महात्मा गांधी के राजनीतिक विचारों का वर्णन mahatma gandhi political thought in hindi
mahatma gandhi political thought in hindi महात्मा गांधी के राजनीतिक विचारों का वर्णन ?
महात्मा गांधी का आगमन
मोहनदास कर्मचन्द गांधी (गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी । 1869-1948) और टैगोर ने भारतीय जीवन तथा साहित्य को प्रभावित किया एवं प्रायः ये एक दूसरे के पूरक हुआ करते थे। गांधीजी ने आम आदमी की भाषा बोली और ये परिपक्व लोगों के साथ थे। सत्यता और अहिंसा इनके हथियार थे। ये परम्परागत मूल्यों के पक्षधर थे और औद्योगिकीकरण के विरोधी थे। इन्होंने अति शीघ्र स्वयं को एक मध्यकालीन सन्त और एक समाज सुधारक के रूप में परिवर्तित कर लिया। टैगोर ने इन्हें महात्मा (सन्त) कहा। गांधी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के काव्य और कथा साहित्य दोनों के विषय बन गए थे। ये शान्ति और आदर्शवाद के प्रचारक बन गए थे। वल्लतोल (मलयालम), सत्येन्द्रनाथ दत्ता (बांग्ला), काजी नजरुल इस्लाम (बांग्ला) और अकबर इलाहाबादी (उर्दू) ने गांधी को पश्चिमी सभ्यता को चुनौती के रूप में और एशियाई मूल्यों के गौरव के एक दृढ़कथन के रूप में स्वीकार किया।
गांधीवादी वीरों ने उस समय के कथासाहित्य से विश्व को अभिभूत कर दिया था। तारा शंकर बंद्योपाध्याय (बांग्ला), प्रेमचन्द (हिन्दी) वी एस खाण्डेकर (मराठी), शरद चन्द्र चटर्जी (बांग्ला), लक्ष्मी नारायण (तेलुगु) ने गांधी के समर्थकों का नैतिक आर धार्मिक प्रतिबद्धताओं से परिपूर्ण ग्रामीण सुधारकों अथवा सामाजिक कामगारों के रूप में सृजन किया। गांधी मिथक का सृजन लेखकों ने नहीं बल्कि लोगों ने किया था और लेखकों ने अपने काल के दौरान महान उद्बोधन के एक युग को चिह्नित करने के लिए इसका प्रभावी रूप से प्रयोग किया। ‘शरद चन्द्र चटर्जी‘ (1876-1938) बांग्ला के सर्वाधिक लोका उपन्यासकारों में से एक थे। इनकी लोकप्रियता इनकी पुस्तकों के विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध असंख्य अनुवादा माध्यम से न केवल बांग्ला पाठकों के बीच ही नहीं बल्कि भारत के अन्य भागों के लोगों के बीच भी आज तक अनु बनी हुई है। पुरुष- महिला संबंध इनका प्रिय विषय था और ये महिलाओं को, उनकी पीड़ाओं को और उनक प्राक अनकहे प्यार को चित्रित करने के लिए भली-भांति जाने जाते थे। ये गांधीवादी और समाजवादी दोनों ही थे। प्रेमचन्द (1880-1936) ने हिन्दी में उपन्यास लिखे। ये धरती के सच्चे सपूत थे और भारत की धरती से गहरे जुड़ थे। ये भारतीय साहित्य में भारतीय कृषि- वर्ग के सबसे उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिनिधि थे। एक सच्चे गांधीवादी के ये शोषकों के ‘हृदय परिवर्तन‘ के आदर्शवादी सिद्धान्त में विश्वास करते थे लेकिन अपने महा कार्य गोदान (1936) म यथार्थवादी बन जाते हैं और भारत के ग्रामीण निर्धन लोगों की पीड़ा तथा संघर्ष को अभिलेखबद्ध करते हैं।
प्रगतिशील साहित्य
