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मधुबनी पेंटिंग की विशेषता क्या है ? madhubani painting in hindi मधुबनी कला और मंजूषा’ कला में अंतर

madhubani painting in hindi मधुबनी पेंटिंग की विशेषता क्या है ? मधुबनी कला और मंजूषा’ कला में अंतर ?

आधुनिक भारतीय चित्रकला
प्रश्न: उनके महत्वपूर्ण अभिलक्षणों पर प्रकाश डालते हुए ‘मधुबनी’ कला और ‘मंजूषा’ कला के बीच विभेदन कीजिए।
उत्तर: मधुबनी कला मिथिला अर्थात् बिहार में प्रचलित एक लोक चित्र कला है। इसमें महिलाओं की अधिक भूमिका होती है इसलिए इसे महिलाओं की चित्र शैली भी कहते हैं इसके अंतर्गत दो तरह के चित्र बनाए जाते हैं। प्रथम भित्ति चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाए जाते थे और यह इसकी प्रारंभिक अवस्था थी लेकिन वर्तमान में मधुबनी चित्रकला इतनी व्यापक इसलिए हो पाई है क्योंकि यह भित्ति शैली से कागज, कपड़े तथा कैनवास पर उकेरी जाने लगी है। प्रमुख चित्रकार हैं – गंगादेवी, कौशल्या देवी एवं भारती दयाल इत्यादि।
मंजूषा कला भी बिहार राज्य की है जिसके अंतर्गत भागलपुर जिले का क्षेत्र आता है। इस चित्रकला में सनई या सन की लकड़ी से मंदिर जिसे मंजूषा कहते हैं में प्रचलित बिहुला विषहरी की लोक कलाओं में वर्णित चित्रों को ब्रस या कूचियों द्वारा चित्रित किया जाता है। प्रमुख चित्रकार चक्रवर्ती देवी है।
प्रश्न: आधुनिक चित्रकला की तंजौर एवं मैसूर शैली के बारे में बताइए।
उत्तर: आधुनिक समय में दक्षिण में चित्रकला का विकास दो भिन्न-भिन्न शैलियों ‘तंजौर’ और ‘मैसूर’में हुआ।
तंजौर शैली : चोल राजाओं द्वारा संरक्षित ‘तंजौर’, प्राचीन काल से विभिन्न कलाओं का समृद्ध केन्द्र रहा है। 18 वीं शताब्दी के अन्त में ‘राजा सरभोजी’ ने राजस्थानी राज्यों की अवस्था खराब होने पर आश्रय की खोज में भटकते आये चित्रकारों को आश्रय प्रदान किया।
सन् 1833-55 ई. में ‘राजा शिवाजी’ के राज्यकाल में 18 कलाकारों के परिवार को राज्याश्रय मिला हुआ था, जो ‘हाथी दाँत’ एवं ‘काष्ठफलक‘ पर चित्राकृतियाँ बनाते थे। रामायण एवं कृष्ण-लीला पर आधारित जो चित्राकृतियाँ बनाई गई, उनमें गाढ़े लेप से आकृतियाँ बनाकर उभार (रिलीफ) का हल्का प्रभाव दिया जाने लगा। बाद में जल रंग से चित्र चित्रित करने के पश्चात् उनमें सोने के पत्रों एवं बहुमूल्य पत्थरों को भी लगाया जाने लगा। ‘‘बालकृष्ण’’नामक चित्र तंजौर का उत्तम उदाहरण है। इसके अलावा चित्र भी बनाये गये, जो आज तंजौर के राजमहल में सुरक्षित हैं।
मैसूर शैली: दक्षिण में स्थित मैसूर राज्य में एक भिन्न प्रकार की शैली का विकास हुआ, जो ‘राजा कृष्णराज’ के संरक्षण में पनपी। (यूँ तो राजा कृष्णराज से भी पूर्व यह शैली 100 वर्षों तक प्रचलित रह विकासोन्मुख रही) इस दौरान दरबारी कलाकारों को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया गया। कृष्णराज स्वयं एक ही विषय को अनेक कलाकारों द्वारा चित्रित करवाते थे।
प्रश्न: आधुनिक चित्रकला की कालीघाट या बाजार पेंटिंग
