ज्वालामुखी से निर्मित स्थलाकृति , ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित दो स्थालाकृतियों का नाम लिखें Landforms made by Volcanoes in hindi
Landforms made by Volcanoes in hindi ज्वालामुखी से निर्मित स्थलाकृति , ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित दो स्थालाकृतियों का नाम लिखें ?
ज्वालामुखी से निर्मित स्थलाकृतियाँ
(Landforms made by Volcanoes)
ज्वालामुखी के द्वारा भू-पृष्ठ एवं धरातल के नीचे अनेक प्रकार की स्थलाकृतियाँ बनायी जाती है। तप्त मेग्मा के ठंडे होने पर एक अन्य बाहर आये पदार्थ सतह पर नये भरूप का निर्माण करते हैं। इन स्थलाकृतियों को दो भागों में रखा जाता है।
बाहृा स्थलकृतियाँ
(Extrusive Topography)
(1) ज्वालामुखी शंकु (Volcanoes cones) -ज्वालामुखी से निर्मित होने वाली भूपृष्ठ पर यह सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति है। ज्वालामुखी से जो पदार्थ निकलते हैं मुख के समीप जमा होने लगते हैं व शंक्वाकार रूप ले लेते हैं। इनकी ऊँचाई कुछ फुट लेकर कई सौ मीटर तक पायी जाती है। आकार व विस्तार के अनुसार इन्हें कई नामों से पुकारा जाता है।
(i) लावा शंकु – इनके निर्माण में मुख्य भूमिका गर्भ से निकलने वाले लावा की होती है। एसिड लावा का शंकु ऊँचा पाया जाता है, जबकि वेसिक लावा से निर्मित शंकु कम ऊँचाई व मन्द ढाल का होता है।
(ii) सिडर शंकु – ये तीव्र विस्फोट वाले ज्वालामुखी के मुख के निकट बनते हैं। इनमें लावा के साथ शिलाखण्ड भी पाये जाते हैं। किनारे उत्तम होते हैं व आकृति पूर्ण शंकु जैसी होती है। इसमें राख का अंश ज्यादा होता है।
(iii) मिश्रित शंकु – इनका निर्माण विस्फोटक व प्रसुप्त ज्वालामुखी द्वारा होता है। इसमें लावा निक्षेपों की कई परत पायी जाती है, इसीलिये इसे स्तरीय शंकु (Strata cones) भी कहा जाता है। इसमें लावा, शिलाखण्ड, व राख सभी का मिश्रण होता है। फ्यूजियामा या मायोता इसी प्रकार के ज्वालामुखी हैं।
(iv) शील्ड शंकु – इसकी रचना लावा के तीव्र प्रवाह के फलस्वरूप होती है। लावा निक्षेप दूर तक फैल जाता है। आइसलैंड के शंकु इसी प्रकार के हैं।
(v) परिपोषित शंकु – कई बार पूर्व निर्मित शंकु की दीवारों को भेदकर लावा बाहर आता है व पुराना केन्द्र बंद हो जाता है। तब पूर्व शंकु ढालों पर छोटे नये शंकु का निर्माण होता है, जिसे परिपोषित शंकु कहा जाता है। माउण्ड शास्ता पर शास्तिना इसी प्रकार का है।
(2) लावा गुम्बद :- सतह पर ज्वालामुखी की नलिका लावा के ठोस हो जाने पर गुम्बदाकार पहाड़ी का रूप ले लेती है। इसे डाट गुम्बद (Plugdome) या (Volcanic Neck) भी कहते हैं।
(3) लावा पठार (Lava Plateau) :- दरारी ज्वालामुखी द्वारा विशाल लावा पठार व मैदान की रचना होती है। जब लम्बे समय तक किसी दरार से लावा बाहर आता रहता है, तब वह विस्तृत क्षेत्र में फैल जाता है। द.अमेरिका का पेंटागोनिया का पठार, अफ्रीका का अबीसीनिया का पठार व भारत का दक्खन का पठार इसी प्रकार निर्मित हुए हैं।
(4) क्रेटर व केल्डरा (Crater- Caldera) :- ज्वालामुखी नली के ऊपर निक्षेपित पदार्थों में एक गर्त बन जाता है जिसे क्रेटर कहते हैं। गैस व वाष्प की तीव्रता के कारण नली के आस-पास पदार्थों का निक्षेप कम होता है व चारों ओर लावा का शंकु बन जाता है व एक कीपनुमा आकृति बन जाती है। शंकु जितना बड़ा होगा उतना ही क्रेटर बड़ा बनता है। क्राकाटोआ ज्वालामुखी का क्रेटर का व्यास 6.4 कि.मी. है। कई बार ज्वालामुखी के शान्त हो जाने पर इसमें जल भर जाता है व झील का निर्माण हो जाता है। संयुक्त राज्य की क्रेटर लेक इसी प्रकार बनी है। क्रेटर के विस्तृत रूप को केल्डरा कहा जाता है। इसका व्यास 10 कि.मी. से भी अधिक हो जाता है जैसे जापान में ओसो, कनारी द्वीप का लाकाल्डेरा आदि। केल्डरा में झील में बदल जाते हैं। जैसे कनारी द्वीप की ला केल्डरा। अबिसीनिया की ताना झील, केलिफोर्निया की टाहो झील।
(5) धुआरे व जल स्रोत (Geyser – Hot springs) :- धुंआरे या गीजर से गर्म पानी फव्वारे की तरह सतह पर प्रकट होता है। आइसलैंड की भाषा में ‘गोसिट‘ का अर्थ अछलाता हुआ होता है। ज्वालामुखी नली के सहारे पानी वाष्प के साथ बाहर आता है। इसका तापक्रम 750 से 90° से.ग्रे. तक होता है। इसमें अनेक खनिज मिले रहते हैं। ज्वालामुखी में भूगर्भ का जल एकत्रित होकर पर गर्म हो जाता है तथा वाष्प् के दबाव के साथ ऊपर की ओर बड़ी तेजी से आता है। इसकी सतह पर ऊँचाई 200 से 300 फुट तक होती है। होम्स के अनुसार – “गीजर गर्म जल के स्रोत हैं जो कुछ समय के अन्तराल पर भूपृष्ठ पर गर्म जल व वाष्प तीव्रता के साथ छोड़ते हैं।‘‘
ज्वालामखी नलिका के नीचे भूगर्भ में जल के एकत्र होने पर तप्त लावा से संपर्क होने पर जल वाष्य में परिवर्तित हो जाता है तथा वाष्प बाहर निकलने का प्रयास करती है, जिसके साथ जल भी फव्वारे की तरह बाहर आ जाता है। उष्ण जल स्रोत से गेसर भिन्न होते हैं। यह कुछ रुक कर पानी व भाप बाहर फेंकते हैं जबकि उष्ण जलस्रोत में पानी हमेशा भरा रहता है व गर्म रहता है तथा पानी उछलता नहीं है। दोनों ही सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। प्रत्येक गीजर की अलग विशिष्टता होती है। कुछ गीजर निश्चित समय के पश्चात पानी वाष्प बाहर निकालते हैं जैसे सं.राज्य का ओल्ड फेथफल गीजर में प्रति 60 मिनट बाद जल निकलता है। 1870 से आज तक यह क्रम चल रहा है। कुछ गीजरों में इस प्रकार का कोई निश्चित क्रम नहीं होता है। जल के एकत्रीकरण, वाष्पीकरण के ताप व दाब के पारस्परिक संबंध पर यह निर्भर करता है।
आइसलैंड, न्यूजीलैंड में कई गीजर व जल कुंड पाये जाते हैं। अमेरिका के येलोस्टोन पार्क में अनेक गीजर व तप्त जलकुंड हैं। इसी प्रकार तिब्बत, भारत में हिमाचल प्रदेश में भी मिलते हैं। विश्व के प्रमुख गीजर आइसलैंड का ‘ग्रेट गेसर‘, अमेरिका का ‘ओल्ड फेथफुल गीजर‘,‘जाइण्ट‘, ‘केसल‘, ‘मिनिट्स मेन‘ व न्यूजीलैंड का ‘वायमांगू‘ प्रसिद्ध है।
(6) पंक ज्वालामुखी (Mud Volcanoes) :- गर्म जलस्रोतो के आस-पास कई स्थानों पर सूक्ष्म आकार के ऐसे शंकु देखने को मिलते हैं जिनसे लावा नहीं निकलता. वरन भाप, जल व कीचड़ का उद्गार होता रहता है। इनमें विभिन्न खनिज व रासायनिक पदार्थ घुले रहते हैं, जिससे इनका रंग अलग-अलग पाया जाता है। जब भाप व जल की मात्रा कम हो जाती है तो कीचड मख के आस-पास जम जाती है जो फिर से वाष्य द्वारा उखेड़ दी जाती है। यह प्रक्रिया कई बार होती है। इस प्रकार जो तप्त व दलदली भूक्षेत्र बनता है उसे पंक ज्वालामुखी कहते हैं।
आन्तरिक स्थलाकृतियाँ
(Intrusive Landforms)
जब ज्वालामुखी उद्गार धीमी गति से होता है और चट्टानों को भेदकर बाहर नहीं आ पाता तब ऊपर आता हुआ लावा चट्टानों की पर्तों के मध्य या रिक्त स्थानों में प्रवेश कर जाता है, जो वहीं ठंडा होकर चट्टान में परिवर्तित हो जाता है। इनके आकार व गहराई के आधार पर विभिन्न नामों से पुकार जाता है। अत्यधिक गहराई में लावा की विशाल मात्रा एक गुम्बद के रूप में ठंडा होकर कठोर हो जाता है तो उसे बेथोलिथ (Batholith) कहते हैं। कालान्तर में भूपटल हलचलों के कारण ये सतह पर प्रकट हो जाते हैं। संयुक्त राज्य के इडाहो प्रान्त में ऐसे जमाव देखे जा सकते हैं। इससे कुछ कम गहराई पर डोम आकृति में चट्टानों के बीच लावा का जमाव लैकोलिथ (Laccolith) कहलाता है। हेनरी पर्वत में ऐसे जमाव मिलते हैं। गहराई में जब लावा निक्षेप तश्तरी नुमा आकृति में जमकर चट्टान बन जाता है तब इसे लोपोलिथ (Lopolith) कहते हैं। अफ्रीका के ट्रांसवाल क्षत्र में ऐसे जमाव देखे जा सकते हैं। ये जमाव काफी विशाल आकृति के होते हैं। चट्टानों की परतों के मध्य जब लावा लहरदार रूप से चट्टानों की अपनतियों व अभिनतियों में जम जाता है तब इसे फेकोलिथ कहा जाता है। परतदार शैलों में समानान्तर परतों के मध्य लावा जमाव को सिल कहा जाता है। अफ्रीका के कारू क्षेत्र में ऐसे जमाव पाये जाते हैं। ज्वालामुखी नलिका या किसी अन्य स्थान पर जब लावा निक्षेप लम्ब रूप से कठोर होता है तो इसे डाइक (क्लाम) कहा जाता है।
उपरोक्त आकृतियों के अलावा महासागरों में ज्वालामुखी व उसके शंकु जमकर कठोर हो जाते है कालान्तर में उसका उत्थान हो जाने पर ये द्वीप का रूपल ले लेते है। प्रशान्त महासागर में अनेक ज्वालामुखी द्वीप पाये जाते हैं जैसे हवाई द्वीप, एल्यूशियन द्वीप आदि।
विश्व में ज्वालामुखी वितरण
(Distribution of Volcanoes)
सम्पूर्ण विश्व में 500 से अधिक सक्रिय ज्वालामुखी हैं व अनेक प्रसुप्त व शांत ज्वालामुखी पाये जाते हैं। महासागरों की तली में भी अनेक ज्वालामुखी पाये जाते हैं अतः इनकी सही संख्या बताना कठिन है। कई ज्वालामुखी समुद्री द्वीप के रूप में मिलते हैं, परन्तु इनके वितरण में एक क्रम दिखायी पड़ता है। ज्यादातर ज्वालामुखी महाद्वीपों के तटीय भागों में स्थित है। पृथ्वी पर भूकम्प व ज्वालामुखी क्षेत्रों में समानता है व दोनों में संबंध पाया जाता है। भूपृष्ठ पर नवीन मोड़दार पर्वतों व दरारी प्रदेशों में भी ज्वालामुखी पाये जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूपृष्ठ पर प्लेटों के किनारे या दरारी क्षेत्र जो कमजोर क्षेत्र (weak zones) कहलाते हैं, ज्वालामुखी के प्रमुख क्षेत्र है। ज्वालामुखी का वितरण एक बेल्ट के रूप में देखने को मिलता है। कुछ अपवाद स्वरूप एंटार्कटिका से आइसलैंड तक फैले हुए हैं।
(1) परि प्रशान्त महासागर तटीय पेटी (Pacific Circum Belt) :- विश्व के 88ः ज्वालामुखी इसी पेटी में स्थित हैं। यह प्रशान्त महासागर के चारों ओर तटीय द्वीपों में फैली है। एशिया के कमचटका प्रायद्वीप, जापान से शुरू होकर यह फिलीपीन्स, इण्डोनेशिया, फिजी, द्वीप समूहों से होती हुई न्यूजीलैंड व आगे एण्टाकटिका के निकट ग्राह्य द्वीप तक जाती है। प्रशान्त महासागर के पर्वी तटीय क्षेत्र में अलास्का के अल्यूशियन द्वीप समूह केलिफोर्निया घाटी, मैक्सिको मध्य अमेरिका. द.अमेरिका के एंडीज क्षेत्र से होती हुई टेण्डेल्फ यूगो तक चली गयी है। इस पेटी को अग्निवृत (Fiery Ring) भी कहा जाता है, क्योंकि यह 2/3 जागृत ज्वालामुखी पाये जाते हैं।
(2) मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid Continental Belt) :- यह पेटी आइसलैंड के हेलका पर्वत से शुरू होती है तथा अफ्रीका के केमरुन पर्वत तक जाती है। कनारी दीप से यह दो भागों में बँट जाती है। एक शाखा अरब क्षेत्र में जार्डनरिफर घाटी व लाल सागर होती हुई मध्य अफ्रीका की रिफ्ट घाटी तक जाती है. दूसरी शाखा स्पेन, इटली, मध्यवर्ती नवीन मोडदार पर्वत क्षेत्र से टर्की तथा भूमध्यसागरीय द्वीप ग्रीक सिसली से ईरान, इराक, अफगानिस्तान, म्यांमार होते हुए मलेशिया तक जाती है। भूमध्य सागरीय क्षेत्र में अनेक जागृत ज्वालामुखी स्थित हैं।
अन्य क्षेत्र:- इन पेटियों के अतिरिक्त कई स्थानों पर सुप्त ज्वालामुखी क्षेत्र पाये जाते हैं जैसे मेडागास्कर, सिशलीज द्वीप मारिशस व रीयूनियन द्वीप समूह। अन्धमहासागर में एजोर्स द्वीप एण्टार्कटिका के तटीय क्षेत्रों पर इरेबुस तथा टेरर ज्वालामुखी पाये जाते हैं।
ज्वालामुखी पृथ्वी के संरक्षणात्मक वाल्व (Safety valve) कहलाते हैं। इनके द्वारा पृथ्वी के गर्भ का अतिरिक्त ताप बाहर निकल जाता है व उसका सन्तुलन बना रहता है।
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