भारतीय साहित्यिक दृश्यपरक में तीस के दशक में मार्कसवाद का आगमन एक ऐसा घटनाचक्र है जिसे भारत कई अन्य देशों के साथ साझा करता है। गांधी और मार्कस दोनों ही साम्राज्यवाद के विरोध तथा समाज के वंचित वगों के प्रति चिन्ता से प्रारत हुए था प्रगतिशील लेखक संघ की मल रूप से स्थापना 1936 में मल्कराज आनन्द (अंग्रेजी) जैसे लन्दन में कुछ प्रवासी लेखकों ने की थी। तथापि, शीघ्र ही यह एक महान अखिल भारतीय आन्दोलन बन गया था जो समाज में गांधीवाद और माक्सवाद की सूक्ष्मदृष्टियों को पास-पास ले आया था। यह आन्दोलन विशेष रूप से उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, तेलुगु और मलयालम में स्पष्ट था लेकिन इसका प्रभाव समस्त भारत में महसूस किया गया था। इसने प्रत्येक लेखक का समाज की वास्तविकता के साथ अपने संबंध की पनः परीक्षा करने के लिए बाध्य कर दिया था। हिन्दी में छायावाद को प्रगतिवाद के नाम से प्रसिद्ध एक प्रगतिशील शैली ने चनौती दी थी। नागार्जन प्रगतिशील समूह के सर्वाधिक सशक्त और प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे। बांग्ला कवि समर सेन और सुभाष मुखोपाध्याय ने अपनी कविता में एक नए सामाजिक-राजनीतिक दृष्टकिोण को जगह दी। फकीर मोहन सेनापति (ओडिया, 1893-1918) सामाजिक यथार्थवाद के पहले भारतीय उपन्यासकार थे। अपनी धरती से गहरे जुड़े रहना, अभागे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति और अभिव्यक्ति में ईमानदारी सेनापति के उपन्यासों की विशेषताएं हैं।
माणिक वंद्योपाध्याय मार्क्सवाद के सबसे अधिक प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार थे। वैक्कम मोहम्मद बशीर, एस के पोट्टेक्काट और तकषि शिवशंकर पिल्लै जैसे मलयाली कथा-साहित्य लेखकों ने उच्च साहित्यिक मूल्य के प्रगतिशील कथा-साहित्य की रचना करके इतिहास रच दिया था। इन्होंने साधारण मनुष्य के जीवन का और उन मानव संबंधों का गवेषण करके अपने लेखन में नए विषयों को शामिल किया जिनको आर्थिक तथा सामाजिक असमानताओं ने प्रोत्साहित किया था। कन्नड़ के सर्वाधिक बहुमुखी कथा साहित्य लेखक शिवराम कारंत कभी भी आपने प्रारम्भिक गांधीवादी पाठों को नहीं भूले। श्रीश्री (तेलुगु) मार्क्सवादी थे लेकिन इन्होंने अपने जीवन के उत्तरकाल में आधुनिकता में रुचि दर्शायी। अब्दुल मलिक ने असमी में वैचारिक पूर्वाग्रह के साथ लिखा। प्रगतिशील साहित्य के महत्त्वपूर्ण मानदण्ड इस चरण में पंजाबी के अग्रणी लेखक सन्त सिंह शेखों ने स्थापित किए थे। प्रगतिशील लेखकों के आन्दोलन ने जोश मलीहाबादी और फैज अहमद फैज जैसे उर्दू के जाने-माने कवियों का ध्यान आकर्षित किया। मार्क्सवादी भावना से ओतप्रोत इन दोनों कवियों ने प्रेम की सदियों पुरानी प्रतीकात्मकता को एक राजनैतिक अर्थ प्रदान किया।
राष्ट्रीयता, पुनर्जागरणवाद और सुधारवाद का साहित्य
