keeleri kunhikannan in hindi , कीलेरी कुन्नीकानन के बारे में जानकारी इतिहास क्या है सर्कस नाम
पढ़िए keeleri kunhikannan in hindi , कीलेरी कुन्नीकानन के बारे में जानकारी इतिहास क्या है सर्कस नाम ?
कीलेरी कुन्नीकानन (मृत्यु 1939 में) थालसेरी में हर्मन गुंडर्ट के बासेल इवेंगलिकल मिशन स्कूल में एक मार्शल आर्ट प्रशिक्षक और जिमनास्टिक प्रशिक्षक था।
उन्होंने छत्रे के निवेदन पर 1888 में पुलम्बिल गांव में कलारी, एक मार्शल आर्ट केंद्र, का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया। उसके प्रशिक्षित विद्यार्थियों ने छत्रे के ‘ग्रेट इंडियन सर्कस’ में काम किया। दरअसल, कीलेरी कुन्नीकानन भारतीय मार्शल आर्ट ‘कलारीपयट्टू’ के मास्टर थे। वह 1901 में कोल्लम शहर के गजदीक चिराक्कारा गांव में सर्कस स्कूल के निर्माण के लिए चले गए। यह स्कूल दक्षिणी क्षेत्र में अपनी तरह का पहला स्कूल था। इस स्कूल ने भविष्य के सर्कस उद्यमियों और साथ-ही-साथ कलाकारों को प्रशिक्षित कियाए जिन्होंने भारत एवं विश्व दोनों जगह प्रसिद्धि प्राप्त की। कानन बाॅम्बेयो रस्सी नृत्य में माहिर थे, जिन्होंने 1901 में स्कूल से प्रशिक्षण लिया और अमेरिका तथा यूरोपीय सर्कस में सर्कस प्रदर्शक के रूप में प्रसिद्धि हासिल की। कीलेरी कुन्नीकानन को भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है।
कुन्नीकानन के कुछ विद्यार्थी अपने सर्कस के निर्माण के लिए चले गए। 1924 में कल्लान गोपालन द्वारा व्हाइट वे सर्कस; फेयरी सर्कस; ग्रेट रैमन सर्कस की स्थापना की गई। ईस्टर्न सर्कस; ओरियंटल सर्कस; ग्रेट बाॅम्बे सर्कस, और द ग्रेट लाॅयन सर्कस की स्थापना के. एन. कुन्नीकानन ने की।
भारत में सर्कस
सर्कस एक चलती-फिरती कलाकारों की कम्पनी होती है, जिसमें नट, विदूषक, अनेक प्रकार के जागवर तथा विभिन्न प्रकार के अद्भुत, रोमांचक एवं हैरान कर देने वाले करतब दिखाने वाले कलाकार होते हैं। सर्कस एक वृत्तिय या अ.डाकार घेरे (रिंग) में दिखाया जाता है, जिसके चारों ओर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था होती है। अधिकतर यह सभी एक विशाल तम्बू के नीचे व्यवस्थित होता है।
सर्कस की प्राचीनता
मनोरंजन एवं विहार के स्रोत तथा प्रदर्शन कला के रूप में सर्कस की विभिन्न संस्कृतियों में गहरी जड़ें हैं। सर्कस शब्द सर्कल से बना है, जिसका अभिप्राय होता है ‘घेरा’। विभिन्न प्रकार की युक्तियों तथा प्रदर्शन में जिमनास्टिक और एक्रोबेटिक कलाएं शामिल होती हैं, जिससे भीड़ का मनोरंजन किया जाता है और प्रारंभिक समय के समाजों में ऐसा लगभग प्रत्येक समाज में होता था। ऐसे प्रदर्शन सड़कों, गली-नुक्कड़, मेलों या विशेष अवसरों पर राजदरबार में कि, जाते थे। इसका प्रदर्शन उन लोगों, समूहों या समुदायों द्वारा किया जाता था, जो सम्बद्ध या जरूरी कौशल में प्रशिक्षित थे। इस प्रकार, कलाबाजी, संतुलनकारी प्रदर्शन, हाथ की सफाई, इत्यादि प्राचीन कौशल और प्रदर्शन थे जिन्हें भारत, चीन, अरब, ग्रीस, रोम और मिस्र जैसे देशों की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में ढूंढ़ा जा सकता है। कुछ लोगों का छोटा दल जो किसी विशिष्ट हुनर का प्रदर्शन करता था उसे आधुनिक