लघुगणक किसे कहते हैं ? logarithm in hindi meaning लघुगणक की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब
logarithm in hindi meaning definition लघुगणक किसे कहते हैं ? लघुगणक की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब ?
लघु-गणक (Logarithm)
किसी भौतिक राशि का मान गणना द्वारा ज्ञात करते समय गुणा तथा भाग करने में काफी समय नष्ट हो जाता है। परीक्षा में छात्रों के समय की बचत के लिए लघु-गणक सारणी का प्रयोग बहुत ही आवश्यक है। लघु-गणक सारणी के उपयोग से गणना काफी ही कम समय में हो जाती है।
लघु-गणक की परिभाषा- किसी दिये हुए आधार पर किसी संख्या का लघु-गणक वह संख्या है जिसे दिये हुए आधार पर घात के रूप में रखने पर मूल संख्या प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, av = b
तब loga b = y [log b to the base a is equal to y]
इसी प्रकार, 103 = 1000
तब log10 1000 = 3
व्यवहार में आधार (base) सदैव लिया जाता है। अतः व्यवहार में
log 101000 = 3
logex = 2.303 log10x
log 10 1000 के स्थान पर केवल log 1000 = 3 ही लिखते हैं।
लघु-गणक सारणी की सहायता से गणना करने के लिए निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है-
1. एक से अधिक संख्याओं के गुणनफल का लघु-गणक उन संख्याओं के पृथक-पृथक लघुगणकों के योग के बराबर होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई संख्या , R = a x b x c है।
तब log R = log a ़ log b ़ log c
2. किसी भिन्न का लघु-गणक उसके अंश तथा हर के लघु-गणकों के अन्तर के बराबर होता है, जैसे
R = a/b
तब log R = log a – log b
3. किसी घात वाली संख्या का लघु-गणक ज्ञात करने के लिए उस राशि के लघु-गणक को उस घात से गुणा कर देते है। जैसे,
R = xn
तब log r = n log x
नोट- log 1 = 0 तथा log 10 = 1 होता है यह हमेशा याद रखना चाहिए।
किसी संख्या का लघु-गणक ज्ञात करना
प्रत्येक राशि के दो भाग होते है। एक भाग दशमलव से पहले का तथा दूसरा भाग दशमलव के बाद का हर प्रकार प्रत्येक संख्या का लघु-गणक भी दो भागों में बना होता है। एक दशमलव से पहले का भाग जिसे पूर (characteristic) कहते हैं तथा दूसरा भाग दशमलव के बाद का होता है जिसको अपूर्णांश (Mantissa) कहते हैं। पूर्ण धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है परन्तु अपूर्णांश हमेशा धनात्मक होना आवश्यक है। किसी संख्या का लघु गणक ज्ञात करने के लिए उसका पूर्णांश तथा अपूर्णांश अलग-अलग ज्ञात किया जाता है।
पूर्णाश ज्ञात करना
किसी सख्या का पूर्णाश उस संख्या के दशमलव से पहले के अंकों की संख्या में से 1 (एक) घटाने पर प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए 8934, 893.4, 89.34, 8.934 संख्याओं के लघु-गणकों के पूर्णांश 3, 2, 1 और 0 (शून्य) होते है।
यदि दी हुई संख्या में दशमलव से पहले कोई अंक नहीं है तो उस संख्या के लघु-गणक का पूर्णांश ऋणात्मक होता है तथा दशमलव के ठीक बाद आने वाले शून्यों की संख्या में 1 (एक) जोड़ने पर प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, 0.2369, 0.02369, 0.002369 संख्याओं के लघु-गणकों के पूर्णांश क्रमशः 1, 2, 3 होंगे अर्थात् ऋणात्मक पूर्णांशों को बार (पूर्णांश के ऊपर -) लगाकर प्रदर्शित करते हैं। अतः यदि किसी संख्या के दशमलव से पहले अंकों की संख्या एक है तो पूर्णांश शून्य होता है और यदि दशमलव से पहले संख्या में कोई अंक शून्य को छोड़कर नहीं है तो पूर्णांश ऋणात्मक होता है।
अपूर्णांश ज्ञात करना
किसी संख्या के लघु-गणक का अपूर्णांश लघु-गणक सारणी से ज्ञात किया जाता है। लघु-गणक सारणी पुस्तक के अन्त में दी गई है। इस सारणी में कुछ ऊध्र्वाधर खाने हैं सबसे पहले खाने में 10 से लेकर 99 तक की संख्यायें क्रमानुसार लिखी गई हैं। प्रत्येक संख्या के सामने चार-चार अंकों वाली संख्याओं के 10 खाने हैं। सारणी में सबसे ऊपर इन ऊध्र्वाधर खानों में 0 से लेकर 9 तक अंक क्रमानुसार लिखे हुए हैं। इन खानों में आगे मध्यमान अन्तर शीर्षक के अन्तर्गत फिर 9 ऊध्र्वाधर खाने हैं। इसमें ऊपर 1 से लेकर 9 अंक तक क्रमानुसार लिखे गये हैं। प्रत्येक खाने में मध्यमान अन्तर के अंक लिखे हैं।
