तियाँ मिली हैं वे ज्यादातर पद्मासन या कमलासन पर हैं जबकि मथुरा कला शैली में बनाई गयी बुद्ध की मूर्तियों में उन्हें सिंहासन पर आसीन दिखाया गया है और पैरों के समीप सिंह की आकृति बनाई गयी है।
4. इस शैली में बनी मूर्तियों का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्र विहीन है जबकि हस्त अभय मुद्रा में है। मूर्तिकार ने जो वस्त्र पहनाए हैं उनमें सिलवटें स्पष्ट दिखती हैं।
5. गंधार शैली की तरह आभामंडल का तरीका इस शैली में भी बनाया गया लेकिन यह आभामंडल गंधार शैली की तरह अलंकृत नहीं है।
6. मूर्तियों में भाव की कल्पना और अलंकरण पूरी तरह भारतीय है।
7. मथुरा शैली में वेदिकाओं में बनाई गयी यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियों का बौद्ध धर्म से कोई संबंध नहीं हैं और उनके विषय प्रायः प्रधान हैं। ऐसी ही एक मूर्ति ‘प्रसाधिका की मूर्ति‘ के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस समय में गंधार और मथुरा शैली पनप रही थीं उसी समय लगभग 200 ई.पू. में दक्षिण भारत में अमरावती नामक स्थानं स्थापत्य और मूर्ति शिल्प के रूप में उभर रहा थीं। वर्तमान में यह क्षेत्र आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित है। यहाँ की मूर्तिकला अपनी विशिष्टता और उत्कृष्ट कला-कौशल के कारण काफी प्रसिद्ध हुई है। अमरावती के विशाल स्तूप या स्मृति-टीले के खंडहरों के साथ-साथ यह शैली आंध्र प्रदेश के जगय्यापेट नागार्जुनकोंडा और गोली में तथा महाराष्ट्र राज्य के ‘तेर के स्तूप‘ के अवशेषों में भी देखी जाती है। यह शैली श्रीलंका (अनुराधापुरा में) और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई भागों में भी फैली हुई है।
इस शैली के तहत बने अमरावती स्तूप का निर्माण लगभग 200 ई.पू. में प्रारंभ किया गया था और उसमें कई बार नवीनीकरण तथा विस्तार हुए। यह स्तूप बौद्ध काल में बनाए गए विशाल आकार के स्तूपों में से एक था। इसका व्यास लगभग 50 मीटर तथा ऊँचाई 30 मीटर थी। इस स्तूप में सांची और भरहुत के समान ही बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्य एवं जातक कथाएं उकेरी गई हैं। स्तूप का अधिकांश भाग नष्ट हो गया है लेकिन इसके अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि अमरावती में वास्तुकला और मूर्तिकला की स्थानीय मौलिक शैली विकसित हुई थी। यहाँ से प्राप्त मूर्तियों की कोमलता एवं भाव-भंगिमाएँ दर्शनीय हैं। प्रत्येक मूर्ति का अपना आकर्षण है। कमल पुष्प का अंकन बड़े स्वाभाविक रूप से हुआ है। अनेक दृश्यों का एक साथ अंकन इस काल के अमरावती शिल्प की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। बुद्ध की मूर्तियों को मानव आकृति के बजाय प्रतीकों के द्वारा गढ़ा गया है। यह इस बात का संकेत है कि अमरावती शैली मथुरा शैली और गंधार शैली से पुरानी है। गुर जिले में ही नागार्जुनकोंडा नामक जगह से भी एक स्तूप के अवशेष मिले हैं। इन स्तूपों को इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने बनवाया था। अमरावती शैली को यूनानी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त माना जाता है पर कुछ विद्वान नागार्जुनकोंडा की मूर्तियो की रोमन प्रभाव से युक्त मानते है। संभवतया इसका कारण दक्षिण भारत से रोम को मजबूत व्यापारिक संबंध है।
गुप्त काल (Gupta Period) –