उत्तर: 19वीं शताब्दी में कालीघाट में चित्रण की नई पद्धति चल रही थी, जिसमें चित्रों को मोटे कागज पर मजबूती के साथकपड़ा चिपकाकर तैयार किया जाता था। बंगाल प्रदेश के कोलकाता शहर में ‘कालीघाट का मंदिर’, ‘काली माता’ को समर्पित है। ‘डब्ल्यू.जी. आर्चर’ ने इन्हें ‘बाजार पेंटिंग’ नाम से संबोधित किया है। धार्मिक चित्रों के अतिरिक्त श्यामकांत बनर्जी के ‘तंत्रयोग’, ‘वैष्णवों पर हास्य तथा व्यंग्य,’ ‘बंगाली बाबू की वेश्यावृत्ति,’ ‘तारकेश्वर स्केन्डल’ जैसी लोकप्रिय विषयवस्तु पर भी चित्र बने। ‘संगीत का अभ्यास करते हुए‘चित्र कालीघाट चित्रण शैली की विशेषता दर्शाता है। इस प्रकार के चित्रों का चित्रण कालीघाट के अलावा, ‘हुगली’, ‘मिदनापुर’, ‘बर्दवान’, ‘मुर्शिदाबाद’ और ‘चन्द्रनगर’ में भी किया जाता था।

प्रश्न: ख्याल के मुख्य लक्षण संक्षेप में लिखिए।
उत्तरः यह हिन्दुस्तानी गायन की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है। इसके आविष्कारक जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह को माना जाता है। इसकी चार शैलियाँ प्रचलित हैं- किराना, पटियाला, आगरा, ग्वालियर आदि। जो आज घरानों के नाम से जानी जाती हैं।
प्रश्न: पेरिनी शिवताण्डवम् के संबंध में लिखिए।
उत्तर: पेरिनी शिवताण्डवम् एक प्रकार की नृत्य शैली है जिसको आन्ध्र के काकतीय वंश ने प्रश्रय दिया। इसमें योद्धा युद्ध से पहले नटराज की प्रतिमा के सामने नृत्य करते हैं। यह एक पुरुष नृत्य है।
प्रश्न: आर.के. लक्ष्मण
उत्तर:‘ कॉमन मैन’ को लोकप्रिय बनाने वाले कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का पुणे में 26 जनवरी, 2015 को देहांत हो गया। रासीपुरम कृष्णास्वामी लक्ष्मण, उनका पूरा नाम था और वे 94 वर्ष के थे। वे प्रसिद्ध उपन्यासकार आर.के. नारायण के छोटे भाई थे। टाइम्स ऑफ इंडिया में उनके ‘कॉमन मैन’ कार्टून छपते थे यह कार्टून ‘यू सेड इट’ शीर्षक से 1951 से छपता रहा है।
सरकार ने आर.के. लक्ष्मण को 1971 में पद्म भूषण व 2005 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। 1984 में उन्हें रमन मैगसेसे से भी सम्मानित किया गया था। डाक विभाग ने ‘कॉमन मैन’ पर 1988 में एक टिकट भी जारी किया था। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं; द बेस्ट ऑफ लक्ष्मण सीरिज, होटल रिविरिया, द मेसेंजर, सर्वंेट्स ऑफ इंडिया, दी टनेल ऑफ टाइम (आत्मकथा), लक्ष्मणरेखा (मराठी में आत्मकथा)।
प्रश्न: आधुनिक कला की पटना या कम्पनी शैली पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: इस शैली का ऐतिहासिक उद्भव उस युग में होता है, जब भारत में 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों की एक व्यापारी मंडी ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ अपना अस्तित्व बना चुकी थी।
तत्कालीन पटना प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण अंग्रेजी प्रशासन तथा व्यापार का विशिष्ट केन्द्र बन गया था। यहाँ के धनाढ्îों, अंग्रेज व्यापारियों तथा पदाधिकारियों के आश्रय में ये कलाकार ‘ऐग्ंलोइंडियन स्टाइल’ (।दहसव प्दकपंद ैजलसम) में चित्रण करते थे। यानी ‘अर्द्ध यूरोपीय ढंग’ से पूर्व-पाश्चात्य मिश्रण के आधार पर पशु-पक्षी, प्राकृतिक चित्र, लघुचित्र, भारतीय जीवन से संबंधित (जिसमें अंग्रेजों के अधीनस्थ भारतीय दासों एवं सेवकों के दीन-हीन जीवन का प्रकटीकरण किया गया है) एवं अपने और पारिवारिक लोगों के इन्होंने व्यक्ति चित्र बनवाये।
