सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर कहां स्थित है ? लक्ष्मण मंदिर का निर्माण किसने करवाया laxman temple sirpur built by in hindi
laxman temple sirpur built by in hindi सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर कहां स्थित है ? लक्ष्मण मंदिर का निर्माण किसने करवाया सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर में किस शासक का उल्लेख है ?
प्रश्न: गुप्तकालीन प्रमुख मंदिरों एवं उनकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए और यह बताइए कि ये कहां तक हिन्दू मंदिरों की नागर शैली का सही प्रतिनिधित्व करते हैं?
उत्तर:
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर – मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के सिरपुर नामक स्थान से ईंटों द्वारा निर्मित एक अन्य मंदिर प्राप्त होता है जिसका मात्र गर्भगृह अवशिष्ट है। इसे लक्ष्मण मंदिर कहा जाता है तथा इसका वास्तु भीतरगाँव मंदिर के ही समान है। प्रवेशद्वार के पार्श्व, डाट तथा चैखट के ऊपर गप्तकालीन अलंकरण उत्कीर्ण मिलते हैं।
तिगवा का विष्णु मंदिर – जबलपुर जिले में स्थित तिगवा के विष्णु मंदिर के गर्भगृह का व्यास लगभग आठ फुट है जिसके सामने चार स्तम्भो
पर टिका हुआ लगभग सात फुट का एक छोटा मण्डप बना है। स्तम्भों के ऊपर कलश तथा कलशों के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनाई गयी हैं। प्रवेशद्वार के पाश्वों पर गंगा तथा यमुना की आकृतियाँ उनके वाहनों के साथ उत्कीर्ण मिलती हैं। गंगा और यमुना की मूर्ति गुप्तकाल की देन है। तिगवा का एक मंदिर चपटी छत का है दूसरा जो बाद में बना था ऊंचे शिखर युक्त है।
एरण का विष्णु मंदिर – मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित मंदिर जो अब ध्वस्त हो चुका है। एरण में वराह और विष्णु के मंदिर हैं। स्तम्भ शीर्ष, गज, सिंह, नारीमुख आदि अभिप्रायों से अलंकृत है।
नचना-कुठार का पार्वती मंदिर – मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में स्थित नचना-कुठारा का पार्वती मंदिर का निर्माण वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है। गर्भगृह साढ़े आठ फुट चैड़ा है जिसके चारों ओर ढका हुआ बरामदा है। गर्भगृह के सामने स्तम्भ-युक्त मण्डप है। मंदिर पर चढ़ने के लिये चबूतरे में चारों ओर सोपान बनाये गये हैं। मंदिर की छत सपाट है।
भूमरा का शिव मंदिर – मध्य प्रदेश के सतना जिले में भूमरा नामक स्थान से पाषाण निर्मित इस मंदिर का गर्भगृह प्राप्त हुआ है। इसके प्रवेशद्वार के पाश्वों पर गंगा-यमुना की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके द्वार की चैखट भी अलंकरणों से सजायी गयी है। मंदिर की छत चपटी है। गर्भगृह के भीतर एकमुखी शिव लिंग स्थापित किया गया है। उसके सामने स्तम्भयुक्त मण्डप तथा चारों ओर प्रदक्षिणापथ मिलता है।
सतना जिले में ही उचेहरा के पास पिपरिया नामक स्थान से 1968 ई. में के.डी. वाजपेयी ने एक विष्णु मंदिर तथा मूर्ति की खोज की थी। यहां गर्भगृह का अलंकृत द्वारा मिला है। इसके अतिरिक्त सतना में खोह, उँचेहरा, नागौद तथा जबलपुर में मढ़ी नामक स्थानों से भी गुप्तकालीन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं।
देवगढ़ का शिखर युक्त दशावतार मंदिर – उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झांसी) जिले में देवगढ़ नामक स्थान से यह मंदिर प्राप्त हुआ है। सभी मंदिरों में देवगढ़ का दशावतार मंदिर सर्वाधिक सुन्दर है। इसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है। मंदिर का निर्माण एक ऊँचे एवं चैड़े चबूतरे पर किया गया है। मंदिरों की दीवारों पर शेषशय्या पर शयन करते हुये भगवान विष्णु, नरनारायण, गजेन्द्र मोक्ष, कृष्णावतार आदि के सुन्दर दृश्य उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के ऊपर पिरामिडनुमा ऊँचा तिहरा शिखर मिलता है। इसके चारों दिशाओं में चैत्याकार कीर्तिमुख (गवाक्ष) तथा इसके ऊपर बीच में खरबुजिया आकार का विशाल आमलक बना था। इस प्रकार जहां अन्य मंदिरों की छतें सपाट हैं, वहां यह मंदिर शिखर मंदिर का पहला उदाहरण है। इसे गुप्तकाल के उत्कृष्ट वास्तु का नमूना भी माना जा सकता है। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का शिखर शुरू में 40 फुट ऊँचा था। पर्सी ब्राउन बताता है कि पूर्णावस्था में देवगढ़ का दशावतार मंदिर इसके विभिन्न भागों में क्रम का दृष्टि से असाधारण था। कहा गया है कि बहुत कम स्मारकों में देवगढ़ के मंदिर की सी कारीगरी दिखाई गई है। इस मंदिर की मूर्तिकला में परिपक्वता और परिष्कृति दिखाई देती है।