गुप्तों के काल में कला को एक नई दृष्टि एवं दिशा मिली। गुप्त शासकों ने बौद्ध धर्म को वैसा प्रश्रय तो नहीं दिया जैसा इस धर्म को मौर्यों के काल में मिला था, तब भी गुप्त साम्राटों ने ब्राह्मण धर्म के संप्रदायों वैष्णव और शैव को महत्त्व दिया। इस युग में बौद्ध धर्म से प्रेरित वास्तुकला और मूर्तिकला में उन्नति होती रही और जैन धर्माचार्यों की भी मूर्तियाँ पर्याप्त संख्या में बनी। इतिहासकारों ने इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर गुप्त काल की कला को सहिष्णुता का प्रसार करने वाली कला के रूप में स्वीकारा है। इसी सहिष्णुता का परिणाम यह हुआ कि इस काल में कई स्तूप, गुहा-चैत्य, मंदिर, राजप्रासाद, देशी विदेशी शासकों की मूर्तियाँ निर्मित की गई।
गुप्त काल में भी स्तूप बनाने का सिलसिला जारी रहा। इस काल के दो प्रमुख स्तूप सारनाथ में धमेख (धर्माख्य) स्तूप और दूसरा राजगीर में बना जरासंध की बैठक का स्तूप (पिप्पाला गुफा) हैं। इसके अलावा पंधार क्षेत्र में तक्षशिला ओर जौलियान (मोहडा मोरादू) में भी कई स्तूपों की जानकारी सामने आई है। अजंता और बाघ की कुछ गुफाओं में भी स्तूप और चैत्य आदि बनाये गये।
इस युग में ब्राह्मण धर्म के मंदिरों के निर्माण में तीन प्रकार की शैलियों नागर, द्राविड़ और वेसर शैली का प्रयोग किया गया। इनके अलावा स्थापत्य संबंधी अन्य शैलियों के नाम जैसे लतिनसाभर, भूमि, विमान आदि के नाम भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः
नागर शैली (Nagar Style)
नागर शैली में मंदिरों का निर्माण चैकोर या वर्गाकार रूप में किया जाता है। प्रमुख रूप से उत्तर भारत में इस शैली के मंदिर पाये जाते हैं। इसी के साथ-साथ बंगाल, ओडिशा से लेकर गुजरात एवं महाराष्ट्र तक इस शैली के उदाहरण मिलते हैं। ये मंदिर ऊँचाई
में आठ भागों में बांटे गये हैं। ये हैं- मूल (आधार), मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवारें), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलासारक (आमलक) और कुंभ (शूल सहित कलश)। इस शैली में बने मंदिरों को ओडिशा में ‘कलिंग‘, गुजरात में ‘लाट‘, और हिमालयी क्षेत्र में ‘पर्वतीय‘ कहा गया है।
द्रविड़ शैली (dravidian Style)
द्रविड़ शैली के मंदिर कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक पाये जाते हैं। द्रविड़ मंदिरों का निचला भाग वर्गाकार और मस्तक गुंबदाकार, छह या आठ पहलुओं वाला होता है। गर्भगृह (मूर्ति रखने का स्थान) के ऊपर का भाग (विमान) सीधे पिरामिड के आकार का होता है। उनमें अनेक मंजिलें पाई जाती हैं। आंगन के मुख्य द्वारा को गोपुरम कहते हैं। यह इतना ऊँचा होता है कि कई बार यह प्रधान मंदिर के शिखर तक को छिपा देता है। एक मंदिर एक लंबे-चैड़े प्रांगण से घिरा रहता है जिसमें छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कई अन्य कक्ष, तालाव, प्रदक्षिणा पथ आदि बनाये जाते हैं।
बेसर शैली (Baser Style)
बैसर शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- दो जातियों से जन्मा जैसे- खच्चर। नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को वेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाये जाते हैं। वेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं। चालुक्य तथा होयसल कालीन मंदिरों की दीवारों छतों तथा इसके स्तंभ द्वारों आदि का अलंकरण बड़ा सजीव तथा मोहक है। इस शैली के मंदिर विन्यास में दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली और उत्तर भारत को नागर शैली से मिश्रित मंदिर बनाये गये, जैसे वृंदावन का वैष्णव मंदिर जिसमें गोपुरम बनाया गया।