ये चित्र विदेश (इंग्लैण्ड तथा अन्य पाश्चात्य देशों) में भेजे जाते थे। यही नहीं भारत में पाश्चात्य कला को बढ़ावा देने के लिये अनेक अंग्रेज अधिकारी अपने साथ चित्र एवं फोटो भी लाते थे और भारतीय कलाकारों को उन कलाकृतियों का अनुकरण तथा उनमें निहित शैली को अपनाने का भी आदेश देते थे। पाश्चात्य चित्र यथार्थवादी वास्तविकता से प्रेरित तथा सजीव होते थे। उनमें गहराई, उभार, वस्त्रों का यथार्थपूर्ण अंकन, आकृतियों में रंगों के विशेष प्रयोग द्वारा छाया-प्रकाश (लाइट-शेड) तथा आकृतिपरक ठोसपन का आभास, विस्तृत वर्ण-विधान, यथार्थवादी रंग योजना के लिये कलरवाश तथा रेखाओं के विविध ढंग, पौने दो चश्म की प्रचुरता, आकृति प्रायः निचले क्षितिज तल के सम्मुख होती थी।
क्योंकि ये चित्र कम्पनी अधिकारियों द्वारा बनवाये जाते थे तथा इसका मुख्य केन्द्र पटना होने के कारण इस शैली को ‘कम्पनी शैली’ एवं ‘पटना शैली’ पुकारा गया। इस प्रकार के अनेक चित्र ‘पटना संग्रहालय’ तथा ‘विदेशी कला दीर्घाओं’ में संगृहीत हैं।
कम्पनी शैली की मुख्य अध्येता ‘मिसेज आर्चर’ के मतानुसार, पटना चित्रण शैली तो कम्पनी शैली की एक-उपशाखा है, किन्तुं कला की दृष्टि से कोई प्रमुख या पृथक् शैली नहीं है, क्योंकि कला का यह आन्दोलन पटना तक ही सीमित नहीं था, इसका प्रचार व्यापक रूप में बंगाल से पंजाब तक, उत्तरी भारत, दक्षिण में महाराष्ट्र तथा पश्चिमी घाट तक, पश्चिम में सिंध तथा नेपाल तक भी विस्तृत था।
पटना एवं कम्पनी शैली के प्रमुख विषयों में व्यक्ति चित्र, पशु-पक्षी एवं साधारण लोगों के व्यक्ति चित्र थे। पशुओं में मुख्यतः हाथी एवं घोड़ों या उसकी सवारियों को अंकित किया गया था। जन-साधारण के विषयों में, मछली बेचने वाली, टोकरी बुनने वाली, चक्की वाली, लुहार, दर्जी, सेविका, मिट्टी के खिलौने बनाते एवं बेचते आदि को चित्रित किया।
पटना शैली के चित्रों में रेखांकन में कठोरता झलकती है और भावोद्दीपन की कमी है। चित्रों में प्रयुक्त रंग भी फीके थे, जिनमें भूरे, हरे, गुलाबी और स्याह रंग हैं, जो आकर्षक नहीं लगते थे। चित्रों की रचना सामान्यतः तैल या जल रंगों में होती थी।
19वीं शताब्दी को पटना शैली के उत्थान का समय माना गया है। इस समय में पटना शैली के चित्रकारों में ‘सेवकराम’ का नाम प्रमुख है। ‘लाला ईश्वरी प्रसाद’, जो कोलकाता आर्ट स्कूल के भूतपूर्व अध्यक्ष थे, के पिता ‘शिवलाल’ भी पटना शैली के वंश परम्परागत चित्रकार थे। इनके अतिरिक्त सन् 1830 ई. से 1950 ई. के मध्य हुसाललाल, जयरामदास, झूमकलाल, फकीरचन्द्र आदि चित्रकार कार्यरत थे।
पटना या कम्पनी शैली के चित्रों की विशेषताएँ
ऽ चित्र प्रायः छोटे-छोटे ही बनाये गये।
ऽ भारतीय लोगों को विभिन्न प्रकार की वेशभूषा पहने तथा रहन-सहन का चित्रण हुआ।
ऽ प्रारम्भ में प्रकृति चित्रण को यथार्थवादी ढंग से चित्रित किया है।
ऽ कम्पनी चित्र शैली में विभिन्न प्रकार की विषयवस्तुओं का समावेश है।
ऽ आकृतियों के प्रायः डेढ़ चश्म चेहरे चित्रित हैं।
ऽ कम्पनी शैली के चित्रों ने अनुकृत पोत को विशेष रूप से दर्शाया गया।
