WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

औद्योगिक नियोजन अधिनियम 1946 क्या है | स्थायी आदेश अधिनियम का अर्थ industrial employment act 1946 in hindi

industrial employment act 1946 in hindi औद्योगिक नियोजन अधिनियम 1946 क्या है | स्थायी आदेश अधिनियम का अर्थ industrial employment (standing orders) act, 1946 pdf in hindi ?

 नियोजन संबंधी विधान
मूल अधिनियम जो एक औद्योगिक कर्मचारी की प्रस्थिति और नियोजक के साथ उसका/उसकी संबंध को परिभाषित करता है “औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946‘‘ कहा जाता है। यह पहली बार 1946 में पारित हुआ तथा बाद में इसमें अनेक बार संशोधन किए गए। इस केन्द्रीय अधिनियम में भर्ती की शर्ते, स्थायीकरण, कदाचार, सेवा-मुक्ति, अनुशासनात्मक कार्रवाई, छुट्टी, अवकाश इत्यादि और नियोजकों द्वारा अधिक से अधिक यथावत् शब्दों में अपने कर्मचारियों को इन शर्तों से अवगत कराना अपेक्षित है। यह अधिनियम पूरे भारत में और इस समय सभी प्रतिष्ठानों जिसमें 50 या अधिक श्रमिक नियोजित किए जाते हैं अथवा पिछले 12 महीनों में किसी भी दिन नियोजित थे, पर लागू है।

कतिपय महत्त्वपूर्ण मानदंडो को निर्धारित करने में औद्योगिक नियोजन अधिनियम के साथ-साथ अन्य अनेक अधिनियम भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, कानूनी दृष्टि से, फैक्टरी किसे माना जाए अथवा श्श्रमिक कौन है और कौन नहीं है, यह परिभाषित करना अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। इन परिभाषाओं के लिए और नियोजन को बुनियादी रूप से पहचानने के लिए हमें कुछ प्रसिद्ध केन्द्रीय अधिनियमों का उल्लेख करना चाहिए – कारखाना श्रमिकों के लिए कारखाना अधिनियम, 1948

उद्देश्य
यह इकाई नियोजन, मजदूरी और औद्योगिक विवादों को शासित करने वाले विधानों तथा विनियामक ढाँचे से संबंधित है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ औद्योगिक उत्पादन से संबंधित विनिर्दिष्ट विधानों के आर्थिक कारणों के बारे में जान सकेंगे;
ऽ श्रमिक की नियोजन स्थिति को शासित करने वाले अधिनियमों के बारे में जान सकेंगे;
ऽ मजदूरी, बोनस और सेवानिवृत्ति प्रसुविधाओं के भुगतान से संबंधित अधिनियमों का अध्ययन कर सकेंगे; और
ऽ श्रमिकों और नियोजकों के बीच सौदाकारी तथा उनके बीच किन्हीं विवादों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले विधानों को समझ सकेंगे।

प्रस्तावना
हमें उत्पादन के संगठन के लिए स्पष्ट कानूनों की आवश्यकता क्यों होती है? आखिकरकार हम अपने दैनिक जीवन में सभी तरह के श्रमिकों (घरेलू नौकरानियाँ, सुरक्षा गार्ड, कूड़ा इकट्ठा करने वाले, बढ़ई इत्यादि) को वकील का परामर्श लिए बिना, अथवा ऐसे नियोजन से संबंधित किसी भी कानून को जाने बिना पारिश्रमिक पर रख लेते हैं। सामान्यतया यह परस्पर विश्वास और स्थानीय प्रथाओं पर चलता है और जब तक कि कोई एक पक्ष विश्वासघात नहीं करता है हमें यह चिन्ता करने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि क्या किया जा सकता है। किंतु यह क्या किया जा सकता हैश् वाक्यांश अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है जब उत्पादन में बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होते हैं और विशेषकर जब विश्वासघात अथवा समझौतों के उल्लंघन से भारी हानि हो सकती है। इसलिए विश्वासघात के संभावित परिणामों की जानकारी से सबको अवगत होने के लिए प्राथमिकता नियम (Priori Rules) अवश्य होना चाहिए।