गुप्त काल में अनेक मंदिरों के उदाहरण मिलते हैं। इनमें सर्वाेत्कृष्ट झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। यह गुप्त काल में वैष्णव धर्म का सर्वाधिक महत्त्वपर्ण उदाहरण इसलिए माना जाता है क्योंकि इसमें इस कला की स्थापत्य कला अपने पूर्ण विकसित रूप में मिलती है। इसका शिखर भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर बनाने का संभवतया पहला उदाहरण है। इसमें एक के बजाए चार मंडप हैं जो गर्भगृह की चारों दिशाओं में स्थित हैं। मूर्ति प्रकोष्ठ के दरवाज़ों के स्तंभ भी मूर्तियों से अलंकृत है। इसी तरह जबलपुर (मध्य प्रदेश) के तिगवा में एक चपटी छत वाला और दूसरा एक शिखर वाला मंदिर बनाया गया। तिगवा के मंदिर का व्यास आठ फुट है और उसके समक्ष एक मंडप बनाया गया है। ईटों से बने मंदिर में कानपुर के भीतरगांव और रायपुर (छत्तीसगढ़) के सिरपुर में लक्ष्मण मंदिर भी महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। इसके अलावा एरण में वराह और विष्णु मंदिर, उदयगिरि का ब्राह्मण गुहा मंदिर भी प्रसिद्ध हैं।
गुप्तकाल में बनी प्रसिद्ध मूर्तियों में मथुरा संग्रहालय में रखी बुद्ध की खड़ी प्रतिमा, सारनाथ संग्रहालय में रखी धर्म चक्र प्रवर्तन वाली बुद्ध की बैठी प्रतिमा और सुल्तानगंज से मिली बुद्ध को तांबे की बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की प्रतिमा हैं। ब्राह्मण धर्म की मूर्तियों में अजंता की नागराज की प्रतिमा, कैला भवन काशी में रखी कार्तिकेय की प्रतिमा देवगढ़ के मंदिर में रखी शेषशायी विष्णु की प्रतिमा एवं नर व नारायण की प्रतिमा, कौशांबी से मिली सूर्य प्रतिमा, मथुरा से मिली ध्यान में खड़े विष्णु को ध्यान मुद्रा की मूर्ति, सारनाथ में रखे लोकेश्वर शिव की प्रतिमा का मस्तक जिसके बालों का विन्यास विशिष्ट है, आदि हैं। इसके अलावा जैन तीर्थंकरों की जो मूर्तियाँ मिली हैं उनमें वक्षस्थल पर ‘श्री-वत्स‘ लिखा मिलता है। अधिकांश जैन मूर्तियाँ नग्न हैं और उन्हें पद्मासन की मुद्रा में दर्शाया गया है।
गुप्तोत्तर काल का स्थापत्य (Post-Gupta Period Architecture)
गुप्त काल के बाद देश में स्थापत्य को लेकर क्षेत्रीय शैलियों के विकास, में एक नया मोड़ आता है। इस काल में ओडिशा, गुजरात एवं राजस्थान और बुंदेलखंड का स्थापत्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इन स्थानों में मंदिरों का निर्माण आठवीं से लेकर 13वीं सदी के बीच हुआ। इसी तरह दक्षिण भारत में चालुक्य, राष्ट्रकूटकालीन और चोलयुगीन स्थापत्य अपने वैशिष्ट्य के साथ सामने आया। दक्षिण भारत के स्थापत्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थापत्य पल्लव शासकों का माना गया। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः
ओडिशा का स्थापत्य (Architecture in Odisha)
ओडिशा के मंदिर मुख्यतः भुवनेश्वर, पुरी और कोणार्क में स्थित हैं। भुवनेश्वर के मंदिरों के मुख्य भाग के सामने चैकोर कमरा बनाया गया। इसके भीतरी भागों में अलंकरण कम है लेकिन बाहरी दीवारों पर अनेक प्रकार की प्रतिमायें और अलंकरण बनाए गये हैं। मंदिरों में स्तंभों के बजाए लोहे के शहतीरों का प्रयोग किया गया है। भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर इस शैली का सर्वाेत्तम उदाहरण है। इसके अलावा पुरी का जंगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर भी श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इस सूर्य मंदिर या ब्लैक पैगोडा का निर्माण गंग राजा नरसिंह देव प्रथम ने करवाया था। इसमें एक सभा भवन तथा शिखर का निर्माण एक चैड़ी एवं ऊँची चैकी पर किया गया जिसके चारों ओर बारह महीनों के प्रतीक के रूप में 24 पहिये बनायें गये। मंदिर में दौड़ते हुए 7 घोड़ों प्रतिमायें सूर्य के आगमन को दर्शाती हैं। कोणार्क के अतिरिक्त एक अन्य सूर्य मंदिर उत्तराखंड के अल्मोड़ा में कटारमल नामक स्थान पर भी स्थित है। इस कारण इसे ‘कटारमल सूर्य मन्दिर‘ कहा जाता है।