मेहराब युक्त भीतरगाँव का ईंटों का मन्दिर रू यह मन्दिर उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण ईटों से किया गया था। यह मन्दिर एक वर्गाकार चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह भी वर्गाकार है। देवगढ़ के समान भीतरगाँव का मन्दिर भी शिखरयुक्त है। जिसका शिखर लगभग 10 फीट ऊंचा था। शिखर में चैत्याकार मेंहराब बनाए गए हैं। इस मन्दिर में यथार्थ मेहराब का प्रयोग हआ है। शिखर में चैत्याकार मेहराब बनाये गये हैं। बाहरी दीवारों में बने ताखों में हिन्दू देवी देवताओं-गणेश, आदिवाराह, दुर्गा, नंदी देवता आदि की मृण्मूर्तियाँ रखी गयी हैं।
प्रश्न: गुप्तकालीन मूर्तिकला पर एक लेख लिखिए और यह बताइए कि यह कला साम्प्रदायिक समन्वय का पालन कहां तक करती है?
उत्तर: गुप्तकाल के अभिलेखों में बुद्ध की मूर्तियों की स्थापना के अनेक उल्लेख मिलते हैं। 448 ई. के मनकुँवर लेख के अनुसार बुद्धमित्र नामक
भिक्षु ने बुद्धमूर्ति स्थापित की थी। 476 ई. के सारनाथ लेख के अनुसार अभयमित्र नामक भिक्षु द्वारा बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की। इस समय की बनी बुद्ध-मूर्तियाँ भी गन्धार शैली के प्रभाव से बिल्कुल अछूती हैं। कुषाण मूर्तियों के विपरीत उनका प्रभामण्डल अलंकृत है। गुप्त-युग की तीन बुद्ध मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं –
1. सारनाथ का बुद्ध-मूर्ति, 2. मथुरा की बद्ध-मर्ति. 3. सल्तानगंज की बद्ध-मर्ति जो इस समय बरमिंघम संग्रहालय में है।
सारनाथ की पाषाण बुद्ध-मूर्ति रू सारनाथ की बद्ध-मर्ति अत्यधिक आकर्षक है। यह लगभग 2 फट साढे चार इंच ऊंची है। इसमें बुद्ध पद्मासन में विराजमान हैं तथा उनके सिर पर अलंकृत प्रभामण्डल है। उनके बाल घुघराले तथा कान लम्बे हैं। उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी है। उनमें केवल बुद्ध मूर्ति के दीप्ति चक्र में विभिन्न प्रकार के ललित अलंकार प्रयोग किए गए। गुप्त कलाकारों ने पारदर्शक वस्त्र प्रयोग किए। उन मूर्तियों में कला की नवीनता तथा सजीवता दिखाई देती है। इसकी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति, गम्भीर मुस्कान एवं शांत ध्यानमग्न मुद्रा भारतीय कला की सर्वोच्च सफलता का प्रदर्शन करती है। दोनों खड़ी मुद्रा में हैं जिनकी ऊँचाई 7 फुट ढ़ाई इंच के लगभग है।
मथुरा की पाषाण बुद्ध मूर्ति रू पहली मूर्ति, जो मथुरा के जमालपुर से मिली थी, में बुद्ध के कंधों पर संघाटि है, उनके बाल धुंघराले हैं, कान लम्बे हैं तथा दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी हुई है। उनके मस्तक के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल है। दूसरी मूर्ति भी अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण है। बुद्ध की मुद्रा शांत एवं गम्भीर है तथा चेहरे पर मंद मुस्कान का भाव व्यक्त किया गया है।
सुल्तानगंज की तान बुद्ध मूर्ति रू पाषाण के अतिरिक्त इस काल में धातुओं से भी बुद्ध मूर्तियाँ बनाई गई। इनमें सुल्तानगंज (बिहार के भागलपुर जिले में स्थित) की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ताम्रनिर्मित यह मूर्ति साढ़े सात फुट ऊँची है। बुद्ध के बायें हाथ में संघाटि है तथा उनका दायां हाथ अभयमुद्रा में है। संघाटि का घेरा पैरों तक लटक रहा है।
हिन्दू मूर्तियां