अपूर्णांश ज्ञात करने के लिए दी गई संख्या का दशमलव चिन्ह छोड़ दिया जाता है क्योंकि दशमलव की स्थिति का अपूर्णाश के मान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए 8934, 89.34, 8.934, 0.08934 तथा 0.008934 संख्याओं का पूर्णांश समान ही होता है। दी हुई संख्या में चाहे कितने भी अंक हों, अपूर्णांश संख्या के केवल चार अंकों से देखा जाता है। अपूर्णांश देखने के लिए संख्या के पहले दो अंकों को सारणी के पहले ऊध्र्वाधर स्तम्भ में ढूँढ कर उसके सामने संख्या के तीसरे अंक के नम्बर वाले खाने में लिखी संख्या को नोट कर लेते है। इसी के सामने मध्यमान-अन्तर के ऊध्र्वाधर खानों में संख्या के चैथे अंक वाले खाने में लिखी संख्या को पहली नोट की गई संख्या में जोड़ देते हैं। जोड़ने पर जो संख्या प्राप्त हो उसके पहले दशमलव लगा देते है। यही दी हुई संख्या के लघु-गुणक का अपूर्णांश होता है।
अतः दी गई संख्या का लघु-गणक = पूर्णांश ़ अपूर्णांश
उदाहरण के लिए 893.4 का लघु-गणक ज्ञात करने के लिए पहले पूर्णाश ज्ञात करते हैं फिर अपूर्णांश। इस संख्या में दशमलव से पहले तीन अंक हैं। अतः इसके पूर्णांश 2 होगा। अपूर्णांश ज्ञात करने के लिए पहले चार अंक ही लिये जाते हैं। संख्या में केवल चार अंक हैं। लघु-गणक सारणी के पहले खाने में 89 के आगे 3 अंक वाले ऊध्र्वाधर खाने में लिखी संख्या 9509 है इसको नोट कर लेते हैं। अब मध्यमान अन्तर वाले खानों में 89 के आगे 4 अंक के ऊध्र्वाधर खाने में लिखा अंक 2 संख्या 9509 में जोड़ देते हैं जोड़ने से प्राप्त 9511 संख्या के पहले दशमलव लगा देते हैं। यही अभीष्ट संख्या 893.4 के लघु-गणक का अपूर्णाश होता है जो 0.9511 है।
अतः संख्या 893.4 का लघु-गणक
= पूर्णांश ़ अपूर्णांश
= 2 ़ 0.9511
= 2.9511
दिये हुए लघु-गणक का प्रतिलघु-गणक ज्ञात करने के लिए प्रतिलघु-गणक सारणी काम में लेते हैं। इसकी विधि लघु-गणक के विपरीत है।
नोट-यदि दी गई संख्या के चार से अधिक अंक हैं जिसे 893.45, 893.456 आदि तब भी पहले चार अंकों का ही लघु-गणक देखा जाता है क्योंकि अधिकांश लघु-गणक सारणी चार अंकों के लिये ही होती है।
अध्याय 1. सामान्य निर्देश
[General Instructions]
विज्ञान की शिक्षा में प्रयोगात्मक अध्ययन का सबसे अधिक महत्त्व है क्योंकि विज्ञान की उन्नति का मुख्य तथा मूल कारण प्रयोगात्मक अध्ययन ही है। प्रयोगात्मक अध्ययन से अनेक जटिल भौतिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण हो जाता है।
प्रयोगशाला में कार्य करना तथा प्रयोग का लिखना
(Practical work in laboratory and recording of experiment in the practical file)
प्रयोगशाला में जाने से पूर्व विद्यार्थी को यह ज्ञात होना चाहिए कि उसे कौन-सा प्रयोग उस दिन करना है। प्रयोग की तैयारी पुस्तक की सहायता से करनी चाहिए। विद्यार्थी को प्रयोग के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। उसको यह पता होना चाहिए कि प्रयोग सम्बन्धी उपकरण कौन-कौन से हैं? विद्यार्थी को प्रयोग करने की विधि तथा विद्युत के प्रयोगों में विद्युत परिपथ का जोड़ना भी आना चाहिये। प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी प्रायोगिक पुस्तिका (Practical Note&Book) में प्रयोग निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत लिखना चाहिये।
प्रयोग संख्या……………………..
दिनांक ………………….
1. उद्देश्य (Object)
2. उपकरण (Apparatus)
3. सिद्धान्त (Theory) अथवा सूत्र (Formula)
4. प्रयोग विधि (Procedure)
5. प्रेक्षण एवं प्रेक्षण सारणी (Observations)
6. परिकलन (Calculations)
7. परिणाम (Result)
8. प्रतिशत त्रुटि (Percentage Error)
9. अनुमेय त्रुटि (Permissible Error)
10. सावधानियाँ (Precautions)
11. सम्भावित त्रुटियाँ (Possible Errors)
12. विवेचना (Discussion)
नोट-
1. प्रयोग के लिए आवश्यक चित्र बायें पृष्ठ पर बनाते हैं। विद्युत उपकरणों तथा प्रकाश के प्रयोगों में बायें पृष्ठ पर आरेख बनाना आवश्यक है।
2. मान ज्ञात करते समय परिकलन (गणना) भी बायें पृष्ठ पर करते हैं।
3. गणना लघु-गणक के प्रयोग द्वारा करना अति उत्तम रहता है।
आरेख- भौतिकी के प्रयोगों के सिद्धान्त के स्पष्टीकरण के लिए आरेखों का विशेष महत्व है। प्रयोग स्वच्छ, स्पष्ट एवं अकित आरेख प्रायोगिक पुस्तिका के बायें पृष्ठ पर पेन्सिल तथा पैमाने की सहायता से बनाना चाहिए। यह आरेख केवल रेखा आरेख होना चाहिए। चुम्बक सम्बन्धी प्रयोगों में चुम्बकीय बल रेखा तथा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा प्रकाश सम्बन्धी प्रयोगों में प्रकाश किरणों की दिशा तथा विद्युत परिपथ के आरेखों में विद्युत धारा की दिशा तीर के प्रदर्शित करना आवश्यक है। इसी प्रकार बलों की दिशा भी रेखाओं पर तीन के चिन्ह से दिखानी चाहिए।
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