ऽ चित्रों की प्रतिकृतियाँ बनाने का प्रचलन चल पड़ा था।
इस प्रकार राजनीतिक व आर्थिक सम्बल मिलने के कारण पटना शैली पटना में विकसित हुई, किन्तु बाद में अंग्रेजी सत्ता के आने पर यह देश के अनेक भागों में फैली एवं पनपी।
प्रश्न: मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग
उत्तर: मिथिला पेंटिंग या मधुबनी चित्रकला का इतिहास पुराना है, परन्तु इसे ख्याति हाल के दशकों में ही प्राप्त हुई है। इस शैली के चित्र दो प्रकार के होते हैं; भित्ति चित्र और अरिपन। भित्ति चित्र के तीन रूप देखे जा सकते हैं, (1) घर की सजावट । कोहबर घर की सजावट, (3) कोहबर घर के कोणों की सजावट। पहली श्रेणी के चित्र धार्मिक महत्व के होते हैं, जबकि अन्य दो में प्रतीकों का उपयोग अधिक होता है। धार्मिक भित्ति चित्रों में दुर्गा, राधाकृष्ण, सीता-राम, शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी आदि का चित्रण होता है। कोहबर घर के भीतर और बाहर बने चित्र कामुक प्रवृत्ति के होते हैं। इनमें कामदेव, रति, यक्षणियों के अतिरिक्त पुरुष और नारी की जननेन्द्रियां बनाई जाती हैं। पृष्ठभूमि के लिए पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के चित्र बनाये जाते हैं, मगर इनका भी प्रतीकात्मक महत्व होता है। इस शैली के चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाए जाते हैं, मगर हाल में कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति बढ़ी है। चित्र अंगुलियों से या बांस की कलम कंूची से बनाए जाते हैं और कल्पना की उड़ान, कला से गहरा भावात्मक लगाव और सुंदर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग इन चित्रों को विशेष आकर्षण प्रदान करता है। इन चित्रों में प्रयोग किए जानेवाले रंग अधिकांश वनस्पति से प्राप्त किए जाते हैं। इसमें मुख्यतः हरा, पीला, लाल, नीला, केसरिया, नारंगी, बैंगनी आदि रंगों का प्रयोग होता है। मधुबनी चित्रकला का एक प्रमुख प्रकार का रूप अरिपन चित्र है। यह आंगन में या चैखट के सामने जमीन पर बनाए जाने वाले चित्र हैं। इन्हें बनाने में कूटे हुए चावल को पानी और रंग में मिलाया जाता है। परिपन चित्र प्रायः ऊँगली से ही बनाए जाते हैं। अरिपन (रंगोली) चित्रों में पांच श्रेणियां निर्धारित की जा सकती है-
1. मनुष्यों और पशु-पक्षियों को दर्शाने वाले चित्र।
2. फूल, पेड़ और फलों के चित्र
3. तंत्रवाही प्रतीकों पर आधारित चित्र
4. देवी-देवताओं के चित्र तथा
5. स्वास्तिक, दीप आदि के आकार।
इस शैली के चित्रकारों के अनुसार, इसे विश्वख्याति दिलवाने का श्रेय भास्कर कुलकर्णी तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिर के अतिरिक्त उपेन्द्र महारथी को भी है। मिथिला पेटिंग्स वैसे तो पूरे मिथिलांचल में बनाई जाती है परंतु मुख्य रूप से मिथिला पेंटिंग मधुबनी तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में ही बनाई जाती है। मिथिला पेंटिंग के चित्रकारों में लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं ही हैं। यही कारण है कि इस शैली को महिलाओं की शैली भी कहा जाता है। इस चित्रकला की सर्वप्रमुख कलाकार पद्मश्री से सम्मानित सीतादेवी हैं।