गुप्त शासक वैष्णव मत के पोषक थे। अतः उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। . भीतरी लेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के काल में भगवान शांगिण (विष्णु) की एक मूर्ति स्थापित की गयी थी।
विष्णु का वराह अवतार रू गुप्तकाल में विष्णु के वराह अवतार की मूर्तियों का निर्माण किया गया है। इसी काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। उनके सिर पर मुकुट, गले में हार तथा केयूर एवं कानों में कुण्डल दिखाया गया है। मथुरा, देवगढ़, वराह तथा एरण से प्राप्त मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं।
देवगढ की वराह की मूर्ति रू देवगढ़ के दशावतार मंदिर से प्राप्त मूर्ति में उन्हें शेषशय्या पर विश्राम करते हुए दिखाया गया है। इसे श्अनन्तशायीश् कहा गया है। विष्णु के शरीर पर विविध अलंकरण हैं। उनके एक तरफ शिव तथा एरावत हाथी पर सवार इन्द्र की प्रतिमायें हैं। रामकष्ण की मूर्ति रू देवगढ़ मंदिर में राम और कृष्ण की काव्य-कथाओं के दृश्यों को चित्रित किया है। कृष्ण से संबंधित किंवदंतियाँ भी दिखाई गई हैं, जैसे कृष्ण का गोकुल जाना, दूध की गाड़ी को ठोकर मारना, कंस को बालों से पकडना आदि। एक दृश्य में कृष्ण, रुक्मिणि और सुदामा को इकट्ठे दिखाया गया है। श्रामायणश् के कुछ दृश्य भी प्रस्तुत किए गए हैं, जैसे राम, लक्ष्मण और सीता का वन-प्रस्थान, अगस्त्य ऋषि से उनकी भेंट, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा की नाक काटना आदि।
मथुरा की वराह मूर्ति रू मथुरा से प्राप्त विष्णु की मूर्ति गुप्त नम्य कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसमें संतोष और शांत आत्म-चिंतन दिखाई देता है। विष्णु की मूर्ति में मानव सिंह के साथ वराह और सिंह के सिर दिखाए हैं। गढ़वाल और मथुरा की विष्णु की मूर्तियों में एक केन्द्रीय मानव आकृति के चारों ओर दीप्तिमान सिर दिखाए गए हैं।
उदयगिरि की वराह की मूर्ति रू गुप्तकाल में विष्णु के वराह अवतार की मूर्तियों का निर्माण किया गया है। उदयगिरि से. इस काल की बनी हुई एक विशाल वराह प्रतिमा प्राप्त हुई है। वराहरूपी विष्णु अपना बायाँ पैर शेषनाग के मस्तक के ऊपर रखे हैं। उदयगिरि से प्राप्त मूर्ति में शरीर मनुष्य का है तथा मुख वराह का। वराह के कंधे के ऊपर भूमि देवी की आकृति है। पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए वराह अपने दांतों पर पृथ्वी को उठाए है जिसे नारी रूप में बनाया गया है। तरंगित रेखाओं से समृद्ध दिखाया गया है। गंगा और यमुना दोनों नारी के रूप में वराह भगवान का अभिषेक करने के लिए जलकलश लिए हुए हैं। धरान के बांई ओर अप्सराएं तथा दाई और ब्रह्मा, शिव आदि देवता और ऋषि हैं। वराह का शरीर हष्ट-पुष्ट है। गले में वनमाला है तथा वक्ष पर श्रीवत्स चिहन अत्यन्त सुन्दर है। यह प्रतिमा विष्णु के कल्याणकारी स्वरूप का प्रतीक है, जिन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वराह का रूप धारण किया था। डॉ. अग्रवाल ने लिखा है कि उदयगिरि की विशाल वाराह मूर्ति (लगभग 400 ई.) को गुप्त मूर्तिकारों की कुशलता का स्मारक माना गया है। इसका आकार और सशक्त परिष्कृति इसकी पृष्ठभूमि क छोटे आकार के दृश्यों के सम्मुख सुन्दर विषमता के रूप में प्रस्तुत होती है। दो पाश्विक दृश्य भी असाधारण महत्व लिए हुए हैं, जिनमें गंगा-यमुना के जन्म, प्रयाग में उनके संगम और सागर में उनके विलीन होने के दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।
शिव की मूर्ति रू विष्णु के अतिरिक्त इस काल की बनी शैव मूर्तियाँ भी प्राप्त होती है। इनमें करमण्डा (कमरदण्डा) से प्राप्त चतुर्मखी तथा खोह से प्राप्त एकमुखी शिवलिंग उल्लेखनीय हैं। एकमुखी शिवलिंग भूमरा के शिवमंदिर के गर्भगृह में भी स्थापित है। इन मूर्तियों को श्मुखलिंगश् कहा जाता है। इनमें शिव के सिर पर जटा-जूट, गले में रुद्राक्ष की माला तथा कानों में कुण्डल है। ध्यानावस्थित शिव के नेत्र अधखुले हैं तथा उनके होठों पर मन्द मुस्कान है। जटा-जूट के ऊपर अर्धचन्द्र विराजमान है।
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