जिमनास्टिक और सर्कस से जोड़ा जा सकता है। विशेष रूप से, उनमें से कुछ गांव-गांव और शहर-शहर जाते थे और यहां तक कि अंतराष्ट्रीय रूप से विदेशी धरती पर लोगों को हैरतअंगेज करतब दिखाते थे और आजीविका एवं प्रतिष्ठा दोनों अर्जित करते थे। वे रस्सी पर नृत्य, रस्सी पर चलना तथा रस्सी पर अन्य करतब, कलाबाजी खाना,शरीर को ऐंठना, हाथ की सफाई, प्रशिक्षित जागवरों के खेल, सांस रोक देने वाले कौशल एवं दातों तले उंगलियां दबाने वाले करतब दिखाते थे।
आधुनिक सर्कस, जैसाकि हम आज जागते हैं, ने अपना नाम सर्कल (घेरा) से प्राप्त किया है। जब कलाबाजी एवं करतब, रोजमर्रा की चीजों के साथ हाथ की सफाई, सड़कों, मेले एवं लोगों के मनोरंजन के अन्य स्थानों पर जागवरों के साथ करतब होने लगे और लोग प्रदर्शक के चारों ओर इकट्ठा होकर उसके करतब देखने लगे और करतब दिखाने वाले के चारों ओर दर्शकों का एक घेरा बन जाता था, को सर्कल कहा जागे लगा और कालान्तर में सर्कस शब्द का प्रयोग किया जागे लगा।
एम्फीथिएटर एक प्रकार का गोलाकार स्टेडियम था, जो प्राचीन रोम में मौजूद था। एक आम भ्रम है कि आधुनिक सर्कस प्राचीन रोमन सर्कस से आया है। हालांकि, दोनों के बीच समान बात केवल ‘सर्कस’ शब्द हो सकता है। रोमन एम्फीथिएटर अपेक्षाकृत रूप से आधुनिक समय के गोलाकार रेसटैªक से अधिक सम्बद्ध हो सकता है। यद्यपि आधुनिक सर्कस के तत्व प्राचीन रोम में खोजे गए हैं, रोमन एम्फीथिएटर आधुनिक सर्कस के करतबों के लिए नहीं जागे जाते थे, जिनसे हम परिचित हैं, अपितु ऐसे कामों के लिए जागे जाते थे जिनका आधुनिक सर्कस में स्थान नहीं है। एम्फीथिएटर रक्तपात के प्रदर्शन को समर्पित थे। इसमें पेशेवर लड़ाका संबंधी युद्ध होते थे, जिसमें लड़ने वालों की मृत्यु हो जाती थी, खूनी रथ दौड़, पशुओं की हत्या, उपहासक लड़ाईयां जिसमें उपहास करने वाले योद्धा की मृत्यु हो जाती थी और नग्नावस्था सहित खूनी खेल होते थे। हालांकि, आधुनिक सर्कस में प्रशिक्षित जागवरों का प्रयोग और प्रदर्शन से पहले परेड जैसे तत्व प्राचीन रोम के सर्कस में पाए गए हैं। रस्सी पर नृत्य तथा रथ दौड़ का आयोजन ग्रीस में किया जाता था; चीनी लोग हाथ की सफाई और करतब दिखाया करते थे; अरब में, लोगों का मनोरंजन करने के लिए सार्वजनिक रूप से तीरंदाजी जैसे खेलों का प्रदर्शन किया जाता था( प्रारंभिक अफ्रीकी संस्कृतियों में करतब एवं नृत्य दोनों का सम्मिलन था; और मध्यकालीन यूरोप में गयारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के फ्रांस के भाट राजदरबारों और महोत्सवों में लोगों का मनोरंजन किया करते थे। भारत में, ऐसे गली-मोहल्ला के प्रदर्शकों की परम्परा थी, जो मेले में और महोत्सव के अवसर पर रस्सी, जिमनास्टिक करतबों और सांप, बंदरों, पक्षियों और अन्य जागवरों के साथ प्रदर्शन करते थे।
मसखरी और मूर्खतापूर्ण व्यवहार (मनोरंजन के लिए) लगभग सभी समाजों में मनोरंजन के साधारण माध्यम के रूप में मौजूद था, जिसका अपना विशेष महत्व था। जोकर या विदूषक बेहद लोकप्रिय थे, जैसाकि वे लोगों का बहुत
मनोरंजन करते थे।
आधुनिक सर्कस का उद्गम
प्राचीन रोम में भी सर्कस हुआ करते थे। बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। आधुनिक सर्कस घेरे गोलाकार प्रदर्शन क्षेत्र से सम्बद्ध है, जिसमें दर्शकों के बैठने और करतब दिखाने का स्थान होता है। यह सर्कस प्रदर्शन के लिए तैयार एक बड़े तम्बू या भवन में भी हो सकता है। घेरा दर्शकों के लिए कुर्सियों से घिरा होता है।
दुनिया का सबसे प्राचीन सर्कस रोम में था, जिसका निर्माण 2500 वर्ष पूर्व किया गया था और इसका नाम ‘मैक्सिमम’ था। आधुनिक सर्कस, पश्चिम में अट्ठारहवीं शताब्दी में उदित, फिलिप एशले (1742-1814) से सम्बद्ध है। फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी, 1768 को सर्कस का खेल दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इग्लैंड के जनबिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल, 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बर्नम एंड बेले सर्कस को विश्व का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक स्थान से दूसरे स्थान शो करने जागे के लिए पूरी दो टेªनों का उपयोग किया जाता है। इस बेड़े में 100 से अधिक हाथी और कई अन्य तरह के जागवर शामिल हैं। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में माॅस्को स्कूल सर्कस की स्थापना हुई।
आधुनिक समय में सर्कस में विभिन्न प्रकार के करतब दिखाए जाते हैं। सामान्यतः चीन एवं अफ्रीकी क्षेत्र में सर्कस अधिक करतब वाले होते हैं और उनमें प्रशिक्षित जागवरों का बेहद् कम प्रयोग किया जाता है। सर्कस एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाए जाते हैं लेकिन ये स्थायी भी हो सकते हैं, जैसाकि कुछ यूरोपीय सर्कसों की उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वयं की भव्य इमारतें थीं।
परम्परागत् सर्कस में हाथ की सफाई, हैरतअंगेज करतब, प्रशिक्षित जागवरों के करतब तथा जोकर और विदूषकों द्वारा दिखाए जागे वाले कई तरीके के प्रदर्शन शामिल थे। समकालीन सर्कस में हाथ की सफाई और संतुलनकारी करतब अधिक दिखाए जाते हैं और प्रशिक्षित जागवरों के करतब कम होते जा रहे हैं, चूंकि सर्कस की कठिन दिनचर्या और प्रशिक्षण जागवरों के लिए बेहद् तकलीफदेह होते हैं। इसी को लेकर सर्कस में जागवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जागवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। ग्रीस पहला यूरोपीय देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जागवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।
विश्व के सबसे पुराने सर्कसों में शामिल रिंगलिंग ब्रदर्स ए.ड बर्नम ए.ड बेली सर्कस 146 वर्ष के शानदार सफर के पश्चात् 21 मई, 2017 को बंद हो गया। स्मार्टफोन एवं इंटरनेट की इस दुनिया में उसके लिए दर्शक जुटाने मुश्किल हो गए थे। अमेरिका के विस्कोंसिन में शुरू हुआ यह सर्कस उस समय का मनोरंजन का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका था, फिर 1919 में रिंगलिंग ब्रदर्स ने बर्नम एंड बेली सर्कस को खरीद लिया और फिर सर्कस का पूरा नाम पड़ा ‘रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बर्नम एंड बेली सर्कस’। इस सर्कस को ‘द ग्रेटेस्ट शो आॅन अर्थ’ के तौर पर जागा जाता है, अर्थात् धरती का सबसे महान शो। दरअसल विगत् 146 वर्षों में इस सर्कस ने मनोरंजन की दुनिया में जो मुकाम हासिल किया है, उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता है। इस सर्कस की स्थापना 1871 में पांच भाईयों ने मिलकर की थी, जिन्हें रिंगलिंग ब्रदर्स के नाम से जागा जाता है।