गुजरात का स्थापत्य (Architecture of Gujarat)
गुजरात और राजस्थान में चालुक्य (सोलंकी) राजाओं ने अन्हिलवाड़ तथा माउंट आबू पर जैन धर्म से संबंधित कई भव्य मंदिरों और सोमनाथ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का निर्माण कराया। अन्य प्रसिद्ध उदाहरणों में कर्णमेरु, रूद्रमाल आदि शामिल हैं। माउंट आबू पर बने कई मंदिरों में संगमरमर के दो प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिन्हें दिलवाड़ा के जैन मंदिर कहा जाता है। पहले में जैन तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति, प्रवेशद्वार पर छह स्तंभ और दस गज प्रतिमायें हैं। इसकी बारीक नक्काशी और अपूर्व मूर्तिशिल्प बेजोड़ हैं। दूसरा मंदिर तेजपाल का मंदिर है। यह मंदिर भी अपने स्थापत्य में अतुलनीय है। इन क्षेत्रों के मंदिरों का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर हुआ है और भीतरी हिस्सों को खोदकर चित्रकारी और भव्य नक्काशी की गई है।
बुंदेलखंड का स्थापत्य (Architecture of Bundelkhand)
बुंदेलखंड के छतरपुर जिले के खुजराहो में चंदेल राजाओं के बनवाये और शैव, वैष्णव एवं जैन धर्मों से संबंधित विश्व प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण एक ऊँची चैकी पर किया गया है। ग्रेनाइट एवं लाल बलुआ पत्थर से बने इन मंदिरों के ऊपरी भाग को अलंकरणों से सजाया गया है। खजुराहो के मंदिरों का भू एवं ऊध्र्वविन्यास विशेष उल्लेखनीय है। यहाँ के मंदिर बिना किसी परकोटे के ऊँचे चबूतरे पर बने हैं। इनमें गर्भगृह, अंतराल मड़प तथा अर्ध मंडपं देखे जा सकते हैं। मंदिर की प्रतिमाओं में देवता एवं देवी, अप्सरा के अलावा संभोगरत प्रतिमायें तथा पशुओं की आकृतियाँ है। मैथुनरत प्रतिमायें उच्च कोटि के शिल्प को उदाहरण हैं और उन्हें पूरे विश्व में अपार ख्याति मिली है। खजुराहो के पश्चिमी समूह में लक्ष्मण, कंद्रिया महादेव मतंगेश्वर लक्ष्मी जगदम्बी, चित्रगुप्त, पार्वती तथा गणेश मंदिर वराह व नन्दी के मंडप तथा पूर्वी समूह के मंदिरों में ब्रह्मा, वामन जवारी व हनुमान मन्दिर और जैन मंदिरों में पाश्र्वनाथ, आदिनाथ घंटाई मंदिर शामिल हैं। खजुराहो के दक्षिणी समूह के मंदिरों में चतुर्भुज और दुल्हादेव मंदिर शामिल हैं। कंदारिया महादेव मंदिर खजुराहो के मंदिरों में सबसे बड़ा, ऊँचा और कलात्मक मंदिर है। यह मंदिर 109 फुट लम्बा, 60 फुट चैड़ा 116 फुट ऊंचा है। इसके अर्द्धमण्डप, मण्डप, महामण्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह आदि बेजोड़ स्थापत्य है। प्रदक्षिणायुक्त गर्भगृह से युक्त यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। उनके अलावा कई अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां इसमें बना है। मंदिर में प्रवेश सोपान द्वारा अलंकृत कीर्तिमुख, नृत्य दृश्य से युक्त तोरण द्वार से होता है। समानुपातिक योजना, आकार, सुदर मूर्तिशिल्प एवं भव्य वास्तुकला के कारण यह मंदिर विशिष्ट बन पड़ा है।
इनके अलावा कर्नाटक के होयसल शासकों की कला का भी विशिष्ट स्थान है। इसे कर्नाटक द्रविड़ कला भी कहा जाता है। होयसल कला का विकास एहोल, बादामी और पट्टदकल के प्रारंभिक, चालुक्य कालीन मंदिरों में देखा जा सकता है। इन मंदिरों के विमानों को उनके विशिष्ट अलंकरण की वजह से जाना जाता है। होयसलों की कला में बेलूर का चिन्नाकेशव मंदिर और हलेबिड का होयसलेश्वर मंदिर, सोमनाथपुरम मंदिर विशिष्ट उदाहरण हैं। इनमें एक कक्ष के चारों ओर कई मंदिरों की श्रृंखला पाई जाती है जो कि एक तारे की शक्ल में है। इसी तरह पाल राजाओं के स्थापत्य को विशेष प्रसिद्धि मिली। इनके शासन काल में विक्रमशिला विहार, ओदंतपुरी विहार और जगडल्ला विहार आदि विहारों का निर्माण किया गया। इनमें सबसे प्रसिद्ध विहार धर्मपाल द्वारा निर्मित सामपुरा महाविहार (पहाड़पुर, जिला-नौगांव, बांगलादेश) का है। यह विहार भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा बौद्ध विहार है। इसे युनेस्को की विश्व विरासत सची में शामिल किया गया है।
चालुक्य कालीन स्थापत्य (Architecture of Chalukya Period)
बादामी के चालुक्यों की कला की शुरुआत एहोल से मानी जाती है जिसका चरमोत्कर्ष हमें बादामी और पट्टकल में दिखता है। एहोल को स्थापत्य कला का विद्यालय, बादामी को महाविद्यालय तो पट्टडकल को विश्वविद्यालय तक कहा जाता है। इन चालुक्य शासकों ने नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताओं से युक्त विशेष प्रकार की चालुक्य शैली का विकास किया। उनके मंदिरों में दो प्रकार की खास विशेषताएँ चटटानों को काटकर स्तंभयुक्त कक्ष और विशेष ढांचे वाले मंदिरो का निर्माण देखने को मिलता है। एडोल में तीन वैैदिक, बौद्ध और जैन धर्म से जुड़े गुफा मंदिर मिलते हैं। इन्हीं का विकसित रूप हमें बादामी में देखने को मिलता हैं। पट्टडकल में कला बादामी से आगे अपने शिखर पर चली जाती है।
एहोल को प्राचीन हिन्दू मंदिर स्थापत्य कला का पालना और मंदिरों का नगर तक कहा गया है। यहाँ पर 70 से अधिक मंदिर हैं। यहाँ रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया मेगुती जैन मंदिर है। यहाँ के अधिकतर मंदिर विष्णु एवं शिव के हैं। यहाँ के मंदिरों में लाढ़ खा. का सूर्य मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ के मंदिर ऊँचे चबूतरे पर निर्मित हैं और उनकी चपटी छतों एवं खंबों पर सुंदर नक्काशी की गई है। इन मंदिरों में अधिक लंबाई तथा कम चैड़ाई का अनुपात रखा गया। यहाँ के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों में हुचिअप्पाईयागुडी मंदिर हुचिअप्पा मठ, दुर्गा मंदिर, रावणपहाड़ी, गौड़ा मंदिर आदि हैं। बादामी के गुफा मंदिरों में खंभों वाला बरामदा, मेहराब युक्त कक्ष, छोटा गर्भगृह और उनकी गहराई प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ के गुफा मंदिर एहोल की तुलना में ज्यादा सुघड़ता का परिचय देते हैं। यहाँ मिली चार गुफाओं में पहली गुफा शिव को, दूसरी विष्णु (वामन वराह और कृष्ण), तीसरी भी विष्णु अवतारों को (नरसिंह, वराह, हरिहर, वामन या त्रिविक्रम), चैथी गुफा जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ को समर्पित है। इसके अलावा यहाँ बने भूतनाथ, मल्लिकार्जुन और येल्लमा के मंदिरों के स्थापत्य को सराहना मिली। इन गुफाओं का बरामदा तो साधारण है लेकिन भीतरी कक्ष में सघन नक्काशी मिलती है। विश्व विरासत स्थल की सूची में दर्ज पट्टडकल के मंदिरों में चालुक्यकालीन स्थापत्य पूरे निखार पर है। यहाँ मिले मंदिरों में कुछ में द्रविड़ और कुछ में नागर शैली की विशेषताएँ मिलती हैं। इनमें एक जैन मंदिर भी है। इनमें विरुपाक्ष के मंदिर का स्थापत्य सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इसके अलावा यहाँ के मंदिरों में संगमेश्वर, पापनाथ आदि हैं। बादामी के चालुक्यों की स्थापत्य कला ने विजयनगर साम्राज्य की कला को भी प्रभावित किया। इन तीनों स्थलों के अलावा आंध्र प्रदेश के अलमपुर में नवब्रह्मा मंदिरों का स्थापत्य भी प्रशंसनीय है।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics