khalsa land meaning in hindi खालसा भूमि किसे कहते हैं समझाइए | खालसा भूमि की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब इतिहास ?
प्रश्न : मध्यकालीन राजस्थान की भू राजस्व प्रशासन व्यवस्था पर एक टिप्पणी कीजिये।
उत्तर : मध्यकाल में राज्य की आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार कृषि और कृषि राजस्व ही था। इस समय राजा भूमि का मालिक था इसलिए वह भूमिपति कहलाता था। उसे भूमि को देने तथा जब्त करने का अधिकार था। किसान वास्तव में खेती की भूमि , जो वंशानुक्रम से चली आती थी , उसे अपनी निजी समझते थे। मध्यकालीन राजस्थान में भू राजस्व व्यवस्था मुग़ल भू राजस्व व्यवस्था से प्रभावित थी। सभी रियासतों में कुछ बातों को छोड़कर लगभग समान भू-राजस्व व्यवस्था ही कायम थी। मध्यकालीन भू राजस्व व्यवस्था का निम्नलिखित बिन्दुओं में तहत विवेचन किया जा सकता है।
I. भूमि का वर्गीकरण : इस समय की भूमि का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जाता था।
(अ) राजस्व के आधार पर : राजस्व के आधार पर भूमि का निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण था।
खालसा भूमि : इस भूमि पर राज्य का सीधा नियंत्रण होता था। विभिन्न परगनों के अधिक पैदावार वाले गाँव खालसा भूमि में रखे जाते थे। इस भूमि में लगान निर्धारण और वसूल करने का कार्य राज्य (केन्द्र) के अधिकारियों द्वारा किया जाता था।
जागीर भूमि : यह भूमि सामंत और अन्य व्यक्तियों को राज्य के प्रति की जाने वाली सेवाओं के बदले में दी जाती थी।
इजारा भूमि : इस प्रणाली के अनुसार एक निश्चित परगना या क्षेत्र से राजस्व वसूली का अधिकार सार्वजनिक नीलामी द्वारा उच्चतम बोली लगाने वाले को निश्चित अवधि के लिए दे दिया जाता था।
शासन : यह भूमि पुण्यार्थ होती थी। उसे न तो अपहरण किया जाता था और न किसी को उसे बेचने का अधिकार था।
अनुदानित भूमि / माफीदार जोतें : खालसा क्षेत्रों में अनेक माफीदारी जोतें भी थी जो राजस्व की देनदारियों से मुक्त थी। यह भूमि विद्वानों , कवियों , ब्राह्मणों , चारणों , भाटों , सम्प्रदायों , पुण्यार्थ कार्यों आदि के लिए दी जाती थी। यह कर मुक्त होती थी। भूमिग्राही इसे बेच नहीं सकता था। इस प्रकार की भूमि विविध नामों से जानी जाती थी। इसके अंतर्गत ईनाम , अलूफा , खांगी , उदक , मिल्क , भोग , पुण्य इत्यादि भूमि अनुदान सम्मिलित थे। मुग़ल प्रभाव के कारण इसे मदद-ए-माश भी कहा जाने लगा।
(ब) उपजाऊपन और उत्पादकता के आधार पर वर्गीकरण :
उपजाऊ और सिंचाई वाली भूमि : इसमें बीड भूमि , माल भूमि , हकत वकत , पीवल भूमि , तलाई भूमि , चाही भूमि और मगरा भूमि आती थी।
चारागाह भूमि / चरनोता / चरणोता / चरणोत / गौचर : चरनोता उस भूमि को कहते थे जो पशुओं के लिए चारा उगाने के लिए छोड़ी जाती थी। ऐसी भूमि ग्राम पंचायत के नियंत्रण में होती थी। गाँव के सभी पशु सार्वजनिक रूप से इस भूमि पर चरते थे।
बंजर भूमि : यह वह भूमि थी जिस पर कभी खेती नहीं की जाती थी। सामान्यतया इसका उपयोग पशुओं को चराने के लिए किया जाता था। इस भूमि पर गाँव का सामूहिक स्वामित्व रहता था। बन्दोबस्त से पूर्व इसका उपयोग नि:शुल्क रूप से गाँव वालों द्वारा किया जाता था।
III. लगान निर्धारण प्रणाली :
बंटाई प्रथा / गला बख्शी / दानाबन्दी : भू राजस्व को लगान , भोग , हॉसिल तथा भोज आदि कहा जाता था। मध्यकाल में कर निर्धारण की अन्य प्रणालियों में सबसे प्राचीन तथा सामान्य प्रचलित प्रणाली बंटाई या गल्ला बख्शी थी। इसे “भाओली” भी कहा जाता था। इस प्रणाली के अंतर्गत फसल का किसान तथा राज्य के मध्य एक निश्चित अनुपात में बंटवारा किया जाता था। इसमें सामान्यतया उपज के 1/3 भाग पर राज्य का अधिकार होता था। इस प्रणाली में राजस्व का निर्धारण तीन तरह से होता था –
खेत बंटाई : इसमें फसल तैयार होते ही खेत बाँट लिया जाता था।
लंक बंटाई : इसमें फसल काटकर खलिहान में लाई जाती थी तब बंटवारा होता था।
रास बंटाई : अनाज तैयार होने के बाद बंटवारा होता था।
बंटाई प्रणाली में किसान नकद अथवा अनाज के रूप में कर देने के लिए स्वतंत्र था लेकिन तिजारती फसलों (कपास , अफीम , ईख , तिलहन आदि) पर कर नकद ही लिया जाता था।
काकंड : कूंत (कनकूत) : राजस्व निर्धारण की इस प्रणाली के अंतर्गत कुल उपज के ढेर अथवा खेत पर खड़ी फसल का स्थूल / मोटा अनुमान लगाकर भाग निर्धारित किया जाता था।
जब्ती : नकदी फसलों (गन्ना , कपास , अफीम , नील) पर प्रति बीघा की दर से राजस्व का निर्धारण और वसूली को जब्ती कहते थे।
लाटा : यह भू राजस्व वसूली के लिए अपनाई जाने वाली एक प्रणाली थी , जिसे बंटाई भी कहते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत जब फसल पककर तैयार हो जाती तथा खलिहान में साफ़ कर ली जाती थी , तब राज्य का हिस्सा सुनिश्चित किया जाता था। एकत्रित उत्पादन को तोलना या डोरी द्वारा नाप लेना तथा कहीं कहीं अनुमान से ही भू स्वामी का हिस्सा निश्चित कर दिया जाता था। बंटाई के समय राजकीय पदाधिकारी , हवलदार , चौधरी , पटवारी , कामदार तथा कृषक उपस्थित रहते थे।
मुकाता : राज्य द्वारा एकमुश्त राजस्व निश्चित कर दिया जाता था कि प्रत्येक खेत पर नकदी अथवा जिन्स (अनाज) के रूप में कितना कर देना है। इसे मुकता कहा जाता था।
लटारा : राजस्व निर्धारण की लाटा पद्धति के अंतर्गत जागीरदार किसान की फसल की कुंत करने के लिए जिन व्यक्तियों को भेजता था उन्हें ‘लटारा’ कहा जाता था।
भेज या नकदी : भू राजस्व के निर्धारण की इस पद्धति में नकदी में राजस्व वसूली की जाती थी। इस पद्धति को पूर्वी राजस्थान में ‘भेज’ नाम से जाना जाता था। भेज वाणिज्यिक फसलों गन्ना , अफीम , तिलहन , जूट , तम्बाकू , कपास और नील पर मुख्य रूप से वसूल किया जाता था। इनकी दर दो रुपये से दस रुपये प्रति बीघा होती थी।
IV. भू राजस्व प्रशासन : राजस्व , कर और भूमि व्यवस्था , जिनका मध्ययुगीन राजस्थान के घनिष्ठ सम्बन्ध था , एक राज्य से दूसरे राज्य में विभिन्न रूप था। भूमि के विभागों में खालसा , हवाला , जागीर , भोम तथा शासन प्रमुख थे।
खालसा भूमि : राजस्व के लिए दीवान के निजी प्रबन्ध में होती थी।
हवाला भूमि : की देखरेख हवलदार करते थे।
जागीर भूमि : के भागों के सीधा उपज का भाग मंदिर , मठ , चारण , ब्राह्मण आदि को पुण्यार्थ दिया जाता था। भूमि राजस्व (माल जिहाती या माल माल ओ जिहात) राज्य की आय का सबसे प्रमुख साधन था। राजस्व प्रशासन निम्नलिखित प्रकार थे –
राजपूत रियासतों में मुग़ल प्रभाव से प्रशासनिक तंत्र के प्रमुख का पदनाम “दीवान” रखा गया। यह मुख्य रूप से वित्त और राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियंत्रण रखता था। इसका अपना एक बहुत बड़ा विभाग था जिसमें अनेक उपविभाग होते थे जैसे दीवान ए खालसा (केन्द्रीय भूमि सम्बन्धी प्रशासनिक देखभाल) , दीवान ए जागीर , महकमा ए पुण्यार्थ आदि।
दीवान से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह राज्य की आमदनी बढाकर विभिन्न खर्चों की पूर्ति करेगा। इसे न्यायिक , वित्तीय , सैनिक तथा प्रशासनिक अधिकार प्राप्त थे।
आमिल : परगने में आमिल सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी था। आमिल का मुख्य कार्य परगने में राजस्व की वसूली करना था। भूमि राजस्व की दरें लागू करने और वसूली में अमीन , कानूनगों , पटवारी आदि उसकी सहायता करते थे। आमिल को अनेक प्रकार के कागजात रखने पड़ते थे जैसे – रबी और खरीफ को फसलों में राजस्व की दरें (दस्तूर अमल) , जमा और हासिल (जब्ती और जिन्सी दोनों प्रकार से) , इजारा भूमि (ठेकेदारी राजस्व व्यवस्था) आदि।
भू राजस्व दर : भूमि की उपज के भाग को वसूल करने के कई ढंग राजस्थान में प्रचलित थे। कीमती फसलों पर बीघा के हिसाब से “बिघोडी” ली जाती थी। उपज का 1/3 अथवा 1/4 भाग राजकीय हिस्सा सामान्यतया होता था। जप्ती तथा रैयती भूमि की वसूली में अंतर था। किसान को उपज के भाग के सिवाय अन्य कर भी देने पड़ते थे जो कई “बराडों” के रूप में लिए जाते थे। राहदारी , बाब , पेशकश जकात , गमीन बराड आदि कर मुगलों के संपर्क से राजस्थान में चालू हुए थे।