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उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम 1951 क्या है | industries (development and regulation) act 1951 in hindi

industries (development and regulation) act 1951 in hindi उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम 1951 क्या है ?

औद्योगिक (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951
देश में औद्योगिक विकास को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए संसद द्वारा अक्टूबर, 1951 में एक अधिनियम पारित किया गया जिसे उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 के नाम से जाना जाता है। यह अधिनियम 8 मई, 1952 से लागू हो गया। यद्यपि कि इसका लक्ष्य निजी क्षेत्र का विकास और विनियमन दोनों था, परन्तु वर्षों बीतने पर भी इसका मुख्य कार्य विनियमन पहलू पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना रहा है। इस भाग में आप इसके उद्देश्यों और उपबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

 उद्देश्य
यह अधिनियम इन उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहता था, वे (प) नियोजन प्राथमिकताओं और लक्ष्यों के अनुरूप औद्योगिक निवेश तथा उत्पादन का विनियम; (पप) बृहत् उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से छोटे उद्यमियों का संरक्षण; (पपप) एकाधिकार और उद्योगों के स्वामित्व के केन्द्रीकरण का निवारण; और (पअ) अर्थव्यवस्था के विभिन्न प्रदेशों के विकास के स्तरों में विषमता को कम करने की दृष्टि से संतुलित प्रादेशिक विकास। यह आशा की गई थी कि औद्योगिक लाइसेन्सिंग की व्यवस्था के माध्यम से राज्य:
प) सर्वाधिक प्रमुख शाखाओं में प्रत्यक्ष निवेश कर सकेगा;
पप) घरेलू बाजार में आपूर्ति और माँग के बीच परस्पर संबंध स्थापित कर सकेगा;
पपप) प्रतिस्पर्धा समाप्त कर सकेगा; और
पअ) सामाजिक पूँजी का अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित कर सकेगा।

अधिनियम के उपबंध
औद्योगिक अधिनियम के दो उपबंधों का प्रतिबंधात्मक उपबंध और सुधारात्मक उपबंध में विभेद किया जा सकता है।

प् प्रतिबन्धात्मक उपबंध
इस श्रेणी के अंतर्गत उद्योगों द्वारा अपनाए जाने वाले अनुचित व्यवहारों को नियंत्रित करने के सभी उपाय सम्मिलित हैं। ये उपबंध निम्नवत् थे:

प) औद्योगिक उपक्रमों का पंजीकरण और लाइसेन्सिंग
उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 की अनुसूची में शामिल किए गए सभी उद्योगों के उपक्रमों का चाहे वे निजी क्षेत्र में हों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र में, पंजीकरण अपेक्षित है। यदि विद्यमान उपक्रम अपने कार्यकलापों का विस्तार भी करना चाहते थे तो उन्हें सरकार की पूर्वानुमति की आवश्यकता थी।

पप) अनुसूची में सूचीबद्ध उद्योगों की जाँच
राज्य का उत्तरदायित्व उपक्रमों के पंजीकरण अथवा उन्हें लाइसेन्स प्रदान करने के साथ ही नहीं समाप्त हो जाता है। यदि किसी विशेष उपक्रम का कार्यकरण संतोषप्रद नहीं था (उदाहरण के लिए मान लीजिए, क्षमता का कम उपयोग हो रहा था अथवा, उत्पाद की गुणवत्ता अच्छी नहीं थी अथवा उत्पादन लागत और मूल्य अत्यधिक थे), सरकार उस विशेष उपक्रम के कार्यों की पड़ताल के लिए जाँच बैठा सकती है; और

पपप) पंजीकरण और लाइसेन्स का उन्मूलन (रद्द करना)
यदि कोई विशेष औद्योगिक उपक्रम ने गलत जानकारी देकर औद्योगिक लाइसेन्स और पंजीकरण प्राप्त कर लिया था तो सरकार पंजीकरण को रद्द कर सकती है। इसी तरह से सरकार, यदि विनिर्दिष्ट अवधि के अंदर उपक्रम स्थापित नहीं किया जाता है, तो उसके लाइसेन्स को रद्द कर सकती है।

प्प् सुधारात्मक उपबंध
इस श्रेणी में निम्नलिखित उपबंधों पर विचार किया गया:

प) सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विनियमन अथवा नियंत्रण
यदि सरकार यह महसूस करती है कि कोई विशेष उद्योग संतोषप्रद ढंग से नहीं चलाया जा रहा था तो यह सुधार के लिए दिशा निर्देश जारी कर सकती थी। यदि इन दिशा निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया गया सरकार उस इकाई का प्रबन्धन और नियंत्रण अपने हाथ में ले सकती थी।