और अधिक विस्तार में, एक फर्म सिर्फ उत्पादन सुविधा नहीं है। यह विशेषकर एक आम निधि है जिसमें सभी भागीदार श्रमिक, प्रबन्धक, ऋणदाता तथा शेयरधारक – अपने संसाधन नई परिसम्पत्तियों के सृजन के लिए रखते हैं। आर्थिक कार्यकलापों को गठित करने के लिए संविदा के महत्त्व पर अवश्य ही बल देना चाहिए। संविदाओं के अनुकूलतम रूप में तैयार करने और उनके अनुकूलतम कार्यान्वयन के लिए कानूनों की आवश्यकता होती है। निःसंदेह, उनके उद्यम की सफलता अनेक कारकों पर निर्भर करेगी जैसे उनके सहयोग का इतिहास, एक दूसरे पर विश्वास करने की क्षमता, सूचना का आदान-प्रदान और इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बाजार दशाएँ। चूंकि उनके आदानों पर स्वामित्व से अधिशेष पर उनका अंतिम दावा निर्धारित होता है, भागीदारों के हितों में भी टकराव होता है जो उनके सहयोग को अस्थिर कर देता है। अतएव, ऐसे टकरावों को नियंत्रण में रखने के लिए उपयुक्त विधानों और विनियमों की आवश्यकता होती है। ऐसे नियमों के बिना, बड़े पैमाने पर उत्पादन का संगठन नहीं किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, यदि सहमत मजदूरी पर श्रमिकों के दावा के संरक्षण के लिए कोई कानून नहीं होता तो अनेक नियोजक काम हो जाने के बाद और इस आशा में कि समस्या पैदा करने वाले श्रमिक ऐसे फर्मों से दूर ही रहें, मजदूरी के भुगतान में चूक करने के प्रलोभन में पड़ जाता। अतएव, हमें यह आश्वस्त करने के लिए कि सभी भागीदारों को उनका दावा मिलेगा, प्रायः हरबार यह सुनिश्चित करने के लिए कि पारस्परिक लाभ की सभी संभावनाओं का लाभ उठाया जाए, कानून की आवश्यकता पड़ती है।

इस तर्क को दक्षता तर्क कहते हैं क्योंकि यह औद्योगिक कार्यकलापों का संचालन सुनिश्चित करने के लिए कानून की भूमिका पर बल देता है। किंतु अन्य दृष्टिकोण भी हैं जो प्रत्येक को न्याय और सामाजिक कल्याण के आधार पर कानून की आवश्यकता का औचित्य सिद्ध करते हैं। ये दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे के पूरक के रूप में देखे जा सकते हैं।

यह दक्षता दृष्टिकोण दो मुख्य परिणामों को सामने रखता है जिसके माध्यम से दक्षता कार्य करता है: (क) घटनोत्तर प्रभाव और (ख) प्रत्याशित प्रभाव । घटनोत्तर प्रभाव का अभिप्राय अवसरवादी व्यवहार को दंडित करना और हानियों के लिए क्षतिपूर्ति करना है। एक बार क्षति पहुँचाने के बाद कानून दंडात्मक भूमिका निभाता है। किंतु सहयोग के लिए सहमति के चरण में प्रत्याशित प्रभाव के संबंध में, कानून उत्पादन में भागीदारी के लिए प्रोत्साहन का प्रावधान करता है। दोनों का संयुक्त प्रभाव अधिक से अधिक आर्थिक कार्यकलापों को प्रोत्साहित करता है। किंतु हो सकता है यह आवश्यक रूप से सृजित अधिशेष का समुचितश् वितरण नहीं कर सके । यही कारण है कि सामाजिक हित तर्क अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। अतिरिक्त कानून और विनियम प्रत्येक पक्ष को उसका समुचित हिस्सा सुरक्षित करने में सहायता करते है। उदाहरणस्वरूप, कभी-कभी वितरण न्याय दक्षता का समर्थन करता है: जब श्रमिकों को बोनस दिया जाता है, सकल लाभ में वृद्धि का प्रयास उनके हित में है जो वास्तव में श्रमिकों को मूल मजदूरी के अतिरिक्त उनके आय को बढ़ाता है। इसी प्रकार, सामाजिक न्याय अथवा लिंग समानता के लिए सरकार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए नौकरियों में आरक्षण अथवा समान कार्य के लिए समान वेतन का विधान पारित करने की आवश्यकता पड़ सकती है। इसी तरह से न्यूनतम मजदूरी से नीचे भुगतान अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए, यदि सभी नियोजित श्रमिकों के लिए न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना सामाजिक उद्देश्य है।

इस इकाई में हम अपना ध्यान तीन प्रकार के विधानों पर केन्द्रित करेंगेय (क) नियोजन संबंधी कानून (ख) मजदूरी और प्रसुविधाओं से संबंधित कानून, और (ग) औद्योगिक विवाद कानून । यहाँ यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि भारत में श्रम समवर्ती सूची में सम्मिलित है। इसका अभिप्राय यह है कि यह राज्यों और केन्द्र दोनों के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत हैं। अतएव, प्रायः सभी केन्द्रीय अधिनियमों का तद्नुरूपी राज्य स्तरीय अधिनियमों द्वारा अनुसरण किया जाता है, जो अनिवार्य रूप से उन्हें अधिक व्यवहृत (वचमतंजपवदंस) और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप संवेदनशील बनाता है। हमारी चर्चा मुख्य रूप से केन्द्रीय अधिनियमों तक ही सीमित रहेगी।

बोध प्रश्न 1
1) औद्योगिक उत्पादन संगठित करने के लिए हमें विधानों की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
2) औद्योगिक विधान के लिए दक्षता तर्क की विवेचना कीजिए?