विदेशी शासन के विरुद्ध किसी समुदाय के विरोध के रूप में अलग-अलग भाषाओं में स्वतः ही देशभक्ति के लेखों की रचना होने लगी थी। बांग्ला में रंगलाल, उर्दू में मिर्जा गालिब और हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने स्वयं को उस समय की देशभक्ति से परिपूर्ण स्वर के रूप में अभिव्यक्त किया। यह स्वर एक ओर तो उपनिवेशी शासन के विरुद्ध था तथा दूसरी ओर भारत के गुणगान के लिए था। इसके अतिरिक्त, मिर्जा गालिब (1797-1869) ने प्रेम के बारे में उर्दू में गजलें लिखीं जिनमें सामान्य कल्पना और रूपकालंकार शमिल था। इन्होंने जीवन को आनन्दमय अस्तित्व और एक अंधकारमय तथा कष्टकर रूप में भी स्वीकार किया। माइकेल मधुसूदन दत्त (1824-73) ने भारतीय भाषा में प्रथम आधुनिक महाकाव्य लिखा था और अतुकांत श्लोकों का देशीकरण किया था। सुब्रह्मण्य भारती (1882-1921) तमिल के एक महान देशभक्त कवि थे जिनके कारण तमिल में कविसुलभ परम्परा में एक क्रान्ति आई। मैथिलीशरण गुप्त (हिन्दी, 1886-1964), भाई वीर सिंह पंजाबी 1872-1957) और अन्य पौराणिक अथवा इतिहास के विषय लेकर महाकाव्य लिखने के लिए जाने जाते थे तथा इनका स्पष्ट प्रयोजन देशभक्त पाठक की आवश्यकताओं को पूरा करना था। उपन्यास का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक सधार-अभिमखी आन्दोलन से सहयोजित है। पश्चिम से ली गई इस नई शैली की विशेषता भारतीय दर्शन में दो अगोकरण के बाद से ही विद्रोह की एक भावना है। सैमुअल पिल्लै द्वारा प्रथम तमिल उपन्यास प्रताप मदलियार (10700 कष्णम्मा चटटो द्वारा प्रथम तेलग उपन्यास श्रीरंग राजा चरित्र (1872), और चन्द मेनन द्वारा प्रथम मलयालय साया लखा (1889) शिक्षाप्रद अभिप्रायों से तथा छुआछूत, जाति भेद, विधवाओं के पुनर्विवाह से इंकार जैसी अनिष्टकर एव परम्पराओं की पुनः परीक्षा करने के लिए लिखे गए थे। एक अंग्रेज महिला कैथरीन मल्लेंस द्वारा नाला ‘फूलमणि ओ करुणार बिबरन‘ (1852) अथवा लाला श्रीनिवास दास द्वारा हिन्दी उपन्यास ‘परीक्षा गुरु‘ (1882) जैसे अन्य प्रथम उपन्यासों में सामाजिक समस्याओं के संबंध में अनुक्रिया तथा उच्चारण की सांझी प्रव का पता लगा सकते हैं।
बंकिम चन्द चटर्जी (बांग्ला. हरि नारायण आप्टे (मराठी) और अन्यों द्वारा ऐतिहासिक उपन्यास भारत के स्वर्ण काल का पणन करने और यहां के लोगों के मन में राष्ट्रभक्ति को बैठाने के लिए लिखे गए थे। अतीत की और सम्पदा का गणगान करने के लिए उपन्यास सबसे अधिक उचित माध्यम पाए गए थे और इन्होंने भारतीयों को इनकी बाध्यताओं एवं अधिकारों का स्मरण कराया। वास्तव में, उन्नीसवीं शताब्दी में, साहित्य से राष्ट्रीय अभिज्ञान को सो अविर्भाव हआ था और अधिकांश भारतीय लेखन ज्ञानोदय के स्वर में परिवर्तित हो गया था। इसने बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ में पहुंचने के समय तक भारत के लिए यथार्थ और तथ्यात्मक स्थिति को समझने का मार्ग प्रशस्त कर दिया इसी समय के दौरान टैगोर ने उपनिवेशी शासन, उपनिवेशी मानदण्ड और उपनिवेशी प्रधिकार को चुनौती देने तथा भारतीय राष्ट्रीयता को एक नया अर्थ प्रदान करने के लिए उपन्यास ‘गोरा‘ (1910) लिखना प्रारम्भ किया था।
भारतीय स्वच्छंदतावाद
भारतीय स्वच्छदतावाद की प्रवृत्ति को उन तीन महान ताकतों ने प्रारम्भ किया था जिन्होंने भारतीय साहित्य की नियति को प्रभावित किया था। ये ताकतें थीं: श्री अरविंद (1872-1950) की मनुष्य में ईश्वर की तलाश, टैगोर की प्रकृति तथा मनुष्य में सौन्दर्य की खोज और महात्मा गांधी के सत्य एवं अहिंसा के अनुभव। श्री अरविंद ने अपने काव्य और दार्शनिक निबंध ‘जीवन ही ईश्वर है‘ के माध्यम से प्रत्येक वस्तु में ईश्वरत्व के अन्ततः प्रकटन की संभावना को प्रस्तुत किया है। इन्होंने अधिकतर अंग्रेजी में लिखा है। टैगोर की सौन्दर्य के लिए खोज एक आत्मिक खोज थी जिसे इस अन्तिम अनुमति में सफलता मिली कि मनुष्य की सेवा करना ईश्वर से सम्पर्क साधने का सर्वोत्तम माध्यम है। टैगोर प्रकति और समूचे विश्व में व्याप्त एक सर्वोपरि सिद्धान्त से परिचित थे। यह सर्वोपरि सिद्धान्त या अज्ञात रहस्यात्मकता सुन्दर है क्योंकि यह ज्ञात के माध्यम से चमकता है और हमें मात्र अज्ञात में ही चिरस्थायी स्वतंत्रता मिलती है। कई आभाओं वाले प्रतिभाशाली व्यक्ति टैगोर ने उपन्यास, लघु कथाएं, निबंध और नाटक लिखे थे और इन्होंने नए प्रयोग करना कभी भी बन्द नहीं किया, इनकी बांग्ला में कविताओं के संग्रह गीतांजलि को 1913 में नोबल पुरस्कार मिला था। यह पुरस्कार मिलने के पश्चात् टैगोर की कविता ने भारत की अलग-अलग भाषाओं के लेखकों को स्वच्छंदतावादी कविता के युग को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रेरित किया। हिन्दी में स्वच्छंदतावादी कविता के युग को छायावाद, कन्नड़ में इसे नवोदय और ओडिया में सबुज युग कहते हैं। जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानन्दन पन्त और महादेवी (हिन्दी), वल्लतोल, कुमारन आसन (मलयालम) कालिन्दी चरण पाणिग्रही (ओड़िया), बी एम श्रीकान्तय्या, पुट्टप्पा, बेन्द्रे (कन्नड़), विश्वनाथ सत्यनारायण (तेलुग), उमाशंकर जोशी (गुजराती) और अन्य भाषाओं के कवियों ने अपनी कविता में रहस्यवादी तथा स्वच्छंदतावादी आत्मपरकता ही उजागर किया। रवि किरण मण्डल के कवियों (मराठी के छह कवियों का एक समूह) ने प्रकृति में छिपी वास्तविकता को तलाशा। भारतीय स्वच्छंदवादी रहस्यवाद से भयभीत है-अंग्रेज स्वच्छंदतावाद से भिन्न, जो अनैतिकता. के बंधनों को तोडना चाहता है, यूनानीवाद में खुशी तलाश रहा है। वास्तव में, आधुनिक युग की रोमानी प्रकृति भारतीय काव्य की परम्परा का अनुसरण करती है जिसमें रोमानीवाद ने वैदिक प्रतीकात्मकता के आधार पर अधिक और मूर्तिपूजा के आधार पर कम प्रकृति और मनुष्य के बीच वेदान्तिक (एक वास्तविकता का दर्शनशास्त्र) एकत्व के बारे में बताया है। उर्दू के महानतम कवि मोहम्मद इकबाल (1877-1898), जिसका स्थान गालिब के बाद है, ने प्रारम्भ में रोमानी-व-राष्ट्रीय चरण के अपने काव्य को अपनाया। इनका उर्दू का सर्वोत्तम संग्रह बंग-ए- दरा (1924) है। अखिल-इस्लामीवाद की इनकी खोज ने मानवता के प्रति इनकी समग्र चिन्ता में बाधा नहीं डाली।
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