पप) मूल्य, वितरण, पूर्ति इत्यादि पर नियंत्रण
इस अधिनियम में सरकार को, यदि वह ऐसा चाहे, अधिनियम की अनुसूची में सूचीबद्ध उद्योगों की इकाइयों द्वारा विनिर्मित उत्पादों की आपूर्ति, वितरण और मूल्य विनियमित अथवा नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त था; और

पपप) रचनात्मक उपाय
परस्पर विश्वास पैदा करने तथा कर्मकारों से सहयोग प्राप्त करने के लिए सरकार ने केन्द्रीय सलाहकार परिषद् और विभिन्न उत्पादों के लिए कई विकास परिषदों की स्थापना की।

बोध प्रश्न 1
1) औद्योगिक अधिनियम 1951 के मुख्य उद्देश्य क्या थे ?
2) बताइए निम्नलिखित कथन सही हैं अथवा गलत:
क) उपबंध में, सरकार को निजी क्षेत्र के उत्पादों की पूर्ति, वितरण और मूल्य नियंत्रित करने का अधिकार था।
ख) औद्योगिक अधिनियम का उद्देश्य एकाधिकार पर रोक लगाना नहीं था।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) उपभाग 8.2.1 पढ़ें।
2) (क) सही (ख) गलत।

उद्देश्य
यह इकाई स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अवधि में देश के औद्योगिकरण में भारत सरकार की सक्रिय भूमिका की समग्र तस्वीर प्रस्तुत करती है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ वर्ष 1948 और 1956 के दो प्रमुख औद्योगिक नीति संकल्पों को समझ सकेंगे;
ऽ संकल्पों के अंग के रूप में स्वीकार किए गए उपायों को जान सकेंग;े और
ऽ उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन कर सकेंगे।

प्रस्तावना
औद्योगिक नीति से अभिप्राय देश में औद्योगिक विकास के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई रणनीति से है। आरम्भ में औद्योगिक नीतियाँ सामान्यतया (क) मिश्रित अर्थव्यवस्था, और (ख) समाजवादी नियोजन के ढाँचा के अंदर ही स्वीकार की गई थी। इसका उद्देश्य सरकार द्वारा ‘‘उल्लेखनीय उपलब्धियों‘‘ पर आधिपत्य जमाना और उसके द्वारा अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा में ले जाना था। भारत में, इसके लिए भी कतिपय औद्योगिक नीति उपाय किए गए हैं। जब 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ, अर्थव्यवस्था का औद्योगिक आधार अत्यन्त ही छोटा था और उद्योग कई समस्याओं जैसे कच्चे मालों की कमी, पूँजी का अभाव, तनावपूर्ण औद्योगिक संबंध इत्यादि से घिरे हुए थे। निवेशक नई राष्ट्रीय सरकार की औद्योगिक नीति के बारे में आश्वस्त नहीं थे और औद्योगिक (और निवेश) परिवेश अनिश्चितताओं तथा आशंकाओं से व्याप्त था। इस प्रकार सरकार ने स्थिति को सुधारने और निवेशकों तथा उद्यमियों के मन से अनिश्चितता एवं आशंकाओं को निकालने के लिए दिसम्बर 1947 में औद्योगिक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन ने औद्योगिक शांति के लिए एक संकल्प स्वीकार किया और सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र के बीच उद्योगों के स्पष्ट विभाजन की सिफारिश की।

सारांश
इस इकाई में देश में औद्योगिक विकास की प्रक्रिया को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए अक्टूबर 1951 में संसद द्वारा पारित उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम जो 8 मई, 1952 से लागू हुआ पर चर्चा की गई। यह दो प्रमुख प्रावधान प्रस्तुत करता है जो प्रतिबंधात्मक उपबंध और सुधारात्मक उपबंध के रूप में जाने जाते हैं।

इस अधिनियम के पारित होने से पूर्व, भारत सरकार ने अपनी पहली औद्योगिक नीति संकल्प 1948 में घोषित की थी। सामाजिक न्याय के साथ विकास और औद्योगिकरण को बढ़ावा देने के लक्ष्य से इसने उद्योग को चार क्षेत्रों में विभाजित किया: राज्य एकाधिकर, मिश्र क्षेत्र, विनियमित क्षेत्र और निजी क्षेत्र। बाद में तत्कालीन दशाओं के मद्देनजर, सरकार ने 1956 में अपनी दूसरी औद्योगिक नीति की घोषणा की जिसमें विनियमित क्षेत्र का कोई उल्लेख नहीं था। किंतु लघु उद्योगों और कर्मकार-प्रबन्धन के बीच अच्छे संबंधों के महत्त्व को स्वीकार किया गया।

वर्ष 1970 की लाइसेन्सिंग नीति में भारी निवेश क्षेत्र की परिभाषा की गई जिसमें 5 करोड़ रु. से अधिक निवेश वाले उद्योग सम्मिलित किए गए थे। वर्ष 1973 में औद्योगिक लाइसेन्सिंग वक्तव्य में जिस प्रमुख परिवर्तन की घोषणा की गई वह थी ‘‘बड़े घरानों‘‘ की नई परिभाषा स्वीकार करना। बड़े औद्योगिक घरानों की परिभाषा उन घरानों के रूप में की गई थी जिनकी परिसम्पत्तियाँ 20 करोड़ रु. से अधिक थी, जबकि 1970 की नीति में इसके लिए 35 करोड़ रु. से अधिक की परिसम्पत्तिमाँ-विनिर्दिष्ट की गई थीं। इसके साथ ही, 1956 के संकल्प में कतिपय महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए। वर्ष 1973 की नई नीति वक्तव्य में सरकार ने दत्त समिति की ‘‘संयुक्त क्षेत्र‘‘ स्थापित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

वर्ष 1980 के दशक में औद्योगिक नीतियों की मुख्य विशेषताएँ लाइसेन्स समाप्त करने के उपाय और निर्यात उत्पादन के लिए प्रोत्साहनों का प्रावधान था। इतना ही नहीं, प्रचालन के न्यूनतम आर्थिक स्तरों तक उपक्रमों की विद्यमान अधिष्ठापित क्षमता के विस्तार द्वारा बड़े पैमाने की मित्व्ययिता को प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देने हेतु 108 उद्योगों के लिए न्यूनतम आर्थिक क्षमता विनिर्दिष्ट की गई।

शब्दावली
मुख्य क्षेत्र (Core Sector) ः इस क्षेत्र में रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने वाले अथवा राष्ट्रीय महत्त्व के उद्योग सम्मिलित हैं जैसे लौह तथा इस्पात, पेट्रोलियम, जहाज-निर्माण, अखबारी कागज ।
फेरा ः विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (फेरा) ने भारतीय रिर्जव बैंक को विदेशी कंपनियों तथा भारत में विदेशी राष्ट्रिकों के कार्यकलापों को विनियमित करने का अधिकार दिया।
संयुक्त क्षेत्र ः वह क्षेत्र जिसमें सार्वजनिक उद्यम और निजी उद्यम दोनों संयुक्त रूप से उत्पादन कार्यकलाप संगठित करते हैं।
मध्य क्षेत्र ः वह क्षेत्र जिसमें निजी और सार्वजनिक उपक्रमों दोनों को कार्य संचालन की अनुमति प्रदान की गई।
एकाधिकार ः वस्तु का एकमात्र उत्पादक।
लघु उद्योग ः उद्योग जो 10-15 श्रमिकों की सहायता से संचालित किया जाता है।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें एवं संदर्भ
अग्रवाल, ए.एन. (1996). इंडियन इकानॉमी: प्रॉब्लम्स ऑफ डेवलपमेंट एण्ड प्लानिंग, विश्व प्रकाशन। बाला, एम., (2003). सीमेण्ट इण्डस्ट्री इन इंडिया: पॉलिसी, स्ट्रकचर एण्ड पोमेन्स, शिप्राः पब्लिकेशन्स, दिल्ली, अध्याय 2।
भगवती, जे.एन., और पी. देसाई, (1970). इंडिया: प्लानिंग फॉर इन्डस्ट्रियलाइजेशन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस; लंदन, 1970।
चैधरी, एस., (1998). ‘‘डिबेट्स ऑन इन्डस्ट्रियलाइजेशन‘‘। बायर्स, टी.जे., संपा., दि इंडियन इकानॉमी: मेजर डिबेट्स सिन्स इन्डीपेन्डेन्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस: दिल्ली।
मिश्रा, एस.के., और वी.के. पुरी, (2001). इकनॉमिक्स ऑफ डेवलपमेंट एण्ड प्लानिंग: थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस, हिमालय पब्लिशिंग हाउस।
मुखर्जी, डी., संपा., (1997). इंडियन इण्डस्ट्री: पॉलिसीज एण्ड पोर्मेन्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस: दिल्ली।