आधुनिक भारतीय सर्कस
आधुनिक भारतीय सर्कस के खजागे या रंगपटल में, जैसाकि वर्णन किया गया है, विभिन्न प्रकार के करतब और प्रदर्शन शामिल हैं, जिनका प्रदर्शन परम्परागत रूप से विशिष्ट समुदाय के लोगों द्वारा गांवों एवं कस्बों में किया जाता था। घुमंतू मनोरंजन करने वाले इस कला में माहिर होते थे। अधिकांशतया, निचली जातियां एवं समुदाय राजदरबार एवं राजदरबारियों और साथ ही साथ धार्मिक त्योहारों के अवसर पर मेलों में लोगों का मनोरंजन करते थे। मनोरंजन करने की परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बीसवीं शताब्दी तक चलती रही। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों ने परम्परागत विरासत कला, दस्तकारी, प्रथाओं, रीति-रिवाजों और काम-धंधों को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पश्चिम-प्रेरित पेशों, व्यवसायों और जीवन शैली के आगमन के साथ खोया है, जिसने समस्त भारतीय संस्कृति एवं क्षेत्रों में जीवन एवं दृष्टिकोण के प्रति रवैये को विकसित एवं परिवर्तित किया। बीसवीं शताब्दी के प्रथम 25 वर्ष भारत में सर्कस के उत्थान के प्रति अत्यधिक क्रियाशील थे। इस दौरान कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए सर्कस स्कूल स्थापित किए गए और अधिकतर महाराष्ट्र और केरल में कई सर्कस स्थापित किए गए। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में, पूर्वी क्षेत्र में, उल्लेखनीय रूप से बंगाल तथा असम में, सर्कस शुरू किए गए।
आधुनिक भारतीय सर्कस के विकास की कुछ विशेषताएं थीं। शुरूआती दौर में इसमें घुड़सवारी जैसे प्रशिक्षित जागवरों के प्रदर्शन पर बल दिया गया और मानव करतबों पर कम ध्यान दिया गया। परियाली कानन का मालाबार ग्रांड सर्कस (1904) इसका अपवाद था। यहां पर मुख्य तौर पर कलाकारों द्वारा किए गए करतबों पर बल दिया जाता था और जागवरों द्वारा प्रस्तुत खेल पर कम ध्यान दिया जाता था। समय के साथ-साथ, यहां तक कि जब सर्कस विकसित हो चुका था, और करतब, विदूषक तथा अन्य कौशलों को प्रसिद्धि मिल चुकी थी, जंगली जागवरों का प्रशिक्षित कौशल सर्कस की मुख्य विशेषता बना रहा, जब तक कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में न्यायालय द्वारा सर्कस में जंगली जागवरों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित नहीं कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1990 में भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्कस में जंगली जागवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी।
हालांकि सर्कस की शुरूआत महाराष्ट्र में हुई, परंतु विकास में सर्वाधिक योगदान केरल का ही रहा और आज भी भारतीय सर्कस में केरल का ही दबदबा है। सर्कस कंपनियों की शुरूआत इन दो राज्यों में हुई और वे भारत एवं विदेश में सर्कस दिखाने गईं। इन दो राज्यों से अधिकतर सर्कस की महान विभूतियां निकलीं, जिन्होंने भारत में सर्कस की नींव डाली और उसमें महान योगदान दिया।
भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का गौरव महाराष्ट्र के विष्णुपंत छत्रे को है। उनका जन्म महाराष्ट्र के आधुनिक सांÛली शहर के अंकखोप गांव में हुआ था। वह कुर्दूवडी रियासत में चाकरी करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1871 में वह अपने राजा जी के साथ मुंबई में ‘राॅयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। उसके मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। इस अपमान को छत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक वर्ष के भीतर ही भारत की प्रथम सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की स्थापना की और खेल दिखाया। छत्रे का ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ भारतीय द्वारा दिखाये जागे वाले पहले आधुनिक सर्कस शो के रूप में उदित हुआ। शो की शुरूआत 20 मार्च, 1880 को कुर्दुवाड के महल के मैदान में चुनिंदा दर्शकों के लिए की गई। इसका उद्घाटन महाराजा बालासाहेब पटवर्धन, जिन्होंने सर्कस शुरू करने में छत्रे की मदद की थी, के निवेदन पर बाॅम्बे के गवर्नर जेम्स फग्र्युसन ने किया था।
शुरूआती दौर में आधुनिक महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में शो दिखाने के साथ, ग्रेट इंडियन सर्कस ने पूरे भारत उत्तरी क्षेत्र, मद्रास, और विदेशों में शो दिखाना शुरू कर दिया। छत्रे ने सर्कस दिखाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का भी दौरा किया। वह भारत लौट आ, और अपने क्षेत्र के भीतर सर्कस दिखाने पर ध्यान दिया। अपने एक सर्कस दौरे में, जब वह केरल में थालसेरी (तेलीचेरी) के दौरे पर थे, वह कीलेरी कुन्नीकानन से मिले और उनसे सर्कस में करतब दिखाने के लिए कलाकारों को प्रशिक्षित करने की प्रार्थना की। उन्होंने गौर किया कि पश्चिमी सर्कस में करतब दिखाने वाले कलाकार अश्वारोही कौशल में पारंगत हैं जबकि उनके कलाकारों में इस कौशल का अभाव है।
दो दशकों के लिए, छत्रे के सर्कस ने व्यापक रूप से भ्रमण कर सर्कस दिखाया और ढेर सारे पुरस्कार प्राप्त किए। बाॅम्बे विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें ‘प्राध्यापक’ की उपाधि प्रदान की गई। फरवरी 1905 में उनकी मृत्यु हो गई।
छत्रे की विरासत को अन्य लोगों ने आगे बढ़ाया जो उनसे जुड़े हुए थे, विशिष्ट रूप से उनके विद्यार्थियों ने। सदाशिव राव एन. कार्लेकर, विष्णुपंत छत्रे के सर्कस में एक पशु प्रशिक्षक, ने 1888 में ग्रांड सर्कस नामक स्वयं का एक सर्कस अपनी जन्मस्थली सांÛली (महाराष्ट्र) में स्थापित किया।
एक अन्य जंगली जागवरों के प्रशिक्षक परशुराम राव माली ने अपने बड़े भाई, कृष्णा राव माली, के साथ मिलकर एक छोटे सर्कस का प्रारंभ किया। मिराज के निकट महीसाल गांव के निवासी वेंकट राव देवल या बाबा साहिब (1920 में मृत्युद्ध ने 1895 में देवल सर्कस की स्थापना की, जो महाराष्ट्र राज्य में पांचवां सर्कस था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में केरल में सर्कस के प्रति बढ़ती रूचि भारत में सर्कस के विकास में एक गिर्णायक मोड़ था। तब तक, महाराष्ट्र, भारत में उदीयमान सर्कस का केंद्र बन गया।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics